बेरोजगारी क्या है?

बेरोजगारी की समस्या, स्वतन्त्र भारत की सबसे महत्वपूर्ण समस्या है। जिसकी चर्चा राजनीतिज्ञों द्वारा आम सभाओं, विद्यार्थियों की सभाओं, आर्थिक व सामाजिक सम्मेलनों, लोकसभा तथा राज्य की विधानसभाओं इत्यादि सभी स्थानों पर की जाती है। 

दिन-प्रतिदिन यह समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है। जिस देश के कर्णधार नवयुवकों की ऐसी दयनीय स्थिति हो, वह देश विकासशील देश कहलाने के योग्य नहीं है। लॉर्ड विलियम बैवरिज के अनुसार - बेरोजगारी समाज का सबसे भयंकर शत्रु एवं दानव है।

भगवती समिति के अनुसार - बेरोजगारी की समस्या गम्भीर रूप धारण कर चुकी है और भविष्य में इसके और भी गम्भीर होने की आशंका है। बेरोजगारी एक ऐसी सामाजिक बीमारी है। जिसका जितना अधिक इलाज किया गया, वह उतनी ही अधिक बढ़ती गयी।

बेरोजगारी का अर्थ

सामान्यतया, जब एक व्यक्ति को अपने जीवन निर्वाह के लिए कोई काम नहीं मिलता है, तो उस व्यक्ति को बेरोजगार और इस समस्या को बेरोजगारी की समस्या कहते हैं। अर्थात् जब कोई व्यक्ति कार्य करने का इच्छुक है और वह शारीरिक व मानसिक रूप से कार्य करने में समर्थ भी है। लेकिन उसको कोई कार्य नहीं मिलता, जिससे कि वह जीविका चला सके, तो इस प्रकार की समस्या बेरोजगारी की समस्या कहलाती है।

बेरोजगारी के प्रकार

भारत में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकार की बेरोजगारी पायी जाती हैं -

बेरोजगारी के प्रकार 1. संरचनात्मक बेरोजगारी, 2. अदृश्य बेरोजगारी, 3. मौसमी बेरोजगारी, 4. अल्प रोजगार, 5. खुली बेरोजगारी, 6. तकनीकी बेरोजगारी, 7. ऐच्छिक बेरोजगारी, 8. चक्रीय बेरोजगारी, 9. शिक्षित बेरोजगारी, 10. संघर्षात्मक बेरोजगारी। 

1. संरचनात्मक बेरोजगारी - जब किसी देश में पूँजी के अभाव या साधनों के सीमित होने के कारण बेरोजगारी उत्पन्न होती है। तो उसे संरचनात्मक बेरोजगारी कहते हैं। इस प्रकार की बेरोजगारी विकासशील एवं अर्द्धविकसित देशों में पायी जाती है। 

2. अदृश्य बेरोजगारी - किसी निश्चित क्षेत्र में आवश्यकता से अधिक लोगों का रोजगार पर लगे रहना, जिनकी सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है। अदृश्य बेरोजगारी कहलाती है। अदृश्य बेरोजगारी विशेष रूप से कृषि प्रधान क्षेत्रों में कृषि के क्षेत्र में पायी जाती है।

3. मौसमी बेरोजगारी - इस प्रकार की बेरोजगारी भी कृषि क्षेत्रों में पायी जाती है। जब श्रमिकों को पूरे वर्ष या सभी मौसमों में रोजगार नहीं मिलता है। अर्थात् वर्ष में पाँच या छ: माह कार्य करते हैं शेष दिन बेरोजगार होते हैं तो इसे मौसमी बेरोजगारी कहते हैं। 

4. अल्प रोजगार - जब किसी रोजगार चाहने वाले व्यक्ति को उसकी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार रोजगार नहीं मिलता है। तो इसे अल्प रोजगार कहते हैं।

5. खुली बेरोजगारी - जब कोई शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति कार्य करने को इच्छुक हो, लेकिन उसे काम न मिले, तो इसे खुली बेरोजगारी कहते हैं। भारत में इस प्रकार के बेरोजगारों की संख्या बहुत अधिक है।

6. तकनीकी बेरोजगारी - जब किसी देश में नई तकनीक के अपनाने से कुछ क्षणों के लिए श्रमिक बेरोजगार हो जाता है। तो उसे तकनीकी बेरोजगारी कहते हैं। इस प्रकार की स्थिति प्रायः विकसित देशों में विद्यमान होती है। 

7. ऐच्छिक बेरोजगारी - जब कोई व्यक्ति प्रचलित मजदूरी दर पर स्वेच्छा से कार्य न करना चाहे, तो इसे ऐच्छिक बेरोजगारी कहते हैं ।

8. चक्रीय बेरोजगारी - मन्दीकाल या अति उत्पादन की स्थिति में प्रभावकारी माँग में कमी या मजदूरों की छँटनी शुरू कर दी जाये, जिससे कुछ लोग अल्प अवधि के लिए बेरोजगार हो जायें, तो इसे चक्रीय बेरोजगारी कहते हैं। इस प्रकार की बेरोजगारी भी विकसित देशों में पायी जाती है।

9. शिक्षित बेरोजगारी - जब किसी शिक्षित व्यक्ति को उसकी इच्छानुसार नौकरी न मिले, तो इसे शिक्षित बेरोजगारी कहते हैं। यह खुली बेरोजगारी का ही एक रूप होता है। 

10. संघर्षात्मक बेरोजगारी - श्रम बाजार की अपूर्णताओं के कारण लोग अस्थायी रूप से बेरोजगार हो जाते हैं इसी अस्थायी बेरोजगारी को संघर्षात्मक बेरोजगारी कहते हैं ।

भारत में बेरोजगारी की समस्या का स्वरूप

भारत में बेरोजगारी की समस्या को दो भागों में बाँट सकते हैं - 

1. ग्रामीण बेरोजगारी एवं 2. शहरी बेरोजगारी। 

1. ग्रामीण बेरोजगारी 

भारत गाँवों का देश है। देश की 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न है और शेष सेवा क्षेत्रों में जैसे - लोहार, नाई, कुम्हार आदि।

इस प्रकार लगभग दो तिहाई जनसंख्या अपने कार्यों में संलग्न है। जबकि शेष दूसरों के लिए कार्य करती है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की समस्या प्रमुख रूप से अल्प रोजगार की समस्या है। लोगों को कुछ सप्ताहों या महीनों के लिए काम मिल जाता है। लेकिन वर्ष के शेष समय में बेरोजगार रहते हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में निम्न प्रकार की बेरोजगारी पायी जाती है

1. अदृश्य बेरोजगारी - किसी निश्चित क्षेत्र में आवश्यकता से अधिक लोगों का रोजगार पर लगे रहना, जिनकी सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है। अदृश्य बेरोजगारी कहलाती है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अदृश्य बेरोजगारी विशेष रूप से पायी जाती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इन क्षेत्रों में पारिवारिक खेती होती है। 

जिसमें कृषि कार्य को परिवार के सदस्य आपस में बाँट लेते हैं। यदि कार्य कम भी होता है। तो परिवार के सभी सदस्य उसी में लगे रहते हैं। उदाहरणार्थ, यदि एक हेक्टेयर भूमि पर 10 व्यक्ति कार्यरत हैं। जिससे 10 क्विण्टल उत्पादन होता है। 

यदि इस कृषि भूमि पर से 5 व्यक्तियों को अन्यत्र रोजगार दिया जाता है। तो भी कुल उत्पादन में कोई परिवर्तन नहीं होता है, तो इसका आशय है कि कृषि भूमि पर पाँच व्यक्ति अदृश्य बेरोजगार हैं। इसे छिपी हुई या प्रच्छन्न बेरोजगारी भी कहते हैं। राष्ट्रीय श्रम आयोग के अध्ययन दल के अनुसार भारत में लगभग 1.7 करोड़ व्यक्ति अदृश्य बेरोजगारी से पीड़ित हैं। 

2. मौसमी बेरोजगारी - भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में मौसमी बेरोजगारी भी पायी जाती है। मौसमी बेरोजगारी वह है, जो किसी खास मौसम या समय में होती है। जैसे - फसल काटने व अगली फसल की शुरुआत करने के बीच कोई काम नहीं मिलता है। इसी को मौसमी बेरोजगारी कहते हैं। भारत में मौसमी बेरोजगारी के सम्बन्ध में अलग-अलग अनुमान हैं। 

शाही कृषि आयोग के अनुसार, यहाँ 4-5 महीने लोग बेकार रहते हैं। जबकि कृषि श्रमिक प्रथम जाँच के अनुसार यहाँ कृषि श्रमिक को मात्र 218 दिन ही कार्य मिलता है और कृषि श्रमिक द्वितीय जाँच के अनुसार, यहाँ 222 दिन कार्य मिलता है। ग्रामीण श्रमिक जाँच के अनुसार, यहाँ पुरुष कृषि श्रमिक को 240 दिन व स्त्री कृषि श्रमिक को 159 दिन कार्य मिलता है। यह सभी अनुमान यह सिद्ध करते हैं कि यहाँ मौसमी बेरोजगारी विद्यमान है।

3. आकस्मिक बेरोजगारी - कभी-कभी बाढ़, तूफान, सूखा या अन्य प्राकृतिक कारणों से आकस्मिक बेरोजगारी की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

2. शहरी बेरोजगारी 

भारत के शहरी क्षेत्रों में निम्न दो प्रकार की बेरोजगारी पायी जाती है -

1. शिक्षित बेरोजगारी - जब किसी शिक्षित व्यक्ति को उसकी इच्छानुसार नौकरी न मिले तो इसे शिक्षित बेरोजगारी कहते हैं। भारत के शहरी क्षेत्रों में शिक्षित बेरोजगारी की समस्या गम्भीर रूप धारण करती जा रही है। 

2. औद्योगिक बेरोजगारी - औद्योगिक क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण उत्पन्न हुई है। औद्योगिक बेरोजगारी से तात्पर्य उद्योगों, खनिज, व्यापार, यातायात, निर्माण आदि में काम करने के इच्छुक बेरोजगारों से है। 

औद्योगिक बेरोजगारी का प्रमुख कारण यह है कि शहरों में उद्योगों में वृद्धि के कारण जनसंख्या गाँवों से शहरों में आकर बसने लगी। फलस्वरूप औद्योगिक क्षेत्रों में श्रमिकों की पूर्ति बढ़ गयी, लेकिन इस अनुपात में अभी उद्योग धन्धे स्थापित नहीं हो पाये हैं, जो समस्त जनसंख्या को रोजगार दे सकें।

भारत में बेरोजगारी का आकार एवं विस्तार

भारत में बेरोजगारी का सही-सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं है। क्योंकि विश्वसनीय आँकड़ों का अभाव है। ऐसा अनुमान है कि प्रथम पंचवर्षीय योजना के प्रारम्भ में 33 लाख लोग बेरोजगार थे, लेकिन यह संख्या बराबर बढ़ती जा रही है। सन् 2004-05 के अन्त में देश के रोजगार कार्यालयों में 419.9 लाख व्यक्तियों के नाम बेरोजगार के रूप में पंजीकृत थे ।

भारत में बेरोजगारी के कारण

भारत में बेरोजगारी के निम्नलिखित कारण हैं -

1. जनसंख्या वृद्धि - भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर 2-1 प्रतिशत प्रतिवर्ष है, तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण है। जिस अनुपात में जनसंख्या बढ़ती है, उस अनुपात में रोजगार के अवसरों में वृद्धि नहीं होती है। अतः दिनों-दिन बेरोजगारी एक विकराल रूप धारण  करती जा रही है।

2. लघु एवं कुटीर उद्योगों में ह्रास - योजनाबद्ध आर्थिक विकास तथा बड़े बड़े उद्योगों की स्थापना से स्वचालित यन्त्रीकृत मशीनों के प्रयोग को बढ़ावा मिला है। इन उद्योगों में श्रम गहन तकनीक का कम प्रयोग किया जाता है तथा इन उद्योगों द्वारा अच्छी किस्म की वस्तुएँ कम लागत पर उत्पन्न की जाती हैं। 

परिणामस्वरूप उन्हीं वस्तुओं के उत्पादक लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धे धीरे-धीरे बन्द होने लगते हैं। इससे बेरोजगारी पर दोहरी मार पड़ती है। एक ओर लघु व कुटीर उद्योगों के बन्द होने से तथा दूसरी ओर स्वचालित मशीनों के प्रयोग से श्रमिकों में बेरोजगारी बढ़ती है।

3. श्रम की गतिशीलता का अभाव - रूढ़िवादिता तथा पारिवारिक मोह के कारण भारतीय श्रमिकों में गतिशीलता का अभाव पाया जाता है। अगतिशीलता का एक दूसरा पहलू यह है कि श्रमिक भाषा, रीति-रिवाज, संस्कृति में भिन्नता, घर से दूरी की बाधा के कारण अन्य जगहों पर कार्य करने को इच्छुक नहीं होते हैं। अत: पूर्ण रोजगार प्राप्त करने में यह भी एक बाधा है।

4. पूँजी निर्माण की दर - विकसित देशों में पूँजी निर्माण की दर जनसंख्या वृद्धि की दर से अधिक होती है, इसलिये उन देशों में अल्पविकसित देशों जैसी बेरोजगारी की समस्या नहीं होती है। भारत में पूँजी निर्माण की दर जनसंख्या वृद्धि की दर से कम है, जिससे बढ़ी हुई जनसंख्या को अन्यत्र रोजगार सुलभ कराने में अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, अतः स्पष्ट है कि पूँजी निर्माण की निम्न दर भी बेरोजगारी को बढ़ावा देती है। 

5. पूँजी गहन तकनीक - पूँजी गहन तकनीक का आशय है उत्पादन के क्षेत्र में अधिक श्रमिकों के प्रयोग की जगह स्वचालित मशीनों का प्रयोग करना। नये-नये उद्योगों तथा उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में उत्पादन कार्य कम्प्यूटराइज्ड कर दिया गया है, जिससे रोजगार के अवसरों में कमी हो गयी और बेरोजगारी की समस्या बढ़ी है।

6. दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति - यहाँ की शिक्षा पद्धति व्यवसाय प्रधान या व्यावहारिक होने की बजाय सिद्धान्त प्रधान है, जिससे बेरोजगारी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।

7. त्रुटिपूर्ण नियोजन - स्वतन्त्रता के उपरान्त देश में आर्थिक नियोजन अपनाया गया जिससे अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास के साथ-साथ बेरोजगारी दूर की जा सके, लेकिन देश में आठ पंचवर्षीय योजनाएँ समाप्त हो चुकी हैं। फिर भी बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण त्रुटिपूर्ण नियोजन व्यवस्था है।

8. महिलाओं द्वारा नौकरी - स्वतन्त्रता के पूर्व देश में बहुत थोड़ी-सी महिलाएँ नौकरी करती थीं, लेकिन आज सभी क्षेत्रों में महिलाएँ नौकरी करने लगी हैं जिससे पुरुषों में बेरोजगारी का अनुपात बढ़ा है।

9. देश का विभाजन व युद्ध - देश का विभाजन होने से भारी संख्या में शरणार्थियों का आगमन हुआ। सन् 1971 में बंगलादेश में युद्ध के कारण भी शरणार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई, जिससे बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि हुई। 

10. भारी कर भार - देश में आय एवं धन की विषमता को दूर करने के लिए सरकार ने उद्योगपतियों पर भारी कर लगा दिया है, जिससे उद्योगों के विस्तार पर रोक लग गयी। परिणामस्वरूप बेरोजगारों की संख्या में और अधिक वृद्धि हुई है। 

11. मुद्रा - स्फीति - मुद्रा- स्फीति भी बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि करती है। मूल्य वृद्धि के कारण श्रमिकों के वेतन एवं भत्ते में वृद्धि होती है, जिससे वस्तुओं की लागत एवं मूल्य बढ़ जाते हैं, लेकिन वस्तुओं की माँग कम हो जाती है। माँग कम होने से उत्पादन कम होता है। उत्पादन कम होने से बेरोजगारी बढ़ती है।

12. उपविभाजन एवं अपखण्डन - भूमि का उपविभाजन का अर्थ होता है कृषक की भूमि कई टुकड़ों में बँट जाना जबकि अपखण्डन में एक कृषक की भूमि कई टुकड़ों में बँटी हुई होती है। भूमि के उपविभाजन एवं अपखण्डन से कृषि भूमि गैर कृषकों के हाथों में हस्तांतरित होने की प्रवृत्ति के कारण भी भूमिहीन कृषकों की संख्या में वृद्धि हुई है। 

13. कम बचत व विनियोग - देश में आन्तरिक बचत एवं विनियोग की मात्रा बहुत कम होने के कारण श्रमिकों के लिए रोजगार के पर्याप्त अवसरों में वृद्धि नहीं हो सकी है।

14. धीमा औद्योगीकरण - भारत में औद्योगीकरण की गति विकसित देशों की तुलना में बहुत धीमी रही है। विगत कुछ वर्षों में औद्योगिक विकास की दर औसत रूप से 5-6 प्रतिशत रही है। इससे भी रोजगार के अवसरों में कमी हुई है। 

15. अशिक्षित एवं अकुशल श्रम - भारतीय श्रमिक अशिक्षित, अकुशल एवं अप्रशिक्षित होते हैं, जिसके कारण उन्हें रोजगार पाने में कठिनाई होती है।

बेरोजगारी के प्रभाव

देश के लिए बेरोजगारी की समस्या एक गंभीर समस्या है। सन् 1956 व 1990 के बीच बेरोजगारों की संख्या दुगुनी हो गई है। जिसमें से आधे से अधिक पढ़े-लिखे हैं तथा प्रत्येक पाँच बेरोजगारों में से एक स्त्री है। इस समस्या के कुछ दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं -

1. मानवशक्ति का व्यर्थ जाना - बेरोजगारी देश के लिए गंभीर समस्या होती है। इसके कारण मानव शक्ति का उचित उपयोग नहीं हो पाता है और यह शक्ति व्यर्थ ही चली जाती है। यदि इसको उचित रूप से काम में लिया जाता है तो यह देश के लिए समृद्धि एवं सम्पन्नता का साधन बन सकती है । 

2. सामाजिक समस्याओं का जन्म - जिस देश में बेरोजगारी होती है, उस देश में नई-नई सामाजिक समस्याएँ जैसे - चोरी, डकैती, बेईमानी, अनैतिकता, शराबखोरी, जुएबाजी आदि पैदा हो जाती हैं, जिससे सामाजिक सुरक्षा को खतरा पैदा हो जाता है। शांति एवं व्यवस्था की समस्या उत्पन्न हो जाती है। जिस पर सरकार को भारी व्यय करना पड़ता है। 

3. राजनीतिक अस्थिरता - बेरोजगारी की समस्या देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर देती है, क्योंकि व्यक्ति हर समय राजनीतिक उखाड़-पछाड़ में लगे रहते हैं ।

4. आर्थिक सम्पन्नता में कमी - बेरोजगारी से प्रति व्यक्ति आय में गिरावट आती है, जिससे जीवन-स्तर गिरता है। लोगों की ऋणग्रस्तता एवं निर्धनता में वृद्धि होती है। आर्थिक समस्याएँ बढ़ती हैं । 

5. अन्य दुष्प्रभाव - बेरोजगारी के अन्य दुष्प्रभाव भी होते हैं, जैसे - औद्योगिक संघर्षों में वृद्धि हो जाती है, मालिकों द्वारा बेरोजगारी का लाभ उठाकर कम मजदूरी दी जाती है, पेट भर भोजन न मिलने से मृत्यु दर बढ़ जाती है आदि। बेरोजगारी से सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक वातावरण दूषित हो जाता है। इसीलिए विलियम बेवरिज ने लिखा है कि, बेरोजगार रखने के स्थान पर लोगों को गड्ढे खुदवाकर वापस भरने के लिए नियुक्त करना ज्यादा अच्छा है। 

बेरोजगारी दूर करने के उपाय

भारत में बेरोजगारी दूर करने के लिए निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं -

1. विनियोग में वृद्धि - सरकार निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों को प्रोत्साहित करे । सार्वजनिक क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पूँजी का विनियोजन करके बेरोजगारी दूर की जा सकती है। निजी क्षेत्र के उद्योगपतियों की विनियोग योजनाएँ मुख्य रूप से श्रम-प्रधान होनी चाहिए, जिसमें कम पूँजी लगाकर अधिक लोगों को रोजगार दिया जा सके।

2. नवीन योजनाएँ - नई-नई योजनाओं का निर्माण करना चाहिए तथा उन योजनाओं को प्राथमिकता प्रदान करनी चाहिए, जिसमें कम पूँजी लगाकर अधिक लोगों को रोजगार दिया जा सके । दीर्घकालीन योजनाओं के स्थान पर अल्पकालीन योजनाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए।

3. कर व्यवस्था में सुधार - प्रगतिशील कर व्यवस्था में संशोधन करके पुराने पूँजीपतियों को अधिक विनियोग हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए। उत्पादन के क्षेत्र में प्रवेश करने के इच्छुक पूँजीपतियों को कर में छूट देनी चाहिए, जिससे उत्पादन में वृद्धि होगी तथा बेरोजगारी दूर होगी।

4. प्रशिक्षण सुविधाएँ - अकुशल एवं अप्रशिक्षित श्रमिकों को कुशल एवं प्रशिक्षित करने हेतु जगह-जगह प्रशिक्षण केन्द्र खोलना चाहिए, इससे उत्पादन एवं उत्पादकता दोनों में वृद्धि करके बेरोजगारी की समस्या दूर की जा सकती है।

5. जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण - बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए सर्वप्रथम जनसंख्या वृद्धि दर पर नियन्त्रण लगाना होगा, ताकि बेरोजगारों की बढ़ती हुई संख्या को रोका जा सके।

6. लघु व कुटीर उद्योगों का विकास - ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों का विकास करना चाहिए जिसमें कम-से-कम पूँजी विनियोजन हो तथा अधिकाधिक व्यक्तियों को रोजगार सुलभ हो सके। लघु एवं कुटीर उद्योगों को अनेक प्रकार की सुविधाओं का प्रलोभन देना चाहिए, जिससे उनका विकास हो सके और ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या दूर हो सके ।

7. शिक्षा पद्धति में परिवर्तन - देश की शिक्षा पद्धति में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है । शिक्षा पद्धति रोजगार उन्मुख होनी चाहिए, इसके लिए व्यावसायिक शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है। रूस, जापान एवं ब्रिटेन जैसे देशों में प्रचलित व्यावसायिक शिक्षा पद्धति के आधार पर अपने देश में भी बेरोजगारी में कमी लायी जा सकती है। 

8. सहायक उद्योग-धन्धों का विकास - भारत में अदृश्य बेकारी या मौसमी बेकारी का स्वरूप पाया जाता है। इसे में दूर करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि के साथ सहायक उद्योग-धन्धों का विकास करना चाहिए। जैसे-मुर्गीपालन, दुग्ध व्यवसाय, बागवानी, मत्स्यपालन आदि सहायक उद्योगों का विस्तार करना चाहिए।

9. प्राकृतिक साधनों का सर्वेक्षण - भारत में प्राकृतिक साधनों का व्यापक सर्वेक्षण कराना चाहिए, इससे नई-नई सम्भावनाओं का पता चलेगा, नये-नये उद्योग स्थापित किये जायेंगे। इससे बेरोजगारी में कमी लायी जा सकती है।  

10. जनशक्ति नियोजन - श्रमिकों की माँग एवं पूर्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। श्रमिकों की भावी माँग व पूर्ति का पता लगा लेना चाहिए तथा उसी के अनुसार प्रशिक्षण आदि की व्यवस्था करनी चाहिए। 

भारत में शिक्षित बेरोजगारी के कारण

भारत में शिक्षित बेरोजगारी बढ़ने के निम्न कारण हैं -

1. शिक्षा का विस्तार - स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में शिक्षा का काफी विस्तार हुआ है। सरकारी व गैर सरकारी लाखों स्कूल खुले हैं। हजारों कॉलेज व टेक्नीकल इन्स्टीट्यूट स्थापित हुए हैं। परिणामस्वरूप शिक्षित व्यक्तियों की संख्या का विस्तार हुआ है।

2. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली - शिक्षित बेरोजगारी बढ़ने का दूसरा कारण दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली है। इसमें सैद्धान्तिक बातों पर अधिक ध्यान दिया जाता है जबकि व्यावहारिक बातों पर कम परिणामस्वरूप शिक्षितं व्यक्ति व्यावहारिक नहीं हो पाते हैं।

3. मनोवृत्ति में परिवर्तन - शिक्षित बेरोजगारी बढ़ने का तीसरा कारण शिक्षित व्यक्ति की मनोवृत्ति में परिवर्तन है। शिक्षित व्यक्ति दफ्तरों में नौकरी पाने की इच्छा तो रखता है, लेकिन स्वयं परिश्रम नहीं करना चाहता है।

4. प्रशिक्षण संस्थाओं की अपर्याप्तता - शिक्षित बेरोजगारी बढ़ने का चौथा कारण देश में प्रशिक्षण संस्थाओं का अभाव है। यहाँ जिस गति से शिक्षित व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि हो रही है, उस गति से प्रशिक्षण संस्थाएँ न तो स्थापित हो रही हैं और न पुरानी संस्थाओं का विस्तार व विकास।

5. उपयुक्त सूचनाओं को प्रदान करने वाली संस्थाओं का अभाव - शिक्षित बेरोजगारी बढ़ने का पाँचवा कारण देश में उपयुक्त सूचनाएँ देने वाली संस्थाओं का अभाव है। देश में ऐसी संस्थाओं का अभाव है। जो शिक्षित व्यक्तियों को यह दिशा निर्देश दे सकें कि उन्हें किस प्रकार रोजगार मिल सकता है।

शिक्षित बेरोजगारी कम करने के लिए सुझाव

 शिक्षित बेरोजगारी कम करने के लिए प्रमुख सुझाव निम्न हैं -

1. शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन - देश की वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है, जिससे कि सैद्धान्तिक बातों के साथ-साथ व्यावहारिक बातों का भी ज्ञान हो सके।

2. प्रशिक्षण संस्थाओं में वृद्धि - प्रशिक्षण सुविधाएँ बढ़ाने के लिए देश में प्रशिक्षण संस्थाओं का विस्तार किया जाना चाहिए, जिससे कि शिक्षित व्यक्ति प्रशिक्षण प्राप्त कर अपना व्यवसाय प्रारम्भ कर सके।

3. सूचना देने वाली संस्थाओं में वृद्धि - शिक्षित व्यक्तियों को यह सूचना कि उन्हें क्या करना चाहिए ? देने वाली संस्थाओं की संख्या बढ़ानी चाहिए, जिससे कि वे स्वयं अपना कारोबार स्थापित कर सकें और नौकरी के लिए लालायित न हों।

4. मनोवृत्ति में परिवर्तन - शिक्षित व्यक्तियों में बेरोजगारी कम करने के लिए उनकी मनोवृत्ति में परिवर्तन होना चाहिए, जिसके लिए आवश्यक सामाजिक वातावरण बनाया जाना चाहिए तथा उसका प्रसार किया जाना चाहिए। 

5. सरकारी सहायता - शिक्षित व्यक्तियों को अपना स्वयं का व्यवसाय स्थापित करने के लिए सरकार की ओर से अधिक वित्तीय सहायता, अनुदान व अन्य सहायता देनी चाहिए, जिससे कि अधिकाधिक शिक्षित व्यक्ति नौकरी की ओर न दौड़कर अपना स्वरोजगार स्थापित कर सके। इससे बेरोजगारी में कमी आयेगी। 

ग्रामीण बेरोजगारी के कारण

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नांकित हैं -

1. भूमि के प्रति प्रेम - अधिकांश कृषक अलाभकारी खेती होने पर भी उसे नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी भूमि से लगाव व प्रेम होता है।

2. उत्तराधिकार नियम - देश में उत्तराधिकार नियम प्रचलित होने के कारण पिता की मृत्यु पर पिता की भूमि में सभी पुत्रों व पुत्रियों को हक मिलता है, जिससे वे चिपके रहते हैं, चाहे भूमि से कोई लाभ हो अथवा नहीं।

3. ग्रामीण क्षेत्रों में लघु एवं वृहत् उद्योगों का अभाव - ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे लघु एवं वृहत् उद्योगों का अभाव पाया जाता है। जिसमें वे रोजगार पा सकें।

4. संयुक्त परिवार प्रणाली - यद्यपि संयुक्त परिवार प्रणाली टूट-सी गयी है, लेकिन फिर भी वह अनेक स्थानों पर बनी हुई है। परिणामस्वरूप, बिना रोजगार के भी व्यक्ति गाँवों में बने रहते हैं। 

5. मौसमी कृषि - भारत में कृषि मौसमी है, जिसके फलस्वरूप कई महीने गाँवों में बेकार रहना पड़ता है। 

6. ग्रामीण वातावरण के प्रति आकर्षण - आज भी अनेक व्यक्ति ऐसे हैं, जिन्हें ग्रामीण वातावरण अधिक पसंद हैं। अतः वे बेकार होते हुए भी गाँव छोड़ना नहीं चाहते हैं।

ग्रामीण बेरोजगारी दूर करने के उपाय 

ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त बेरोजगारी को निम्न उपायों से दूर किया जा सकता है -

1. लघु एवं वृहत् उद्योगों का विकास - ग्रामीण क्षेत्रों में लघु एवं वृहत् उद्योगों का विकास किया जाना चाहिए, जिसके लिए आवश्यक सुविधाएँ सरकार द्वारा प्रदान की जानी चाहिए।

2. सामाजिक वातावरण - ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक वातावरण को परिवर्तित करने का प्रयास करना चाहिए और  ग्रामीण जनता को यह बताना चाहिए कि बेकार बैठने से तो कुछ काम करना अच्छा है। इसके लिए ग्राम पंचायत व ब्लाक समिति को सहायता करनी चाहिए। 

3. प्रशिक्षण - गाँवों में कुटीर उद्योगों व लघु उद्योगों की स्थापना के लिए प्रशिक्षण सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए, जिससे कि ग्रामीण, प्रशिक्षण प्राप्त कर रोजगार में लग सकें और बेकारी कम करने में सहयोग दे सकें। 

ग्रामीण बेरोजगारी दूर करने के सरकारी प्रयास

भारत में ग्रामीण बेरोजगारी दूर करने के लिए निम्नलिखित मुख्य कदम उठाये गये हैं -

1. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम 

यह कार्यक्रम अक्टूबर, 1980 ई. में प्रारम्भ किया गया, जिसका उद्देश्य ग्रामीण एवं अर्द्ध-बेकारी को समाप्त करना था। इसके अन्तर्गत आबंटित धन का 50% मजदूरों एवं सीमान्त कृषकों तथा 50% धन निर्धन ग्रामीणों पर खर्च करने का प्रावधान था। इसमें मजदूरों को न्यूनतम वेतन अधिनियम के अनुसार भुगतान करने की व्यवस्था है। इस योजना के परिणामस्वरूप ग्रामीणों के लिए रोजगारों के अवसर में वृद्धि हुई है।

2. ग्रामीण भूमि रोजगार गारण्टी कार्यक्रम 

इस योजना का आरम्भ 1983-84 ई. में किया गया, जिसका उद्देश्य भूमिहीन कृषि मजदूरों को कृषि के अतिरिक्त समय में रोजगार उपलब्ध कराना था। इस योजना में भूमिहीन श्रमिकों को वर्ष में 100 दिन रोजगार देने एवं गाँवों में स्थायी सम्पत्ति के निर्माण की व्यवस्था की गयी थी। इस कार्यक्रम के परिणामस्वरूप ग्रामीण अर्थव्यवस्था में काफी सुधार आया।

3. न्यूनतम मजदूरी दर 

इस अधिनियम में मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी निर्धारित की गई, इससे श्रमिकों के शोषण को रोकने में सफलता प्राप्त हुई।

4. जवाहर रोजगार योजना 

सरकार द्वारा बेरोजगारी की समस्या के निराकरण की दिशा में 1 अप्रैल, 1989 ई. को एक और कार्यक्रम आरम्भ किया गया, जिसे 'जवाहर रोजगार योजना' कहा जाता है। इस योजना का मुख्य लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों में बेकार एवं अर्द्धबेरोजगार लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना है।

5. स्वर्ण जयन्ती शहरी रोजगार योजना 

स्वतन्त्रता के स्वर्ण जयन्ती वर्ष में शहरी क्षेत्रों में गरीबी निवारण के लिए 1 दिसम्बर, 1997 ई. से लागू यह योजना पूर्व में चल रही तीन योजनाओं को सम्मिलित करके बनाई गयी - 

  • नेहरू रोजगार योजना, 
  • गरीबों के लिए शहरी बुनियादी सेवाएँ, 
  • प्रधानमंत्री की समन्वित शहरी गरीबी उन्मूलन योजना, 

नई प्रारम्भ की गई स्वर्ण जयन्ती शहरी रोजगार योजना का उद्देश्य शहरी निर्धनों को स्वरोजगार उपक्रम स्थापित करने के लिए वित्तीय सहायता देना है तथा साथ ही सवेतन रोजगार सृजन करने के लिए उत्पादक परिसम्पत्तियों का निर्माण करना है। इस योजना के लिए धन की व्यवस्था केन्द्र तथा राज्यों के मध्य 75: 25 के अनुपात में की गई है। इस योजना की दो विशेष स्कीमें हैं -

1. शहरी स्वरोजगार कार्यक्रम - इस स्क्रीम के दो घटक हैं -

  • लघु उद्यम और कौशल विकास द्वारा स्वरोजगार। 
  • शहरी क्षेत्रों में महिलाओं और बच्चों का विकास।

2. शहरी मजदूरी रोजगार कार्यक्रम - इसका उद्देश्य शहरी स्थानीय निकायों के अधिकार क्षेत्र में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लाभार्थियों को उनके श्रम का सामाजिक और आर्थिक रूप से उपयोगी सार्वजनिक सम्पत्ति के निर्माण में उपयोग करके मजदूरी रोजगार उपलब्ध कराना है।

6. सन् 1993-94 में आरम्भ की गयी तीन महत्वपूर्ण योजनाएँ 

15 अगस्त, 1993 ई. को प्रधानमंत्री ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तीन रोजगार एवं विकासपरक योजनाएँ लागू कीं -

1. प्रधानमंत्री रोजगार योजना - 2 अक्टूबर, 1993 ई. से आरम्भ इस योजना के माध्यम से आठवीं योजना में उद्योग, व्यापार एवं सेवा क्षेत्र में 70 लाख लघुत्तर उद्यम स्थापित करके 10 लाख से अधिक 18 से 35 आयु वर्ग के शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार सहायता प्रदान करने का प्रावधान है। 

इसमें अनुसूचित जाति/जनजाति, भूतपूर्व सैनिक, विकलांग तथा महिलाओं के लिए आयु सीमा में 10 वर्ष की छूट देय हैं। इस योजना के अन्तर्गत उद्योग एवं सेवा क्षेत्र ऋण सीमा 2 लाख रुपये तक तथा व्यवसाय के लिए ऋण सीमा 1 लाख रुपये तक निर्धारित है। 

इस योजना को 1 अप्रैल, 1994 से ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में भी लागू कर दिया गया तथा साथ ही इसमें SEEUY योजना का विलय कर दिया गया। 24 दिसम्बर, 1998 ई. को केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने PMRY के दायरे का विस्तार करते हुए योजना के ढाँचे में अब औद्योगिक एवं सीमित व्यापारिक गतिविधियों के अतिरिक्त बागवानी, मछली पालन व पोल्ट्री व्यवसाय सहित कृषि एवं सभी आर्थिक व्यवसायों को सम्मिलित किया गया है।

2. रोजगार आश्वासन योजना - ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों और खेतिहर मजदूरों को वर्ष के बेरोजगार दिवसों में 100 दिन का रोजगार सुनिश्चित करने की योजना 2 अक्टूबर 1993 ई. से लागू की गई। 1 जनवरी, 1996 ई. को रोजागर आश्वासन योजना में जवाहर रोजगार योजना की द्वितीय स्ट्रीम का विलय होने के बाद यह योजना देश के 32,006 विकास खण्डों में प्रचलित हो गई। 

वर्ष 1997-98 ई. के में अन्त तक यह देश के सभी विकास खण्डों में प्रचलित कर दी गई।1 अप्रैल, 1999 ई. को इस योजना का पुनर्गठन किया गया है । वर्तमान में यह देश भर में जिला/विकास खण्ड स्तर पर चलाया जाने वाला मजदूरी रोजगार कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम द्वारा मजदूरों के अन्यत्र होने वाले पलायन को रोकना है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक परिवार से अधिकतम दो युवाओं को 100 दिन तक का लाभप्रद रोजगार उपलब्ध कराना है।

3. महिला समृद्धि योजना - ग्रामीण महिलाओं में आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने एवं उनमें छोटी-छोटी बचतों की प्रवृत्ति उत्पन्न करने के उद्देश्य से यह योजना 2 अक्टूबर, 1993 ई. से आरम्भ की गई। इस योजना के अन्तर्गत 18 वर्ष से अधिक आयु की महिला न्यूनतम 4 रुपये (या उसका गुणांक) से अपने क्षेत्र के डाकघर में खाता खोल सकती है। इस खाते में जो राशि एक वर्ष तक नहीं निकाली जाएगी उस पर सरकार 25% प्रोत्साहन राशि के रूप में जमा करेगी। यह प्रोत्साहन राशि अधिकतम 300 रुपये पर ही अनुमान्य होगी।

7. अन्य प्रमुख कार्यक्रम 

अन्य प्रमुख कार्यक्रम निम्न हैं -

1. ग्रामीण सामूहिक जीवन बीमा योजना - यह योजना 1995-96 ई. के बजट में प्रस्तावित की गई, जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन बीमा निगम के माध्यम से नई सामूहिक बीमा योजना का कार्यान्वयन करना है। इस योजना में 70 रुपये वार्षिक प्रीमियम पर, 5,000 रुपये की बीमा सुरक्षा प्रदान करने का प्रावधान है।

2. राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना - वृद्ध एवं रोजगार अयोग्य कमजोर वर्ग के व्यक्तियों को सहायता देने के लिए 1995-96 के बजट में यह योजना प्रस्तावित की गई, जिसे 15 अगस्त, 1995 ई. से लागू किया गया। इस योजना में तीन घटक सम्मिलित हैं- प्रथम, राष्ट्रीय वृद्धावस्था में पेंशन योजना - गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले 65 वर्ष से अधिक आयु वाले वृद्धों को 75 रुपये प्रति माह के रूप में राष्ट्रीय न्यूनतम वृद्धावस्था पेंशन देने का प्रावधान है। 

दूसरे, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना - परिवार के मुख्य आय अर्जक की आकस्मिक मृत्यु होने पर परिवार को 5,000 रुपये की एकमुश्त राशि उत्तरजीवी लाभ के रूप में देने का प्रावधान है तथा तीसरे, राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना - निर्धन परिवार की महिलाओं को पहले दो बच्चों के प्रसव के पूर्व तथा बाद की देखभाल के लिए पोषाहार देने का प्रावधान है। 

8. रोजगार सृजन की नवीन योजनाएँ 

1. प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना - ग्रामीणों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समयबद्ध कार्यक्रम चलाने के उद्देश्य से वित्तमंत्री द्वारा प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना घोषित की गई। ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के जीवन-स्तर में सुधार लाने के समग्र उद्देश्य सहित स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, पेयजल, आवास तथा ग्रामीण सड़कों जैसे पाँच महत्वपूर्ण क्षेत्रों में ग्रामीण स्तर पर विकास करने पर ध्यान देने के उद्देश्य से यह योजना वर्ष 2000-01 में शुरू की गई।

  • प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना - वर्ष 2003 तक 1,000 व्यक्तियों से अधिक जनसंख्या तथा वर्ष 2007 तक 500 व्यक्तियों से अधिक जनसंख्या सहित सभी ग्रामवासियों को सभी मौसमों में अच्छी रहने वाली सड़कों के माध्यम से सड़क सम्पर्क सुविधा मुहैया कराने के उद्देश्य से यह योजना 25 दिसम्बर, 2000 को शुरू की गई।
  • प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना (ग्रामीण आवास) - ग्रामीण स्तर पर लोगों के स्थायी निवास को विकसित करने तथा ग्रामीण गरीबों की बढ़ती हुई आवास सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से योजना इंदिरा आवास योजना के पैटर्न पर कार्यान्वित की जानी है।
  • प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना (ग्रामीण पेयजल परियोजना) - इस कार्यक्रम के अन्तर्गत कुल आबंटन का कम-से- ने-कम 25 प्रतिशत भाग सम्बन्धित राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों द्वारा मरु विकास कार्यक्रम/सूख सम्भावित क्षेत्र कार्यक्रम के अन्तर्गत ऐसे क्षेत्रों के सम्बन्ध में जल संरक्षण, जल प्रबन्धन, जल भराई तथा पेयजल संसाधनों को कायम रखने लिए परियोजनाओं/योजनाओं के सम्बन्ध में उपयोग में लाया जाना है।

2. जनश्री बीमा योजना - समाज के गरीब वर्ग को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए वित्तमंत्री द्वारा जनश्री बीमा योजना नामक सामूहिक बीमा की एक नई योजना आरम्भ करने की घोषणा की गई। शहरी एवं ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों के 18 से 60 वर्ष आयु वर्ग के लोग इस योजना में सम्मिलित किये गये हैं। इस योजना में लाभार्थियों को 200 रुपये वार्षिक प्रीमियम का भुगतान करना होता है। 

लाभार्थी को स्वाभावित मृत्यु की दशा में 20,000 दुर्घटनावश मृत्यु/स्थायी विकलांगता के लिए 50,000 तथा आंशिक विकलांगता के लिए 25,000 रुपए का बीमा कवच देने का प्रावधान है। गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लाभार्थी प्रीमियम की केवल आधी राशि का भुगतान करेंगे। यह योजना 10 अगस्त, 2000 ई. को लागू की जा चुकी है।

3. अन्त्योदय अन्त योजना - अन्त्योदय अन्न योजना उन दो योजनाओं में से एक हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के 76 वें जन्म दिवस 25 दिसम्बर, 2000 ई. को लागू किया गया (दूसरी योजना प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना है) अन्त्योदय अन्न योजना का उद्देश्य निर्धनों को अन्न सुरक्षा उपलब्ध कराना है। 

इस योजना में देश के एक करोड़ निर्धनतम परिवारों को प्रति माह 25 किग्रा अनाज विशेष रियायती मूल्यों पर उपलब्ध कराया जाएगा। इस योजना के अन्तर्गत जारी किये जाने वाले गेहूँ एवं चालव का केन्द्रीय निर्गम मूल्य क्रमश: 2 रुपये तथा 3 रुपये प्रति किग्रा होगा। 

नये मूल्य की इस श्रेणी के साथ ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत उपभोक्ताओं की श्रेणियों की संख्या दो से बढ़कर तीन हो जाएगी। अब तक इस प्रणाली में केवल दो ही श्रेणियाँ थीं- गरीबी रेखा से नीचे तथा गरीबी रेखा के ऊपर।

4. सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना - 25 दिसम्बर, 2001 को स्व. पं. दीनदयाल उपाध्याय के जन्म दिवस पर प्रधानमंत्री ने ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिर सामुदायिक, सामाजिक तथा आर्थिक परिसम्पत्तियों के सृजन सहित ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी रोजागर तथा खाद्य सुरक्षा दे के लिए सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना का शुभारम्भ किया। ग्रामीण विकास मन्त्रालय द्वारा चलाई जाने वाली इस योजना के लिए वर्ष 2001-02 ई. हेतु 10,000 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए हैं। 

पंचायती संस्थाओं के माध्यम से लागू की जाने वाली इस योजना में प्रतिवर्ष 100 करोड़ मानव दिवस रोजगार सृजित किया जाएगा। दो चरणों वाली इस योजना के पहले चरण में जिला एवं ब्लाक पंचायतों को सम्मिलित किया जाएगा। दो चरणों वाली इस योजना के पहले चरण में जिला एं ब्लाक पंचायतों को सम्मिलित किया जाएगा जिस पर आबंटित धनराशि का 50% व्यय होगा (जिला परिषदों को 20% तथा पंचायत समितियों को 30% मिलेगा )। 

योजना के दूसरे चरण में ग्राम पंचायतें शामिल की जाएगीं। इस योजना में कार्य करने वाले बेरोजगारों को प्रतिदिन 5 किलो खाद्यान्न दिया जाएगा, शेष भुगतान मुद्रा में किया जाएगा। योजना के अन्तर्गत किए गए कार्य श्रम आधारित होंगे और स्थायी सामुदायिक परिसम्पत्तियों के सृजन में सहायक होंगे। 

आर्थिक सर्वेक्षण 2001-02 ई. के अनुसार पूर्व से चल रही दो योजनाओं रोजगार आश्वासन योजना तथाजवाहर ग्राम समृद्धि योजना को 1 अप्रैल, 2002 ई. से सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना में समेकित किया जा गया है। 

5. स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना - स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना गाँवों में रहने वाले गरीबों के लिए स्व-रोजगार की एक अकेली योजना 1 अप्रैल, 1999 को प्रारम्भ की गई। इस योजना में पूर्व से चल रही निम्नांकित 6 योजनाओं का विलय किया गया है -

  • समन्वित ग्राम विकास क्रार्यक्रम।  
  • स्वरोजगार के लिए ग्रामीण युवाओं का प्रशिक्षण कार्यक्रम।   
  • ग्रामीण क्षेत्र में महिला एवं बाल विकास कार्यक्रम। 
  • ग्रामीण दस्तकारों को उन्नत औजारों की किट की आपूर्ति का कार्यक्रम। 
  • गंगा कल्याण योजना। 
  • दस लाख कुआँ योजना। 

अब उपर्युक्त कार्यक्रम अलग से नहीं चल रहे हैं। इस योजना में पहले के स्वरोजगार कार्यक्रमों की शक्तियों और कमजोरियों का ध्यान रखा गया है। इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में भारी संख्या में सूक्ष्म उद्योगों की स्थापना करना है। इस योजना में सहायता प्राप्त व्यक्ति 'स्वरोजगारी' कहलायें, लाभार्थी नहीं।

Related Posts