1. प्रकृति के आधार पर दी गयी परिभाषाएँ
प्रकृति के आधार पर दी गयी परिभाषाओं को निम्न तीन भागों में बाँटा जा सकता है -
2. वर्णनात्मक या कार्यवाहक परिभाषाएँ।
3. वैधानिक परिभाषाएँ।
1. सामान्य स्वीकृति पर आधारित परिभाषाएँ
सामान्य स्वीकृति पर आधारित परिभाषाओं में मार्शल, कीन्स, रॉबर्टसन, एली, सैलिगमेन, पीगू आदि अर्थशास्त्रियों की परिभाषाएँ आती हैं । इन अर्थशास्त्रियों द्वारा दी गयी परिभाषाएँ निम्नानुसार हैं
- प्रो. मार्शल के अनुसार - मुद्रा के अन्तर्गत वे समस्त वस्तुएँ सम्मिलित की जाती हैं, जो किसी समय अथवा किसी स्थान में बिना संदेह या विशेष जाँच-पड़ताल के वस्तुओं तथा सेवाओं के खरीदने और खर्च चुकाने के साधन के रूप में सामान्यतः प्रचलित रहती हैं।
- प्रो. कीन्स के अनुसार -मुद्रा वह वस्तु है, जिसके द्वारा ऋण संविदा एवं मूल्य संविदा का भुगतान किया जाता है एवं जिसके रूप में सामान्य क्रय-शक्ति का संचय किया जाता है।
- रॉबर्टसन के शब्दों में - मुद्रा वह वस्तु है, जो वस्तुओं के मूल्य के अन्य व्यापारिक दायित्वों के भुगतान में व्यापक रूप से स्वीकार की जाती है।
- एली के अनुसार - मुद्रा के अन्तर्गत वे समस्त वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं, जिन्हें समाज में सामान्य स्वीकृति प्राप्त हो।
- सैलिगमेन के शब्दों में - मुद्रा वह वस्तु है जिसे सामान्य स्वीकृति प्राप्त हो।
- प्रो. पीगू के अनुसार - वह वस्तु जिसको विस्तृत क्षेत्र में विनिमय माध्यम के रूप में सामान्य स्वीकृति प्राप्त हो और अधिकांश लोग उसे वस्तुओं की सेवाओं के भुगतान के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, उसे मुद्रा कहते हैं ।
उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि इस वर्ग की परिभाषाओं ने मुद्रा की सामान्य स्वीकृति अथवा सर्वग्राह्यता पर अधिक जोर दिया है।
मुद्रा की ये परिभाषाएँ स्पष्ट एवं सरल हैं, जो मुद्रा के रूप को संक्षेप में प्रकट करती हैं। इन परिभाषाओं के अन्तर्गत चेक, बिल, ड्राफ्ट आदि भी मुद्रा के अन्तर्गत आ जाते हैं। क्योंकि विकसित देशों में भी चेक आदि का प्रयोग सुविधा के लिए किया जाता है।
चेक बैंक जमा के प्रतिनिधि मात्र ही होते हैं। फिर भी इन्हें साख मुद्रा के रूप में माना जाता है [इस प्रकार, 'मुद्रा वह वस्तु है जिसको विनिमय के माध्यम, मूल्यमापक, ऋणों के भुगतान तथा मूल्य संचय के रूप में व्यापक क्षेत्र में स्वतंत्र एवं सामान्य स्वीकृति प्राप्त हो ।
2. वर्णनात्मक या कार्यवाहक परिभाषाएँ
वर्णनात्मक या कार्यवाहक पर आधारित परिभाषाओं में क्राउधर, कॉलबोर्न, ह्विटलसी, नोगारो, ट्रेस्कॉट, वाकर, प्रो. कौल टॉमस आदि अर्थशास्त्रियों की परिभाषाएँ आती हैं । इस वर्ग की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नांकित हैं
- क्राउथर के शब्दों में - मुद्रा वह वस्तु है, जो विनिमय के माध्यम के रूप में सामान्यतः स्वीकार्य होती है तथा जो मूल्यमापन एवं मूल्य संचय का कार्य करती हो।
- कॉलबोर्न के अनुसार - मुद्रा वह है, जो मूल्य मापक और भुगतान का साधन है ।
- व्हिटलसी के शब्दों में - यदि कोई वस्तु विशेष मूल्य निर्धारण करने में, वस्तुओं तथा सेवाओं के आदानप्रदान करने तथा अन्य मौद्रिक कार्य करने के लिए सामान्य रूप से काम में लाई जाती है तो वह मुद्रा ही है, चाहे इसकी वैधानिक या भौतिक विशेषताएँ कुछ भी क्यों न हो।
- नोगारो के शब्दों में - मुद्रा वह वस्तु है जो विनिमय के माध्यम और मूल्य के सामान्य मापक के रूप में कार्य करती है।
- ट्रेस्कॉट के अनुसार - मुद्रा का कार्य करने वाली प्रत्येक वस्तु चाहे वह धातु, सिक्का, सिगरेट अथवा सीपियों की माला ही क्यों न हो, मुद्रा है।
- वाकर के अनुसार - मुद्रा वह वस्तु है जो वस्तुओं के मूल्य अथवा ऋणों के भुगतान में स्वतंत्रतापूर्वक हस्तांतरित होती रहती है, जो भुगतानकर्ता के चरित्र या साख का पता लगाये बिना ही स्वीकार की जाती है और जो इसे प्राप्त करता है वह इसका उपयोग स्वयं नहीं करके किसी न किसी समय विनिमय द्वारा स्थानांतरित कर देता है।
उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि इन परिभाषाओं में मुद्रा के कार्यों का वर्णन किया गया है, इनमें मुद्रा क्या है ? इसका उत्तर मुद्रा के कार्यों के वर्णन द्वारा दिया गया है । इस प्रकार स्पष्ट है कि ये विचार मुद्रा के कार्यों का वर्णन करते हैं, मुद्रा की परिभाषा प्रस्तुत नहीं करते हैं।
इसके साथ ही इनमें मुद्रा की प्रमुख विशेषताओं जैसे - सर्वग्राह्यता, जनता के विश्वास आदि पर ध्यान नहीं दिया गया है । इन परिभाषाओं ने मुद्रा की वैधानिक मान्यताओं को कोई महत्व नहीं दिया है, जबकि इस विशेषता पर ध्यान रखना आवश्यक है।
मुद्रा की वैधानिक परिभाषाएँ मुद्रा के राज्य सिद्धान्त' पर आधारित हैं इसलिए इनको वैधानिक परिभाषा कहते हैं । सामान्य स्वीकृति तथा वर्णनात्मक परिभाषाओं में प्रमुख दोष यह है कि इनमें मुद्रा की वैधानिक मान्यता को कोई महत्व नहीं दिया गया है। लेकिन आधुनिक युग में कोई भी वस्तु सरकारी स्वीकृति के बिना मुद्रा के रूप में स्वीकार नहीं की जाती है।
अतः वैधानिक दृष्टिकोण से भी मुद्रा की परिभाषा दी जाती है। इस प्रकार किसी भी देश में वही वस्तु मुद्रा मानी जा सकती है जिसे सरकार ने मुद्रा घोषित किया हो। इस मत के प्रतिपादकों में जर्मनी के प्रो. नैप तथा ब्रिटिश अर्थशास्त्री प्रो. हाट्रे प्रमुख हैं।
नैप के अनुसार - कोई भी वस्तु जो राज्य द्वारा मुद्रा घोषित की जाती है, मुद्रा कहलाती है।
प्रो. हाट्रे ने, मुद्रा को विधिग्राह्य स्वीकार करने के साथ ही उसे लेखे की इकाई भी माना है जिसका अर्थ ऐसी इकाई है, जिसमें सभी प्रकार की कीमतों का हिसाब रखा जाए।
वर्तमान में मुद्रा के चलन को दृष्टि में रखते हुए नैप की परिभाषा उचित प्रतीत होती है, क्योंकि आजकल मुद्रा का चलन सरकार का ही दायित्व है । राज्य की स्वीकृति समाप्त होते ही मुद्रा का महत्व समाप्त हो जाता है ।
नैप की परिभाषा की आलोचना - नैप की परिभाषा की आलोचना दो कारणों से की गई है
1. आलोचकों के अनुसार, ऐतिहासिक दृष्टिकोण से नैप की परिभाषा तथ्यपूर्ण नहीं है। क्योंकि पूर्व में समाज द्वारा ऐसी वस्तुओं को मुद्रा स्वीकार किया गया है। जिन्हें राज्य द्वारा घोषित नहीं किया गया था। यह भी आवश्यक नहीं है कि राज्य द्वारा घोषित वस्तु सदैव मुद्रा का कार्य करती रहे।
2. दूसरी आलोचना इस आधार पर की गई है कि यदि हम नैप की परिभाषा के अनुसार मुद्रा की स्वीकृति राज्य द्वारा अनिवार्य मान लें तो विनिमय का आवश्यक गुण समाप्त ही हो जायेगा।
2. विस्तार के आधार पर दी गयी परिभाषाएँ
इस वर्ग की परिभाषाओं में उन परिभाषाओं को सम्मिलित किया जाता है जो मुद्रा के क्षेत्र को या तो अत्यन्त संकुचित बना देती हैं या विस्तृत कर देती हैं । कुछ ऐसी भी परिभाषाएँ हैं जो मुद्रा के क्षेत्र को न तो संकुचित, न विस्तृत करती हैं बल्कि उचित स्थान प्रदान करती हैं। इस वर्ग में सम्मिलित परिभाषाओं को निम्न प्रकार प्रस्तुत किया गया है -
1. उचित दृष्टिकोण वाली अथवा आधुनिक विचारधारा की परिभाषा
इस विचारधारा के अनुसार, धातु के सिक्कों और कागज के नोटों को ही मुद्रा में शामिल किया गया है। प्रो. मार्शल एवं प्रो. एली इसके मुख्य समर्थक हैं।
प्रो. मार्शल के अनुसार - मुद्रा में उन सभी वस्तुओं का समावेश होता है, जो किसी भी समय या स्थान में बिना किसी संदेह के और बिना किसी जाँच-पड़ताल के वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदने और भुगतान करने के साधन के रूप में स्वीकृत की जाती हैं।
प्रो. एली के अनुसार, “मुद्रा ऐसी वस्तु है, जो विनिमय के माध्यम के रूप में हस्तांतरित होती है और ऋणों के अंतिम भुगतान के रूप में सामान्य रूप से ग्रहण की जाती है।
उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट है कि ऐसी वस्तु मुद्रा हो सकती है जिसे विनिमय के माध्यम एवं ऋणों के अंतिम भुगतान के रूप में सामान्य स्वीकृति प्राप्त हो। इस आधार पर हम साख-पत्रों जैसे-चेक, विनिमय - पत्र, आदि को मुद्रा के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। इस प्रकार केवल धातु के सिक्कों एवं कागजी मुद्रा को ही मुद्रा में शामिल किया जाता है।
2. संकुचित दृष्टिकोण की परिभाषाएँ
रॉबर्टसन तथा उनके समर्थकों का यह विचार है कि “विस्तृत क्षेत्र में भुगतान के लिए स्वीकार की जाने वाली वस्तु मुद्रा है,” स्वर्ण एक ऐसी वस्तु है जिसे संसार के सब देश भुगतान के बदले स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। ऐसी स्थिति में स्वर्ण अथवा चाँदी से बनी हुई मुद्राओं को ही मुद्रा की परिभाषा में लिया जा सकता है, अतः केवल धातु-मुद्रा को मुद्रा मानना संकुचित दृष्टिकोण का उदाहरण है।
3. अति उदार दृष्टिकोण वाली परिभाषाएँ
वहीं दूसरी ओर हार्टले विदर्स, ट्रेस्कॉट आदि उन सब वस्तुओं को मुद्रा का दर्जा देने को तैयार हैं। जो मुद्रा का कार्य करे। इस दृष्टि से चेक, ड्राफ्ट, हुण्डी आदि साखपत्र तो मुद्रा हैं ही, अल्पविकसित क्षेत्रों में नारियल, सीप जैसी अनेक वस्तुओं को भी मुद्रा का पद दे दिया गया है।
यह दृष्टिकोण सीमित रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। चेक, बिल, हुण्डी आदि साखपत्र भुगतान के लिए तो उचित माध्यम हैं। किन्तु उनका संग्रह नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार अन्य वस्तुओं को भी भविष्य में प्रयोग के लिए संग्रह करना कठिन है। अतः उन्हें मुद्रा मानना उचित नहीं है।
मुद्रा की उचित परिभाषा
मुद्रा की उपर्युक्त सभी परिभाषाओं पर विचार करने के पश्चात् यदि मुद्रा के सही स्वरूप की जानकारी उसकी परिभाषा से करनी हो तो उसकी निम्न परिभाषा श्रेष्ठ कही जा सकती है – मुद्रा ऐसी वस्तु है जिसे विस्तृत रूप में विनिमय के माध्यम, मूल्य के मापक, ऋणों के अंतिम भुगतान तथा मूल्य के संचय के साधन के रूप में स्वतंत्र एवं सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है।