राष्ट्रीय आय किसे कहते हैं?

राष्ट्रीय आय समष्टि अर्थशास्त्र का केन्द्र बिन्दु है। राष्ट्रीय आय का महत्व न केवल समष्टि आर्थिक सिद्धांतों के विश्लेषण में है, बल्कि किसी भी देश के आर्थिक निष्पादन को समझने के लिए है। मानव कल्याण बहुत-सी बातों पर निर्भर करता है, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनम भौतिक वस्तुओं की उपलब्धि तथा उपभोग सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व हैं। 

इसीलिए अर्थशास्त्री इस बात में विशेष रुचि लेते हैं कि एक देश में एक निश्चित समय अवधि में कितनी वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन हुआ। वस्तुओं एवं सेवाओं का शुद्ध उत्पादन ही देश की राष्ट्रीय आय होती है जो वहाँ के लोगों में विभाजित होती है इससे स्पष्ट है कि यदि किसी देश की राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो रही है तो उस देश की आर्थिक स्थिति में सुधार हो रहा है। इसके विपरीत, यदि उसकी राष्ट्रीय आय में कमी हो रही है तो उस देश की आर्थिक स्थिति खराब हो रही है। 

राष्ट्रीय आय किसे कहते हैं?

सामान्यतया किसी एक देश में, एक वर्ष के दौरान उत्पादित सभी वस्तुओं एवं सेवाओं के मौद्रिक मूल्य को राष्ट्रीय आय कहते हैं। कुछ अर्थशास्त्री राष्ट्रीय आय की अवधारणा को 'राष्ट्रीय उत्पाद' 'राष्ट्रीय लाभांश' तथा 'राष्ट्रीय व्यय' के नाम से भी संबोधित करते हैं। 

अतः राष्ट्रीय आय के वास्तविक अर्थ को समझना आवश्यक है। राष्ट्रीय आय की परिभाषा विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से की है। राष्ट्रीय आय की इन परिभाषाओं को हम मुख्य रूप से दो भागों में बाँट सकते हैं -

  1. परम्परागत परिभाषाएँ। 
  2. आधुनिक परिभाषाएँ। 

1. परम्परागत परिभाषाएँ 

परम्परागत परिभाषाओं में प्रो. मार्शल, पीगू तथा फिशर की परिभाषाओं को शामिल किया जाता है। प्रो. मार्शल के अनुसार, “किसी देश का श्रम एवं पूँजी, उस देश के प्राकृतिक साधनों पर कार्य करते हुए प्रतिवर्ष भौतिक एवं अभौतिक वस्तुओं एवं सभी प्रकार की सेवाओं का जो शुद्ध योग उत्पन्न करते हैं। उसे ही उस देश की शुद्ध वार्षिक आय अथवा राष्ट्रीय लाभांश कहते हैं। 

इस प्रकार प्रो. मार्शल की परिभाषा से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आय की गणना साधारणतया वार्षिक आधार पर की जाती है। कुल उत्पादन में से मशीनों की टूट-फूट एवं घिसावट व्यय घटा देना चाहिए। इसमें विदेशी विनियोगों से प्राप्त विशुद्ध आय जोड़ देनी चाहिए। इसमें उन सेवाओं को सम्मिलित नहीं करना चाहिए, जो व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों के लिए या मित्रों के लिए नि: शुल्क करता है। 

इस प्रकार व्यक्तिगत सम्पत्ति तथा सार्वजनिक सम्पत्ति से प्राप्त लाभों को राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं करना चाहिए। मार्शल ने राष्ट्रीय आय की परिभाषा उत्पादन के आधार पर की है। मार्शल की परिभाषा सरल एवं व्यापक है।

प्रो. मार्शल की परिभाषा की आलोचनाएँ - आलोचकों ने प्रो. मार्शल द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रीय आय की परिभाषा में निम्नांकित दोष बताये हैं -

1. मार्शल के अनुसार राष्ट्रीय आय की गणना करना व्यावहारिक दृष्टिकोण से असंभव है। क्योंकि किसी देश में उत्पादित की जाने वाली सभी वस्तुओं तथा सेवाओं की गणना नहीं की जा सकती है।

2. अर्थव्यवस्था में बहुत सी वस्तुएँ ऐसी होती हैं। जिनका विनिमय बाजार में नहीं होता। जैसे- कृषक फसल का एक भाग अपने परिवार के प्रयोग के लिए रख लेता है, ऐसी वस्तुओं का मौद्रिक मूल्य ज्ञात नहीं किया जा सकता है। अतः मार्शल की परिभाषा के अनुसार राष्ट्रीय आय की सही गणना संभव नहीं है।

3. मार्शल की परिभाषा के अनुसार राष्ट्रीय आय की गणना करने पर दोहरी गणना की संभावना रहती है। जैसे कृषि उत्पादन में कपास के मूल्य को भी शामिल किया जा सकता है तथा औद्योगिक उत्पादन में उसी कपास से बने कपड़े के उत्पादन मूल्य को भी शामिल किया जा सकता है।

4. मार्शल की उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद भी इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि प्रो. मार्शल के दृष्टिकोण में सरलता एवं व्यापकता का गुण पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है। वास्तव में, राष्ट्रीय उत्पादन ही राष्ट्रीय आय का उचित एवं तर्कसंगत आधार है।

प्रो. पीगू के अनुसार - राष्ट्रीय आय किसी देश की वस्तुनिष्ठ आय का वह भाग है। जिसे मुद्रा में मापा जा सकता है। इसमें विदेशों से प्राप्त आय भी शामिल रहती है।

इस प्रकार प्रो. पीगू की परिभाषा से स्पष्ट है कि प्रो. पीगू की परिभाषा सरल एवं स्पष्ट है। क्योंकि राष्ट्रीय आय में केवल उन्हीं वस्तुओं एवं सेवाओं को शामिल किया जायेगा, जिनका मूल्य मुद्रा के रूप में व्यक्त किया जा सकेगा। 

प्रो. पीगू ने मुद्रा रूपी मापदण्ड का प्रयोग कर राष्ट्रीय आय को निश्चितता प्रदान की है। प्रो. पीगू की परिभाषा के अनुसार, राष्ट्रीय आय की गणना सुविधाजनक हो गयी है। क्योंकि दोहरी गणना की कठिनाई को दूर करने के लिए राष्ट्रीय आय में केवल वे ही वस्तुएँ एवं सेवाएँ शामिल की गयी हैं। 

जिसके मूल्य को मुद्रा के रूप में मापा जा सकता है और विनियोजन करने से एक राष्ट्र को जो आय प्राप्त होती है, उन्हें भी राष्ट्रीय आय में शामिल किया जायेगा। प्रो. पीगू की परिभाषा, प्रो. मार्शल की परिभाषा की तुलना में अधिक व्यावहारिक है, क्योंकि इसमें मुद्रा रूपी मापदण्ड का प्रयोग किया गया है और दूसरे विदेशों से अर्जित आय को भी शामिल किया गया है।

प्रो. पीगू की परिभाषा की आलोचनाएँ - आलोचकों ने प्रो. पीगू की परिभाषा में निम्नांकित दोष बताये हैं -

1. प्रो. पीगू के द्वारा मुद्रा रूपी मापदण्ड का प्रयोग किये जाने से राष्ट्रीय आय में अनिश्चिता बनी रहती है। इसका कारण यह है कि कभी कोई वस्तु या सेवा राष्ट्रीय आय में शामिल की जाती है तो कभी वहीं वस्तु या सेवा राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं की जाती है। 

जैसे- एक व्यक्ति अपनी नौकरानी से जो सेवाएँ प्राप्त करता है, वह राष्ट्रीय आय में शामिल की जायेंगी, क्योंकि उसकी सेवा के बदले मुद्रा दिया जाता है, किन्तु वह व्यक्ति उस नौकरानी से विवाह कर लेता है तो उसकी सेवाएँ निःशुल्क होने के कारण राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं की जायेंगी।

2. प्रो. पीगू ने मुद्रा रूपी मापदण्ड का प्रयोग कर वस्तुओं को विनिमय-योग्य और गैर-विनिमय योग्य के रूप में बाँट दिया है, लेकिन व्यावहारिक जीवन में वस्तुओं में इस प्रकार का कोई विभाजन नहीं होता है, अतः वस्तुओं में कृत्रिम विभाजन उचित नहीं है।

3. प्रो. पीगू की परिभाषा केवल विकसित देशों में ही राष्ट्रीय आय की गणना के लिए उपयुक्त कही जा सकती है, क्योंकि उन देशों में वस्तुओं का लेन-देन मुद्रा के द्वारा किया जाता है।लेकिन पिछड़े हुए अर्द्धविकसित देशों में इसका प्रयोग बहुत कम है, क्योंकि इन देशों में उत्पादन के एक बड़े भाग का तो वस्तु विनिमय किया जाता है। फलस्वरूप, राष्ट्रीय आय की गणना वास्तविकता से कम हो जाती है। इस प्रकार इसका क्षेत्र संकुचित हो जाता है।

फिशर के अनुसार - राष्ट्रीय आय में केवल वे सेवाएँ ही शामिल की जाती हैं। जो अंतिम उपभोक्ताओं को प्राप्त होती हैं। चाहे वे उनके भौतिक अथवा मानवीय वातावरण से प्राप्त हुई हों। इस प्रकार एक पियानो अथवा ओवरकोट जो कि मेरे लिए इस वर्ष बनाया गया है। वह इस वर्ष की आय का भाग नहीं है। बल्कि वह पूँजी में वृद्धि मात्र है। केवल वे सेवाएं आय हैं, जो इन वस्तुओं ने मुझे इस वर्ष प्रदान की है। 

इस प्रकार प्रो. फिशर की परिभाषा से स्पष्ट है कि प्रो. फिशर ने राष्ट्रीय आय की परिभाषा 'उपभोग' के आधार पर की है। प्रो. फिशर के अनुसार राष्ट्रीय आय के अन्तर्गत वस्तुओं एवं सेवाओं के कुल उत्पादन को शामिल नहीं किया जाता है, बल्कि कुल उत्पादन के उसी भाग को राष्ट्रीय आय में शामिल किया जाता है। जिसका उस वर्ष उपभोग किया जाता है। 

प्रो. फिशर की परिभाषा आर्थिक कल्याण के विचार के अधिक अनुकूल है, क्योंकि इसके अन्तर्गत उत्पादन को नहीं, बल्कि उपभोग को राष्ट्रीय आय का आधार बनाया गया है। इसका कारण यह है कि लोगों का जीवन स्तर उनके उपभोग पर निर्भर होता है। प्रो. फिशर की परिभाषा तार्किक एवं वैज्ञानिक है। 

प्रो. फिशर की परिभाषा की आलोचनाएँ - आलोचकों ने प्रो. फिशर की परिभाषा में निम्नांकित दोष बताये हैं -

1. प्रो. फिशर की परिभाषा व्यावहारिक दृष्टि से दोषपूर्ण है। क्योंकि टिकाऊ वस्तुओं के जीवन का सही-सही अनुमान लगाना कठिन होता है। कई टिकाऊ वस्तुओं के स्वामित्व में भी परिवर्तन हो जाता है। अतः ऐसी दशा में राष्ट्रीय आय की गणना करने में कठिनाई आती है।

2. प्रो. फिशर की परिभाषा के अनुसार किसी वर्ष विशेष में उत्पादित धन का कितना भाग उस वर्ष में उपभोग किया जायेगा। इसका भी ठीक-ठीक अनुमान लगाना भी कठिन होता है।

3. आलोचकों के अनुसार राष्ट्रीय आय की गणना के लिए उपभोग को आधार मानना और उसकी उत्पादन से तुलना करना और भी कठिन है। क्योंकि उत्पादक बहुत थोड़ी संख्या में होते हैं। जबकि उपभोक्ता बहुत बड़ी संख्या में होते हैं। तीनों परिभाषाओं में से कौन-सी परिभाषा सर्वश्रेष्ठ है ?

राष्ट्रीय आय के सन्दर्भ में प्रो. मार्शल, प्रो. पीगू एवं प्रो. फिशर की परिभाषाओं में कौन-सी परिभाषा श्रेष्ठ है यह कहना कठिन है। क्योंकि अपने-अपने दृष्टिकोण से तीनों परिभाषाएँ उपयुक्त हैं। 

उदाहरणार्थ

  • यदि हमारा उद्देश्य राष्ट्रीय कल्याण का पता लगाना है, तो फिशर की परिभाषा अधिक उपयुक्त है। क्योंकि आर्थिक कल्याण उपभोग के स्तर पर ही निर्भर करता है। 
  • यदि हमारा उद्देश्य देश में आर्थिक कल्याण उत्पन्न करने वाले घटकों का अध्ययन करना है तो प्रो. मार्शल की परिभाषा श्रेष्ठ है। 
  • यदि हमारा उद्देश्य राट्रोय आय को मौद्रिक आय में ज्ञात करना है, तो प्रो. पीगू की परिभाषा श्रेष्ठ है।

लेकिन उपर्युक्त तथ्यों के बावजूद भी हमें तीनों में से सर्वश्रेष्ठ परिभाषा ज्ञात करने को कहा जाय तो हम कह सकते हैं कि प्रो. पीगू की परिभाषा तभी श्रेष्ठ होगी, जब सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था मौद्रिक हो तथा दोहरी गणना की संभावना न हो। फिर भी प्रो. पीगू की परिभाषा को एक हद तक व्यावहारिक माना जा सकता है।  

क्योंकि मुद्रा राष्ट्रीय आय को मापने का एक सीमा तक उचित साधन है। इसी प्रकार व्यावहारिक दृष्टि से प्रो. फिशर एवं प्रो. मार्शल की परिभाषाओं में भी अधिक अन्तर नहीं है, क्योंकि उत्पादन का अंतिम लक्ष्य उपभोग ही होता है। फिर भी उपभोग की सही-सही जानकारी करना कठिन है। 

अतः व्यावहारिक दृष्टि से प्रो. मार्शल की परिभाषा सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि – (1) यह सरल है । (2) इसमें कुल उत्पादन की मात्रा को ज्ञात किया जा सकता है। (3) इसमें एक वर्ष के उत्पादन की गणना की जाती है। (4) विदेशों से प्राप्त आय को भी इसमें शामिल किया जाता है । -

आधुनिक परिभाषाएँ 

आधुनिक परिभाषाओं में प्रो. साइमन कुजनेट्स, कोलिन क्लार्क, प्रो. व्ही. के. आर. वी. राव, राष्ट्रीय आय समिति एवं केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन की परिभाषा को शामिल किया जाता है।

1. प्रो. साइमन कुजनेट्स के अनुसार - राष्ट्रीय आय किसी देश की उत्पादन व्यवस्था में एक वर्ष के भीतर प्राप्त होने वाली वस्तुओं एवं सेवाओं का वह विशुद्ध उत्पादन है। जो अंतिम उपभोक्ताओं को प्राप्त होता है अथवा देश की पूँजी स्टॉक में वृद्धि करता है। 

2. प्रो. कोलिन क्लार्क के अनुसार - किसी विशेष समयावधि में राष्ट्रीय आय को उन वस्तुओं एवं सेवाओं के मौद्रिक मूल्य में व्यक्त करते हैं। जो उस अवधि में उपभोग के लिए उपलब्ध रहती हैं। वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य उनकी प्रचलित विक्रय कीमतों पर निकाला जाता है। 

3. भारत की राष्ट्रीय आय समिति के अनुसार - एक निश्चित समयावधि में वस्तुओं एवं सेवाओं की बिना दोहरी गणना किये हुये जो योग प्राप्त होता है। उसे राष्ट्रीय आय कहते हैं। 

4. केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन के अनुसार - राष्ट्रीय आय किसी देश के सामान्य निवासियों द्वारा एक लेखा वर्ष में मजदूरी, लगान, ब्याज तथा लाभ के रूप में अर्जित साधन आय का योग है।

अतः निष्कर्ष रूप में, राष्ट्रीय आय की परिभाषा निम्नानुसार की जा सकती है - किसी देश की राष्ट्रीय आय साधारणतः वहाँ एक वर्ष में उत्पादित समस्त वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य का योग होती है, जिसमें से वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन हेतु प्रयुक्त मशीनों एवं पूँजी की घिसावट को घटा दिया जाता है तथा विदेशों से प्राप्त विशुद्ध आय को जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार राष्ट्रीय आय में निम्न बातें शामिल होती हैं। 

  • राष्ट्रीय आय की गणना का संबंध किसी राष्ट्र विशेष से होता है।
  • राष्ट्रीय आय की गणना प्रायः एक वर्ष की अवधि से संबंधित होती है।
  • राष्ट्रीय आय की गणना में उन सभी वस्तुओं एवं सेवाओं को शामिल किया जाता है, जिनका विनिमय मूल्य
  • राष्ट्रीय आय की गणना करते समय पूँजी की घिसावट व्यय को घटा दिया जाता है।
  • राष्ट्रीय आय की गणना में विदेशों से अर्जित विशुद्ध आय को जोड़ दिया जाता है। 
  • राष्ट्रीय आय की गणना में प्रत्येक वस्तु एवं सेवा का मूल्य एक ही बार शामिल किया जाता है।
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