उद्योगों का वर्गीकरण कीजिए?

स्वतंत्र भारत सरकार ने सन् 1948 में नवीन औद्योगिक नीति की घोषणा की इस नवीन नीति ने भारत में औद्योगीकरण के द्वार खोल दिये। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से भारत का तीव्रगति से औद्योगिक विकास हुआ। आज भारत में सभी प्रकार के उद्योग-धंधे विकसित हो रहे हैं और औद्योगिक दृष्टि से भारत विकसित देशों की श्रेणी में आ चुका है।

उद्योगों का वर्गीकरण - भारत के उद्योगों को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जा सकता है -

1. आधारभूत एवं पूँजीगत उद्योग - ऐसे उद्योग जिनके द्वारा उत्पादित वस्तु पर अन्य कई महत्वपूर्ण उद्योग आधारित होते हैं। आधारभूत उद्योग कहलाते हैं। क्योंकि इन उद्योगों में भारी मात्रा में पूँजी का विनियोग करना पड़ता है। अतः इन्हें पूँजीगत उद्योग भी कहा जाता है। 

ये उद्योग देश के आर्थिक विकास में सर्वाधिक सहायक होते हैं। हमारे देश के लोहा व इस्पात उद्योग, सीमेंट एवं कोयला उद्योग, रासायनिक एवं इंजीनियरिंग उद्योग आधारभूत उद्योगों की श्रेणी में आते हैं। 

2. उपभोक्तागत उद्योग - ऐसे उद्योग जो मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करने के ध्येय से वस्तुओं का निर्माण करते हैं, उपभोक्तागत उद्योग कहलाते हैं। जैसे- शक्कर उद्योग, जूट उद्योग, सूती वस्त्र उद्योग आदि।

आकार एवं विनियोग के आधार पर उद्योगों को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है -

1. अति लघु उद्योग - ऐसे उद्योग जिनमें 25 लाख रु. तक पूँजी का विनियोग किया जाता है, अति लघु उद्योग कहलाते हैं।

2. लघु उद्योग - नवीन औद्योगिक नीति के अनुसार- लघु उद्योगों में पूँजी विनियोग की मात्रा 60 लाख से 75 लाख रु. तक निर्धारित की गई थी, जिसे वर्तमान में बढ़ाकर 25 लाख रु. से 5 करोड़ रु. कर दिया गया है। 

3. वृहत् उद्योग - वे उद्योग जिनमें लघु उद्योग हेतु आवश्यक पूँजी से ज्यादा राशि का विनियोग किया जाता है, उद्योग कहलाते हैं। भारत में वृहत उद्योग वह है।

जिनकी प्लाण्ट एवं मशीनरी में दस करोड़ रु. से अधिक विनियोग है। सामान्यत: जब किसी उद्योग में उत्पादन की इकाइयों का आकार बड़ा होता है और वे उत्पादन के विभिन्न साधनों का बड़ी मात्रा में प्रयोग करते हैं। तब इसे वृहत् उद्योग कहा जाता है।

वृहत् उद्योगों के लाभ

वृहत् उद्योगों के प्रमुख लाभ निम्नांकित हैं -

1. रोजगार में वृद्धि - भारत जैसे अर्धविकसित देशों में जहाँ कृषि में अदृश्य - बेरोजगारी पायी जाती है। वहाँ वृहत् उद्योगों की स्थापना करके रोजगार के अवसरों का सृजन किया जा सकता है।

2. क्रय में बचत - वृहत् उद्योगों के लिए कच्चा माल बहुत अधिक मात्रा में खरीदा जाता है। बड़ी मात्रा में माल खरीदने के कारण न केवल उत्पादक सस्ते मूल्यों पर उसे खरीदने में सफल हो जाता है, बल्कि उसे अच्छी किस्म का माल भी प्राप्त हो जाता है। भूमि के संबंध में भी इसी प्रकार की बचतें प्राप्त होती हैं।

3. मशीन एवं उपकरणों की खरीद में बचत - वृहत् उद्योगों के लिए उत्पादकों द्वारा बड़ी मात्रा में मशीनों एवं उपकरणों को खरीदा जाता है जिससे ये उत्पादकों को थोक मूल्य पर प्राप्त हो जाते हैं।

4. शक्ति गृह में बचत - वृहत् उद्योगों में शक्ति की भी अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है। जितनी अधिक मात्रा में शक्ति की आवश्यकता होगी, शक्ति की प्राप्ति इकाई लागत उतनी ही कम होती जाती है। अतः वृहत् उद्योगों के उत्पादन में शक्ति की भी बचत होती है।

5. श्रम विभाजन की बचतें - वृहत् उद्योगों के अन्तर्गत उत्पादन प्रक्रियाओं को अनेक भागों में विभाजित करके श्रम-विभाजन किया जा सकता है तथा श्रम विभाजन के सभी लाभों को प्राप्त किया जा सकता है। 

6. माँग में स्थिरता - अनेक स्थानों एवं मण्डियों में वस्तुओं की पूर्ति करने के कारण वृहत् उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग में प्राय: स्थिरता बनी रहती है। इसके अतिरिक्त वृहत् उद्योगों द्वारा उत्पादन करने वाले उत्पादकों को प्रायः आर्थिक संकटों का सामना भी नहीं करना पड़ता, क्योंकि एक मण्डी में उत्पादक को हानि होने पर वह उसकी पूर्ति अन्य मण्डियों से कर सकता है।

7. अवशिष्ट पदार्थों का उपयोग - उत्पादन प्रक्रिया में कुछ अवशिष्ट पदार्थ प्राप्त होते हैं। छोटे उत्पादक इन पदार्थों को कम मात्रा में होने के कारण प्रायः फेंक देते हैं, जबकि वृहत् उद्योगों में इन पदार्थों का पूर्ण उपयोग होता है। वृहत् उद्योग शोध एवं अनुसंधान करके इन पदार्थों का प्रयोग विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के उत्पादन के लिए करते हैं।

8. यातायात व्यय में बचत - वृहत् उद्योगों में बड़ी मात्रा में माल मण्डियों एवं व्यापारिक केन्द्रों तक पहुँचाया जाता है। अत: रेलवे, मोटर अथवा जहाज कम्पनियाँ नीची ढुलाई की दर पर ही माल ढोने के लिए तैयार हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त वृहत् उद्यागों को रेलवे साइडिंग की सुविधाएँ भी उपलब्ध करवाती हैं।

वृहत् उद्योगों के दोष

 वृहत् उद्यागों के प्रमुख दोष अग्रांकित हैं -

1. कच्चे माल की समस्या - वृहत् उद्योगों में बड़ी मात्रा में कच्चे माल की आवश्यकता होती है, अन्यथा उत्पादन एवं क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता है। 

2. शक्ति के साधनों की समस्या - वृहत् उद्योगों में बड़ी मात्रा में एवं नियमित रूप से शक्ति के साधनों की समस्या रहती है। इससे उत्पादन क्षमता कम हो जाती है।

3. उच्चावचन - माँग में एकाएक परिवर्तन आ जाने पर वृहत् उद्योग उसके अनुरूप तत्काल अपने उत्पादन को परिवर्तित कर सकने की स्थिति में नहीं होते हैं, अतः देश में मुद्रा स्फीति या संकुचन फैलने का सदैव भय बना रहता है।

4. एकाधिकार की प्रवृत्ति - वृहत् उद्योगों को स्थापित करने के लिए बड़ी मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है, अतः इसमें कम लोग ही पूँजी लगा सकते हैं। ऐसी दशा में एकाधिकार जैसी स्थिति हो जाती है। इससे उपभोक्ताओं का शोषण होता है।

5. रोजगार के अवसरों के सृजन में कमी - वृहत् उद्योगों में पूँजी की अधिकता तथा मजदूरों की कम आवश्यकता पड़ती है। अत: रोजगार के अवसर का सृजन बहुत कम हो पाता है।

6. आय एवं धन के वितरण में असमानता - वृहत् उद्योगों में मालिकों एवं श्रमिकों के बीच आय में भिन्नता आ जाती है। उद्योगपतियों में आर्थिक शक्ति का केन्द्रीकरण हो जाता है। इससे सामाजिक न्याय को झटका लगता है। 

7. औद्योगिक अशांति - वृहत् उद्योगों में मालिकों एवं मजदूरों में परस्पर सम्पर्क न होने के कारण अनेक भ्रम उत्पन्न हो जाते हैं।, जिससे हड़ताल एवं तालाबंदी की समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

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