तुलनात्मक राजनीति की परिभाषा tulnatmak rajniti ki paribhasha

प्रत्येक विषय का वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए उसको तुलनात्मक अध्ययन की कसौटी पर कसना पड़ता है। अतः यह कहना कदापि गलत न होगा कि तुलनात्मक अध्ययन के अभाव में किसी भी विषय की वैज्ञानिक व्याख्या करना पूर्णतया असम्भव है। ठीक यही बात राजनीति के अध्ययन पर लागू होती है। 

अतः तुलनात्मक विश्लेषण वैज्ञानिक विधि की एक अनिवार्य आवश्यकता है। जे. सी. जौहरी ने इसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए ठीक ही कहा है कि शक्ति संघर्ष में लिप्त विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं के अनुभववादी अन्वेषण के क्षेत्र में यह सृजनात्मक तथा सम्बर्द्धनात्मक आधार प्रस्तुत करता है।

तुलनात्मक राजनीति की परिभाषा एवं क्षेत्र की विवेचना कीजिए।

वर्तमान आधुनिक युग में तुलनात्मक विश्लेषण पद्धति का राजनीतिशास्त्र में विशेष महत्त्व है। यहाँ तक कि तुलनात्मक राजनीति को एक अलग विषय मानकर अब उसका अध्ययन किया जाता है।

(1) तुलनात्मक राजनीति का इतिहास - वर्तमान समय में तुलनात्मक राजनीति को आधुनिकतम विषयों की श्रेणी में स्थान दे दिया गया है, परन्तु फिर भी इसकी प्राचीनता को चुनौती अब भी नहीं दी जा सकती है। वास्तव में तुलनात्मक राजनीति नामक विषय भी उतना ही पुराना है, जितना पुराना स्वयं राजनीतिशास्त्र है। 

सर्वप्रथम राजनीतिशास्त्र के जनक अरस्तू ने यूनान में बहुत से संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन कर वैज्ञानिक विधि का शुभारम्भ किया था। इसके बाद अनेक सुप्रसिद्ध विद्वानों ने इस विधि के विकास में अपना-अपना योगदान दिया है, जिनमें सिसरो, मैकियावेली, मॉण्टेस्क्यू, मार्क्स आदि के नाम प्रमुख हैं। 

इन विद्वानों तथा अन्य राजनीतिशास्त्रियों के महान् प्रयत्नों से यह विषय निरन्तर विकास करता चला गया। अतः इस विषय की प्राचीनता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि राजनीतिक व्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन, उनका अनेक प्रकार से किये वर्गीकरण आदि के माध्यम से सदैव श्रेष्ठ एवं श्रेष्ठतर शासनतन्त्र की व्याख्या करने की दिशा में सदैव ही प्रयत्न किया जाता रहा है। 

सुप्रसिद्ध राजनीति लेखक की मान्यता तो यहाँ तक है कि अपनी अनेक विकसित मान्यताओं के बावजूद वर्तमान तुलनात्मक राजनीति के होते हुए भी राजनीतिशास्त्री अभी भी बहुत से प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम नहीं हैं। ।

अतः नवीनतम प्रारूप में विकसित तुलनात्मक राजनीति निश्चय ही एक गौरवशाली ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रखती है, जिसके विकास में अनेक महान् राजनीति लेखकों एवं दार्शनिकों ने अपना योगदान दिया है।

(2) तुलनात्मक राजनीति का अर्थ-तुलनात्मक राजनीति के अर्थ के सम्बन्ध में प्राचीन धारणा में न केवल बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया है, अपितु यह कहना कहीं अधिक उपयुक्त होगा कि इस सम्बन्ध में प्राचीन समय का दृष्टिकोण अब पूर्णतया बदल चुका है।

प्राचीन एवं नवीन धारणाओं पर प्रकाश डालते हुए सुप्रसिद्ध लेखक आर. सी. मैक्रीडीस ने लिखा है, “तुलनात्मक राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन केवल नाम से ही तुलनात्मक रहा है अब तक यह केवल विदेशी सरकारों, इनके ढाँचे तथा औपचारिक संगठन का ऐतिहासिक, वर्णनात्मक और वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन रहा है। 

जबकि तुलनात्मक राजनीति को सिद्धान्तों, ढाँचों और वास्तविक व्यवहार से भी अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहिये।" अपने इस कथन में विद्वान लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि तुलनात्मक राजनीति से सम्बद्ध प्राचीन दृष्टिकोण केवल विदेशी सरकारों की तुलना तथा इनके वर्गीकरण एवं श्रेष्ठ शासन व्यवस्था के निर्धारण तक ही सीमित था, परन्तु वर्तमान आधुनिक युग में इसका अर्थ निश्चित ही बदल गया है। 

अब इस विषय में राजनैतिक सिद्धान्तों, आदर्शों, आकारों एवं व्यवहार आदि का भी अध्ययन किया जा सकता है। पहले इन विषयों को 'गैर-राज्यीय' की संज्ञा दी जाती थी, परन्तु अब यह समस्त विषय इस तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन की सीमाओं के अन्तर्गत आते हैं। 

अतः तुलनात्मक राजनीति के प्राचीन और नवीन अर्थों में उतना ही अन्तर आ गया है, जितना कि पूरब और पश्चिम में है। अब यह विषय अत्यन्त ही विस्तृत एवं व्यापक हो गया है। 

तुलना करने के लिए आँकड़े एकत्र करना, विधि-निर्माण के साथ-साथ विधियों, कानूनों के प्रयोग के सम्बन्ध में अध्ययन करना, विभिन्न राजनीतिक दलों एवं दबाव समूहों का अध्ययन करना एवं संवैधानिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करना इसमें सम्मिलित है। 

सुप्रसिद्ध राजनीतिक लेखक सिडनी ने इस सम्बन्ध में अपने विचारों को प्रकट करते हुए लिखा है कि “केवल वर्णन से आगे बढ़कर अधिक सैद्धान्तिक रूप से सम्बन्धित समस्याओं की ओर देखिये, किसी एक मामले से आगे बढ़कर अनेक मामलों की तुलना की ओर देखिए। 

सरकार की औपचारिक संस्थाओं के अध्ययन से आगे बढ़ते हुए राजनीतिक प्रक्रियाओं और राजनीतिक कार्यों की ओर देखिए तथा केवल पश्चिमी यूरोपीय देशों का अध्ययन न करके एशिया और अफ्रीका एवं लैटिन अमेरिका के नये राष्ट्रों की ओर देखिये ।

इस विषय पर और अधिक प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा है, "उसे उन विषयों का अध्ययन भी एक विशिष्ट तरीके से करना होता है जो अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और मानवशास्त्र के क्षेत्र में आते हैं। अतः तुलनात्मक राजनीति के वर्तमान आधुनिक अर्थ में निश्चय ही बहुत बड़ा परिवर्तन आया है, जिसके कारण अब इसका क्षेत्र पहले से कहीं अधिक विशाल एवं विस्तृत हो गया है।

(3) तुलनात्मक राजनीति की परिभाषा - उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि तुलनात्मक राजनीति एक नवीनतम विषय है जिसके विषय-क्षेत्र के सम्बन्ध में अभी निर्णय लेना शेष है, तथापि उसके गौरवशाली अतीत से इन्कार नहीं किया जा सकता। 

ऐसी दशा में बहुत सारे परिवर्तनशील दृष्टिकोणों के रहते हुए इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा का निर्णय यदि असम्भव नहीं तो टेढ़ी खीर अवश्य है। फिर भी, कुछ प्रमुख लेखकों द्वारा प्रस्तुत परिभाषाओं निम्न रूप में दिया गया है। 

1. फ्रीमैन के शब्दों में - तुलनात्मक राजनीति, राजनीतिक संस्थाओं एवं सरकारों के विविध प्रकारों का एक तुलनात्मक विवेचन एवं विश्लेषण है।

2. बबन्ती के शब्दों में - तुलनात्मक राजनीति सामाजिक व्यवस्था में उन तत्त्वों की पहचान और व्याख्या है जो राजनीतिक कार्यों तथा उनके संस्थागत प्रकाशन को प्रभावित करते हैं। 

3. ब्लोनडेल के शब्दों में, “तुलनात्मक राजनीति वर्तमान विश्व में राष्ट्रीय सरकारों प्रतिमानों का अध्ययन है।

4. एम. कार्टिस के शब्दों में - राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक व्यवहार की कार्यप्रणाली से, महत्त्वपूर्ण समानताओं और असमानताओं से तुलनात्मक राजनीति का सम्बन्ध है। 

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर तुलनात्मक राजनीति को परिभाषित करने अथवा इसकी परिभाषा को आधुनिक रूप प्रदान करने की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि राज्य के अन्तर्गत समस्त संस्थाओं एवं राज्य के बाहर अर्थात् विदेशों में स्थित अधिक-से-अधिक शासन-पद्धतियों के तुलनात्मक अध्ययन को ही तुलनात्मक राजनीति का पर्याय माना जा सकता है।

(4) तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति-तुलनात्मक राजनीति की परिभाषा स्पष्ट हो जाने पर उसकी प्रकृति को समझना व व्यक्त करना थोड़ा सुगम व सरल हो जाता है। 

प्रारम्भ में तुलनात्मक राजनीति केवल विभिन्न सरकारों की तुलना मात्र से सम्बन्धित थी परन्तु अरस्तू ने अपने समय के 108 संविधानों की केवल तुलना करके विभिन्न तालिकाओं में वर्गीकरण किया तथा उस समय की उपयुक्त श्रेष्ठ एवं श्रेष्ठतर सरकार को जानने एवं पहचानने की ओर ध्यान दिया। 

यहीं से संविधानों एवं विभिन्न शासन पद्धतियों के वैज्ञानिक अध्ययन का श्रीगणेश हुआ। हेरोडोट्स महोदय के अध्ययन विषय में भी राजनीतिक मूल्यों, विश्वासों, सरकारों में जो विविधताएँ पाई जाती हैं वे सरकारों की तुलना मात्र के परिणामों की ओर संकेत करती हैं। समस्त शासन पद्धति में समान तत्त्वों की खोज करने की दिशा में कोई ध्यान नहीं दिया गया।

आधुनिक युग के प्रारम्भिक प्रयासों के रूप में मुनरो, ऑग व जिंक, हरमन फाइनर और लॉस्की आदि लेखकों के तुलनात्मक राजनीति सम्बन्धी प्रस्तुत किये गये विवरण भी अपने में अपूर्ण व सीमित ही रहे हैं। 

विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं की तुलना हेतु विभिन्न प्रकार के आँकड़े एकत्र करने के प्रयासों का इन लेखकों में पूर्ण अभाव था। इस प्रकार आधुनिक युग की दहलीज पर खड़े इस विषय में वर्तमान तथ्यों का पूर्णतया अभाव रहा, किन्तु अपने आधुनिकतम रूप में यह विषय अब केवल तुलना तक ही सीमित न होकर पहले से बहुत अधिक विस्तृत हो गया है।

इस विषय को अधिकाधिक विस्तृत एवं व्यापक बनाने का श्रेय जहाँ तक राजनीतिक संस्थाओं, व्यवस्थाओं एवं मान्यताओं के उदय को है वहाँ राजनीतिज्ञों एवं लेखकों द्वारा तुलना हेतु आँकड़े प्रस्तुत करना, उनका वर्गीकरण करना, समान तथ्यों का निरूपण करना आदि के साथ-साथ अध्ययन क्षेत्र को एशिया एवं अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों तक विस्तृत करना भी इसमें सम्मिलित है। 

इस विषय पर प्रकाश डालते हुए आर. सी. मैक्रीडिस ने ठीक ही लिखा है कि “तुलनात्मक राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन अब तक नाम से तुलनात्मक रहा है। 

अब तक यह केवल विदेशी सरकारों, उनके ढाँचे तथा औपचारिक संगठन का ऐतिहासिक, वर्णात्मक, वैधानिक अध्ययन ही रहा है, जबकि तुलनात्मक राजनीति को सिद्धान्तों, ढाँचों और वास्तविक व्यवहार से भी अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहिये ।

अपने आधुनिक रूप में तुलनात्मक राजनीति केवल तुलना ही नहीं, अपितु राजनीतिक प्रक्रिया के सिद्धान्तों एवं नवीन राजनीतिक प्रयत्नों की ओर भी संकेत करती है। उसकी इस प्रवृत्ति पर प्रकाश डालते हुए डेविस तथा लेविस ने लिखा है कि आधुनिक राजनीतिशास्त्रियों का दावा है कि उन्होंने राजनीतिक प्रक्रिया के सिद्धान्तों व प्रतिमानों की ओर प्रथम चरण के रूप में राजनीतिक विश्लेषण के नवीन प्रयत्नों के सुझाव प्रस्तुत किये हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि आज के युग में तुलनात्मक राजनीति केवल विदेशी सरकारों एवं प्रशासनिक पद्धतियों की तुलना तथा उनमें श्रेष्ठतर पद्धति के गुण व अवगुणों का वर्णन मात्र होकर नवीन प्रयत्नों एवं सिद्धान्तों की विवेचना भी करता है। 

(5) तुलनात्मक राजनीति का क्षेत्र - तुलनात्मक राजनीति का क्षेत्र निश्चित नहीं है। यह अभी भी अपने संक्रमण काल से गुजर रहा है। एबन्सटीन के अनुसार - सबसे अधिक आधारभूत बात तुलनात्मक राजनीति के बारे में यह है कि आज यह एक ऐसा विषय है। 

जो कि अत्यधिक विवादास्पद है। क्योंकि यह संक्रमण स्थिति में है - एक प्रकार की विश्लेषण शैली से दूसरे प्रकार की शैली में प्रस्थान कर रहा है।

यद्यपि इसका विषय-क्षेत्र विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी इसके विषय-क्षेत्र में निम्नलिखित बातों को विशेष रूप से सम्मिलित किया जा सकता है। 

(i) संविधान द्वारा स्थापित राजनीतिक व्यवहार - वैधानिक दृष्टिकोण के अनुसार इसके क्षेत्र में केवल संविधान द्वारा स्थापित सरकारी संरचना का तथा संविधान द्वारा निर्धारित किये गये राजनीतिक व्यवहारों का अध्ययन किया जाना चाहिए। 

इसीलिए इसके अनुसार राष्ट्रीय सरकारों के आधार, संविधान और इनके द्वारा निर्यात किये गये कार्यकलापों की ही तुलना होनी चाहिये। दूसरे शब्दों में, तुलनात्मक राजनीति में केवल उसी राजनीतिक व्यवहार की तुलना होनी चाहिये जो संविधान में कानून द्वारा स्थापित राजनीतिक संस्थाओं से सम्बद्ध हो अथवा है। 

(ii) राजनीतिक संस्थाओं के वास्तविक व्यवहार का अध्ययन-व्यवहारवादी दृष्टिकोण के. अनुसार तुलनात्मक राजनीति में केवल कानूनी व्यवस्था की औपचारिक विवेचना तथा तुलना पर्याप्त नहीं है, वरन् राजनीतिक संस्थाओं के वास्तविक व्यवहार का अध्ययन किया जाना चाहिये। जीन ब्लोण्डेल राजनीतिक व्यवहार को आधारभूत तथा मौलिक मानता है। 

व्यवहारवादियों के अनुसार - तुलनात्मक राजनीति में राष्ट्रीय संस्थाओं तथा गैर-राजकीय संस्थाओं के राजनीतिक व्यवहारों को एकत्रित करके विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं में तुलना करनी चाहिये ।

वास्तव में तुलनात्मक राजनीति का विषय-क्षेत्र ‘शासन-क्रिया’ तुलनात्मक विश्लेषण से सम्बद्ध है। स्वयं जीन ब्लोण्डेल के शब्दों में तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में उन तरीकों का जिनसे समाज में मूल्यों का अधिकृत विवरण प्राप्त होता है, परीक्षण किया जाता है । 

(iii) राजनीतिक व्यवहार में मानकों की स्थिति- तुलनात्मक राजनीति में यह भी देखा जाना चाहिये कि राजनीतिक व्यवहार मानकों के अनुकूल है अथवा नहीं। वस्तुतः तुलनात्मक राजनीति में मानकों और व्यवहार के राजनीतिक पहलुओं का भी अध्ययन सम्मिलित होना चाहिये। 

स्वयं जीन ब्लोण्डेल ने लिखा है कि आधारभूत दृष्टि से तुलनात्मक राजनीति का सम्बन्ध सरकार की संरचना से होना चाहिये, पर साथ ही साथ उसका सम्बन्ध व्यवहार के स्पष्ट परिणामों एवं आचरणों से भी होना चाहिये, क्योंकि वह सरकार की जीवित संरचना का अभिन्न अंग है। 

(iv) अन्य शास्त्रों के क्षेत्र से सम्बन्धित विषयों का अध्ययन- तुलनात्मक राजनीति में उन तथ्यों का अध्ययन भी एक विशिष्ट विधि से करना पड़ता है, जो सामान्यतया अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और मानवशास्त्र के क्षेत्र से सम्बन्धित होते हैं। 

वस्तुतः तुलनात्मक राजनीति में संविधान के अतिरिक्त अभिकरणों का अध्ययन भी सम्मिलित होता है, जिनका औपचारिक सरकारी संस्थाओं से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से निकट का सम्बन्ध होता है।

एम. कार्टिस के अनुसार - राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक व्यवहार की कार्यप्रणाली में महत्त्वपूर्ण नियमितताओं, समानताओं और असमानताओं से तुलनात्मक राजनीति का सम्बन्ध है। 

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि तुलनात्मक राजनीति का क्षेत्र यद्यपि अपने संक्रमण काल से गुजर रहा है तथा इसने बहुत कुछ मूर्त रूप में ग्रहण कर लिया है।

राजनीति के तुलनात्मक अध्ययन की उपयोगिता

तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन करना क्यों आवश्यक है ? इसके अध्ययन का क्या महत्व है ? राजनीतिक व्यवस्थाओं और प्रक्रियाओं की तुलना क्यों की जाये ? एक-सी भिन्न-भिन्न राजनीतिक संस्थाओं की तुलनाओं की क्या उपयोगिता है ? 

तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययनों की उपयोगिता बतलाते हुए एम. कर्टिस लिखते हैं : तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन समसामयिक राजनीति विज्ञान का हृदय है । तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन के प्रमुख प्रयोजन अग्र प्रकार हैं -

1. राजनीतिक व्यवहार को समझना – तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन का महत्व इस बात में निहित है कि तुलनात्मक अध्ययन से देश की, बाहर के देशों की तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति व राजनीतिक व्यवहार को समझने में सहायता मिलती है। राजनीति का तुलनात्मक अध्ययन विदेशों में पर्यटन का समाज है। 

इससे विदित होता है कि किस प्रकार विभिन्न समाजों में रहने वाले मनुष्यों का राजनीतिक व्यवहार भिन्न होता है ? राजनीतिक व्यवहार के समुचित अध्ययन से हम सहज ही में इन प्रश्नों का उत्तर पा लेते हैं कि क्यों एक राजनीतिक व्यवस्था और संस्था एक समाज में सफल और अन्य स्थान पर असफल होती है ? क्यों मार्क्सवाद सोवियत संघ में ही सबसे पहले गहरी जड़ें जमा पाया। 

पूर्वी यूरोप तथा सोवियत संघ में मार्क्सवादी व्यवस्था का विघटन क्यों हुआ ? क्यों एशिया और अफ्रीका के अनेक राज्य अधिनायकवादी प्रवृत्तियों से मुक्त हो रहे हैं ? क्यों संसदीय प्रणाली ब्रिटेन में राजनीतिक स्थायित्व ला सकी पर फ्रांस में ऐसा क्यों नहीं कर सकी ?

भारत में लम्बे समय तक एकदलीय प्रभुत्व क्यों बना रहा। इन बातों को समझने के लिए यह जरूरी है कि राजनीतिक व्यवहार की निरन्तरता की खोज की जाये और उसके कारकों का स्पष्टीकरण हो। इसके लिए तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है ताकि राजनीतिक व्यवहार की जटिलताओं को समझा जा सके।

2. राजनीति को वैज्ञानिक अध्ययन बनाना - राजनीतिशास्त्री इस बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि राजनीतिक व्यवहार से सम्बन्धित ज्ञान को विज्ञान का रूप किस प्रकार दिया जाये। इस खोज में तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन अधिकतम उपयोगी है। 

विज्ञान में नियम प्रतिपादन न केवल राजनीतिक प्रक्रियाओं की अनेकता से सम्भव है वरन् परस्पर प्रतिकूल व विविधताओं वाले राजनीतिक आचरण से ही उपलब्ध प्रचुर सामग्री से सम्भव है। तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन इसलिए भी उपयोगी बन जाता है कि विविधता व अनेकतायुक्त राजनीतिक तथ्य व आंकड़े विभिन्न राजनीतिक क्रियाओं की तुलना से प्राप्त हो सकते हैं। 

कार्टिस के अनुसार - जब से व्यवहारवादी दृष्टिकोण का प्रचलन हुआ, तब से आज तक, राजनीतिशास्त्र की वैज्ञानिकता की खोज की आधुनिकतम अभिव्यक्ति हम तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन में ही कर पाते हैं। 

राजनीतिशास्त्र विज्ञान की श्रेणी में केवल तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर ही आ सका है, इसलिए ही शायद अरस्तू के बाद से आज तक श्रेष्ठतम विचारक राजनीति के तुलनात्मक विश्लेषण में संलग्न रहे हैं। 

3. तुलनात्मक अध्ययन द्वारा सिद्धान्त निर्माण - तुलनात्मक अध्ययन से ही किसी विषय में सिद्धान्तों का निर्माण एवं नियमों का निरूपण सम्भव होता है। राजनीति विज्ञान में ऐसे व्यापक सिद्धान्तों की तलाश की जाती रही है जो सम्पूर्ण विश्व के राजनीतिक व्यवहार को मोटे रूप में समझने में सहायता करें।

राजनीतिक सिद्धान्तों को दो भागों में बांटा जाता है- प्रथम, आदर्शमूलक सिद्धान्त  तथा द्वितीय, आनुभविक सिद्धान्त। आदर्शमूलक सिद्धान्तों में राजनीतिक व्यवस्थाओं के बारे में कोई कल्पना मस्तिष्क में कर ली जाती है और फिर उस कल्पना को रचनात्मक रूप दिया जाता है।

प्लेटो की दार्शनिक राजा तथा आदर्श राज्य की कल्पना कुछ ऐसी ही है। इसके विपरीत आनुभविक सिद्धान्तों में राजनीतिक व्यवहार के वास्तविक तथ्यों को समझकर सिद्धान्तों का निर्माण होता है। 

राजनीतिक वैज्ञानिक स्वयं तथ्यों के संकलन के लिए राजनीतिक व्यवहार के क्षेत्र में जाकर राजनीतिक आचरण का अवलोकन करता है और संकलित ठोस तथ्यों के आधार पर 'सिद्धान्त' प्रतिपादित करता है। 

तुलनात्मक राजनीति का आदर्शी सिद्धान्तों के निर्माण में कोई योगदान नहीं हो सकता, परन्तु 'आनुभविक सिद्धान्त' तो केवल इसी के सहारे सम्भव होते हैं क्योंकि यथार्थ राजनीतिक व्यवहार की तुलना करना ही एक तरह से आनुभविक सिद्धान्तों का निर्माण करना है। इस प्रसंग में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि आज राजनीतिक व्यवस्था और ज्ञान के क्षेत्र में आदर्शमूलक सिद्धान्तों का महत्व कम हो गया है और आनुभविक सिद्धान्तों की खोज ही हमारे अध्ययन का लक्ष्य बन गया है। 

तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित कतिपय महत्वपूर्ण सिद्धान्त इस प्रकार हैं-

(i) शासन प्रणाली चाहे संसदात्मक हो अथवा अध्यक्षात्मक, संसद की सम्प्रभुता कभी देखने को नहीं मिलती; (ii) हर देश में नेतृत्व कुछ विशिष्ट वर्गों तक सीमित रहता है; (iii) देश यदि संकट की अवस्था से गुजर रहा हो तो 'सामूहिक नेतृत्व' से काम नहीं चलेगा; (iv) जिन देशों में निर्वाचित सरकारों को प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती, उन देशों की राजनीति में सैनिक हस्तक्षेप की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं; (v) इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि लोकतान्त्रिक शासन-प्रणाली सर्वाधिकारी शासन-व्यवस्था की अपेक्षा ज्यादा सक्षम या कुशल होगी।

4. प्रचलित राजनीतिक सिद्धान्तों की पुनः प्रामाणिकता  - तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन से ही यह नष्कर्ष निकाला जाता है कि अतीत में स्थापित राजनीतिक सिद्धान्त वर्तमान की परिवर्तित परिस्थितियों में भी मान्य हैं या नहीं और ये उचित हैं तो कितने उचित हैं। 

इस प्रकार (लनात्मक राजनीति प्रचलित राजनीतिक सिद्धान्त को पुनः परखने के लिए नवीन करण व नवीनतायुक्त विविध तथ्य उपलब्ध कराती है जिससे उनकी प्रामाणिकता का परीक्षण हो ।

5. तुलनात्मक राजनीति हमें विदेशों में सरकार और राजनीति के क्षेत्र में घटी और प्रभावित घटनाओं का अच्छी प्रकार से वैज्ञानिक और आनुभविक निर्वचन करने में सहायता देती है। 

तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से हम अन्य देशों की राजनीतिक संस्थओं की कार्यप्रणाली के आधार पर अपनी राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन कर सकते हैं।


6. विभिन्न राज्यों की शासन पद्धतियाँ, उनकी ऐतिहासिक व भौगोलिक दशाओं, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक संस्थाओं तथा विचार से निर्धारित होती हैं। तुलनात्मक राजनीति के माध्यम से इस बात का अध्ययन किया जाता है कि शासन पद्धति और विचारधारा का किस देश में कितना गहरा सम्बन्ध है ?

7. शासन पद्धतियों के अध्येताओं को अन्य देशों की राजनीतिक पद्धतियों के अध्ययन से उपयोगी जानकारी प्राप्त होती है। इस जानकारी को तुलनात्मक पद्धति द्वारा व्यवस्थित करके उपयोगी बनाया जा सकता है।

 तुलनात्मक राजनीति की समस्याएँ

तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन में अनेक गम्भीर समस्याएँ हैं। इसकी प्रमुख समस्याओं का विवेचन सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया। 

1. पर्याप्त सूचना का अभाव- ज्याँ ब्लाण्डेल ने अपनी पुस्तक तुलनात्मक शासनकी प्रस्तावना में तुलनात्मक शासन की प्रमुख समस्या, पर्याप्त सूचना का अभाव बताया है। सुविधा की दृष्टि से इसका विवेचन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है। 

(i) तथ्यों तक पहुँचने की सीमाएँ - उनके अनुसार आधुनिक युग में राजनैतिक संस्थाएँ व प्रक्रियाएँ बहुत जटिल हो गयी हैं। फलस्वरूप, व्यवहार में सूचना व तथ्यों को एकत्रित करने में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं। नीति निर्धारकों का व्यवहार गोपनीयता के आवरण में छिपा रहता है।

(ii) आँकड़ों के माप में कठिनाई- यदि पर्याप्त सूचना मिल भी जाए तो तुलनात्मक विश्लेषण में उस सूचना का वैज्ञानिक आधार पर उपयोग करना सरल कार्य नहीं है । उदाहरण के लिए, यदि हम यह जानना चाहें कि विभिन्न देशों के महत्वपूर्ण निर्णयों में विधानमण्डल का प्रभाव कहाँ तक है। तो इसका वैज्ञानिक तथा निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। विधानमण्डल के प्रभाव में कमी के अनेक कारण हो सकते हैं। 

जैसे कि कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि अथवा ऐतिहासिक, सामाजिक क्षेत्रों में परिवर्तन इत्यादि । इसी प्रकार विधानमण्डल के सामने कितने प्रस्ताव रखे गए और कितनों को समर्थन प्राप्त नहीं हुआ इत्यादि प्रश्नों का उत्तर गणित की सहायता से दिया जा सकता है, किन्तु कितने प्रस्तावों को सहज स्वीकार कर लिया गया है-जैसे प्रश्नों का उत्तर सरल नहीं है।

(iii) राजनीतिक घटनाओं की विचित्रता- कुछ संस्थाओं के अद्वितीय स्वरूप के कारण भी तथ्यों के संग्रह में कठिनाई उत्पन्न हो सकती है। ब्रिटेन का प्रधानमन्त्री, अमेरिका का राष्ट्रपति, जर्मनी का चांसलर आदि संस्थाएँ अपने ढंग की ही हैं। 

तुलनात्मक राजनीति का अध्येता यदि इन अद्वितीय संस्थाओं का समावेश अपने अध्ययन में न करे तो उसका अध्ययन अधूरा ही कहा जायेगा। यदि वह इनका समावेश अपने अध्ययन में करता है तो इस प्रकार के अध्ययन को सही अर्थों में तुलनात्मक नहीं कहा जा सकता।

2. पृष्ठभूमि परिवर्त्यो की समस्या-किसी राजनीतिक व्यवस्था को स्थायी अथवा अस्थायी बनाने वाले प्रभाव अथवा किसी राजनैतिक संस्था तथा प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले तत्व परिवर्त्य कहलाते हैं। 

तुलनात्मक राजनीति अध्ययन में इन परिवर्त्यो की समस्या अत्यधिक जटिल है क्योंकि राजनीतिक व्यवहार, हर स्तर पर हर क्षण इनसे प्रभावित होता है। 

राजनीतिक व्यवहार की वास्तविकताओं को समझने के लिए इन पृष्ठभूमि परिवर्त्यो की न केवल जानकारी आवश्यक है, वरन् इनकी पहचान भी जरूरी है, लेकिन इनकी जानकारी व पहचान अनेक निम्न कारणों से कठिन बन जाती है। 

(i) बहुत सारे परिवर्त्यो का होना-परिवर्त्यो के आधिक्य ने राजनैतिक प्रणालियों के तुलनात्मक विश्लेषण को कठिन बना दिया है। इनकी संख्या इतनी अधिक है कि इनकी गिनती करना अत्यधिक कठिन है। 

राजनैतिक क्रिया में हजारों मतदाताओं, प्रशासकों तथा नेताओं का सक्रिय योगदान रहता है। इसके अतिरिक्त राजनैतिक प्रणाली पर आर्थिक एवं जलवायु सम्बन्धी स्थितियाँ, भौगोलिक परिस्थितियाँ तथा ऐतिहासिक घटनाओं का भी प्रभाव पड़ता है। 

कई बार सामाजिक तथा आर्थिक कारक सांस्कृतिक कारकों के साथ इतना घुल-मिल जाते हैं कि किसी निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन हो जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि तुलनात्मक राजनीति में राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करने वाले परिवर्त्यो की अत्यधिक संख्या बहुत बड़ी समस्या है।

(ii) परिवर्त्यो की जटिलता-राजनैतिक व्यवहार को प्रभावित करने वाले परिवर्त्य परस्पर इतने संश्लिष्ट होते हैं कि इनमें से महत्वपूर्ण की पहचान व उनका प्रभाव नाप पाना तुलनात्मक राजनीति की एक प्रमुख समस्या बनी हुई है। 

(iii) परिवर्त्यो के पहचान की कठिनाई- तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में नवीनतम शोध उपकरणों की उपलब्धि के बावजूद अभी तक ऐसा कोई साधन नहीं निकल पाया है। 

जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि अमुक राजनीतिक व्यवहार केवल इस परिवर्त्य के प्रभाव से ही इस प्रकार विशिष्ट बना। इस प्रकार स्पष्ट है कि परिवर्त्यो के पहचान की कठिनाई भी तुलनात्मक राजनीतिक विश्लेषण की एक प्रमुख समस्या है। 

(iv) परिवर्त्यो के माप की कठिनाई- कुछ चरों को सफलतापूर्वक मापा जा सकता है, किन्तु कुछ चर ऐसे भी हैं जिन्हें ठीक-ठीक नहीं मापा जा सकता। प्रमुख रूप से उन चरों का सम्बन्ध मूल्यों, आस्थाओं, मान्यताओं व विश्वासों से है। 

(v) परिवर्त्यो या चरों का बदलता प्रभाव-चरों में एक अनोखापन यह भी है कि एक चर एक-सी परिस्थिति में भी अलग-अलग प्रभाव डालते देखा गया है। इससे इन चरों को भारित करना आवश्यक हो जाता है।

अतः स्पष्ट है कि राजनीतिक व्यवहार की पृष्ठभूमि में चरों की समस्या तुलनात्मक राजनीति में आज भी विशेष जटिलता बनाए हुए है और इसी कारण से अनेक राजनीतिशास्त्रियों ने एक ही देश की व्यवस्था के अध्ययन पर ध्यान केन्द्रित रखना उसे अच्छी तरह से समझने के लिए श्रेष्ठतर माना है।

3. मानकों-संस्थाओं व व्यवहार में अन्तः सम्बन्ध की समस्या - तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन इसलिए भी कठिन हो गया है क्योंकि उसका सम्बन्ध प्रतिमानों तथा संरचनाओं से है।

संविधान में मुख्य रूप से वर्णित प्रतिमानों को व्यावहारिक राजनीति में उतना महत्व नहीं दिया जाता। अतः तुलनात्मक राजनीति के विद्यार्थी के लिए नियम, व्यवहार तथा प्रतिमानों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना कठिन हो जाता है। यह भी सम्भव है कि किसी विशेष प्रतिमान के आधार पर संगठित संरचनाएँ भिन्न-भिन्न प्रकार से कार्य करें। 

उदाहरण के लिए, एक विधानमण्डल कार्यपालिका के लिए सूचना देने का माध्यम भी हो सकता है अथवा समाज में सहमति प्राप्त करने का साधन हो सकता है अथवा निश्चय-निर्माण का प्रमुख साधन भी हो सकता है। 

राजनीतिक व्यवस्था को समझने के लिए राजनीतिक मानकों, राजनीतिक संस्थाओं तथा राजनीतिक व्यवहार से सम्बद्ध पहलुओं की पारस्परिकता का सन्दर्भ रखना होता है, इनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। 

तुलनात्मक राजनीति के विद्यार्थी को इन तीनों में सम्बन्ध स्थापति करने में विशेष कठिनाई होती हैं। यद्यपि सिद्धान्त में ये तीनों परस्पर प्रभावित करते हैं, परन्तु व्यवहार में इन तीनों में कई बार, कई राज्यों में अत्यधिक अन्तर दिखायी देता है और यह अन्तर हर राजनीतिक अभिनेता के परिवर्तन के साथ बदलता दिखायी देता है। इन तीनों का विस्तृत विवेचन तथा इनसे उत्पन्न समस्याओं का विश्लेषण पृथक्-पृथक् बिन्दुओं में किया गया है। 

(i) मानक या मूल्य-मानक या मूल्यों के अन्तर्गत व राजनीतिक दर्शन, मूल्य, मान्यताएँ व आस्थाएँ होती हैं जिन पर किसी समाज की राजनीतिक व्यवस्था आधारित होती है। जब किसी राजनीतिक समाज पर इन्हें जबरदस्ती लाद दिया जाता है तो ये मूल्य तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन में समस्या बन जाते हैं।

- मोटे रूप में मानक तीन प्रकार के होते हैं- (1) स्वाभाविक मानक, या लादे गए मानक, और (3) संवैधानिक मानक । (2) आरोपित

(1) स्वाभाविक मानक वे होते हैं जो किसी राजनैतिक व्यवस्था में स्वतः ही विकसित होते हैं और परम्पराओं के रूप में सर्वमान्य हो जाते हैं। उस राजनैतिक समाज का हर सदस्य दूसरे सदस्य से यह अपेक्षा करता है कि उसका आचरण इन परम्पराओं के अनुरूप हो। ऐसे मानक जहाँ हों, उस समाज में सिद्धान्ततः साम्य रहता है और ऐसी राजनीतिक व्यवस्था तुलनात्मक अध्ययन में विशेष कठिनाई पैदा नहीं करती।

(2) सवैधानिक मानक सामान्यतः उस देश के संविधान में निहित रहते हैं। इन्हें सामान्यतः समाज स्वीकार करता है या जो दबाव साधनों द्वारा स्वीकार कराए जाते हैं। तुलनात्मक राजनीति अध्ययन में ये मानक भी अधिक कठिनाई पैदा नहीं करते, लेकिन जहाँ शक्ति का प्रयोग इन मानकों को कार्यान्वित करने के लिए किया जाता है, वहाँ ये मानक भी तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में समस्या पैदा करते हैं। 

(3) आरोपित या लादे गये मानक तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में सर्वाधिक समस्या पैदा करते हैं, क्योंकि ये मानक राजनीतिक समाज पर जबरदस्ती लाद दिये जाते हैं। 

राजनीतिक आचरण में यहाँ दो रूप दिखायी देते हैं - एक जो ऊपर से दिखायी देता है, जो लाद दिया गया है और दूसरा वह इच्छित आचरण जो इसका विरोधी होता है। तुलनात्मक राजानीति में ऐसे मानक अत्यन्त पेचीदगियाँ उत्पन्न करते हैं।

(ii) राजनीतिक संस्थाएँ - राजनीतिक संस्थाएँ तुलनात्मक राजनीति में आधारभूत मानी जाती हैं, क्योंकि सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में आचरण का इन्हीं द्वारा नियमन होता है। लेकिन मानकों की तरह संस्थाएँ भी तीन प्रकार की होती हैं-

(1) प्राकृतिक या विकसित राजनीतिक संस्थाएँ, (2) आरोपित राजनीतिक संस्थाएँ, और (3) संवैधानिक संस्थाएँ ।

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