वर्ण-व्यवस्था क्या है - varn-vyavastha kya hai

वर्ण का आशय – वर्ण शब्द 'वृम् वरणो' धातु से उत्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है वरण करना अथवा चुनना। इस प्रकार वरण से तात्पर्य किसी विशेष व्यवसाय को चुनने या अपनाने से है। वर्ण उस वर्ग का सूचक शब्द प्रतीत होता जिसका समाज में विशिष्ट कार्य अथवा व्यवसाय है और इस विशेषता के कारण वह समाज में एक वर्ण के रूप में प्रतिष्ठित है।

विभिन्न मत - सेनार्ट का मत है कि आर्यों ने वर्ण शब्द का सबसे पहले प्रयोग ऋग्वैदिक साहित्य में 'आर्य वेद' और 'दास वेद' में भेद करने के लिये किया है।

वर्ण-व्यवस्था क्या है 

डॉ. घुरिए का मत है कि वर्ण का अर्थ 'रंग' है और इस अर्थ से यह प्रतीत होता है कि आर्यों और दासों के क्रमशः गोरे और काले रंगों में भेद करने के लिये प्रयोग किया गया था।

वर्ण शब्द में रंग की भावना इतनी दृढ़ थी कि जब कालान्तर में चार वर्ण व्यवस्थित रूप से बने तो चारों वर्गों के लिये पृथक्-पृथक् चार रंग निर्धारित कर दिये गये। हट्टन का भी कहना है कि चार वर्णों के साथ रंग सम्बन्धित है।  ब्राह्मणों के लिये सफेद, क्षत्रियों के लिए लाल, वैश्यों के लिए पीला तथा शूद्रों के लिए काला।

पी. वी. काणे भी इसी मत का समर्थन करते हुए कहते हैं कि प्रारम्भ में वर्ण शब्द का प्रयोग गोरे आर्यों और काले दासों के लिये किया जाता था, किन्तु कालान्तर में इसका प्रयोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि चार वर्गों के लिये किया जाने लगा।

इस प्रकार वर्ण का मूल अर्थ रंग से था किन्तु सामाजिक शब्द के रूप में यह एक वर्ग या व्यवस्था को व्यक्त करता है। इसका वर्णन मूल वेदों में मिलता है। 

कालान्तर में मनु आदि स्मृतिकारों ने वैदिक स्वीकृति के आधार पर समाज को चार वर्गों में विभक्त किया है। वस्तुतः वर्ण मनुष्य के सांसारिक व्यवसायों के वर्गीकरण की व्यवस्था है जो समाज की समृद्धि के लिये नितान्त आवश्यक है।

वर्ण व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ 

र्ण व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -

1. कर्म पर आधारित - प्राचीनकाल में वर्ण की सदस्यता जन्म पर आधारित न होकर कर्म पर आधारित होती थी। सभी व्यक्तियों का वर्ण एक ही था। डॉ. राधाकृष्णन् के अनुसार - प्रारम्भ में एक ही वर्ण था। हम सबके सब ब्राह्मण थे या सबके सब शूद्र थे। 

एक वर्ण के लोगों ने जब आजीविका के लिए विभिन्न कर्म चुन लिये तो उन्हीं कर्मों के आधार पर चार वर्ण बने। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है। मैंने चारों वर्गों का विधान गुण और कर्म के आधार पर किया है। शुक्र नीति के अनुसार वर्णों का आधार कर्म है, जन्म नहीं । व्यक्ति जो कार्य करता है, उसके अनुसार उसका वर्ण निश्चित होता है।

उपर्युक्त मत के विपरीत कुछ विचारकों के मतानुसार वर्ण व्यवस्था में व्यक्ति के गुण और कर्म का विशेष महत्व होने पर भी हारिक रूप में यह व्यवस्था जन्म पर आधारित थी। आपस्तम्ब सूत्र में कहा है कि चारों वर्ण एक-दूसरे से जन्म से ही श्रेष्ठ हैं। 

वरिष्ठ सूत्र का भी कहना है कि चारों वर्ण अपनी प्रकृति (मूल स्वभाव अथवा जन्म) और संस्कारों से जाने जाते हैं। प्रत्येक वर्ण के पुरुष को अपनी ही सवर्ण स्त्री से विवाह करने का आदेश है। विभिन्न वर्गों के स्त्री-पुरुषों के संयोग की सर्वत्र बहुत निन्दा की गई है। 

इस मत के समर्थन में यह कहा जा सकता है कि वर्ण को जन्म पर आधारित करना बहुत स्वाभाविक भी था, अन्यथा वर्ण व्यवस्था ही शेष न रहती और वर्गों का स्वरूप अव्यवस्थित हो जाता।

2. श्रम विभाजन - इस व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की उन्नति और अवस्था के अनुसार कार्य का विभाजन कर दिया गया था और प्रत्येक को अपने-अपने कार्य में पूर्णता प्राप्त करने का पूरा अवसर था । कार्य विभाजन के द्वारा समाज में। सुव्यवस्था, पारस्परिक पूरकता तथा पारस्परिक सहयोग का वातावरण निर्माण करने का प्रयत्न था |

3. परम्परागत व्यवसाय - प्रत्येक व्यक्ति को स्वाभाविक रीति से ही व्यवसाय प्राप्त हो जाता था । प्रत्येक व्यवसाय व्यक्ति के गुणानुसार निश्चित कर दिये गये थे।

4. अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का निश्चित स्तरण - वर्ण व्यवस्था के स्तरण अथवा सोपानक्रम में ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और अन्य सभी वर्गों की तुलना में उन्हें सबसे अधिक अधिकार मिले हुए थे। इसके पश्चात् क्रमशः क्षत्रिय तथा वैश्य का स्थान आता है। शूद्र का स्थान निम्नतम है।

5. समानता - वर्ण व्यवस्था के गुणों के अनुसार विभिन्न श्रेणियाँ निश्चित की गई थीं परन्तु उसमें किसी को भी तुच्छ दृष्टि से देखने का भाव नहीं था। अपितु यही भाव था कि प्रत्येक को उसकी योग्यता के अनुसार कार्य मिले, अर्थात् समाज में योग्यतानुसार कार्य-विभाजन हो। यह भी प्रयत्न था कि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी उन्नति के अनुकूल उपयुक्त अवसर प्राप्त हो।

6. आध्यात्मिकता - वर्ण व्यवस्था का लक्ष्य कर्मफल, पुनर्जन्म और मोक्ष में विश्वास दिलाना था। अध्यात्मवाद भारतीय संस्कृति का आधार स्तम्भ है। अतः वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक वर्ग के धर्म का निर्धारण इस प्रकार किया गया है जिससे प्रत्येक वर्ग भौतिक सुख को गौण समझकर स्वधर्म को प्राथमिकता दे।

7. अनुलोम विवाह की अनुमति - वर्ण व्यवस्था में अनुलोम विवाह की अनुमति प्राप्त थी । इस प्रकार उच्च वर्ण का पुरुष निम्न वर्ण की स्त्री से विवाह कर सकता था, पर इसका प्रतिलोम वर्जित था। 

भारतीय सामाजिक संगठन में वर्ण का समाजशास्त्रीय महत्व

वास्तव में भारतीय संगठन को स्थिर बनाये रखने में वर्ण व्यवस्था का अमूल्य योगदान रहा है। वर्ण व्यवस्था के कार्य या अन्य शब्दों में समाजशास्त्रीय महत्व को निम्नलिखित व्यक्त किया जा सकता है -

1. सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति - वर्ण व्यवस्था ने समाज की अधिकाधिक आवश्यकताओं की पूर्ति में योग प्रदान किया है। प्रत्येक समाज को व्यवस्थित रखने के लिये व्यक्तियों का बौद्धिक विकास करना, बाह्य आक्रमणों से समाज की रक्षा करना और शान्ति की स्थापना करना, व्यापार और वाणिज्य का विकास करना तथा सामान्य सेवाओं का प्रबन्ध करना आवश्यक होता है। 

इसके लिये वर्ण व्यवस्था में उचित व्यवस्था की गई है। विद्या अध्ययन करना तथा कराना ब्राह्मणों का काम था। समाज की रक्षा तथा शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिये क्षत्रियों की व्यवस्था की गई जिनका कार्य देश की रक्षा, असहाय व्यक्तियों की सहायता और शान्ति एवं व्यवस्था करना था। 

आर्थिक क्रियाओं को सम्पन्न करने हेतु वैश्यों की व्यवस्था की गई। शूद्र उपर्युक्त तीन वर्गों की सेवा कर अपने को धन्य मानते थे । इस प्रकार समाज सुव्यवस्थित रूप से प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होता रहता था।

2. अधिकार विभाजन और शक्ति सन्तुलन - वर्ण व्यवस्था के द्वारा समाज में एक प्रकार का अधिकार विभाजन और शक्ति का सन्तुलन किया गया था। जिसे ज्ञान का अधिकार दिया उसे राज्य का अधिकार या सम्पत्ति का अधिकार नहीं दिया, पितु उसे राजव्यवस्था और धन-लालसा से दूर रखा। 

जिसे राज्य का अधिकार दिया उसे सम्पत्ति पर असीमित अधिकार नहीं दिया (राज्य द्वारा किस-किस साधन से और कितनी मात्रा में धन की प्राप्ति की जा सकती है यह निश्चित था) तथा ज्ञानियों पर भी नियन्त्रण करने का अधिकार उसे नहीं दिया गया। सम्पत्ति के अधिकारों को राज्य में अथवा धर्म में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं था। 

इस प्रकार अधिकार का विभाजन कर शक्ति सन्तुलन निर्माण किया गया। एक ही वर्ग के पास विभिन्न प्रकार के अधिकार रहते तो समाज के ऊपर असीमित अत्याचार करने की उस वर्ग की शक्ति बनी रहती। भारतीय समाज की रचना की यह एक बहुत बड़ी विशेषता है।

3. श्रम विभाजन - बीप्रत्येक व्यक्ति की उन्नति और अवस्था के अनुसार कार्य का विभाजन कर प्रत्येक को अपने-अपने कार्य में पूर्णता प्राप्त करने का पूरा अवसर प्रदान कर श्रम-विभाजन के द्वारा समाज में सुव्यवस्थितता, पारस्परिक पूरकता तथा पारस्परिक सहयोग का वातावरण निर्माण करने का प्रयत्न किया गया ।

4. समानता को प्रोत्साहन - वर्ण व्यवस्था समानता के सिद्धान्त पर आधारित थी। वर्ण को दूसरे वर्ण से उच्च अथवा निम्न न मानकर सेवाओं को समान महत्व दिया गया। यद्यपि चारों ही वर्गों के कार्य अलग-अलग थे परन्तु चारों ही वर्ण समान थे। न कोई वर्ण ऊँचा था और न कोई नीचा। सभी वर्ण आपस में कार्यात्मक सम्बन्धों से जुड़े हुए थे।

5. व्यवसाय की निश्चितता - प्रत्येक व्यक्ति को स्वाभाविक रीति से व्यवसाय प्राप्त हो जाता था तथा प्रत्येक व्यवसाय के लिये व्यक्ति भी गणनानुसार निश्चित कर दिये गये थे। इस प्रकार जीवन की अनिश्चितताएँ समाप्त कर दी गयीं।

6. रक्त की पवित्रता बनाये रखने में सहायक – वर्ण व्यवस्था के द्वारा सम्पूर्ण समाज को चार वर्णों में विभाजित करके, सभी को अपनी-अपनी पवित्रता बनाये रखने के पूरे अधिकार दे दिये गये।

7. स्वधर्म पर जोर – इस व्यवस्था के अनुसार सबको स्वधर्म का पालन करना चाहिए अर्थात् जिस वर्ण के व्यक्ति को जो कार्य सौंपा गया है। वही उसका धर्म है और उसे उस धर्म अर्थात् कर्म को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। गीता में कहा गया है। स्वधर्म में मृत्यु भी श्रेयस्कर है परन्तु परधर्म भयानक है। यदि प्रत्येक वर्ण अपने-अपने धर्म का पालन करना छोड़ दे तो सामाजिक जीवन अव्यवस्थित हो जाये।

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