मजदूरी किसे कहते है?

मजदूरी किसे कहते है 

मजदूरी शब्द से आशय, उस कीमत से है जो श्रम को उत्पादन प्रक्रिया में की गयी उसकी सेवाओं के बदले चुकायी जाती है। श्रम को चुकाये गये सभी भुगतान एवं भत्ते इसमें सम्मिलित होते हैं। 'मजदूरी' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है- प्रथम, संकुचित अर्थ में तथा द्वितीय, विस्तृत अर्थ में। संकुचित अर्थ में, मजदूरी वह भुगतान है जो एक फर्म द्वारा एक श्रमिक को उसकी सेवा के लिए दिया जाता है।

मजदूरी की परिभाषा

मजदूरी की प्रमुख परिभाषा निम्न हैं -

1. प्रो. जीड के अनुसार - मजदूरी शब्द का प्रयोग प्रत्येक प्रकार के श्रम की कीमत के अर्थ में नहीं करना चाहिए, बल्कि इसका अर्थ साहसी द्वारा किराये पर नियुक्त किये गये श्रम की कीमत से लेना चाहिए।

2. प्रो. बेन्हम के अनुसार - मजदूरी मुद्रा के रूप में वह भुगतान है, जो किसी समझौते के अनुसार एक नियोक्ता अपने श्रमिक को उसकी सेवाओं के बदले में देता है।

3. डॉ. मार्शल के अनुसार - श्रम के प्रयोग के बदले में दी गयी कीमत मजदूरी कहलाती है। 

4. प्रो. सेलिगमैन के अनुसार - श्रम का वेतन ही मजदूरी है। उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आय का वह भाग जो श्रमिकों को उनकी सेवा के बदले में दिया जाता है। उसे मजदूरी कहते हैं।

मजदूरी के प्रकार

मजदूरी दो प्रकार की होती है - 

  1. नकद मजदूरी, एवं 
  2. असल मजदूरी।

1. नकद मजदूरी 

नकद मजदूरी वह होती है, जो श्रमिक को उसके श्रम के लिए एक निश्चित समय में मुद्रा के रूप में दी जाती है। जैसे - एक श्रमिक को बोझा ढोने के लिए दिन भर में 50 रु. मजदूरी मिलती है, तो यह नकद मजदूरी कहलाएगी। नकद मजदूरी को नाममात्र तथा मौद्रिक मजदूरी के नाम से भी जाना जाता है। प्रो. सेलिगमैन के अनुसार - नकद मजदूरी वह यथार्थ मजदूरी है, जिसका मुद्रा के रूप में भुगतान किया जाता है ।”

2.  असल मजदूरी 

असल मजदूरी के अन्तर्गत, उन सब वस्तुओं एवं सेवाओं को शामिल किया जाता है, जो श्रमिक को नकद मजदूरी के अतिरिक्त प्राप्त होती हैं। जैसे- कम कीमत पर मिलने वाला राशन, मकान, स्वास्थ्य संबंधी सुविधा, शिक्षा संबंधी सुविधा, नौकर, वाहन सुविधा आदि। असल मजदूरी को वास्तविक मजदूरी के नाम से भी जाना जाता है। प्रो. सेलिगमैन के अनुसार - वास्तविक मजदूरी, वास्तविक वस्तुएँ हैं, जिन्हें नकद मजदूरी खरीद सकती है।

एडम स्मिथ के अनुसार - श्रम की वास्तविक मजदूरी से तात्पर्य, जीवन की उन सभी आवश्यकताओं और सुविधाओं की मात्रा से है। जो श्रमिक को उसके श्रम के बदले में दी जाती है। मार्शल के शब्दों में - असल मजदूरी में केवल उन सुविधाओं तथा आवश्यक वस्तुओं को ही शामिल किया जाता, जो कि सेवा योजक के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में श्रम के बदले में दी जाती है। 

बल्कि उन लाभों को भी शामिल किया जाता है जो व्यवसाय विशेष से संबंधित होते हैं और जिसके लिए उसे कोई विशेष व्यय नहीं करना होता है। एक उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि असल मजदूरी वस्तुओं एवं सेवाओं की उस मात्रा को बताती है जिसे निश्चित समय में श्रमिक को दी गयी मौद्रिक मजदूरी से प्रचलित कीमतों पर बाजार में खरीद सकता है। 

असल मजदूरी को प्रभावित करने वाले तत्व

असल मजदूरी को प्रभावित करने वाले प्रमुख तत्व निम्नांकित हैं -

1. मुद्रा की क्रयशक्ति - मुद्रा की क्रयशक्ति असल मजदूरी को प्रभावित करती है। जहाँ मुद्रा की क्रयशक्ति अधिक होती है, वहाँ असल मजदूरी अधिक होती है और जहाँ मुद्रा की क्रयशक्ति कम होती है। वहाँ असल मजदूरी भी कम होती है। इस प्रकार दो स्थानों पर समान मजदूरी मिलने पर भी असल मजदूरी में अन्तर हो सकता है।

2. अतिरिक्त आय - अतिरिक्त आय का असल मजदूरी पर प्रभाव पड़ता है। कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जिसमें सहायक कार्य करके आय की वृद्धि की जा सकती है। मान लीजिए, एक स्कूल का अध्यापक अवकाश के समय में पुस्तक लिखकर अथवा ट्यूशन करके अतिरिक्त आय अर्जित कर सकता है। ऐसी स्थिति में नकद मजदूरी की मात्रा कम होते हुए भी असल मजदूरी अधिक होती है। इसके विपरीत स्थिति में असल मजदूरी कम होती है।

3. काम के घण्टे - असल मजदूरी की मात्रा काम के घण्टे पर भी निर्भर करती है। यदि सभी श्रमिकों की नकद मजदूरी समान है, लेकिन कुछ श्रमिकों को अधिक समय तक कार्य करना पड़ता है और कुछ श्रमिकों को कम समय तक कार्य करना पड़ता है। 

जैसे- एक कॉलेज के प्रवक्ता और एक ऑफिस के सुपरिन्टेन्डेण्ट दोनों को माना समान मजदूरी मिलती है, लेकिन प्रवक्ता को केवल चार घण्टे कॉलेज में कार्य करना पड़ता है और सुपरिन्टेन्डेण्ट को 8 घण्टे कार्य करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में प्रवक्ता की असल मजदूरी अधिक तथा ऑफिस के सुपरिन्टेन्डेण्ट की असल मजदूरी कम होगी।

4. काम का स्थायित्व - असल मजदूरी पर कार्य के स्थायित्व का भी प्रभाव पड़ता है। जो कार्य स्थायी होते हैं। उनमें नकद मजदूरी कम होने पर भी असल मजदूरी अधिक होती है और जो कार्य अस्थायी होते हैं, उनमें नकद मजदूरी अधिक होने पर भी असल मजदूरी कम होती है।

5. काम का स्परूप - असल मजदूरी पर काम के स्वरूप का भी प्रभाव पड़ता है। प्रायः जो काम सरल, रुचिकर तथा जोखिम रहित होते हैं, जैसे- डॉक्टर, वकील तथा अध्यापक का कार्य, उसमें असल मजदूरी अधिक होती है। इसके विपरीत, जो काम अरुचिकार तथा जोखिमपूर्ण होते हैं, उनमें असल मजदूरी कम होती है, जैसे- रेलवे के ड्राइवर का काम, कारखानों में काम करने वाले मजदूर का काम आदि।

6. उन्नति की आशा - असल मजदूरी पर उन्नति की आशा का भी प्रभाव पड़ता है। प्राय: जिन कामों में मजदूरों को भविष्य में उन्नति की आशा होती है तथा वेतन वृद्धि और पदोन्नति होती रहती है, वहाँ भी असल मजदूरी अधिक होती है। इसके विपरीत स्थिति में असल मजदूरी कम होती है।

7. कार्य का सम्मानपूर्वक होना - असल मजदूरी पर कार्य का सम्मानपूर्वक होने का भी प्रभाव पड़ता है। जिन कार्यों को समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, उनमें कम सम्मान वाले कार्यों की अपेक्षा असल मजदूरी अधिक होती है। जैसे - एक बैंक के चपरासी को एक प्राइमरी के अध्यापक से अधिक वेतन मिलता है, लेकिन लोग अध्यापक होना पंसद करते हैं।

8. प्रशिक्षण व्यय एवं समय - कुछ विशेष व्यवसायों में काम करने के लिए श्रमिकों को काफी समय तक प्रशिक्षण लेना पड़ता है तथा काफी व्यय भी करना पड़ता है। ऐसे व्यवसायों में श्रमिकों की मजदूरी उन व्यवसायों की अपेक्षा जिनमें प्रशिक्षण का समय तथा व्यय कम होता है। कम होती है। मान लीजिए, एक डॉक्टर और बैंक के एक कर्मचारी को समान वेतन मिलता है। तो निश्चय ही बैंक के कर्मचारी की असल मजदूरी अधिक होगी।

मजदूरी के भुगतान की रीतियाँ

मजदूरी के भुगतान की दो रीतियाँ होती हैं - 

  1. समयानुसार मजदूरी एवं 
  2. कार्यनुसार मजदूरी

 समयानुसार मजदूरी 

जब श्रमिक को एक निश्चित समय (कार्य अवधि) के आधार पर मजदूरी का भुगतान किया जाता है, तो इसे समयानुसार मजदूरी कहते हैं। मजदूरी का भुगतान दैनिक, साप्ताहिक या मासिक आधार पर किया जा सकता है। मजदूरी भुगतान की इस रीति के अन्तर्गत श्रमिक के कार्य का मजदूरी से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता। निश्चित समयावधि के पश्चात् उसे निश्चित मजदूरी प्राप्त हो जाती है। 

उदाहरणार्थ, एक व्यक्ति 10 बजे प्रातः से सायं 5 बजे तक कार्य करता है, तो इसे जो मजदूरी दी जाएगी, वह समयानुसार मजदूरी कहलाएगी।

गुण 

समयानुसार मजदूरी के प्रमुख गुण निम्नांकित हैं

1. सरलता - समयानुसार मजदूरी का प्रमुख गुण सरलता है। इसमें केवल मजदूर के कार्य के समय को ध्यान में रखना पड़ता है और उसी आधार पर मजदूरी का आसानी से हिसाब लग जाता है। देश में श्रमिकों के अशिक्षित होने की स्थिति में यह रीति और भी अच्छी समझी जाती है। सेवायोजक केवल दैनिक उपस्थिति का रिकार्ड रखता है।

2. रोजगार में स्थायित्व - समयानुसार मजदूरी में श्रमिकों के रोजगार में स्थायित्व बना रहता है। यदि सेवायोजक किसी कारणवश कुछ दिन के लिए काम बंद भी कर देता है तो भी श्रमिक का रोजगार सुरक्षित बना रहता है। रोजगार में स्थायित्व के कारण श्रमिकों को निर्धारित समयावधि के पश्चात् निश्चित मजदूरी प्राप्त हो जाती है। और इस प्रकार वे अपने जीवन स्तर को निश्चित स्तर पर बनाये रख सकते हैं।

3. मजदूर का स्वास्थ्य ठीक रहता है - मजदूर के स्वास्थ्य के लिए भी यह रीति अच्छी मानी जाती है। इस रीति में क्योंकि मजदूर जरूरत से ज्यादा कार्य करके अपने शरीर पर अनावश्यक बोझ नहीं डालता। इसलिए उसे औद्योगिक थकान नहीं होती और उसका स्वास्थ्य ठीक रहता है।

4. कार्य गुणात्मक रूप से अधिक अच्छा - इस रीति के अन्तर्गत कार्य गुणात्मक रूप से अधिक अच्छा होता है, क्योंकि श्रमिक को अपना कार्य समाप्त करने की जल्दी नहीं होती है। उसे इस रीति में अपनी क्षमता को दिखाने का पूर्ण अवसर प्राप्त होता है। 

5. उत्पत्ति के साधनों का उचित प्रयोग - सावधानी तथा धैर्य के साथ काम करने पर उत्पत्ति के साधनों का उचित प्रयोग संभव होता है। सावधानी से कार्य करने पर साधनों का अपव्यय नहीं होता, मशीनों तथा औजारों की टूट-फूट कम होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप कम लगात पर उत्पादन संभव होता है।

6. विशेष उपयोगिता का क्षेत्र - समयानुसार मजदूरी का ऐसे कार्यों में, जो कि प्रमाणित नहीं है, जिनको मापा गिना नहीं जा सकता है, विशेष उपयोग है। कुशलता एवं शिल्पकारी की आवश्यकता वाले कार्यों के लिए समयानुसार रीति बहुत अच्छी है।

दोष 

समयानुसार मजदूरी के प्रमुख दोष निम्नांकित हैं -

1. उत्पादन में कमी - समयानुसार मजदूरी की रीति में उत्पादन की मात्रा पर कुप्रभाव पड़ता है, क्योंकि मजदूरों में यह भावना रहती है कि अधिक कार्य करने से कोई लाभ नहीं है। कम कार्य करके भी उतनी ही राशि मिलेगी, जितनी कि अधिक कार्य करके प्राप्त होगी। इसी कारण समयानुसार रीति उत्पादन के स्तर को गिरा देती है। 

2. कुशल एवं अकुशल मजदूरों में अन्तर न होना - समयानुसार मजदूरी की रीति का उत्पादन से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता, अतः कुशल एवं अकुशल सभी मजदूरों को प्रायः समान मजदूरी मिलती है। परिणामस्वरूप कुशल एवं ईमानदार मजदूर भी काम से बचने लगते हैं। कुछ समय बाद कार्य की गति बहुत धीमी होती है।

3. निरीक्षण की आवश्यकता - समयानुसार मजदूरी की रीति क्योंकि श्रमिकों को अधिक कार्य करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करती, इसीलिए उनके कार्य पर निरंतर निगरानी रखनी पड़ती है। इसके लिए निरीक्षकों की नियुक्ति करनी पड़ती है। परिणामस्वरूप उत्पादन लागत में वृद्धि हो जाती है। मजदूरों पर निरीक्षण के कारण प्राय: संघर्ष भी हो जाते हैं।

4. मजदूरों में असंतोष - समयानुसार मजदूरी धीरे-धीरे मजदूरों में असंतोष को जन्म देती है। इसके कारण हैं

  • अच्छे कुशल मजदूरों को क्योंकि उनकी योग्यता का कोई पुरस्कार नहीं मिलता, इसलिए वे असंतुष्ट हो जाते हैं। 
  • यह रीति मजदूरों की उन्नति तथा प्रगति में बाधक होती है। जब तक मजदूरी में वृद्धि न हो उनको भविष्य में उन्नति की कोई आशा नहीं होती है।
  • महँगाई का प्रभाव समयानुसार मजदूरी पर जितना पड़ता है, उतना कार्यानुसार मजदूरी पर नहीं पड़ता। कार्यानुसार मजदूरी में कार्य अधिक करके बढ़े हुए व्यय को पूरा किया जा सकता है, लेकिन समयानुसार मजदूरी में ऐसा संभव नहीं है। कार्यानुसार मजदूरी में श्रमिक अधिक मजदूरी कमा लेते हैं।

5. उत्साह में कमी - समयानुसार मजदूरी की रीति में कार्यकुशलता को प्रोत्साहन नहीं मिलता। मजदूरों को कार्य के अनुसार मजदूरी नहीं मिलती प्रत्येक मजदूर को निश्चित समय तक कार्य करने पर समान मजदूरी मिलती है। मजदूर समझते हैं कि वे काम शीघ्रता से करें अथवा धीरे से काम करें अथवा अधिक, उन्हें एक निश्चित धनराशि मजदूरी की अवश्य मिल जायेगी।

6. श्रमिकों तथा मालिकों में संघर्ष - समयानुसार मजदूरी में श्रमिकों तथा मालिकों में प्रायः अच्छे संबंध नहीं रहते। श्रमिक अपनी मजदूरी बढ़ाने की माँग करते रहते हैं तथा मालिक मजदूरों से कम काम करने की शिकायत करते रहते हैं। इस प्रकार, मालिक तथा मजदूरों में संघर्ष की संभावनाएँ बनी रहती हैं।

कार्यानुसार मजदूरी 

जब मजदूरी का भुगतान कार्य के आधार पर किया जाता है, तब उसे कार्यानुसार मजदूरी कहा जाता है। कार्यानुसार मजदूरी इस बात पर निर्भर करती है कि मजदूर ने कितना काम किया है। जैसे- बीड़ी बनाने की मजदूरी प्रति हजार की गणना के आधार पर दी जाती है। छपाई के कारखाने में कम्पोज करने वाले को प्रति पृष्ठ के आधार पर पारिश्रमिक दिया जाता है। 

अनुवादक को भी प्रति पृष्ठ की दर से भुगतान किया जाता है। फोटोकापी के लिए भी मात्रा के आधार पर कीमत का भुगतान किया जाता है। इस प्रकार की मजदूरी में जो व्यक्ति जितना अधिक कार्य करता है, उसे उतना ही अधिक पारिश्रमिक प्राप्त होता है। इसमें मजदूरी भुगतान करते समय केवल कार्य की मात्रा देखी जाती है, समय का ध्यान नहीं रखा जाता। 

गुण 

कार्यानुसार मजदूरी के प्रमुख गुण निम्नांकित हैं - 

1. उत्पादन में वृद्धि - कार्यानुसार मजदूरी के अन्तर्गत मजदूर अधिक कार्य करते हैं, क्योंकि उनको अधिक कार्य करने पर अधिक मजदूरी की प्राप्ति होती है। पारिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि हो जाती है। इसी कारण पीगू आदि अर्थशास्त्रियों ने मजदूरों को उत्पादन से संबंधित करने का परामर्श दिया है।

2. निरीक्षण की कम आवश्यकता - कार्यानुसार मजदूरी के अन्तर्गत इस बात की निगरानी नहीं करनी पड़ती है कि मजदूर कार्य कर रहा है अथवा नहीं। काम कम करने पर मजदूर का स्वयं नुकसान होता है, लेकिन इस रीति में 'गुण नियंत्रण की आवश्यकता अधिक होती है। 

3. श्रमशक्ति का अधिक उपयोग - कार्यानुसार मजदूरी के अन्तर्गत देश की श्रमशक्ति का अधिक उपयोग संभव होता है। श्रमिक व्यर्थ में छुट्टी नहीं लेना चाहते हैं। कार्य के घण्टों में कमी तथा अवकाश के समय में वृद्धि भी नहीं चाहते हैं। अत: समय का कार्यानुसार मजदूरी में अधिकतम उपयोग होता है। इससे श्रमिक की कार्यक्षमता में वृद्धि हो जाती है। 

4. उत्पादन व्यय में कमी - अधिक मजदूरी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक श्रमिक कुशलता तथा ईमानदारी से कार्य करता है, वह कम समय में अधिकतम उत्पादन करने का प्रयत्न करता है, अतः सेवा योजक को उसके कार्य की निगरानी के लिए निरीक्षकों की नियुक्ति नहीं करनी पड़ती तथा उत्पादन अधिक मात्रा में होता है। परिणामस्वरूप उत्पादन लागत में कमी आती है।

5. मशीनों एवं यंत्रों की सुरक्षा - कार्यानुसार मजदूरी में श्रमिक मशीनों एवं यंत्रों का प्रायः अधिक अच्छे ढंग से प्रयोग करते हैं, क्योंकि उन्हें यह भय रहता है कि यदि मशीन एवं यंत्र खराब हो गये अथवा टूट गये तो वे कम उत्पादन कर सकेंगे और उनकी मजदूरी में कमी हो जायेगी।

6. कुशल मजदूरों में असंतोष नहीं रहता - कुशल मजदूरों को क्योंकि अधिक उत्पादन करने पर अधिक पारिश्रमिक मिलता है, इसलिए उनमें असंतोष की भावना नहीं रहती। पीगू के अनुसार, कार्यानुसार मजदूरी में उचित मजदूरी की संभावना अधिक रहती है। 

दोष

कार्यानुसार मजदूरी के प्रमुख दोष निम्नाकित हैं -

1. वस्तुओं के गुण में गिरावट - कार्यानुसार मजदूरी का पहला दोष यह है कि इसमें वस्तु के गुण में गिरावट आती है, क्योंकि श्रमिक अधिक मजदूरी प्राप्त करने के लालच में शीघ्रताशीघ्र अधिक कार्य कर लेना चाहते हैं और इससे वस्तु के गुण में गिरावट आना निश्चित है।

2. स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव - अधिक मजदूरी प्राप्त करने के उत्साह में श्रमिक प्राय: अपने स्वास्थ्य की चिन्ता न करते हुए अधिक कार्य करते हैं कार्य की अधिकता की वजह से उनका स्वास्थ्य खराब होने लगता है। वे कम उम्र में ही वृद्ध दिखाई पड़ने लगते हैं तथा कुछ वर्षों के पश्चात् ही उनकी कार्य कुशलता का स्तर गिर जाता है।

3. कलात्मक कार्यों के लिए अनुपयुक्त - कार्यानुसार मजदूरी की रीति उन व्यवसायों के लिए उपयुक्त नहीं होती है, जिनमें वस्तु की किस्म और बारीकियों की आवश्यकता होती है।

4. श्रम संघों को हानि - कार्यानुसार मजदूरी श्रम संघों के लिए हानिप्रद रहती है, क्योंकि 

  • श्रमिकों की मजदूरी में अन्तर आ जाने के कारण उनमें आपस में प्रतियोगिता उत्पन्न होती है तथा भातृत्व की भावना कम हो जाती है।
  • श्रमिक, श्रम संघों में रुचि नहीं लेते हैं, क्योंकि वह अधिक काम करने से थक जाते हैं तथा उनके पास संघों की सभाओं आदि में भाग लेने का समय ही नहीं होता है। 

5. आय की अनिश्चितता - कार्यानुसार मजूदरी के अन्तर्गत मजदूरों की आय अनिश्चित रहती है। क्योंकि जिस दिन वे अधिक काम करते हैं। उस दिन उन्हें अधिक मजदूरी मिलती है तथा कम कार्य करने पर कम मजदूरी मिलती है। 

6. मशीनों एवं औजारों का दुरुपयोग - कार्यानुसार मजदूरी के अन्तर्गत मशीनों तथा औजारों का सदुपयोग नहीं होता। शीघ्रता से काम करने के कारण मशीनों तथा औजारों में खराबी तथा घिसावट शीघ्रता से आती है।

मजदूरी में भिन्नता के कारण

मजदूरी की दर में भिन्नता का अध्ययन प्रमुख रूप से तीन दृष्टिकोणों से कर सकते हैं

1. विभिन्न व्यवसायों में मजदूरी की भिन्नता के कारण 

विभिन्न व्यवसायों में मजदूरी की भिन्नता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं -

  • कार्यक्षमता में अन्तर - मजदूरों की कार्यक्षमता का मजदूरी की दर पर बहुत प्रभाव पड़ता है। सभी श्रमिक समान कार्यक्षमता वाले नहीं होते। प्रायः जिन श्रमिकों को कार्यक्षमता अधिक होती है, उन्हें अधिक मजदूरी दी जाती है, इसके विपरीत, जिन श्रमिकों की कार्यक्षमता कम होती है। उन्हें कम मजदूरी दी जाती है।
  • प्रशिक्षण व्यय - प्रशिक्षण व्यय का मजदूरी की दर पर प्रभाव पड़ता है। जिन व्यवसायों में प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। उनमें मजदूरी की दर अपेक्षाकृत अधिक होती है। क्योंकि प्रशिक्षण में समय, शक्ति एवं धन का व्यय करना होता है। इसके विपरीत स्थिति में मजदूरी की दर कम होती है।
  • गतिशीलता का अभाव - श्रमिकों की गतिशीलता में अन्तर के कारण मजदूरी की दर में भिन्नता होती है। प्रायः जो श्रमिक अधिक गतिशील होते हैं। वे अधिक अच्छे अवसर प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। इसके विपरीत जिन श्रमिकों में गतिशीलता का अभाव पाया जाता है। उन्हें अधिक अच्छे अवसर नहीं मिल पाते।
  • अतिरिक्त सुविधाएँ - जिन व्यवसायों में श्रमिकों को अतिरिक्त सुविधाएँ जैसे- आवास, चिकित्सा, शिक्षा, मनोरंजन आदि दी जाती है। वहाँ मजदूरी की दर कम होती है। इसके विपरीत उन व्यवसायों में जहाँ श्रमिकों को अतिरिक्त सुविधाएँ नहीं मिलती, वहाँ मजदूरी की दर अधिक रहती है।
  • श्रम संघों की भूमिका - श्रम संघ का मजदूरी की दर पर प्रभाव पड़ता है। प्रायः जिन व्यवसायों में श्रम संघ सक्रिय रहते हैं। वहाँ मजदूरी की दर अधिक रहती है। इसके विपरीत, उन व्यवसायों में जहाँ श्रम सघों की स्थिति कमजोर रहती है, वहाँ पर मजदूरी की दर कम रहती है।
  • योग्यता में अन्तर - योग्यता में अन्तर मजदूरी की दर में भिन्नता पैदा करती है। प्रायः जिन श्रमिकों की योग्यता अधिक होती है। उन्हें अधिक मजदूरी मिलती है। इसके विपरीत, जिन श्रमिकों की योग्यता कम होती है, उन्हें कम मजदूरी मिलती है।
  • उन्नति के अवसर - सामान्यतया जिन व्यवसायों में श्रमिकों को उन्नति कर सकने के अवसर अधिक होते हैं। वहाँ श्रमिक कम मजदूरी पर कार्य करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। इसके विपरीत, उन्नति के अवसरों के अभाव में श्रमिकों को ऊँची मजदूरी देकर आकर्षित करना होता है।

2. एक ही व्यवसाय में मजदूरी में भिन्नता के कारण

एक ही व्यवसाय में मजदूरी की दर में भिन्नता के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं -

  • कुशलता में अन्तर - कुछ श्रमिकों में कार्यकुशलता अधिक होती है और उनके कारण द्वारा उत्पादन अधिक मात्रा में किया जाता है। अतः उन्हें अधिक मजदूरी दी जाती है। इसके विपरीत, जिन श्रमिकों की कार्यकुशलता कम होती है और उनके द्वारा उत्पादन भी कम होता है, तो उनकी मजदूरी दर कम होती है। 
  • श्रमिकों की गतिशीलता में कमी - श्रमिकों की गतिशीलता में कमी के कारण भी मजदूरी की दरों में भिन्नता पायी जाती है, जो श्रमिक घर से दूर जाकर काम करते हैं, उन्हें अधिक मजदूरी मिलती है। इसके विपरीत, जो घर से दूर जाकर काम करने में असमर्थ होते हैं, उन्हें कम मजदूरी मिलती है ।
  • रोजगार की अवधि में अन्तर - रोजगार की अवधि में अन्तर के कारण भी मजदूरी की दर में भिन्नता होती है, जो श्रमिक पहले से ही किसी कारखाने में कार्यरत हैं, उन्हें नए श्रमिक की तुलना में अधिक मजदूरी दी जाती है।
  • स्थान का अन्तर - जिन स्थानों पर मुद्रा की क्रयशक्ति अधिक होती है, वहाँ मजदूरी कम होने पर भी श्रमिक काम करने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन जहाँ मुद्रा की क्रयशक्ति कम होती है, वहाँ मजदूरी अधिक दी जाती है। 
  • अनभिज्ञता - अनभिज्ञता के कारण कभी-कभी एक ही व्यवसाय में मजदूरी की दर में भिन्नता पायी जाती है। जैसे - यह संभव है कि सेवा योजक को ज्ञात न हो कि उसे कम मजदूरी पर भी श्रमिक मिल सकते हैं। इसी प्रकार श्रमिकों को भी यह जानकारी न हो कि उन्हें दूसरे स्थान पर भी अधिक मजदूरी प्राप्त हो सकती है।
  • शिक्षित श्रमिक - कुछ श्रमिक अपने कार्य के विशेषज्ञ होते हैं और वे उस कार्य से संबंधित विशिष्ट प्रशिक्षण भी प्राप्त कर लेते हैं, जैसे- इंजीनियर, डॉक्टर, वकील आदि। इनकी मजदूरी सामान्यतया अधिक होती है। 

3. स्त्री तथा पुरुष श्रमिकों की मजदूरी दर में भिन्नता के कारण  

प्रायः स्त्री श्रमिकों की मजदूरी, पुरुष श्रमिकों की तुलना में कम होती है। इसके प्रमुख कारण निम्नांकित हैं

  • सभी कार्य न कर सकना - स्त्री श्रमिकों में सभी प्रकार के कार्य करने की क्षमता नहीं होती है। कुछ व्यवसाय एवं जटिल मशीनों का कार्य केवल पुरुष श्रमिक ही कर सकते हैं । इस प्रकार स्त्री श्रमिक कुछ कार्यों को ही कर सकते हैं। इसलिए उनकी मजदूरी कम होती है।
  • स्त्रियाँ कम मजदूरी पर कार्य कर सकती हैं - स्त्री श्रमिकों की आवश्यकताएँ तथा उन पर आश्रितों की संख्या प्रायः कम होती हैं। परिणामस्वरूप कम मजदूरी से उनका काम चल जाता है। स्त्री श्रमिकों की आय परिवार में होने वाली आय में अतिरिक्त वृद्धि कही जाती है।
  • कार्यकुशलता की कमी - स्त्री श्रमिकों में पुरुष श्रमिकों की तुलना में कार्य करने की क्षमता कम होती है। परिणामस्वरूप उनकी उत्पादन की क्षमता भी कम होती है और उन्हें कम मजदूरी मिलती हैं। उनमें शिक्षा एवं प्रशिक्षण के अभाव में कार्यकुशलता की कमी होती है, जिससे उन्हें कम मजदूरी मिलती है।
  • गतिशीलता का अभाव - स्त्री श्रमिकों में कम गतिशीलता पायी जाती है। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर कार्य करना पसंद नहीं करती हैं। बाहर जाने पर कई प्रकार की कठिनाइयाँ आ जाती हैं, जिससे वे कम मजदूरी पर कार्य करने के लिए तैयार हो जाती हैं।
  • नियमित कार्य न कर पाना - स्त्री श्रमिक हमेशा नियमित रूप से कार्य नहीं कर पाती । सामाजिक रीति-रिवाज, संतानोत्पत्ति, विवाह आदि के कारण उन्हें समय-समय पर अवकाश की आवश्यकता होती है। इसलिए स्त्री श्रमिकों को कम मजदूरी मिलती है।
  • नियुक्ति में लागत अधिक - स्त्री श्रमिकों को काम पर रखने पर नियोक्ता को अधिक लागत का भार सहन करना पड़ता है, क्योंकि कारखाना अधिनियम के अनुसार उन्हें मातृत्व लाभ, चिकित्सा सुविधा पर अधिक व्यय करना पड़ता है। साथ में अधिक दिनों का अर्जित अवकाश भी देना पड़ता है, अतः नियोक्ता उन्हें कम मजदूरी देता है। 

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