वर्ण की उत्पत्ति के सिद्धान्त - varn vyavastha kee utpatti ke siddhaant

विश्व में भारतीय समाज का महत्व तथा पहचान संस्कृति के कारण ही होती रही है। प्राचीनकाल से ही अनेक सामाजिक संस्थाओं का उदय होता रहा है। जिसके द्वारा व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती रही तथा समाज में एक ऐसी ही विशिष्ट सामाजिक संस्थाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली व्यवस्था है। 

जिसका निर्माण समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा समाज को स्थायित्व प्रदान करने हेतु किया गया। डॉ. कैलाशचन्द्र जैन का मत है कि मानव की मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही इसका (वर्ण का) आरम्भ किया गया होगा। 

वर्ण की उत्पत्ति के सिद्धान्त

इसका उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था एवं संगठन को स्थायित्व प्रदान करना था। प्राचीन समय में वर्ण व्यवस्था ने आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ कर समाज को समृद्ध किया। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था, साहित्य और संस्कृति की सुरक्षा हुई तथा इसके उत्थान में भी बड़ा योग मिला।

डॉ. जैन के कथन से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति समाज की प्रकार्यात्मक आवश्यकताओं को पूर्ण करने के उद्देश्य से की गई थी। जिसमें सम्पूर्ण समाज को चार वर्णों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में विभक्त कर दिया गया था तथा एक सुनियोजित ढंग से चारों वर्णों के कर्त्तव्य या उत्तरदायित्व निश्चित कर दिए थे। 

जिन पर चलते हुए एक लम्बी अवधि तक भारतीय समाज व्यवस्था स्थायित्व प्राप्त कर सकी। संक्षेप में, जिस व्यवस्था के माध्यम से समाज को चार श्रेणियों में कार्यात्मक रूप में विभक्त करके उनके कर्त्तव्यों को निर्धारित कर दिया गया था, उस व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था कहा जाता है। 

वर्ण का अर्थ

वर्ण शब्द संस्कृत भाषा के 'वृ अरण' अथवा 'वृ' धातु से बना है, जिसका आशय ‘वरण करना' या 'चयन करना' होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वर्ण का अर्थ किसी 'व्यवसाय' या 'वृत्ति' का चयन करने से होता है। 

सुप्रसिद्ध इतिहासकार स्मिथ ने अपनी कृति 'अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया' में लिखा है “कि वर्ण से तात्पर्य व्यवसाय चुनने से है।” किन्तु कुछ विद्वान् इसे उचित नहीं मानते। ऋग्वेद में वर्ण शब्द का उपयोग अनेक स्थानों पर हुआ है। 

जिसमें आर्यों तथा अनार्यों के अन्तर को बतलाया गया है, इस प्रकार ऋग्वैदिक काल में समाज का विभेदीकरण रंग के आधार पर था। आर्यों तथा अनार्यों में रंगभेद पाया जाता था। इस तथ्य को डॉ. 

रेप्सन, डॉ. घुरिये, हट्टन व सैनार्ट आदि विद्वानों ने स्वीकार किया है। कुछ विद्वान् वर्ण का आशय ‘वृत्ति' से मानते हैं। इस रूप में जिन व्यक्तियों का स्वभाव तथा मानसिक विशेषताएँ।

गुण एक समान हों, उन्हीं से वर्ण का निर्माण होता है। किन्तु इन अर्थों द्वारा वर्ण को स्पष्टतः नहीं समझा जा सकता। गीता में श्री कृष्ण ने कहा कि “चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं 'कर्म विभागशः अर्थात् चारों वर्णों की उत्पत्ति मैंने ही गुण तथा कर्म के आधार पर की है। 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि वर्ण व्यक्ति के गुण तथा कर्म पर आधारित वह महत्वपूर्ण व्यवस्था है, जिसमें प्रत्येक वर्ण के सदस्य अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए सामाजिक विकास में सहयोग देते हैं। 

वर्ण पर अपने विचार व्यक्त करते हुए श्रीनिवास ने लिखा है कि साधारण व्यक्ति वर्ण की जटिलताओं से अनभिज्ञ है, उनके लिए वर्ण का सीधा-सा अर्थ है हिन्दू समाज का चार व्यावसायिक क्रम में विभाजन, जैसे- ब्राह्मण (पुजारी एवं अध्येता), क्षत्रिय (शासक तथा सैनिक), वैश्य (व्यापारी), शूद्र (कृषक, श्रमिक अथवा सेवक) है।

वर्ण का महत्त्व

समाज व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के उद्देश्य से वर्ण-व्यवस्था का निर्माण किया गया था। इसके द्वारा सम्पूर्ण समाज के सदस्यों को विभिन्न वर्गों में विभक्त करके सभी की भूमिकाओं व कर्त्तव्यों को निश्चित कर दिया तथा सभी से आशा की जाती थी कि वे अपने-अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करके समाज के प्रगति में सहभागी भूमिका का निर्वाह करें। 

वर्ण-व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था एवं संगठन को स्थायित्व प्रदान करना था। इस व्यवस्था में भारतीय समाज के उत्थान में बड़ा सहयोग मिला। संक्षेप में; वर्ण-व्यवस्था से समाजशास्त्रीय महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

(1) संघर्षों से छुटकारा - वर्ण-व्यवस्था का सर्वप्रथम महत्त्व इस कारण से है कि इसने व्यक्तियों की इच्छाओं पर नियन्त्रण करके समाज को संघर्ष से दूर रखा । 

यदि प्रत्येक व्यक्ति समाज में उच्च प्राप्त करने की इच्छा करे तो इससे व्यर्थ ही समाज में संघर्ष की प्रवृत्ति बढ़ेगी तथा समाज व सामाजिक संगठन को यह स्थिति नुकसानदायक हो सकती है तथा वर्ण-व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के सदस्यों के कर्त्तव्यों को निश्चित किया और सभी को अपने-अपने कर्त्तव्यों को पूरा करने हेतु अप्रत्यक्ष आदेश दिए और धर्म का सहारा लेकर सभी वर्ण के सदस्यों में यह विश्वास पैदा किया कि इसी से मोक्ष प्राप्त होगा। इस प्रकार इस व्यवस्था से समाज एवं व्यक्तियों को संघर्ष से छुटकारा मिल गया।

(2) श्रम विभाजन - वर्ण-व्यवस्था श्रम -विभाजन और विशेषीकरण की वह महत्त्वपूर्ण व्यवस्था है, जिसके कारण व्यक्ति और समाज को किसी भी समस्या का सामना करना पड़ा। प्रत्येक व्यक्ति को बचपन से ही अपने वर्ण के अनुसार कार्य का प्रशिक्षण मिलने लगता था। 

फलतः उसमें व्यावसायिक योग्यता व विशेषीकरण का होना स्वाभाविक स्थिति है। इसी व्यवस्था के फलस्वरूप प्राचीनकाल में हमारा समाज अनेक क्षेत्र में संसार का अगुआ करने में सक्षम हुआ था।

(3) समानता - वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत निम्न एवं शूद्र वर्ण को भी महत्त्व प्रदान किया गया। दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार व्यक्ति के शरीर के विभिन्न अंगों का महत्त्व होता है, उसी प्रकार सभी वर्ण समाज के अंग स्वीकार किये गये। 

यह एक अलग बात है कि बाद में उच्च वर्णों ने अपनी शक्ति का नाजायज लाभ उठाकर निम्न वर्गों का शोषण किया व घृणा व हेय दृष्टि से देखा, किन्तु वर्ण व्यवस्था में किसी भी वर्ण को, उसके किसी कार्य को असमान नहीं माना गया।

(4) रक्त की पवित्रता - भारतीय समाज एवं उसकी संस्कृति से अनादि काल से ही विदेशी प्रभावित रहे तथा न जाने कितने प्रजाति समूह यहाँ आये और यहीं बस गये। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक माना गया कि रक्त की पवित्रता को बनाये रखा जाये। 

इस कार्य को वर्ण-व्यवस्था ने साकार रूप दिया वर्ण-व्यवस्था के द्वारा प्रत्येक वर्ण अपने सांस्कृतिक गुणों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित करता रहा। फलतः भारतीय संस्कृति नष्ट नहीं हो पाई।

(5) शक्ति सन्तुलन - वर्ण-व्यवस्था के द्वारा शक्ति का विभाजन इस प्रकार कर दिया गया कि कोई भी वर्ण शक्ति के मद में किसी अन्य वर्ण के कार्यों में हस्तक्षेप न कर सके। 

ब्राह्मण वर्ण के सदस्य अपनी ज्ञान शक्ति के कारण श्रद्धा व आदर के पात्र बनें, तो क्षत्रिय शारीरिक शक्ति के द्वारा सम्मान प्राप्त करने के अधिकारी बने। वैश्य वर्ण के पास सम्पत्ति हो सकती है। किन्तु वह ब्राह्मणों के समान श्रद्धा व आदर प्राप्त नहीं कर सकता। 

इसी प्रकार शूद्रों की शक्ति श्रम व सेवा भाव मानी गई। यदि उपर्युक्त चारों प्रकार की शक्तियों का केन्द्रीयकरण हो जाता तो समाज में अन्याय, अत्याचार, निरंकुशता अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाता। अतः स्पष्ट है कि वर्ण-व्यवस्था ने समाज में शक्ति सन्तुलन को बनाये रखा। 

वर्ण की उत्पत्ति के सिद्धान्त

वर्ण के सन्दर्भ में जो भी विचार पूर्व की विवेचना में हमारे सामने आये हैं। उनमें पर्याप्त मात्रा में विभिन्नता दिखाई देती है। वेदों का सूक्ष्म अध्ययन करने पर पता चलता है कि प्राचीन वैदिक काल में ब्राह्मण आदि वर्गों की न तो अलग-अलग टोलियाँ थीं। 

जैसी कि वर्तमान काल में दिखती हैं और न ही अलग-अलग परिवार थे, बल्कि एक ही परिवार में सभी वर्गों के सदस्य रहते थे। किसी भी व्यक्ति का वर्ण-निर्णय उसके व्यक्तिगत कर्मों के द्वारा ही निर्धारित होता था। 

प्राचीन आर्यों में किसी प्रकार का वर्ण या जाति-भेद नहीं था। सभी आर्य अपने को एक ही बिरादरी या वर्ग का सदस्य मानते थे। एक ही आर्य परिवार का जो सदस्य वेदमन्त्रों को याद करके दूसरों के यहाँ देवी-देवताओं की पूजा-पाठ व आराधना का कार्य सम्पन्न कराता था। 

वह ब्राह्मण तथा जो सदस्य शस्त्र धारण कर शस्त्रों की पूजा, शस्त्रों को चलाने में योग्य व शत्रुओं से मुकाबला करने की क्षमता रखता था, वह क्षत्रिय, जो कृषि कार्य एवं गौ आदि पशुओं की सेवा व देखभाल करता था। 

वह वैश्य तथा जो व्यक्ति झाडू-बुहारू कर घर का कूड़ा-करकट साफ किया करता था या दासोचित कोई अन्य काम, जैसेकपड़े धोना, पशुओं के लिए चारा काटना, उनका मल-मूत्र साफ करना आदि किया करता था। 

वह शूद्र माना जाता था। उक्त कथन से स्पष्ट हाता है कि वर्ण का जन्म व्यक्ति के कर्मों (कार्यों के आधार पर हुआ । विभिन्न धर्मशास्त्रों में वर्ण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में जो जानकारी प्राप्त होती है। उसे वर्ण के निम्नलिखित सिद्धान्त द्वारा प्रकट किया जा सकता है

(1) दैवीय सिद्धान्त - दैवीय सिद्धान्त को सबसे प्राचीन सिद्धान्त माना जाता है। इस सिद्धान्त की मान्यता है कि वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा की गई है। प्राचीन धर्मशास्त्रों, जैसे- ऋग्वेद, मनुस्मृति, विष्णु पुराण, गीता उपनिषदों में अनेक स्थान पर ऐसे संकेत दिये गये हैं। जिनसे पता चलता है कि वर्ण की उत्पत्ति ईश्वर के द्वारा हुई है। 

ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के अनुसार वर्ण की उत्पत्ति एक विराट पुरुष, अर्थात् ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से हुई है। ब्रह्मा के मुँह से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा या उदर से वैश्य तथा पैरों से शूद्र वर्ण की उत्पत्ति हुई है। 

विष्णु पुराण में वर्ण की उत्पत्ति भगवान विष्णु के द्वारा मानी गई है। इनके मुँह से ब्राह्मण, बाँहों से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पैरों से शूद्र की उत्पत्ति मानी गई है। 

किन्तु वृहदारण्यक उपनिषद् में उल्लेख मिलता है कि भगवान ब्रह्मा ने ब्राह्मणों की उत्पत्ति की, किन्तु जब समाज के सभी कार्यों का संचालन इनके द्वारा न हो पाया तो फिर उन्होंने क्षत्रियों की उत्पत्ति की।

किन्तु फिर भी सभी कार्य सुचारू रूप से नहीं हो पाये तो वैश्य की उत्पत्ति की और अन्त में शूद्रों को जन्म दिया; अर्थात् सभी वर्गों की उत्पत्ति एक साथ न होकर आवश्यकतानुसार की गई। 

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि मैंने ही चारों वर्णों की उत्पत्ति कर्म एवं गुणों के आधार पर की है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण के 'मैंने' शब्द का आशय ईश्वर या परमात्मा से है। 

अतः स्पष्ट है कि भगवान श्रीकृष्ण भी वर्ण की उत्पत्ति ईश्वर के द्वारा ही मानते हैं। इस प्रकार वर्ण की उत्पत्ति दैवीय शक्ति के द्वारा स्वीकार की जाने से इसे दैवी सिद्धान्त कहा गया।

(2) गुण का सिद्धान्त - प्राचीन धर्मशास्त्रों के अध्ययनों से प्रतीत होता है कि वर्णों के विभाजन का प्रमुख आधार व्यक्ति के गुण रहे । धर्मशास्त्रों में तीन प्रकार के गुणों को बताया गया है- सत्व, रज तथा तम। इन गुणों की पृथक्-पृथक् विशेषताएँ बताई गई हैं। 

सत्व गुण ज्ञानी मनुष्य का गुण, रजोगुण राग-द्वेष युक्त गुण तथा तमोगुण अज्ञानता का द्योतक माना गया है। वर्ण का विभाजन गुणों के आधार पर ही हुआ होगा तथा गुणों के आधार पर वर्ण परिवर्तन के उदाहरण भी मिलते हैं। 

ऐतरेय ऋषि दासी पुत्र थे किन्तु अपने गुणों के कारण इतने बड़े विद्वान् हुए कि इन्होंने 'ऐतरेय ब्राह्मण' और 'ऐतरेय उपनिषद्' आदि ग्रन्थों की रचना की। 

मनु के धृष्ट नामक पुत्र धार्ष्ट क्षत्रिय हुए, जो कि अपने कर्मों (गुणों) से ब्राह्मण बन गये। इसी प्रकार नाभाग भी अपने कार्य के कारण क्षत्रिय से वैश्य हो गये थे । इस प्रकार वर्ण की उत्पत्ति गुणों के अनुसार ही हुई।

(3) रंग का सिद्धान्त - जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि वर्ण का अर्थ रंग भी माना गया है। शान्ति पर्व में महर्षि भृगु ने अपने परम शिष्य भारद्वाज को बताया कि समाज में पहले एक ही वर्ण था। 

किन्तु बाद में यही वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित हो गया। ब्राह्मणों का रंग श्वेत (सफेद), क्षत्रियों का लोहित (लाल), वैश्यों का पीत (पीला) तथा शूद्रों का श्याम (काला) रंग स्वीकार किया जाने लगा, किन्तु रंग के साथ-साथ व्यक्ति के कर्म व गुणों के महत्व को भी स्वीकार किया गया। 

रंगों की उपयोगिता को भी धर्मशास्त्रों जिसके अनुसार ब्राह्मण वर्ण का सफेद रंग पवित्रता का प्रतीक, क्षत्रियों का लाल रंग क्रोध का प्रतीक, वैश्यों का पीला रंग 'रजो गुण' व 'तमो गुण' का प्रतीक तथा शूद्र का काला रंग अपवित्रता का प्रतीक है। इस प्रकार रंग के सिद्धान्त के आधार पर वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति बतलाने का प्रयास किया गया। बतलाया गया। 

(4) कर्म का सिद्धान्त - प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में अनेक ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जो कर्म के सिद्धान्त के समर्थन में अपना मत व्यक्त करने में सक्षम हैं। प्राचीन काल से ही कर्म के अनुसार विभिन्न वर्गों की उत्पत्ति भारतीय मनीषियों ने की और कर्म के आधार को ही स्वीकार करके वर्ण-व्यवस्था का जन्म हुआ। 

समाज के प्रारम्भिक समय में जो व्यक्ति धार्मिक कृत्यों में विशेष रुचि रखते थे। जो तप, यज्ञ व अध्यापन का कार्य करते थे, उन्हें ब्राह्मण वर्ण का स्वीकार किया गया। जो समाज की सुरक्षा, शत्रुओं से समाज के सदस्यों की रक्षा व प्रशासन का कार्य करते थे। 

उन्हें क्षत्रिय वर्ण, जो पशुपालन, व्यापार, कृषि, उद्योग-धन्धे व अन्य आर्थिक कार्यों में रुचि रखते थे, उन्हें वैश्य तथा जो इन तीनों वर्ण के सदस्यों की सेवा या अन्य कार्यों को करते थे, उन्हें शूद्र माना गया। 

इस रूप में व्यक्ति के कर्म को प्रधानता देकर चारों वर्णों में समाज को बाँट दिया गया और कालान्तर में प्रत्येक वर्ण को धर्म से जोड़कर इनके कर्त्तव्यों की व्याख्या की गई। जिससे सभी वर्ण के सदस्य अपने-अपने कर्त्तव्यों को पूर्ण करके समाज का सुचारू रूप से संचालन करने में सहायक बने रहे। 

साथ ही निम्न वर्ण के सदस्यों की सन्तुष्टि के लिए पुनर्जन्म के सिद्धान्त द्वारा समझाया गया कि वर्तमान जन्म पूर्व जन्म के कार्यों का फल है। ब्राह्मण पुराण के अनुसार पूर्व जन्मों के कर्मों से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उत्पन्न हुए हैं।

कर्म के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक मनुष्य अपने कर्म के द्वारा उच्च या निम्न वर्ण में परिवर्तित हो सकता है। उदाहरण के लिये, महर्षि वाल्मीकि वर्ण से शूद्र ये, किन्तु कर्म द्वारा ही वे महर्षि बने, ऋषि विश्वामित्र का जन्म क्षत्रिय वर्ण में हुआ था, किन्तु उन्होंने ब्राह्मणों के कर्म करके ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा प्राप्त की। 

इसी प्रकार द्रोणाचार्य का जन्म भी ब्राह्मण वर्ण में हुआ था। इसी कारण उन्हें गुरु कहा जाता है। किन्तु इनके कर्म क्षत्रियों जैसे थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि कर्म का सिद्धान्त वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। 

(5) जन्म से सम्बन्धित सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के समर्थकों का ऐसा विचार है कि वर्ण की उत्पत्ति वास्तविक रूप से जन्म के सिद्धान्त द्वारा स्पष्ट की जा सकती है, क्योंकि जो व्यक्ति जिस वर्ण में जन्म लेता है, मृत्युपर्यन्त वह उसी वर्ण का सदस्य रहता है। वह किसी भी प्रकार अपने वर्ण को परिवर्तित नहीं कर सकता। 

रावण ब्राह्मण वर्ण का था। उसके कर्म सर्वविदित हैं किन्तु फिर भी वह पूजनीय माना जाता है। युधिष्ठिर जो जन्म से क्षत्रिय थे। इन्हें स्वभाव से ब्राह्मण होना चाहिए था। इसी प्रकार दानवीर कर्ण जो जन्म से क्षत्रिय थे, किन्तु उन्हें शूद्र पुत्र ही माना जाता रहा। गौतम बुद्ध का जन्म क्षत्रिय परिवार में हुआ। 

इन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की। इनके सम्पूर्ण जीवन के कार्य ब्राह्मणों जैसे थे। इस प्रकार व्यक्ति जिस वर्ण में जन्म लेता है, उसी से पहचाना जाता है। अतः स्पष्ट है कि वर्ण की उत्पत्ति का आधार जन्म है।

उपर्युक्त सिद्धान्तों की विवेचना करने के पश्चात् भी वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति के निष्कर्ष को प्राप्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि सभी सिद्धान्तों को स्वीकार करने वाले सिद्धान्तों ने ऐतिहासिक तर्क देकर वर्ण की उत्पत्ति पर अपने विचार रखे हैं। फिर भी वर्ण के जन्म व कर्म के सिद्धान्तों का अधिक महत्व माना जाता है।

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