सहकारी बैंक किसे कहते हैं?

भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि ग्रामीण जनता के जीविकोपार्जन का साधन मात्र है, लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय कृषक अशिक्षित एवं गरीब हैं। भारतीय कृषक ऋणग्रस्तता के कारण न तो आर्थिक उन्नति कर सकता है और न ही कृषि में सुधार ला सकता है, क्योंकि गाँवों में साख की कोई सुविधा नहीं है। इसीलिए उसे अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बार-बार साहूकारों अथवा महाजनों से ऋण लेना पड़ता है। 

इन साहूकारों की ब्याज की दर अधिक होती है तथा ऋण देने की शर्तें भी कठिन होती हैं। परिणामस्वरूप गरीब किसान की आय का एक बड़ा हिस्सा ब्याज चुकाने में ही चला जाता है। इस प्रकार किसान कभी भी ऋण से मुक्त नहीं हो पाता। इन्हीं कठिनाइयों को दूर करने के लिए सहकारी बैंक की स्थापना की गई। इसको एक कल्याणकारी संस्था माना जाता है।

परिभाषा

सहकारी बैंक सहकारिता के सिद्धांतों पर आधारित होते हैं। भारत में इनकी स्थापना सन् 1904 में की गयी। इन बैंकों के संगठन में समय-समय पर परिवर्तन होता जा रहा है। कृषक एक प्रारम्भिक साख समिति का गठन करते हैं, जो सदस्यों को अंश बेचकर पूँजी एकत्र करती है। जिला स्तर पर जिला या केन्द्रीय सहकारी बैंक व राज्य स्तर पर राज्य सहकारी बैंक स्थापित किये जाते हैं।  

जो प्राथमिक समितियों को सहायता और मार्ग दर्शन प्रदान करते हैं। सहकारी बैंक अल्पकालीन ऋण प्रदान करते हैं। भारत में इन दिनों सेवा सहकारी समितियाँ स्थापित की गयी हैं जो कि साख के साथ अन्य कार्य भी करती हैं। सहकारी बैंक की कुछ परिभाषाएँ निम्न हैं -

सर होरेस प्लंकेट के अनुसार - सहकारिता आत्म सहायता को संगठन द्वारा प्रभावशाली बनाती है। 

एच कलबर्ट के अनुसार - सहकारी एक प्रकार का संगठन है। जिसमें लोग स्वेच्छापूवर्क समानता के आधार पर अपने आर्थिक हित की उन्नति के लिए संगठित होते हैं।

सैलिगमैन के अनुसार - तकनीकी शब्दों में सहकारिता का अर्थ वितरण और उत्पादन में प्रतियोगिता का परित्याग कर समस्त प्रकार के मध्यस्थों को दूर करना है। 

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार - सहकारी समिति उन व्यक्तियों का एक संगठन है। जिनके साधन प्रायः सीमित होते हैं और जो प्रजातांत्रिक ढंग से नियंत्रित व्यावसायिक संगठन की स्थापना करके समान आर्थिक लक्ष्य की उपलब्धि के लिए स्वेच्छा से एकत्र होते हैं। उसके लिए आवश्यक पूँजी परस्पर उचित अनुपात में जुटाते हैं तथा व्यवसाय में निहित जोखिम व उससे प्राप्त लाभ को परस्पर उचित अनुपात में बाँटने के लिए सहमत होते हैं। 

उपुर्यक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सहकारी बैंकों से आशय उन बैंकों से है जिनकी स्थापना सदस्यों द्वारा पारस्परिक लाभ के लिए की जाती है और जिन पर सहकारिता अधिनियम लागू होता है।

सहकारिता की विशेषताएँ

सहकारी संस्था चाहे किसी भी प्रकार की हो उपभोक्ता सहकारी संस्था हो अथवा विपणन सहकारी संस्था हो अथवा कृषि सहकारी संस्था हो, इनकी कुछ सामान्य विशेषताएँ हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं -

1. स्वैच्छिक संगठन - सहकारी संस्था विभिन्न व्यक्तियों का एक स्वैच्छिक संगठन है, जो कि ऐसे संगठन में किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सम्मिलित होते हैं, ये सदस्य जब चाहें इस संगठन को छोड़ सकते हैं।

2. प्रजातांत्रिक प्रबंधन - सहकारी संस्था का प्रबंधन पूर्णतया प्रजातांत्रिक आधार पर होता है।

3. एक मत देने का अधिकार - संस्था के सदस्य अपने में से किन्हीं व्यक्तियों का चयन करते हैं। जिनके द्वारा संस्था के दिन-प्रतिदिन के कार्यों को संचालित किया जाता है। किसी व्यक्ति विशेष के किसी संस्था में चाहे कितने भी अंश हों, उसे केवल एक ही मत देने का अधिकार होता है।

4. सेवा उद्देश्य - सहकारी संस्थाएँ सेवा भाव के उद्देश्य से गणित की जाती हैं तथा लाभ कमाना इनका उद्देश्य नहीं होता है। यद्यपि वे अपने क्रियाकलापों से कुछ धन अवश्य कमाते हैं। लेकिन इस धन का उपयोग संस्था द्वारा संस्था की गतिविधियों के संचालन हेतु कर दिया जाता है।

5. आसानी से अंशों का हस्तांतरण - सहकारी संस्थाओं के अंश आसानी से हस्तांतरित किये जा सकते हैं। संस्था के पुराने सदस्य समय समय पर संस्था को छोड़ते जाते हैं तथा नये सदस्य शामिल होते हैं। 

6. समान लाभ का विभाजन - संस्था के समस्त सदस्यों द्वारा संस्था के क्रियाकलापों के संचालन हेतु प्रयास किये जाते हैं। संस्था द्वारा अर्जित किये जाने वाला लाभ भी सदस्यों में बराबर बाँटा जाता है, अतः संस्था को लाभ की स्थिति में लाने की कोशिश करता है।

7. पंजीयन अनिवार्य नहीं - यद्यपि सहकारी संस्थाओं का पंजीयन अनिवार्य नहीं है फिर भी पंजीकृत सहकारी संस्थाएँ, गैर-पंजीकृतं सहकारी संस्थाओं की अपेक्षा सुविधाजनक स्थिति में होती हैं, क्योंकि पंजीयन करवा लेने के उपरान्त उसे संयुक्त स्कन्ध कम्पनी की तरह कारपोरेट स्टेट्स प्राप्त हो जाता है।

भारत में सहकारी बैंकों का संगठन

भारत में सहकारी बैंक भी बैंकिंग के आधारभूत कार्य सम्पन्न करते हैं, लेकिन वे व्यापारिक बैंकों से बिल्कुल अलग प्रकार के होते हैं। व्यापारिक बैंकों का गठन संसद द्वारा पारित अधिनियम द्वारा किया गया है, जबकि सहकारी बैंकों की स्थापना अलग-अलग राज्यों द्वारा बनाये गये सहकारी समितियों के अधिनियमों द्वारा की गयी है। भारत में सहकारी बैंकों का गठन 'तीन स्तरों वाला' है।

  1. राज्य सहकारी बैंक, 
  2. केन्द्रीय या जिला सहकारी बैंक एवं 
  3. प्राथमिक सहकारी साख समिति। 

भारत की समस्त सहकारी साख समितियों पर रिजर्व बैंक का नियंत्रण है।

प्राथमिक सहकारी साख समितियाँ 

प्राथमिक सहकारी साख समिति से तात्पर्य, उस सहकारी समिति से है जो एक प्राथमिक कृषि साख समिति होती है तथा जिसका मुख्य उद्देश्य बैंकिंग व्यवसाय करना होता है। इन समितियों का उद्देश्य अपने सदस्यों को सस्ती ब्याज की दर पर ऋण देना होता है। सहकारी साख समितियाँ अपने सदस्यों के लिए सामूहिक साख के आधार पर ऋण का प्रबन्ध करती है। ये समितियाँ दो प्रकार की होती हैं -

1. कृषि सहकारी साख समिति 

भारत में कृषि सहकारी साख समितियों का संगठन 'रैफिशन प्रणाली' पर किया जाता है। इसके संगठन के आधार निम्नानुसार 

1. समिति का क्षेत्र - प्राय: 'रैफिशन प्रणाली' में एक गाँव एक समिति का सिद्धान्त अपनाया जाता है, लेकिन बड़े गाँवों में एक से अधिक समितियाँ भी स्थापित की जा सकती हैं। समिति का क्षेत्र सीमित होने के कारण सदस्यों में आपस में निकट सम्पर्क रहता है। उन्हें एक दूसरे की गतिविधियों का ज्ञान रहता है, अतः सदस्यों के अनुचित कार्यों पर नियंत्रण रखा जा सकता है। ९

2. समिति की सदस्यता - एक गाँव अथवा क्षेत्र के कोई भी कम से कम 10 सदस्य मिलकर एक प्राथमिक साख समिति का गठन कर सकते हैं इसके सदस्यों की संख्या 100 से अधिक नहीं होनी चाहिए।

3. समिति का पंजीयन - प्रत्येक सहकारी साख समिति का पंजीयन प्रांतीय सहकारिता विधान के अन्तर्गत करना अनिवार्य है। पंजीयन निःशुल्क होता है।

4. समिति का प्रबन्ध - सहकारी साख समितियों का प्रबन्ध प्रजातंत्रीय ढंग से किया जाता है, जो अवैतनिक होते हैं। प्रबन्ध के लिए दो समितियाँ होती हैं।

5. असीमित दायित्व - सरकारी साख समितियों का दायित्व असीमित होता है। समिति के सभी सदस्य व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से समिति की देनदारी तथा हानि के लिए उत्तरदायी होते हैं।

6. समिति की पूँजी - सरकारी साख समिति कई स्रोतों से पूँजी प्राप्त करती है। प्रत्येक सदस्य से समिति का सदस्य बनते समय प्रवेश शुल्क लिया जाता है तथा ये 1. आंतरिक साधनों एवं 2. बाह्य साधनों से पूँजी प्राप्त करती हैं।

7. सस्ती ब्याज दर - सहकारी साख समितियों का उद्देश्य सदस्यों की सहायता करना होता है, न कि लाभ कमाना। अतः ये अपने सदस्यों को नीची ब्याज दर पर ऋण देती हैं। जिस ब्याज दर पर समिति स्वयं ऋण लेती है उससे कुछ ही ऊँची दर पर यह सदस्यों को ऋण देती है।

8. ऋण वसूली - सहकारी साख समिति सदस्यों को दिये गये ऋण को समय पर वसूल करने पर ध्यान देती है। सुविधा की दृष्टि से ऋणों को छोटी-छोटी किस्तों में भी वसूल किया जाता है। ये प्रायः फसल के तैयार होने पर देय होती है। जो सदस्य जिस समय ऋण चुकाने की अनुकूल स्थिति में होता है, समिति उसी समय उससे ऋण वसूल करने का प्रयत्न करती है।

9. लेखा निरीक्षण - सहकारी साख समितियों के लेखा निरीक्षण के लिए समितियों का रजिस्ट्रार लेखा निरीक्षण के लिए समितियों का रजिस्ट्रार लेखा परीक्षक नियुक्त करता है, जो प्रतिवर्ष समिति के हिसाब-किताब का निरीक्षण कर अपनी रिपोर्ट देता है । कभी-कभी यह कार्य निरीक्षण यूनियनों द्वारा भी किया जाता है। लेकिन लेखा परीक्षकों पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

10. लाभ-विभाजन - सरकारी साख समितियों का संगठन हिस्सा बेचकर नहीं किया जाता, अतः लाभ - विभाजन का प्रश्न ही नहीं उठता।

2. गैर-कृषि साख सहकारी समिति

प्राथमिक गैर-कृषि साख समिति का निर्माण श्रमिकों, वेतन भोगी कर्मचारियों छोटे दुकानदारों एवं शिल्पकारों द्वारा किया जाता है। ये समितियाँ गैर-कृषि कार्यों के लिए ऋण प्रदान करती हैं। इन समितियों का उद्देश्य लाभ कमाना होता है तथा ये पर्याप्त जमानत के आधार पर अल्पकालीन ऋण प्रदान करती हैं। इनकी कार्य प्रणाली अथवा संगठन निम्नानुसार हैं- 

1. कार्य क्षेत्र अथवा दायित्व - गैर-कृषि साख समितियों का कार्य क्षेत्र एक छोटा शहर या कस्बा होता है तथा इनके सदस्यों का दायित्व सीमित होता है।

2. समिति की पूँजी - गैर-कृषि साख समितियाँ अपनी पूँजी अंश बेचकर प्राप्त करती हैं। इसके अतिरिक्त सदस्यों एवं गैर-सदस्यों से जमा प्राप्त करती हैं।

3. ऋण प्रदान करना - गैर-कृषि साख समितियाँ ऋण अनुत्पादक कार्यों के लिए भी देती हैं। उनका उद्देश्य लाभ कमाना होता है। ये अधिकतर जमानत लेकर अल्पकालीन ऋण देती हैं। 

4. लाभ का वितरण - गैर-कृषि साख समिति के लाभ का कम से कम 25 प्रतिशत संचित कोष में रखा जाता है। शेष लाभ में से कुछ भाग सदस्यों के सामान्य हितों पर व्यय करके शेष समस्त लाभ सदस्यों में बाँट दिया जाता है। 

5. निरीक्षण - गैर-कृषि साख समितियों के हिसाब-किताब का निरीक्षण सहकारिता विभाग के अंकेक्षण वर्ष में कम से कम एक बार अवश्य करते हैं।

6. समिति का प्रबन्ध - गैर-कृषि साख समिति के प्रबन्ध के लिए एक साधारण सभा, प्रबन्ध सभा एवं वैतनिक कर्मचारी होते हैं।

प्राथमिक सहकारी साख समितियों की समस्याएँ

प्राथमिक सहकारी साख समितियों की प्रमुख समस्याएँ या कमियाँ निम्नांकित हैं -

  • अनेक प्राथमिक सहकारी साख समितियाँ निष्क्रिय एवं शिथिल हैं। यह बैंक केवल नाम के ही व्यवसाय कर रहे हैं।
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियों का देश में विकास समान रूप से नहीं हुआ है। इनमें 75% समितियाँ गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु राज्य में स्थित हैं।
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियाँ सदस्यों को अपर्याप्त साख ही उपलब्ध करा रही हैं। कुछ राज्यों में तो न्यूनतम साख आवश्यकताओं से भी कम साख उपलब्ध होता है।
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियाँ फसल पर ऋण न देकर भूमि की जमानत पर ऋण देते हैं। ऋण देने एवं उसकी वसूली का कोई निर्धारित एवं उचित समय नहीं होता है। ऋण के वितरण में बहुत देर लगती है। अदत्त ऋण की राशि बढ़ती जा रही है।
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियों से सदस्यों को प्राप्त ऋणों के उचित प्रयोग पर कड़ी देखभाल करने के लिए कोई संतोषजनक व्यवस्था नहीं है।
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियों का प्रबन्ध अकुशल होता है। इसका कारण सदस्यों का प्रायः अशिक्षित होना है। उन्हें सहकारिता के सिद्धांतों का ज्ञान नहीं होता है।
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियों के कार्य संचालन पर निहित स्वार्थों का बुरा प्रभाव पड़ा है। ग्रामीण जनता  पर अपना प्रभाव बनाने के लिए राजनीतिक दल इन बैंकों का अधिक से अधिक उपयोग कर रहे हैं। 
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियों से साख का बड़ा भाग बड़े किसानों को ही प्राप्त हुआ है। छोटे एवं सीमान्त किसानों को इन बैंकों से अधिक सहायता प्राप्त नहीं हुई है।

सुधार के सुझाव

प्राथमिक सहकारी साख समितियों में सुधार हेतु निम्नांकित सुझाव दिये जा सकते हैं -

  • प्राथमिक सहकारी साख समितियों का पुनर्गठन किया जाय तथा इस सम्बन्ध में राज्य तथा केन्द्रीय सहकारी बैंकों से परस्पर सहयोग प्राप्त किया जाय।
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियों के व्यवसाय का आकार इतना बड़ा होना चाहिए कि यह अपने कार्यों को ठीक प्रकार से कर सकें।
  • प्राथमिक सहकारी साख समिति को जमाओं को अधिक गतिशील बनाने पर जोर देना चाहिए।
  • प्राथमिक सहकारी साख समिति का प्रभावी निरीक्षण एवं अंकेक्षण होना चाहिए। 
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियों को अतिदेय को कम करने के लिए गम्भीर एवं निरंतर प्रयास किये जाने चाहिए।
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियों को इस बात का प्रयास करना चाहिए कि निजी स्वार्थ समितियों पर अपना प्रभाव न जमा सके और उनका शोषण न कर सकें।
  • प्राथमिक सहकारी साख समितियों को चाहिए कि वह अपनी ऋण-नीतियों और क्रिया-विधियों को इस प्रकार से करें कि लघु एवं सीमान्त कृषकों को अधिक से अधिक लाभ मिले।

केन्द्रीय सहकारी बैंक

केन्द्रीय सहकारी बैंक को जिला सहकारी बैंक भी कहा जाता है। इनका कार्यक्षेत्र किसी जिले विशेष तक ही सीमित रहता है। केन्द्रीय सहकारी बैंक की स्थापना सन् 1912 के सहकारी साख समिति कानून बनने के पश्चात् प्राथमिक सहकारी साख समितियों की देखभाल करने, आवश्यकता के समय उनको आर्थिक सहायता प्रदान करने एवं संगठन बनाये रखने के उद्देश्य से की गयी।

केन्द्रीय सहकारी बैंकों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- (i) सहकारी बैंकिंग संघ एवं (ii) मिश्रित केन्द्रीय सहकारी बैंक। सहकारी बैंकिंग संघों की सदस्यता केवल सहकारी समितियों को ही प्राप्त हो सकती हैं, जबकि मिश्रित केन्द्रीय सहकारी बैंकों की सदस्यता सहकारी समिति एवं व्यक्ति दोनों ही प्राप्त कर सकते हैं। 

भारत में सभी राज्यों में मिश्रित सदस्यता वाले केन्द्रीय सहकारी बैंक ही हैं। ये बैंक प्राथमिक सहकारी साख समितियों को आवश्यकता के समय ऋण प्रदान करते हैं, ताकि ये समितियाँ कृषकों एवं अन्य सदस्यों की ऋण सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकें। 

केन्द्रीय सहकारी बैंक की कार्यप्रणाली

केन्द्रीय सहकारी बैंक की कार्यप्रणाली निम्नानुसार हैं -

1. संगठन - किसी विशेष क्षेत्र अथवा तहसील या जिले की प्राथमिक सरकारी साख समितियों के ऊपर एक केन्द्रीय सहकारी बैंक होता है, जो अपने क्षेत्र की सहकारी साख समितियों का संगठन करता है। प्रायः एक जिले में इस प्रकार का एक ही बैंक होता है।

2. प्रबन्ध - केन्द्रीय सहकारी बैंक का प्रबन्ध एवं संचालन उसके सदस्यों द्वारा निर्वाचित संचालक मण्डल द्वारा किया जाता है। संचालक मण्डल में अधिकांशतः प्राथमिक सहकारी बैंक के प्रतिनिधि होते हैं। मण्डल में संचालकों की संख्या 10-25 होती है। बैंक के सभी कर्मचारी वैतनिक होते हैं। बैंक के प्रधान के रूप में अध्यक्ष की नियुक्ति की जाती है।

3. पूँजी - केन्द्रीय सहकारी बैंक के पूँजी प्राप्त करने के चार मुख्य स्रोत हैं— अंश पूँजी, सदस्यों एवं गैर-सदस्यों की जमा राशियाँ, सरकार तथा राज्य सहकारी बैंक से ऋण एवं संचित कोष। केन्द्रीय सहकारी बैंक अपनी सदस्य सहकारी समितियों की अतिरिक्त कार्यशील पूँजी को अनिवार्य रूप में जमा रखता है। 

4. कार्य - केन्द्रीय सरकारी बैंक के कार्य हैं- 1. प्राथमिक सहकारी बैंक को आवश्यकतानुसार पड़ने पर वित्त प्रदान करना, 2. सदस्यों में बचत एवं मितव्ययता की भावना का विकास करना, 3. प्राथमिक बैंकों को अपने रक्षित कोषों के सुरक्षित विनियोग की सुविधा प्रदान करना, 4. सदस्यों को अन्य बैंकिंग सुविधाएँ प्रदान करना, 5. ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार करना।

5. ऋण सुविधाएँ - केन्द्रीय सरकारी बैंक का प्रमुख कार्य सम्बद्ध प्राथमिक सहकारी बैंक को ऋण प्रदान करना है। यह ऋण एक से तीन वर्ष तक की अवधि के होते हैं। कृषि सम्बन्धी आवश्यकताओं के लिए ऋण विनिमय विपत्र के आधार पर दिए जाते हैं। केन्द्रीय सहकारी बैंक इस विनिमय विपत्रों को राज्य सहकारी बैंक से पुनः कटौती करा सकते हैं। 

6. लाभ का वितरण - केन्द्रीय सहकारी बैंकों को अपने लाभ का 25% सुरक्षित कोष में रखना अनिवार्य है। शेष लाभ का लाभांश के रूप में अंशधारियों को वितरित कर दिया जाता है। लाभांश की अधिकतम दर 10% होती है।

7. मताधिकार - केन्द्रीय सहकारी बैंकों में भी मताधिकार एक व्यक्ति एक मत' के आधार पर होता है। किसी भी व्यक्ति को एक से अधिक मत देने का अधिकार नहीं होता। इस प्रकार इनका संचालन पूर्ण रूप से प्रजातांत्रिक होता है। 

8. निरीक्षण - केन्द्रीय सहकारी बैंक के हिसाब की जाँच सहकारिता विभाग के लोक निरीक्षक द्वारा की जाती है। ये अपनी जाँच की रिपोर्ट सहकारिता विभाग के रजिस्ट्रार के पास भेजते हैं। इनके हिसाब की जाँच करने का अधिकार राज्य सहकारी बैंकों को भी होता है।

9. प्रगति - केन्द्रीय सहकारी बैंकों की संख्या सन् 1950-51 में 505 थी, जो सन् 2005-06 घटकर 365 हो गयी। सन् सन् 1950-51 में इन बैंकों की कार्यशील पूँजी 56 लाख रु. थी जो सन् 2004-05 में बढ़कर 1,11,970 करोड़ रु. हो गयी। इसी प्रकार वर्ष 2005-06 केन्द्रीय सहकारी बैंकों की जमाराशि 86,585 करोड़ रु. रही। 

इसी वर्ष उधार की राशि 24.622 करोड़ रु. रही। बकाया ऋण जो सन् 1950-51 में 34 करोड़ रु. के थे, वह बढ़कर सन् 2005-06 में 80,090 करोड़ रु. के हो गये, जबकि इसी वर्ष जारी ऋण 61,276 करोड़ रु. के रहे।

केन्द्रीय सहकारी बैंकों के दोष 

केन्द्रीय सहकारी बैंकों के प्रमुख दोष निम्नांकित हैं -

  • केन्द्रीय सहकारी बैंक अपने वित्तीय संसाधनों को बढ़ाने में असफल रहे हैं। 
  • केन्द्रीय सहकारी बैंक पर्याप्त एवं कुशल बैंकिंग सेवाएँ उपलब्ध कराने में असफल रहे हैं। 
  • केन्द्रीय सहकारी बैंक ऋणों को स्वीकृत करने में बहुत विलम्ब करते हैं। 
  • केन्द्रीय सहकारी बैंकों के 'अवधि पर ऋण' निरंतर बढ़ते जा रहे हैं । 
  • केन्द्रीय सहकारी बैंकों की ब्याज दर काफी ऊँची है। 
  • केन्द्रीय सहकारी बैंकों ने अपने कोष का सही प्रकार से विनियोजन नहीं किया है। 
  • केन्द्रीय सहकारी बैंकों के संचालक मण्डल में राजनीतियों का प्रभुत्व है। 
  • केन्द्रीय सहकारी बैंक ने बिना जाँच-पड़ताल के ही अनेक ऋण स्वीकृत कर दिये हैं।

सुधार हेतु सुझाव

केन्द्रीय सहकारी बैंकों के दोषों को दूर करने हेतु निम्नांकित सुझाव दिये जा सकते हैं -

  • केन्द्रीय सहकारी बैंकों को वित्तीय साधनों को बढ़ाने हेतु प्रयास करना चाहिए।
  • केन्द्रीय सहकारी बैकों को ऋण देने की विधि को सरल बनाना चाहिए।
  • केन्द्रीय सहकारी बैंकों को कुशल एवं प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति करनी चाहिए।
  • केन्द्रीय सहकारी बैंकों को राजनीतिक एवं दलबंदी के कुप्रभावों से बचना चाहिए।
  • प्रत्येक जिले में एक सुदृढ़ केन्द्रीय सहकारी बैंक होना चाहिए, जो अपने से संबद्ध प्राथमिक सहकारी साख समिति के कार्यों का निरीक्षण एवं मार्गदर्शन कर सकें ।
  • केन्द्रीय सहकारी बैंकों को स्वस्थ बैंकिंग आदर्शों एवं शर्तों का पालन करना चाहिए।

राज्य सहकारी बैंक

भारतीय रिजर्व बैंक की अधिनियम के अनुसार, राज्य सहकारी बैंक का आशय, किसी राज्य की प्रमुख सहकारी बैंक समिति से है, जिसका मुख्य उद्देश्य उस राज्य की अन्य सहकारी समितियों को वित्त प्रदान करना है। राज्य सहकारी बैंक राज्य की सहकारी बैंकों की 'शीर्षस्थ बैंक होती है।

राज्य सहकारी बैंक की कार्य प्रणाली

राज्य सहकारी बैंक की कार्यप्रणाली निम्नानुसार है -

1. प्रबन्ध - राज्य सहकारी बैंक का प्रबन्ध उनकी सामान्य सभा तथा प्रबन्ध समिति करती है। सामान्य सभा संचालकों का चुनाव करती है। वार्षिक हिसाब-किताब पर विचार करती है तथा लाभ का नियोजन एवं वितरण करती है। बैंक के दैनिक कार्यों का संचालन प्रबन्ध समिति करती है।

2. पूँजी - राज्य सहकारी बैंक को चार प्रमुख स्रोतों से अपनी कार्यशील पूँजी प्राप्त होती है- अंश पूँजी, प्रारक्षित कोष, सदस्यों तथा गैर-सदस्यों से जमा पर प्राप्त धन, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया, राज्य सरकार तथा अन्य संस्थाओं से प्राप्त ऋण रिजर्व बैंक इस बैंक को ऋण उपलब्ध कराता है। 

इस प्रकार रिजर्व बैंक, केन्द्रीय सहकारी बैंक तथा प्राथमिक सहकारी बैंक के बीच एक महत्वपूर्ण वित्तीय कड़ी का कार्य सम्पन्न करता है। इस बैंक को रिजर्व बैंक से एक या दो प्रतिशत कम पर ऋण उपलब्ध हो जाते हैं।

3. ऋण सुविधाएँ - राज्य सहकारी बैंक सम्बद्ध केन्द्रीय सहकारी बैंकों तथा समितियों को अपनी शाखाओं के माध्यम से ऋण प्रदान करते हैं। कृषि कार्यों तथा उपज के विपणन के लिए यह बैंक अल्पकालीन ऋण प्रदान करता है तथा पशुओं एवं यंत्रों को क्रय करने तथा कुएँ आदि के लिए मध्यकालीन ऋण देता है।

4. कार्य - राज्य सहकारी बैंक के कार्य हैं- 

  • राज्य स्तर पर सहकारिता की नीति में समन्वय स्थापित करना, 
  • समस्त सहकारिता आंदोलन के लिए साख नीति निर्धारित एवं क्रियान्वित करना, 
  • केन्द्रीय बैंकों के कार्यों पर नियंत्रण रखना 
  • सहकारी आंदोलन का देश के मुद्रा बाजार एवं रिजर्व बैंक से सम्बद्ध स्थापित रखना । 
  • सहकारी आंदोलन का देश के मुद्रा बाजार एवं रिजर्व बैंक से संबंध स्थापित रखना 
  • कहीं-कहीं जैसे- मुम्बई एवं चेन्नई में उपभोक्ता सहकारी आंदोलन के प्रसार एवं संगठन में मदद करते हैं।

5. प्रगति - जून सन् 1950 में 14 राज्य सहकारी बैंक थे, जो वर्ष 2005-06 में बढ़कर 31 हो गये। इनकी सदस्यता 18,618 थी, जो वर्ष 1989-90 में बढ़कर 45,000 हो गयी। वर्ष 1960-61 में राज्य सहकारी बैंकों की कार्यशील पूँजी 222 करोड़ रु. थी, जो वर्ष 2004-05 में बढ़कर 65,879 करोड़ रु. हो गयी। 

वर्ष 1960-61 से 2005-06 तक की अवधि में इन बैंकों द्वारा दिये गये ऋणों की कुल राशि 258 करोड़ रु. से बढ़कर 17,054 करोड़ रु. हो गयी। वर्ष 2005-06 में इन बैंकों की कुल जमाएँ 45,833 करोड़ रु. थी, जबकि वर्ष 1960-61 में यह 72 करोड़ रु. थी । वर्ष 2005-06 में इन बैंकों का जारी एवं बकाया ऋण क्रमश: 43,837 एवं 39,967 करोड़ रु. था।

राज्य सहकारी बैंक के दोष

राज्य सहकारी बैंक के प्रमुख दोष निम्नांकित हैं -

  • राज्य सहकारी बैंकों ने उचित निवेश नीति का पालन नहीं किया है। 
  • राज्य सहकारी बैंकों ने अधिकांश ऋण व्यक्तियों को ही प्रदान किये हैं। 
  • राज्य सहकारी बैंकों की अवधि पर ऋणों में वृद्धि हो रही है। 
  • राज्य सहकारी बैंक, केन्द्रीय सहकारी बैंकों का सही तरह से निरीक्षण एवं जाँच नहीं करते हैं। 
  • देश के राज्य सहकारी बैंक पर्याप्त मात्रा में जमा राशि प्राप्त करने में असफल रहे हैं। 
  • देश के कुछ राज्य सहकारी बैंकों में अप्रशिक्षित एवं अनुभवहीन कर्मचारी हैं, जो प्रगति में बाधक हैं। 

सुधार हेतु सुझाव

राज्य सहकारी बैंकों के दोषों को दूर करने हेतु निम्नांकित सुझाव दिये जा सकते हैं -

  • राज्य सहकारी बैंक एवं व्यापारिक बैंकों के बीच अनुचित प्रतिस्पर्द्धा को रोका जाना चाहिए। 
  • राज्य सहकारी बैंकों के संचालक मण्डल में योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों की नियुक्ति होनी चाहिए। 
  • राज्य सहकारी बैंकों की देख-रेख रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा सतत् एवं नियमित रूप से की जानी चाहिए। 
  • राज्य सहकारी बैंकों में राज्य सरकार का पर्याप्त अंशदान होना चाहिए, ताकि बैंकों के वित्तीय साधनों में पर्याप्त वृद्धि हो सके।
  • राज्य सहकारी बैंकों में प्रशिक्षित कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि की जानी चाहिए।

कृषि और ग्रामीण विकास बैंक

कृषकों को अल्पकालीन ऋणों के साथ-साथ दीर्घकालीन ऋणों की भी आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए भूमिं पर स्थायी सुधार करने, पम्प सेट, ट्यूब वैल आदि की व्यवस्था हेतु दीर्घकालीन ऋणों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए भूमि विकास बैंक स्थापित किये गये हैं। लम्बे समय तक भूमि विकास बैंक को भूमि बंधक बैंक के नाम से भी जाना जाता था। वर्तमान में इन बैंकों को सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक कहा जाता है। 

अधिकांश राज्यों में कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों का ढाँचा द्वि-स्तरीय है। तहसील या जिला स्तर पर प्राथमिक सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक तथा राज्य स्तर पर राज्य सरकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक। उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात आदि राज्यों में इन बैंकों का एकात्मक संगठन राज्य पर राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक है। इसके अतिरिक्त जिला एवं तहसील स्तर पर इनकी केवल शाखाएँ हैं।

कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक तीन कार्यों हेतु ऋण प्रदान करते हैं

  • भूमि पर स्थायी सुधार हेतु अर्थात् कुँ खुदवाने, नलकूप का निर्माण आदि करने के लिए।
  • कृषि यंत्रों को खरीदने के लिए।
  • पुराने ऋणों का भुगतान करने के लिए।

कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों की पूँजी के पाँच प्रमुख स्रोत हैं – 1. अंश पूँजी, 2. सुरक्षित कोष, 3. जमा राशियाँ, 4. ऋणपत्र तथा 5. ऋण 

योजनावधि में इन बैंकों की कार्यशील पूँजी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, लेकिन अंश पूँजी का भाग इसमें बहुत कम है। अपने वित्तीय साधनों के लिए यह बैंक मुख्य रूप से ऋण पर निर्भर रहते हैं। पूर्व में राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों को जनता से जमा राशियाँ नहीं लेने दिया जाता था।

लेकिन अब कुछ शर्तों के अधीन इन्हें दीर्घावधिक सार्वजनिक जमाराशि जुटाने की अनुमति दे दी गयी है। यह बैंक जो ऋणपत्र जारी करते हैं, उनमें ग्राम पंचायतें तथा किसान पूँजी लगाते हैं। राज्य सरकार इन ऋणपत्रों के मूलधन तथा ब्याज पर भुगतान की गारंटी करती है। 

भारत में सहकारी बैंकों का महत्व

भारत में सहकारी बैंकों के महत्व को निम्न बिन्दुओं के रूप में स्पष्ट किया जा सकता

1. स्वैच्छिक संघ – सहकारी बैंक एक स्वैच्छिक संघ होती है। इस संस्था की सदस्यता पूर्णरूपेण ऐच्छिक होती है। प्रत्येक व्यक्ति को सदस्यता ग्रहण करने एवं छोड़ने की स्वतंत्रता होती है।

2. प्रजातांत्रिक आधार - सहकारी बैंक की स्थापना प्रजातांत्रिक आधार पर आधारित होती है, क्योंकि इन संस्थाओं में प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होता है। उसे केवल एक मत देने का ही अधिकार प्राप्त होता है ।

3. आत्म निर्भरता - सहकारी बैंक में एक के लिए अनेक एवं अनेक के लिए एक का सिद्धांत लागू होता है। लोग अपने छोटे-छोटे साधनों में से थोड़ी-थोड़ी राशि से एक बड़ी राशि एकत्रित करके अपनी सहायता अपने आप कर सकते हैं।

4. सार्वभौमिक – सहकारी संस्थाएँ पर्याप्त मात्रा में ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्थापित की जा सकती हैं, क्योंकि सहकारी बैंकों को बड़े कार्यालय की आवश्यकता नहीं रहती है। 

5. सरलीकृत कार्य-प्रणाली - सहकारी बैंकों की कार्य प्रणाली अत्यन्त सरल होती है। सामान्य वर्ग के व्यक्ति सहकारी बैंक से ऋण आदि ले सकते हैं, क्योंकि सभी कारोबार उनकी समझ के अनुकूल रहते हैं।

6. प्रतियोगिता का अन्त - सहकारी संस्थाओं का उद्देश्य व्यक्ति का कल्याण करना होता है, अतः जो कार्य किये जाते हैं,वे कल्याणकारी दृष्टिकोण से किये जाते हैं, न कि प्रतियोगिता एवं लाभ के उद्देश्य से। इस प्रकार सहकारी बैंक के द्वारा प्रतियोगिता का अन्त हो जाता है।  

7. नैतिकता का विकास - सहकारी संस्थाएँ आपसी सहयोग, अपनी सहायता स्वयं करने एवं प्रजातांत्रिक आधारों पर होती हैं, अतः इनसे नैतिकता का विकास होता है।

8. गरीबी एवं साधनहीनता - भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसकी अधिकांश जनसंख्या गरीब है। कृषि के अलावा अन्य संस्थाओं से उन्हें ऋण मिलना असम्भव ही है। बहुतों के पास प्रतिभूति रखने के लिए सम्पत्ति भी नहीं रहती है, अतः सहकारी संस्थाओं से उन्हें इन परिस्थितियों में भी ऋण प्राप्त हो सकता है।

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