Ad Unit

राजस्व का अर्थ और परिभाषा - rajswa ka arth or paribhasha

राजस्व का अर्थ एवं परिभाषाएँ

राजस्व' शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- राजन् + स्व। जिसका शाब्दिक अर्थ है। ‘राजा का धन। राजनैतिक दृष्टि से राजा को समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला मुखिया माना जाता है, अतः राजनीतिक दृष्टि से राजस्व का अर्थ समाज के मुखिया अर्थात् राजा के धन से है। 

जिसके अन्तर्गत हम यह अध्ययन करते हैं कि राजा धन कहाँ से और किस प्रकार से प्राप्त करता है तथा उस धन को किस प्रकार से खर्च करता है। इस प्रकार राजस्व में हम सरकार के आय-व्यय एवं इसके द्वारा लिए जाने वाले ऋण का अध्ययन करते हैं।

राजस्व को 'लोकवित्त' भी कहते हैं। लोकवित्त भी दो शब्दों लोक + वित्त से मिलकर बना है। लोक का अर्थ जन समूह से लिया जाता है, जबकि 'वित्त' का अर्थ मुद्रा से लिया जाता है । इस प्रकार जन समूह में वे सार्वजनिक संस्थाएँ आती हैं। जो जनता के प्रतिनिधि के रूप में काम करती हैं। 

इसमें केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारें, नगरपालिका, नगर निगम, ग्राम पंचायतें आदि शामिल होती हैं। इस प्रकार लोकवित्त में उक्त सार्वजनिक संस्थाओं की वित्तीय व्यवस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।

राजस्व की परिभाषाएँ 

राजस्व की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नांकित हैं -

1. डॉल्टन के अनुसार - राजस्व का सम्बन्ध लोक सत्ताओं की आय एवं व्यय से तथा इन दोनों के पारस्परिक समायोजन से है। 

2. बैस्टेबल के अनुसार - राजस्व राज्य की लोक सत्ताओं के व्यय और आय, उनके पारस्परिक सम्बन्ध तथा वित्तीय प्रशासन एवं नियंत्रण से सम्बन्ध रखता है। 

3. फिण्डले शिराज के अनुसार - राजस्व ऐसे सिद्धांतों का अध्ययन है, जो कि सार्वजनिक सत्ताओं के व्यय एवं कोषों की प्राप्ति से सम्बन्धित है।

4. प्रो. टेलर के अनुसार - सरकारी संस्था के अर्न्तगत संगठित रूप में जनता के वित्त का व्यवहार ही राजस्व है। इसमें केवल सरकारी वित्त का अध्ययन किया जाता है। 

लोकवित्त की उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि इसके अन्तर्गत विभिन्न सरकारों जैसे- केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय संस्थाओं के आय-व्यय का अध्ययन किया जाता है। वर्तमान समय में सरकार के कार्यों में तेजी से वृद्धि हो रही है, अतः लोकवित्त के अन्तर्गत आय-व्यय के अध्ययन के साथ-साथ सार्वजनिक ऋण, वित्तीय प्रशासन, वित्तीय नियंत्रण, संघीय वित्त आदि का अध्ययन किया जाता है।

राजस्व का क्षेत्र 

राजस्व के सम्पूर्ण क्षेत्र अथवा विषय-सामग्री को निम्नलिखित पाँच भागों में विभाजित किया गया है

1. सार्वजनिक व्यय - प्रो. टेलेहन के अनुसार, “सार्वजनिक व्यय राजस्व का उसी प्रकार से एक अंग है। जिस प्रकार उपभोग अर्थशास्त्र का सार्वजनिक कल्याण के सभी कार्य सार्वजनिक व्यय द्वारा होते हैं। सार्वजनिक व्यय से आर्थिक विकास, धन के समान वितरण, सामाजिक सुरक्षा पर खर्च की जाने वाली राशि की मात्रा और उसकी कार्यविधि से निर्धारित होते हैं। जो आर्थिक कल्याण को बढ़ाते हैं। 

2. सार्वजनिक आय - सरकार सार्वजनिक व्यय के लिए विभिन्न स्रोतों से आय प्राप्त करती है। कर सरकार के आय का मुख्य स्रोत हैं, अतः सरकार के करारोपण में करों के प्रभाव, कर के सिद्धांतों, कर भार, कर विवर्तन, करदान क्षमता आदि का अध्ययन किया जाता ऋण प्रशासन नीति एवं स्थिरता।

3. सार्वजनिक ऋण - वर्तमान समय में सरकार के सम्पूर्ण कार्यों को सम्पन्न करने के लिए उसकी सार्वजनिक आय कम पड़ती है। आय से व्यय अधिक होने पर सरकार ऋण लेती है। सार्वजनिक ऋण आंतरिक एवं विदेशी भी हो सकता है । सार्वजनिक ऋण में ऋण के स्रोत, सिद्धांत, प्रभाव, उनके भुगतान आदि का अध्ययन किया जाता है।

4. वित्तीय प्रशासन - सरकार की विभिन्न क्रियाएँ, जैसे- सार्वजनिक आय, सार्वजनिक व्यय, सार्वजनिक कल्याण आदि की क्रियाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिए योग्य और निपुण प्रशासन तंत्र की आवश्यकता होती है। प्रशासन तंत्र बजट बनाने, आय-व्यय का हिसाब साफ रखने, अंकेक्षण कराने, जनता को सूचना देने का काम करता है। इस प्रकार वित्तीय प्रशासन तंत्र वित्त स्वीकृत कराने, खर्च करने, उस पर निगरानी रखने का काम करता है।

5. राजकोषीय नीति एवं आर्थिक स्थिरता – आधुनिक समय में देश में आर्थिक स्थिरता लाने के लिए राजकोषीय नीति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इस नीति को सन् 1930 की महामंदी के बाद से सतत् महत्व दिया जाता रहा है। इस नीति के माध्यम से आर्थिक संतुलन, निजी क्षेत्र पर नियंत्रण, तेजी एवं मंदी पर रोक, साधनों के न्यायोचित वितरण, उत्पादन स्तर में वृद्धि, एकाधिकारी प्रवृत्ति पर नियंत्रण करके आर्थिक कल्याण को बढ़ाया जाता है।

राजस्व की प्रकृति

राजस्व की प्रकृति का अर्थ है - यह जानना कि यह विज्ञान है अथवा कला या दोनों । चूँकि अर्थशास्त्र को विज्ञान एवं कला दोनों ही माना गया है तथा राजस्व अर्थशास्त्र के अध्ययन का एक विभाग है। इस स्थिति में राजस्व भी विज्ञान और कला दोनों ही है। हम राजस्व को स्वतंत्र विज्ञान मानकर उसकी प्रकृति की विवेचना निम्नानुसार कर सकते हैं। 

लोकवित्त विज्ञान है - जब ज्ञान की किसी भी शाखा का अध्ययन क्रमबद्ध रूप में किया जाता है। तो वह विज्ञान कहलाता है। इस दृष्टि से लोकवित्त भी विज्ञान है। क्योंकि लोकवित्त का अध्ययन सार्वजनिक आय, सार्वजनिक व्यय, सार्वजनिक ऋण आदि के रूप में व्यवस्थित ढंग से किया जाता है। इसी के आधार पर इसके नियमों का प्रतिपादन किया जाता है। प्रो. प्लेहन ने लोकवित्त को विज्ञान मानने के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये हैं -

1. वैज्ञानिक नियम - अन्य विज्ञानों की तरह राजस्व का क्रमबद्ध अध्ययन वैज्ञानिक नियमों को ध्यान में रखकर किया जाता है।

2. पूर्वानुमान - अन्य विज्ञानों की तरह राजस्व के अध्ययन में वस्तु स्थिति की विवेचना करके उसके संबंध में पूर्वानुमान लगाया जाता है।

3. स्वयं के नियम - अन्य विज्ञानों की तरह राजस्व के अपने सर्वव्यापी एवं सर्वकालीन नियम हैं, जैसे- अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त, आय एवं व्यय तथा ऋण के सिद्धांत आदि।

4. कल्पना करना - राजस्व द्वारा किसी भी प्रकार की वस्तु स्थिति के बारे में निश्चित रूप से विवेचन करके उसके सम्बन्ध में पूर्वानुमान लगा सकते हैं।

5. मानवीय ज्ञान से सम्बन्ध - राजस्व का सम्बन्ध किसी निर्जीव पदार्थ से न होकर मानवीय ज्ञान के एक विशेष क्षेत्र से होता है, इसीलिए यह विज्ञान है।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि राजस्व एक विज्ञान है। विज्ञान भी दो प्रकार के होते हैं। वास्तविक विज्ञान तथा आदर्श विज्ञान। वास्तविक विज्ञान में हम केवल 'वस्तु स्थिति' का अध्ययन करते हैं। इसमें केवल यह बताया जाता है कि 'यह क्या है ?  

इस प्रकार वास्तविक विज्ञान रोग के बारे में तो बताता है, लेकिन उसके उपचार की व्याख्या नहीं करता, इसके विपरीत आदर्श विज्ञान इस बात की व्याख्या करता है कि 'क्या होना चाहिए' ? राजस्व में विज्ञान के इन दोनों पहलुओं अर्थात् वास्वतिक तथा आदर्श का अध्ययन किया जाता है। करारोपण के नियम, सार्वजनिक व्यय के सिद्धांत आदि वास्तविक विज्ञान के उदाहरण हैं, जबकि आर्थिक मंदी के समय राजकोषीय नीति कैसी होनी चाहिए ? आदर्श विज्ञान के उदाहरण हैं।

राजस्व कला है - कला का आशय, किसी विज्ञान के प्रयोगात्मक रूप से है। किसी बात का ज्ञान तो विज्ञान है और यदि उस ज्ञान का प्रयोग किया जाता है तो वह कला कहलाती है, अतः किसी कार्य को करने के लिए व्यावहारिक नियमों की व्याख्या करना ही कला है।

राजस्व को कुछ विद्वानों ने कला माना है। जब कर लगाये जाते हैं, तो प्रगतिशील सिद्धांत का अनुसरण करते हुए इस बात को ध्यान में रखा जाता है कि समाज का त्याग न्यूनतम हो । इसी प्रकार सार्वजनिक आय को इस प्रकार व्यय करने का प्रयास किया जाता है कि सामाजिक कल्याण अधिकतम हो सके। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि राजस्व विज्ञान एवं कला दोनों ही है।

Related Posts