बेन्थम का राजनीतिक दर्शन उपयोगिता के सूत्र पर आधारित है जिसमें उसने एक व्यावहारिक निर्देश तथा एक वैज्ञानिक नियम को खोजा है। एक ऐसा सूत्र जो एक ही समय पर यह सूचित करता है कि क्या है और क्या होना चाहिए।
उपयोगितावाद क्या है
वह रिचर्ड कम्बरलैण्ड की मनोवैज्ञानिक व्यवस्था की सराहना करता है जिसने किसी विवेकशील सिद्धान्त के आभ्यांतरिक नैतिक विचारों को नकारा और उसकी जगह सामान्य कल्याण के तत्व को स्वीकार किया हैं।
वह फ्रांसिस हचेसन के विचार की भी प्रशंसा करता है जिसने अपनी रचना Moral Philosophy में कहा कि किसी क्रिया के नैतिक दोष का औचित्य प्रभावित लोगों की संख्या या कल्पना की मात्रा पर आश्रित है।
अतः वही क्रिया सबसे अच्छी है जो अधिकतम लोगों की अधिकतम प्रसन्नता सुनिश्चित करती है। वह प्रीस्टले की रचना 'Essay on Government' से भी प्रेरणा लेता है जिसने यह कहा कि अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख ही वह मानदण्ड है जिसके द्वारा राज्य सम्बन्धी दर्शन का निर्धारण किया जा सकता है।
इसके अलावा, वह ह्यूम से यह शिक्षा लेता है कि नैतिक लक्ष्यों में तर्क की प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग किया जाये । इसलिए वह प्राकृतिक अधिकारों, सामाजिक समझौता तथा तत्वमीमांसक आस्थाओं को अमूर्त बताकर अस्वीकार कर देता है और उपयोगिता, प्रसन्नता व सुविधाजनकता के तर्क पर जोर देता है।
अतः यह स्वाभाविक है बेन्थम के निष्कर्ष पिछली शताब्दियों के सामाजिक समझौतावादियों तथा विवेकवादियों से बिल्कुल भिन्न हैं।
उपयोगितावाद की विशेषताएँ
1. बेन्थम उपयोगिता शब्द को एक नया अर्थ प्रदान करता है। सकारात्मक शब्दावली में इसका अर्थ उस सभी से है जो अच्छा, सुखदायी, लाभकारी, स्वीकार्य, भला या कल्याणकारी है, नकारात्मक शब्दावली में इसका अर्थ उस सबसे है जो दुःखदायी, व्यर्थ, अहितकारी, बुरा या अस्वीकार्य का विलोम है। सादा शब्दों में, उपयोगिता का अर्थ है सुख या लाभ, न कि किसी वस्तु की आवश्यकता को सन्तुष्ट करने की शक्ति जैसा अर्थशास्त्री हमें बताते हैं ।
2. उपयोगिता में प्रेरणादायक शक्ति भरी है अर्थात् मानव की क्रियाएँ सुख व दुःख के तत्वों से प्रभावित होती हैं। प्राचीन यूनान के इपीक्यूरियनवादियों तथा आधुनिक युग में फ्रांस के हेडोनिस्टो की तरह, वह यह मानता है कि मनुष्य अपने स्वभाव से वही करना चाहता है जो उसे सुख या प्रसन्नता देता है या यों कहिये कि वह उस काम से बचना चाहता है जो उसे कष्टदायक होता है।
उसके शब्दों में, “प्रकृति ने मानव जाति को दो सर्वोच्च स्वामियों के तले रखा है-दुःख व सुख । मात्र वही हमें बताते हैं कि हमें क्या करना चाहिये या हम क्या करेंगे। एक ओर सही व गलत का मानदण्ड और दूसरी ओर कारणों व प्रभावों की शृंखला उनके सिंहासन से बँधी हुई है।
हम जो कुछ कहते हैं या जो कुछ सोचते हैं या जो कुछ करते हैं, सभी स्थितियों में हमारे ऊपर उन्हीं का शासन होता है। यदि हम इसे हटाने का कोई प्रयास करते हैं तो उससे इसी तथ्य का प्रमाणीकरण होगा या इसकी पुष्टि होगी।”
3. इससे विदित होता है कि उपयोगिता में बेन्थम मानव मनोविज्ञान का एक अविवादीय तथ्य ढूँढ़ लेता है। मनुष्य जैसा सोचते हैं, करते हैं या आभास करते हैं, वे सदा उसके सुखदायी या दुःखदायी परिणामों से प्रभावित होते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि नैतिक दृष्टि से भी लोग वही करना चाहते हैं जो उन्हें सुख देता है या दुःख से बचाता है।
4. बेन्थम के सिद्धान्त का एक विचित्र लक्षण यह भी है कि वह सुखों व दुःखों का गणितीय सूत्र 'प्रतिपादित करता है अर्थात् उनका गणितीय तरीके से मापन किया जा सकता है। इसका यह मतलब है कि हम सुखों व दुःखों की इकाइयाँ बना सकते हैं और फिर उनका जोड़ करके यह सिद्ध कर सकते हैं कि किस स्थिति में अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख या दुःख निश्चित है।
इस बारे में वह दो शर्तें निर्धारित करता है। प्रथम, यह कि एक व्यक्ति को एक व्यक्ति ही माना जाये, एक से अधिक नहीं। दूसरे, सुखों व दुःखों के बीच गुण का नहीं बल्कि मात्रा या परिमाण का ही अन्तर होता है।
5. चूँकि सुखों व दुःखों के बीच गुणात्मक अन्तर नहीं होता, अतः कविता पढ़ना उतना ही अच्छा है जितना पुशपिन खेलना। बेन्थम यह कहता है कि जो वस्तु एक व्यक्ति को सुख देती है, वह सभी व्यक्तियों को सुख देगी। अन्तर मात्रा या परिमाण का ही हो सकता है, किसी को अधिक सुख तो किसी को कम । ऐसा अन्तर सात तत्वों के कारण होता है।
6. इतना ही नहीं, बेन्थम सुखों व दुःखों के दो और रूप बताता है - सादा व जटिल । सादा सुख वे हैं जो अन्यों में नहीं मिलाये जा सकते (जैसे- इन्द्रियों के सुख, धन, कुशलता, मित्रता, ख्याति, सत्ता, दया, उदारता, स्मृति, कल्पना, आशा, सहायता आदि) लेकिन जटिल सुख वे हैं जिनका अन्यों के साथ मिलान किया जा सकता है।
7. इन्हीं आधारों पर बेन्थम अपना गणितीय मापदण्ड निर्मित करता है। सुखों व दुःखों की इकाइयाँ बना लो फिर उनका जोड़ करो, देखो कि दोनों की क्या स्थिति है। यदि सुख के पक्ष में बहुसंख्या है तो वह उचित क्रिया है, विपरीत स्थिति में वह अनुचित क्रिया है। इसी आधार पर अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख का मापदण्ड लागू किया जा सकता है।
इस प्रकार बेन्थम अपने उपयोगितावाद को प्राचीन यूनान के इपीक्यूरियनवाद से भिन्न कर देता है । इपीक्यूरस ने यह शिक्षा दी कि मनुष्य स्वार्थी है, अतः उसे सदैव अपने सुखों की चिन्ता करनी चाहिए। उसे दूसरों के कष्टों पर कोई ध्यान नहीं देना चाहिए।
यह सिद्धान्त गलत है क्योंकि यदि किसी समाज में सभी लोग अपने-अपने सुखों के कार्य करेंगे, पर दूसरों के कष्टों की परवाह नहीं करेंगे तो परस्पर संघर्ष पैदा होंगे जिनसे सामाजिक जीवन असम्भव हो जायेगा। इसके विपरीत, बेन्थम कहता है कि व्यक्ति को अपने सुखों की खोज करनी चाहिए, साथ .ही दूसरों के कष्टों को ध्यान में रखना चाहिए।
इसीलिए उसने अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख का सूत्र प्रतिपादित किया। यह कहना उचित है कि बेन्थम ने सुखवाद के सिद्धान्त को व्यावहारिक व सार्वभौम रूप प्रदान किया।
Post a Comment
Post a Comment