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वितरण का अर्थ - meaning of distribution

वितरण का अर्थ 

सामान्य बोलचाल की भाषा में 'वितरण' का अर्थ किसी वस्तु को विभिन्न व्यक्तियों के बीच बाँटने से लगाया जाता है। लेकिन अर्थशास्त्र में वितरण शब्द का प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में किया जाता है। वर्तमान युग में धन के उत्पादन में उत्पत्ति के विभिन्न साधन मिलकर सहयोग करते हैं। 

अतः अर्थशास्त्र में वितरण का अर्थ, उत्पत्ति के विभिन्न साधनों द्वारा उत्पादित धन को उन साधनों (जैसे- भूमि, श्रम, पूँजी, साहस व संगठन) के बीच बाँटने की प्रक्रिया से लगाया जाता है। अर्थशास्त्र में वितरण के अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि समाज द्वारा उत्पादित धन में सक्रिय भाग लेने वाले साधनों अथवा उनके स्वामियों में उत्पादित धन को कैसे बाँटा जाता है।  

वितरण की परिभाषाएँ 

प्रो. चैपमैन के अनुसार - वितरण का अर्थशास्त्र समाज द्वारा उत्पादित धन को उत्पादन के साधनों के स्वामियों के बीच बँटवारे का अध्ययन है। जिन्होंने इस उत्पादन के निर्माण में भाग लिया है।

प्रो. विकस्टीड के अनुसार - वितरण में उन सिद्धांतों का विवेचन किया जाता है, जिनके अधीन किसी जटिल अथवा विषम औद्योगिक संगठन की संयुक्त उत्पत्ति का विभाजन उन व्यक्तियों में किया जाता है, जो इस उत्पादन में सहयोग करते हैं।

प्रो. सैलिगमैन के अनुसार - वह सब धन जो किसी समाज में उत्पन्न किया जाता है, कुछ रीतियाँ या आय के सूत्रों द्वारा व्यक्तियों के पास पहुँच जाता है। उत्पादित धन को इस प्रकार व्यक्तियों के पास पहुँचाने की क्रिया को वितरण कहते हैं।

प्रो. निकोल्सन के अनुसार - आर्थिक दृष्टि से वितरण राष्ट्रीय सम्पत्ति को विभिन्न वर्गों में बाँटने की क्रिया की ओर संकेत करता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि वितरण के अन्तर्गत उन रीतियों, नियमों तथा सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है, जिनके अनुसार उस कुल उत्पादन में से जो उत्पत्ति के विभिन्न साधनों के सहयोग से प्राप्त हुआ है, प्रत्येक को अपना अपना हिस्सा मिलता है।

साधन कीमत सिद्धांत क्या है ? 

साधन कीमत सिद्धांत का संबंध साधनों की सेवाओं (भूमि, श्रम, पूँजी, साहस) के लिए उनके विक्रेताओं को दी जाने वाली कीमत से हैं। इसमें मजदूरी की दरों, ब्याज की दरों, लगान तथा लाभ का अध्ययन किया जाता है।

साधन कीमत सिद्धांत के कार्य 

साधन कीमत सिद्धांत के निम्नलिखित दो मुख्य कार्य हैं -

  • उत्पादन के साधनों का बँटवारा - साधन कीमत सिद्धांत विभिन्न उपयोगों में उत्पादन के साधनों के बँटवारे की कार्यविधि की व्याख्या करता है।
  • उत्पादन के साधनों के स्वामियों में मूल्य वृद्धि का वितरण - साधन मूल्य सिद्धांत का दूसरा कार्य इस बात की व्याख्या करता है कि उत्पादन के विभिन्न साधनों के स्वामियों, जैसे- भूमिपति, पूँजीपति के ब्याज तथा साहसी के लाभ का निर्धारण कैसे होता है ?

साधन कीमत के पृथक् सिद्धांत की आवश्यकता

कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार, साधन कीमत के निर्धारण के लिए पृथक् सिद्धांत की कोई आवश्यकता नहीं है। उनके अनुसार, साधन कीमत का निर्धारण ठीक उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार वस्तुओं की कीमत का निर्धारण उनकी माँग व पूर्ति के आधार पर होता है अर्थात् किसी साधन की कीमत का निर्धारण उसकी माँग व पूर्ति के आधार पर ही किया जा सकता है। 

किन्तु कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों का विचार है कि साधनों की कीमत का निर्धारण वस्तुओं की कीमत के निर्धारण की भाँति नहीं किया जा सकता। उनके मतानुसार साधनों की माँग व पूर्ति की प्रकृति, वस्तुओं की माँग व पूर्ति की प्रकृति से भिन्न होती है। अतः साधनों की कीमत का निर्धारण किया जाना चाहिए।

साधनों की माँग, वस्तुओं की माँग से निम्नलिखित प्रकार से भिन्न होती है -

1. व्युत्पन्न माँग - वस्तुओं की माँग प्रत्यक्ष होती है, जबकि साधनों की माँग व्युत्पन्न होती है अर्थात् साधनों की माँग वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन के लिए की जाती है, जिनका प्रयोग उपभोक्ताओं द्वारा अपनी आवश्यकताओं की संतुष्टि हेतु किया जाता है। 

स्पष्ट है कि साधनों की माँग वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग पर निर्भर करेगी। जैसे- शर्ट की माँग प्रत्यक्ष माँग हैं, जबकि वस्त्र उद्योग द्वारा सिलाई मशीन, श्रम, कपड़ा, बटन, धागे की माँग व्युत्पन्न माँग है।

2. संयुक्त माँग – उत्पादन के साधनों की माँग होती है। इसका कारण यह है कि किसी वस्तु के उत्पादन में उत्पादन के साधनों (भूमि, श्रम, पूँजी व साहस) की संयुक्त रूप से माँग की जाती है। अर्थात् कोई एक साधन किसी वस्तु अथवा सेवा का उत्पादन नहीं कर सकता। जैसे- मकान के निर्माण में ईंट, सीमेंट, लोहा, लकड़ी, श्रमिक आदि की माँग संयुक्त रूप से की जाती है।

वितरण की समस्याएँ

उत्पादन कार्य में भाग लेने वाले साधनों के बीच विद्यमान उत्पादन को किस प्रकार विभाजित किया जाय, की समस्या ही वितरण की समस्या है। अर्थशास्त्र में वितरण की चार प्रमुख समस्याएँ हैं

1. वितरण किसका किया जाय ? वितरण किसका किया जाय यह वितरण की प्रथम समस्या है। वितरण की इस समस्या का अध्ययन दो दृष्टिकोणों से किया जा सकता है- 

  1. फर्म विशेष की दृष्टि से, और 
  2. सम्पूर्ण राष्ट्र की दृष्टि से।

फर्म विशेष की दृष्टि से 

एक फर्म अपने सम्पूर्ण साधनों की सहायता से जितना उत्पादन करती है, उसे कुल उत्पादन कहते हैं । फर्म इस कुल उत्पादन को उत्पत्ति के साधनों में नहीं बाँटती। 

यदि यह कुल उत्पादन बाँट दिया जाये, तो उत्पादन क्रिया आगे नहीं बढ़ेगी, अत: फर्म को उत्पत्ति के विभिन्न साधनों में कुल उत्पादन को बाँटने से पहले निम्नांकित कार्यों के लिए बचाकर रखना पड़ता है। 

1 . चल पूँजी का प्रतिस्थापन - किसी भी वस्तु को उत्पादित करने के लिए चल पूँजी अर्थात् कच्चे माल की आवश्यकता होती है । उत्पादक को उत्पादन कार्य चालू रखने के लिए चल पूँजी क्रय करनी होती है, अत: उत्पादक को कुल उत्पादन में से कुछ राशि को चल पूँजी के लिए बचाकर रखना होता है।

 2. अचल पूँजी का प्रतिस्थापन- उत्पादन क्रिया में अचल पूँजी जैसे- औजार, मशीनें, कारखाना, भवन आदि का उपयोग निरंतर किया जाता है, अत: इनका उत्पादन में बार-बार प्रयोग किया जाता है और इसमें टूट-फूट भी होती रहती है। 

एक निश्चित समयावधि के बाद यह बेकार हो जाती है तथा इसकी प्रतिस्थापना करना भी आवश्यक हो जाता है, अत: संयुक्त उत्पादन में से प्रतिवर्ष थोड़ा-सा भाग अचल पूँजी को क्रय करने के लिए बचाकर रख लिया जाता है और शेष भाग को उत्पत्ति के साधनों में बाँट दिया जाता है।

 3. बीमा व्यय का भुगतान - कारखानों के मालिक अपनी फर्मों को आकस्मिक हानि से बचाने के लिए बीमा करा देते हैं, जिसके लिए उन्हें कम्पनियों को प्रीमियम देना पड़ता है। इस प्रकार बीमे के रूप में दी गई प्रीमियम राशि को भी कुल उत्पादन में से चुकाया जाता है।

4.करों का भुगतान – एक फर्म को केन्द्रीय, प्रांतीय एवं स्थानीय सरकारों को अनेक प्रकार के कर चुकाने पड़ते हैं, उदाहरणार्थ- उत्पादन कर, बिक्री कर, आदि। इन करों का भुगतान भी कुल उत्पादन में से ही किया जाता है।

इस प्रकार, कुल उत्पादन में से चल-अचल पूँजी का प्रतिस्थापन, व्यय, बीमा व्यय तथा करों का भुगतान करने के बाद जो शुद्ध उत्पादन  बचता है, उसे उत्पत्ति के विभिन्न साधनो, जो उत्पादन के कार्य में सहयोग करते हैं। बाँट दिया जाता है। 

उदाहरणाथ, मान लीजिए किसी कारखाने का कुल उत्पादन 50,000 रु. है। उसे प्रतिवर्ष 20,000 रु. की चल पूँजी की आवश्यकता होती है तथा अचल पूँजी की प्रतिस्थापना के लिए 5,000 रु., करों के भुगतान के लिए 1.000 रु. तथा बीमा व्यय के लिए 800 रु. की आवश्यकता होती है। 

अतः उसे कुल उत्पादन 50,000 रु. में से (20,000 5.000 + 1,000 + 800) = 26,800 रु. निकालने पड़ेंगे। शेष 23,200 रु. शुद्ध उत्पादन होगा, जो उत्पत्ति के विभिन्न साधनों में बाँट दिया जायेगा।

सम्पूर्ण राष्ट्र की दृष्टि से 

सम्पूर्ण राष्ट्र की दृष्टि से वितरण की यह समस्या अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। देश में जो कुल उत्पादन अथवा सकल राष्ट्रीय आय उत्पादित होती है। उसमें से मूल्य ह्रास, कर आदि घटाकर तथा अनुदान आदि जोड़कर जो शुद्ध राष्ट्रीय आय / उत्पाद प्राप्त होता है। उसका ही उत्पत्ति के विभिन्न साधनों के बीच वितरण किया जाता है। 

2. वितरण किनमें किया जाय ? –शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद का वितरण किनमें किया जाए? यह समस्या भी वितरण की प्रमुख समस्या होती है। उत्पादन के पाँचों साधनों के बीच ही शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद का वितरण किया जाता है। 

इस प्रकार भूमि के प्रयोग के बदले भूमिपति को लगान, श्रम के प्रयोग के लिए श्रमिक को मजदूरी, पूँजी के बदले पूँजीपति को ब्याज, प्रबंध कार्य के लिए प्रबंधक को वेतन तथा जोखिम उठाने के कारण साहसी को लाभ या हानि प्राप्त होती है। 

3. वितरण का क्रम क्या हो ? – वितरण की एक समस्या यह होती कि उत्पादन के साधनों में वितरण का क्रम क्या हो ? इस संबंध में प्रो. मार्शल का विचार था कि उत्पादक वस्तु का उत्पादन करने के लिए आवश्यक भूमि, श्रम, पूँजी तथा प्रबंध आदि की व्यवस्था करके उन्हें दिए जाने वाले पारिश्रमिक जैसे - लगान, मजदूरी, ब्याज तथा वेतन आदि को सुनिश्चित करता है तथा भुगतान करता है। 

अन्त में जो शेष बचता है, वही उसका पारिश्रमिक (लाभ) होता चाहे लाभ हो या हानि उसे उत्पत्ति के शेष चारों साधनों को पूर्व में तय शर्तों के अनुसार पारिश्रमिक देना ही होगा। इससे स्पष्ट है कि वितरण हेतु भूमि, श्रम, पूँजी तथा संगठन का क्रम पहले तथा साहस का उनके बाद आता है। उत्पादन में

4. वितरण किस प्रकार किया जाय ? – वितरण की एक समस्या यह होती है कि साहसी उत्पादन के अन्य साधनों का पारिश्रमिक उत्पादन से पूर्व किस प्रकार निर्धारित करे ? वास्तव में, साधनों के मूल्य निर्धारण की समस्या ही वितरण की प्रमुख समस्या होती है। 

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