चीनी उद्योग क्या है?

भारत के संगठित उद्योगों में चीनी उद्योग का महत्वपूर्ण स्थान है। उपभोग की दृष्टि से विश्व में इसका प्रथम स्थान तथा उत्पादन की दृष्टि से द्वितीय स्थान है। विश्व के कुल उत्पादन का 15% भाग भारत में उत्पादित होता है। 

सूती वस्त्र उद्योग के पश्चात् चीनी भारत का कृषि आधारित दूसरा बड़ा उद्योग है। यह उद्योग अर्थव्यवस्था के दो क्षेत्रों कृषि एवं उद्योग को विकसित करने में सहायक है। भारत में इस उद्योग की महत्ता इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि लगभग 4.2 करोड़ किसान तथा बड़ी संख्या में ग्रामीण मजदूर अपने जीविकोपार्जन के लिए गन्ने तथा चीनी उद्योग पर निर्भर हैं। 

कुल जोते गये क्षेत्र के 3% भाग में गन्ने की खेती होती है तथा यह कृषि उत्पादन के सकल मूल्य में 7.5% का योगदान करती है। इस उद्योग का महत्व इस दृष्टि से भी है कि इसके उत्पादक अन्य उद्योगों, जैसे- शराब, कागज आदि के उत्पादन हेतु कच्चे माल के रूप में काम में लाये जाते हैं।

उद्योग का विकास

भारत में चीनी उद्योग का प्रादुर्भाव सन् 1903 में हुआ, जबकि बिहार एवं उत्तर प्रदेश में एक-एक चीनी मिल की स्थापना की गयी, लेकिन वास्तविक रूप में चीनी उद्योग की शुरुआत सन् 1932 में हुई, जबकि सरकार द्वारा इसे संरक्षण प्रदान किया गया। 

सन् 1932 में भारत में चीनी के 31 कारखाने कार्यरत थे और चीनी की उत्पादन मात्रा 1.6 लाख टन थी। संरक्षण मिलने के बाद इस उद्योग ने बहुत प्रगति की । यह संरक्षण 18 वर्ष तक चलता रहा और 1950 में इसे हटा लिया गया।

कृषि आधारित उद्योगों में चीनी का दूसरा स्थान है। योजनावधि में चीनी उद्योग ने तेजी से प्रगति की है। 1950-51 में चीनी के कारखानों की संख्या 138 थी, जो 31 मार्च, 2008 में बढ़कर 615 हो गयी थी। 20 अगस्त, सन् 1998 को केन्द्र सरकार ने चीनी उद्योग पर सन् 1931 से लागू लाइसेंस व्यवस्था समाप्त कर दी है। योजनावधि में चीनी के उत्पादन में उच्चावचन होते रहते हैं। 

लेकिन इसका उत्पादन काफी बढ़ गया है। सन् 1950-51 में चीनी का उत्पादन 11.34 लाख टन था, जो बढ़कर सन् 2005-06 में यह बढ़कर 193 लाख टन हो गया। योजनावधि में चीनी उद्योग के विकास की प्रमुख घटना सहकारी क्षेत्र का तेजी से विकास होना है। सितम्बर, 2006 में कुल कारखानों में 317 कारखाने सहाकरी क्षेत्र में थे।

चीनी का उपभोग 1981-82 में 57.11 लाख टन था, जो कि बढ़कर सन् 2006-07 में 190 लाख टन हो गया। वर्ष 2003-04 में 29 हजार टन चीनी का निर्यात किया गया।

चीनी उद्योग का स्थानीयकरण  

उत्तर प्रदेश एवं बिहार में चीनी उद्योग के स्थानीयकरण के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं -

1. उपजाऊ मैदान - उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों ही राज्य विश्व प्रसिद्ध गंगा, यमुना, सतलज के उपजाऊ मैदान में स्थित हैं। वहाँ की दोमट मिट्टी गन्ना उत्पादन के लिए आदर्श है, अतः गन्ने की काफी पैदावार होती है। 

2. सस्ता श्रमिक - उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों ही राज्य घनी आबादी वाले राज्य हैं, अत: बड़ी संख्या में एवं सस्ती दर पर मजदूर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

3. पर्याप्त शक्ति के साधन - चीनी उद्योग के लिए अलग से शक्ति के साधन की आवश्यकता नहीं होती है। गन्ने का रस निकालने के बाद बची हुई छोई को जलाकर शक्ति के रूप में उपयोग किया जाता है। कम पड़ने पर लकड़ी एवं कोयले का भी उपयोग किया जाता है। 

4. पर्याप्त जल उपलब्ध - चीनी उद्योग के लिए पर्याप्त जल की आवश्यकता होती है। उत्तर प्रदेश एवं बिहार में अनेक नदियाँ बहती हैं। अतः पानी आसानी से मिल जाता है।

5. पर्याप्त परिवहन के साधन - उत्तर प्रदेश एवं बिहार दोनों ही राज्य मैदानी भाग में स्थित होने के कारण परिवहन के पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं। इन राज्यों में रेलों, सड़कों का जाल बिछा हुआ है, जिससे माल आसानी से बाहर भेजा जाता है।

6. विस्तृत बाजार उपलब्ध - उत्तर प्रदेश एवं बिहार दोनों ही राज्यों की जनसंख्या विशाल है, अतः उपभोक्ता वर्ग - द्वारा काफी मात्रा में शक्कर यहीं खरीद ली जाती है। बाहर भेजने की आवश्यकता कम पड़ती है। 

7. मिठास का अधिक होना - उत्तर प्रदेश में जो गन्ना पैदा होता है, उसमें मिठास की मात्रा अधिक होती है। जिससे शक्कर भी अधिक मात्रा में प्राप्त होती है।

चीनी उद्योग की समस्याएँ

चीनी उद्योग की प्रमुख समस्याएँ निम्नांकित हैं-

1. कच्चे माल की अनिश्चितता - चीनी उद्योग का मुख्य कच्चा माल गन्ना है। चूँकि गन्ने को लम्बे समय तक न तो सुरक्षित रखा जा सकता है और न ही इसका आयात किया जा सकता है, अतः गन्ने की पूर्ति पर चीनी उद्योग निर्भर है। गन्ने की फसल मानसून पर निर्भर होती है। अतः चीनी उद्योग में गन्ने की पूर्ति अनिश्चित बनी रहती है। 

2. उपोत्पादों का अनुचित उपयोग - चीनी उद्योग की एक महत्वपूर्ण समस्या इसके उपोत्पादों के कुशलतम उपयोग की है। इसके उपोत्पादों से अनेक वस्तुएँ, जैसे— कागज, उर्वरक, पोटाश आदि बनायी जा सकती हैं जिसके परिणामस्वरूप इन वस्तुओं की पूर्ति तो बढ़ेगी ही साथ-साथ चीनी की कीमत को कम करने की संभावना भी बढ़ेगी।

3. कच्चे माल की ऊँची लागत - चीनी उद्योग की एक समस्या चीनी उत्पादन की लागत का अन्य देशों की तुलना में अधिक होना है। इसका प्रमुख कारण भारत में कच्चा माल (गन्ना) की लागत, जो कि कुल उत्पादन लागत का लगभग 60% का अत्यधिक ऊँचा होना है। ऊँची लागत के परिणामस्वरूप चीनी की कीमत बढ़ जाती है और अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारत प्रतियोगिता में पिछड़ जाता है।

4. बीमार इकाइयों की समस्या - चीनी उद्योग की एक अन्य समस्या बीमार इकाइयों का होना है। उत्तरी भारत में इस प्रकार की इकाइयों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। इन इकाइयों के बीमार होने के अनेक कारण हैं जिनके आधुनिकीकरण मापदण्डों के अनुसार इकाई का आकार छोटा होना, पुरानी एवं अप्रचलित मशीनों का लगा होना, कम लाभप्रदता आदि प्रमुख हैं।

5. आधुनिकीकरण की समस्या - चीनी उद्योग के कुछ कारखानों की मशीनें 30 से 40 वर्ष पुरानी हो चुकी हैं जिनके आधुनिकीकरण की अत्यधिक आवश्यकता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न कारणों से उत्तरीय भारत के कारखानों की उत्पादन लागत अधिक आने तथा लाभप्रदता कम हो जाने के कारण मशीनों का आधुनिकीकरण नहीं हो सका है।

6. उत्पादन क्षमता का अपूर्ण उपयोग - चीनी मिलों की एक बड़ी समस्या गन्ना आपूर्ति की है। पर्याप्त मात्रा में गन्ना न मिल पाने से ये मिलें 4-6 महीने चल पाती हैं। इस प्रकार क्षमता का पूरा उपयोग नहीं होने से लागत बढ़ जाती हैं और चीनी महँगी मिलती है।

7. वैधानिक नियंत्रण का अभाव - चीनी उद्योग के मूल्य और वितरण पर सन् 1942 के बाद से नियंत्रण, विनियंत्रण, पुनः नियंत्रण का दौर चलता रहा है। सरकार की इस नीति का इस उद्योग के स्वस्थ विकास पर बुरा प्रभाव पड़ा है। लेवी में सरकार को चीनी देने से चीनी मिलों को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। सरकार की इस नीति से चीनी का दोहरा मूल्य और दोहरा बाजार चलता है, काला बाजारी को बल मिलता है।

8. सरकारी नीति में दोष - सरकार ने योजनावधि में चीनी की कीमत को जब नियंत्रित रखने का प्रयास किया है तथा इसके आवागमन एवं वितरण पर प्रतिबंध लगाये हैं। वहाँ गुड़ तथा खाण्डसारी की कीमत, आवागमन और उत्पादकों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है। जिसके परिणामस्वरूप चीनी की तुलना में गुड़ तथा खाण्डसारी का अधिक उत्पादन हुआ है। 

इसके अतिरिक्त सरकार ने दोहरी मूल्य नीति अपनायी है, जिसके अन्तर्गत एक निश्चित भाग सरकार चीनी मिलों से नियंत्रित मूल्य पर प्राप्त करती है तथा शेष भाग यह मिलें खुले बाजार में बेच सकती हैं। इस नीति के कारण चीनी मिलों के लाभ अपर्याप्त रह जाते हैं और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है ।

चीनी उद्योग की समस्याओं के समाधान

चीनी उद्योग की समस्याओं के समाधान हेतु प्रमुख सुझाव निम्नांकित हैं -

1. कच्चे माल की आपूर्ति - कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में सिंचाई  सुविधाओं के विकास तथा चीनी मिलों के स्वयं गन्ना फर्मों के विकास पर बल दिया जाना चाहिए। गन्ने की उत्पादन वृद्धि के लिए सरकार इसके वैधानिक न्यूनतम मूल्यों में समय-समय पर वृद्धि करती है । 

2. गन्ने की किस्म एवं उत्पादकता में सुधार - चीनी मिलों की समस्याओं के हल हेतु गन्ने की किस्म तथा उत्पादकता में सुधार किया जाना चाहिए, ताकि प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ाया जा सके, व गन्ने के मिठास का प्रतिशत जो 9-8 है, उसको बढ़ाया जा सके। इसके लिए उन्नत बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयाँ आदि की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

3. आधुनिकीकरण - चीनी उद्योगों के आधुनिकीकरण के लिए सरकार आसान शर्तों पर ऋण उपलब्ध कराये। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु सरकार ने सन् 1982 में चीनी विकास कोष की स्थापना की है। 

4. प्रतिस्पर्द्धा में कमी - गुड़ और खाण्डसारी उद्योग को सरकार से कई तरफ से छूट हैं और जनहित में यह जरूरी भी है, लेकिन इस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए कि चीनी मिलों को भी पर्याप्त गन्ना मिल सके। चीनी मिलें यदि कृषकों को उचित कीमत एवं गन्ना उत्पादकों को सरकार आवश्यक सुविधाएँ व प्रोत्साहन देगी तो निश्चित ही उन्हें गन्ना आपूर्ति में कमी नहीं आ सकती।

5. उपोत्पादकों का उचित उपयोग -  चीनी उद्योग से तीन उपोत्पाद प्राप्त होते हैं – 

  • गन्ने की खोई 
  • शीरा एवं 
  • तली में जम जाने वाला गन्ने का रस। 

इन तीनों उपोत्पाद का समुचित प्रयोग (कार्ड बोर्ड, पैंकिंग के गत्ते, ब्लॉटिंग पेपर एवं कागज बनाने में) करके चीनी मिलों की लाभप्रदता में वृद्धि की जा सकती है तथा लागत को हटाया जा सकता है, लेकिन अभी तक इन उपोत्पादों का समुचित उपयोग नहीं किया जा रहा है ।

6. नियंत्रण एवं मूल्य नीति - सरकार को दोहरी मूल्य नीति से बचना चाहिए। आंशिक नियंत्रण की अपेक्षा सरकार, चीनी का 'बफर स्टॉक' बनाये तथा मूल्यों को नियंत्रित करे। सन् 1998 से सरकार ने नई इकाइयों के लिए अपने उत्पादन का 40% भाग सरकार को लेवी चीनी के रूप में बेचने की बाध्यता को समाप्त कर दिया है।

7. वित्तीय सुविधा - चीनी उद्योग में विद्यमान बीमार इकाइयों की दशा सुधारने के विशेष प्रयास किये जाने चाहिए तथा उन्हें आवश्यक वित्तीय सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि आवश्यक हो तो बीमार इकाइयों को स्वस्थ इकाइयों के साथ मिला देना चाहिए।

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