जूट उद्योग क्या है?

जूट उद्योग भारत के सबसे प्राचीन उद्योगों में से एक है। यह राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। पूर्वी भारत की अर्थव्यवस्था की तो इसे रीढ़ की हडड़ी कहा जा सकता है। जूट की खेती तथा इस उद्योग में वहाँ की एक चौथाई जनसंख्या रोजगार पायी हुई है। विदेशी मुद्रा अर्जित करने की दृष्टि से जूट उद्योग का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। 

उद्योग का विकास एवं वर्तमान स्थिति

भारत में सर्वप्रथम शक्ति से चलित जूट का कारखाना सन् 1855 में कोलकाता के निकट रिशरा नामक स्थान पर खोला गया। प्रारंभ से ही इस उद्योग में ब्रिटिश पूँजी और उद्यम की प्रधानता रही है। स्वतंत्रता मिलने तक इस उद्योग ने बहुत प्रगति की, लेकिन देश विभाजन का इस उद्योग पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। 

जहाँ एक ओर अधिकांश जूट कारखाने भारत में रह गये, वहीं दूसरी ओर कच्चा माल पैदा करने वाला अधिकांश क्षेत्र पाकिस्तान (अब बंग्लादेश) में चला गया। परिणामस्वरूप देश में जूट कारखानों के लिए कच्चे माल की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गयी, अत: सरकार ने कच्चे जूट के उत्पादन को बढ़ाने की दिशा में अनेक प्रयास किये। 

इसके फलस्वरूप जूट उत्पादित करने का क्षेत्र जो कि 1947-48 में 6.52 लाख एकड़ था, वह 1950-51 में बढ़कर 14 लाख एकड़ हो गया तथा इसी अवधि में कच्चे जूट का उत्पादन 16 लाख गाँठों से बढ़कर 33 लाख गाँठें हो गया। जूट उत्पादन करने का क्षेत्र 1960-61 में 6 लाख हेक्टेयर था, वह बढ़कर 2005-06 में 8 लाख हेक्टेयर हो गया। इसी अवधि में उत्पादन 41 लाख गाँठें से बढ़कर 99 लाख गाँठ हो गया।

नियोजन काल में जूट वस्त्रों के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। यह 1950-51 में 837 हजार टन था, जो की बढ़कर 1999-2000 में 1,591 हजार टन हो गया। देश में इस समय 78 जूट मिलें हैं। इस उद्योग से 40 लाख कृषि परिवारों का जीवन यापन हो रहा है तथा 2.6 लाख औद्योगिक श्रमिकों को रोजगार मिला हुआ है। 

इसके अतिरिक्त अनेक लोग कच्चे जूट तथा जूट की वस्तुओं के व्यापार तथा विपणन में लगे हुए हैं। जूट का उद्योग विदेशी मुद्रा अर्जित करने का भी प्रमुख साधन रहा है। जूट वस्तुओं के निर्यात का मूल्य 1960-61 में 135 करोड़ रु. रहा, जो कि 2005-06 में 100 करोड़ रु. था । निर्यात मूल्य में पिछले कुछ वर्षों से कमी आ रही है। इसका प्रमुख कारण कृत्रिम स्थानापन्न वस्तुओं से प्रतिस्पर्द्धा होना है।

जूट उद्योग का स्थानीयकरण 

भारत में जूट उद्योग कोलकाता (पश्चिम बंगाल) में अत्यधिक केन्द्रीकृत हैं। पश्चिम बंगाल में जूट उद्योग के अत्यधिक केन्द्रित होने के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं

1. कच्चे माल का क्षेत्र - पश्चिम बंगाल की भूमि जूट की उपज के लिए अत्यन्त अनुकूल है। इसका कारण यहाँ की भूमि को मिटट्ी एवं रेती के मिलान तथा गिरी हुई वनस्पति से मिला होना है। यहाँ नदियाँ प्रतिवर्ष बाढ़ के साथ लायी गयी मिटट्टी से यहाँ के मैदानों को उपजाऊ बना देती हैं।

2. बन्दरगाह की सुविधा - कोलकाता भारत का बड़ा बन्दरगाह रहा है, अतः उद्योग के लिए मशीनों एवं कलपुर्जों के आयात एवं निर्मित माल के निर्यात के लिए इसका लाभ प्राप्त हुआ है। 

3. कोयले की उपलब्धता - पश्चिम बंगाल के रानीगंज आदि क्षेत्रों में कोयले की खानें होने के कारण जूट उद्योग को शक्ति उत्पादन हेतु पर्याप्त मात्रा में कोयला उपलब्ध हो जाता है। । 4. जल की आपूर्ति 5. विदेशी बाजार।

4. जल की आपूर्ति - पश्चिम बंगाल में जूट लाने के लिए जल परिवहन (नाव एवं स्टीमर) सबसे सस्ता साधन रहा है। इस कारण उत्पादन की लागत कम बैठती है। इसके अतिरिक्त जूट की सफाई के लिए गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं मेघना नदियों से निरंतर जल आपूर्ति हो जाती है।

5. विदेशी बाजार - जूट उद्योग के विकास का मूलाधार निर्यात रहा है। पूँजीपतियों ने इस उद्योग की स्थापना एवं विस्तार में बहुत सहयोग दिया है। विदेशी पूँजीपतियों की क्रियाओं का केन्द्र कोलकाता होने के कारण जूट उद्योग की स्थापना में सहायता मिली।

जूट उद्योग की प्रमुख समस्याएँ 

जूट उद्योग की प्रमुख समस्याएँ निम्नांकित हैं - 

1. कच्चे माल का अभाव - देश-विभाजन के फलस्वरूप जूट उत्पादन में भारत का एकाधिकार समाप्त हो गया। जूट उत्पादन करने वाले अधिकांश क्षेत्र बंग्लादेश में चले जाने के कारण 'अधिक जूट उपजाओ' आंदोलन प्रारंभ किया गया, लेकिन पर्याप्त जूट उत्पादन नहीं हो पा रहा है और हमें प्रतिवर्ष जूट का आयात करना पड़ता है। वह भी समय पर उपलब्ध नहीं हो पाते।

2. आधुनिकीकरण की समस्या - भारत में जूट मिलों में लगी हुई मशीनें काफी पुरानी हो चुकी हैं और इन पर उत्पादन करने से लागत अधिक आती है, अतः मशीनों के आधुनिकीकरण की अत्यन्त आवश्यकता है।

3. शक्ति की समस्या - भारत में जूट उद्योग को भी शक्ति की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। फलस्वरूप उत्पादन बन्द हो जाता है और विदेशी सौदों का पालन नहीं हो पाता । अन्ततः जूट का निर्यात घट जाता है। 

4. अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता - देश के विभाजन के पूर्व भारत का जूट उद्योग पर विश्व में एकाधिकार था लेकिन अब अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बंग्लादेश से तीव्र प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अन्य देश अफ्रीका, ब्राजील, फिलीपाइन्स तथा जापन ने भी जूट मिलें लगा ली हैं, जिनमें नवीनतम मशीनरी का प्रयोग होता है। 

5. कृत्रिम पैकिंग वस्तुओं से प्रतिस्पर्द्धा - बहुत से देशों में टाट के बोरों के स्थान पर कागज, कपड़े, सन, प्लास्टिक और पटुए के थैले काम में लाए जाने लगे हैं, विशेषकर आस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका संघ में। इससे भी जूट उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

6. अनुसंधान की समस्या - जूट की बनी हुई वस्तुओं के नए उद्योग खोलने तथा जूट उत्पादन में विविधता लाने के लिए बड़े पैमाने पर अनुसंधान की बहुत जरूरत है।

7. उत्पादक की उदासीनता - कच्चे माल का अभाव, बढ़ती हुई मजदूरी की दरें, हड़ताल व तालेबंदी आदि कारणों से उत्पादकों का लाभ अत्यन्त कम हो गया है, अतः मिल मालिक इस उद्योग के प्रति उदासीन हो गए हैं। 

8. मिलों की दयनीय आर्थिक स्थिति - भारत का जूट उद्योग प्रमुख रूप से निर्यात करता है, लेकिन आशा से कम निर्यात और करों की अधिकता के परिणामस्वरूप जूट मिलों की आर्थिक स्थिति काफी बिगड़ गई है।

जूट उद्योगों की समस्याओं के समाधान

भारत में जूट उद्योग की समस्याओं के समाधान हेतु निम्नांकित सुझाव दिये जाते हैं - 

1. कच्चा जूट अधिक उत्पादित करने के लिए प्रोत्साहन - कच्चे माल की पूर्ति के लिए कृषकों को कच्चा जूट उत्पादित करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इसके लिए अच्छे बीज व उन्नत खादें आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए। ऊँचे समर्थन मूल्य घोषित किये जाने चाहिए। 

2. आधुनिकीकरण एवं अभिनवीकरण के लिए पर्याप्त वित्त की सुविधा - जूट उद्योग के आधुनिकीकरण अभिनवीकरण के लिए पर्याप्त धन की व्यवस्था की जानी चाहिए। एक अनुमान के अनुसार, इस उद्योग को 800 करोड़ रु. की आवश्यकता है।

3. पर्याप्त शक्ति - जूट उद्योग को पर्याप्त मात्रा में शक्ति देने की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

4. बीमार मिलों की सहायता - जूट उद्योग के बीमार मिलों को भी आर्थिक सहायता देकर चलाने का प्रयास किया जाना चाहिए।

5. अनुसंधान एवं विकास पर अधिक व्यय - कृत्रिम रेशों में प्रतिस्पर्द्धा को कम करने के लिए जूट उद्योग द्वारा अनुसंधान एवं विकास पर अधिक व्यय करके ऐसी तकनीक का विकास करना चाहिए, जिससे जूट की वस्तुएँ, कृत्रिम रेशे की वस्तुओं से टिकाऊ एवं सस्ती पड़े और प्रतिस्पर्द्धा से मुकाबला किया जा सके।

6. आंतरिक बचतों को बढ़ावा - जूट उद्योग में बढ़ती हुई लागत एवं गिरते हुए लाभों को रोकने के लिए आंतरिक बचतों को बढ़ाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।

7. निर्यात साख - निर्यात में वृद्धि के लिए आवश्यक साख जूट उद्योग को देनी चाहिए। 

8. उत्पाद शुल्क में कमी - जूट निर्मित वस्तुओं की माँग में वृद्धि करने के लिए सरकार को वर्तमान उत्पाद शुल्क में कमी करनी चाहिए।

जूट उद्योग का महत्व

भारतीय अर्थव्यवस्था में जूट को 'स्वर्णिम रेशा' कहा गया है, अतः इसके महत्व को निम्न बिन्दुओं के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है -

1. कृषि का विकास - विदेशी व्यापार में भारतीय जूट उद्योग की भूमिका एक प्रमुख निर्यातक की है। इस उद्योग को कच्चे माल की पूर्ति के लिए ज़ूट (पाट) की कृषि का निरंतर विकास किया जा रहा है।

2. सरकारी आय का साधन - जूट से उत्पादित वस्तुओं पर सरकार उत्पाद शुल्क लगाती है। इस प्रकार यह सरकारी आय का एक प्रमुख साधन है।

3. विदेशी मुद्रा की प्राप्ति - भारतीय जूट उद्योग ने अन्तर्राष्ट्रीय बाजार पर एक विशेष प्रभाव बना रखा है विश्व के कुल निर्यात का आधा भाग भारत निर्यात करता है। जिससे करोड़ों रु. की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। इसलिए जूट को 'सोने का रेशा' कहा जाता है। 

4. रोजगार की प्राप्ति - भारत में लाखों लोगों को जूट उद्योग से प्रत्यक्ष रोजगार मिला हुआ है और अनेक लोग अप्रत्यक्ष रूप से इस उद्योग से जुड़े हुए हैं।

5. पैकिंग सामान की पूर्ति - वर्तमान औद्योगिक युग में व्यापार, व्यवसाय एवं उद्योगों का जितना तेजी से विकास हो रहा है, उतनी ही अधिक पैकिंग संबंधी सामानों की पूर्ति जूट से की जा रहा है, जैसे-जूट के बोरे, थैले, टाटपटी आदि।

 6. घरेलू उपयोग - जूट से बने सामान सामान्य रूप से घरेलू उपयोग में आते हैं। देश के गरीब व्यक्ति से लेकर अमीर व्यक्ति तक इसका उपयोग किसी न किसी रूप में करते हैं।

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