सविनय अवज्ञा आंदोलन कब हुआ था?

आंदोलन- नमक कानून भंग करने के बाद एक बार फिर देशव्यापी आंदोलन आरंभ हो गया। इस आंदोलन का कार्यक्रम स्वयं गाँधीजी ने निर्धारित किया था। 

इसमें स्वतंत्रतापूर्वक नमक बनाना, शराब और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरना देना, चर्खा कातना विदेशी वस्त्रों की होली जलाना, सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को छोड़ना, सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देना आदि सम्मिलित थे।

सविनय अवज्ञा आंदोलन कब हुआ था

सविनय अवज्ञा आंदोलन का आरंभ डांडी यात्रा से शुरु हुआ। 12 मार्च, 1930 को गाँधीजी नामक कानून तोड़ने के लिए अपने चुने हुए 78 साथियों को लेकर साबरमती आश्रम से डांडी की ओर चल पड़े। चौबीस दिनों की यात्रा के बाद वे 6 अप्रैल को समुद्र तट पर स्थित डांडी पहुँचे। उसी दिन वहाँ समुद्र के जल से नमक बनाकर उन्होंने नमक कानून भंग किया।

सविनय अवज्ञा आंदोलन के आरंभ होते ही गाँधीजी, जवाहरलाल नेहरू एवं अन्य महत्वपूर्ण नेता गिरफ्तार कर लिए गए। पर लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ। इस आंदोलन में सभी वर्ग के लोगों ने भाग लिया। स्त्रियों ने पहली बार बड़ी संख्या में इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। 

पर्दे में रहने वाली तथा अवज्ञा एवं अंधविश्वास में डूबी हुई हजारों स्त्रियों ने विदेशी माल तथा शराब की दुकानों पर धरना दिया, पुलिस की ज्यादतियाँ सहन की और जेलों में यातनाएँ सही। इस आंदोलन में स्त्रियों का सक्रिय सहयोग अपूर्व एवं अत्यंत सराहनीय था।

दमन कार्य - आंदोलन की तीव्रता के साथ-साथ दमनचक्र की कठोरता भी बढ़ती गई। देशभर में पुलिस ने अमानुषिक अत्याचार किए। 1931 के आरंभ तक 90,000 लोगों को जेल में बंद कर दिया गया था। समाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया गया तथा देश के कोने-कोने में निहत्थी भीड़ पर पुलिस ने लाठी-चार्ज किया। इसी समय अप्रैल और मई 1930 में तीन नाटकीय घटनाएँ घटी।

1. भारतीय सैनिकों को पेशावर में प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दिया गया, पर उन्होंने आदेश मानने से इनकार कर दिया।

2. शोलापुर में जनविद्रोह को दबाने के लिए मार्शल लॉ (सैनिक शासन) लगाना पड़ा।

3. चटगाँव में क्रांतिकारियों ने सरकारी हथियारखाने पर अधिकार कर लिया। बाद में वहाँ सरकारी सैनिक और क्रांतिकारियों के बीच घमासान गोलीबारी हुई और सैनिकों ने फिर हथियारखाने पर कब्जा कर लिया।

गाँधी-इरविन समझौता - 1 जनवरी, 1931 में गाँधीजी तथा कुछ अन्य नेता जेल से रिहा कर दिए। मार्च में महात्मा गाँधी और इरविन की मुलाकत हुई। दोनों के बीच एक समझौता हुआ जिसे गाँधी-इरविन कहते हैं। इसके अनुसार गाँधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया। 

दूसरी ओर, सरकार ने उन सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया जिसे आंदोलन के दौरान अहिंसक रहे थे। काँग्रेस दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए तैयार हो गई। एक नए संविधान के प्रश्न पर विमर्श करने के लिए इस सम्मेलन का आयोजन किया गया था।

गोलमेज सम्मेलन- 1931 में गाँधी जी काँग्रेस की ओर से इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन गए । यह सम्मेलन 7 सितम्बर, 1931 से 1 दिसम्बर, 1931 तक चला। गाँधी जी ने इस आंदोलन को सफल बनाने की पूरी कोशिश की, पर व्यर्थ यह सम्मेलन सफल नहीं हुआ और गाँधीजी 1931 के अंतिम सप्ताह में असफल होकर भारत लौटे। उनके भारत लौटने पर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड विलिंगटन ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया।

इसके बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः शुरू कर दिया गया। गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके पहले कुछ प्रमुख नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। सरकार समझती थी कि नेताओं को गिरफ्तार कर लेने से आंदोलन ठंडा पड़ जाएगा, पर यह उसका भ्रम था। 

नेताओं की गिरफ्तारी के बाद यह आंदोलन और भी तेजी से चला। सरकार का दमन भी पहले से अधिक भयानक था। लगभग एक लाख बीस बजार व्यक्ति जेलों में बंद कर दिए गए थे। जेलों में इन लोगों के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया जाता था। फिर भी, यह आंदोलन दो वर्षों तक चला। सरकार के क्रूर दमन चक्र को देखते हुए मई 1934 में इसे समाप्त कर दिया गया। गाँधीजी एक बार फिर सक्रिय राजनीति से अलग हो गए।

मैक्डोनाल्ड का सांप्रदायिक निर्णय - 1931 में हुई गोलमेज सभा की असफलता का प्रधान कारण सांप्रदायिक मतभेद था । भारतीय विधान सभा के लिए विभिन्न संप्रदायों के प्रतिनिधित्व और चुनाव के संबंध में भारतीय नेताओं में एकमत होना था। अतः 1932 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डोनाल्ड ने अपना निर्णय दिया, जिसे ‘सांप्रदायिक पंचाट' कहते हैं। 

इसमें मुसलमानों की तरह हरिजनों के लिए भी पृथक निर्वाचन की घोषणा की गई। गाँधी जी ने इस निर्णय का विरोध किया। उन्होंने इसके विरूद्ध जेल में ही आमरण अनशन शुरू कर दिया। विवश हो, पूना में देश के सभी दलों के नेताओं ने एक निर्णय लिया, जिसके अनुसार हरिजन हिन्दूधर्म के अंग माने गए। सांप्रदायिक पंचाट स्वीकार किया गया। इसे 'पूना पैक्ट' कहते हैं। 1934 में गाँधीजी जेल से रिहा कर दिए और उसी वर्ष उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन बंद कर दिया।

सांप्रदायिक राजनीति और पाकिस्तान की माँग- 1916 में लखनऊ समझौता भारतीय राजनीति में हिन्दू मुस्लिम सहयोग का प्रतीक था। कुछ दिनों तक दोनों संप्रदाय मिलजुलकर काम करते रहे। खिलाफत आंदोलन के समय दोनों संप्रदायों का सहयोग चरम सीमा पर था । पर यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रह सकी। 

1938 में मुस्लिम राजनीति में एक नया और महत्वपूर्ण परिवर्तन आया । अब तक मुस्लिम लीग नेताओं की माँग मुख्यतः पृथक निर्वाचन मंडलों तथा विधान मंडलों में सुरक्षित प्रतिनिधित्व तथा लोकसभा के संरक्षण तक ही सीमित थी। 

1938 में उन्होंने एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया। यह नया सिद्धांत 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' था। इसके आधार पर मुस्लिम लीग ने देश का विभाजन कर मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र पाकिस्तान की माँग की।

1935 का भारत शासन अधिनियम - साइमन कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने 1935 में भारत सरकार अधिनियम पास किया। 1937 से 1947 तक भारत में शासन इसी के आधार पर होता रहा। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थी।

1. ब्रिटिश प्रांतों एवं देशी राज्यों को मिलाकर एक अखिल भारतीय संघ के निर्माण का प्रावधान रखा गया। यह उपबंधित कर दिया गया कि देशी राज्य प्रस्तावित संघ में स्वेच्छा से सम्मिलित होंगे।

2. केन्द्र में द्वैध शासन की व्यवस्था की गई थी। अधिनियम में संघीय प्रशासन को दो भागों में बाँटा गया था- संरक्षित और हस्तान्तरित। प्रतिरक्षा, विदेश विभाग तथा अनुसूचित जनजाति का प्रशासन संरक्षित विषय थे। 

इन विषयों को गवर्नर जनरल (वायसराय) को अपनी परिषद् के सदस्यों की मदद से संचालित करना था। हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन गवर्नर-जनरल (वायसराय) को अपने मंत्रियों की मदद से करने का प्रावधान था।

3. प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त कर दिया गया था और उन्हें स्वायत्तता प्रदान की गई थी। अब केन्द्रीय सरकार के अधीन कोई प्रांत नहीं रहा अपितु वह स्वायत राज्य था। प्रांत के शासन का भार गवर्नर पर था। को अपनी मंत्रिपरिषद् की मदद से शासन चलाना था। मंत्रि परिषद् प्रांतीय विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी थी।

बंगाल, बिहार, संयुक्त प्रांत, बंबई, मद्रास आदि बड़े प्रांतों में दो सदनों के विधानमंडल का प्रावधान था और सीमांत प्रांत, उड़ीसा आदि छोटे प्रांतों में एक सदन के विधानमण्डल का।

4. कानून बनाने के संबंध में संघ एवं प्रांत की शक्तियों का स्पष्ट उल्लेख था। अधिनियम तीन सूचियाँ थीं- संघीय सूची, प्रांतीय सूची और समवर्ती सूची।

संघीय सूची में प्रतिरक्षा, वैदेशिक मामले, युद्ध, डाक और तार सहित 59 विषय थे। जिनका प्रबंध केवल संघीय (केन्द्रीय) सरकार ही कर सकती थी। शांति और सुव्यवस्था, न्याय, पुलिस, जेल, स्थानीय स्वशासन आदि सहित 54 विषय प्रांतीय सूची में थे। इनका प्रबंध प्रांतीय सरकार करती थी। 

समवर्ती सूची में 36 विषय थे। जिनका प्रबंध केन्द्र और प्रांत दोनों कर सकते थे। फौजदारी तथा दीवानी कानून और कार्यवाही, प्रेस, श्रमिक, संघ, श्रमिक कल्याण, औद्योगिक झगड़ों का निपटारा आदि समवर्ती सूची के कुछ विषय थे।

काँग्रेस मंत्रिमंडल का गठन - दिसम्बर 1936 में काँग्रेस का एक विशेष अधिवेशन बुलाया गया। इस अधिवेशन में एक प्रस्ताव पास कर 1935 के भारत सरकार अधिनियम को अस्वीकृत कर दिया गया। काँग्रेस का में मत था कि ज्ञानता के विरूद्ध भारत पर यह कानून थोपा गया है। उसने संविधान सभा की माँग फिर दोहराई जिसकी माँग सर्वप्रथम 1934 में की गई थी।

काँग्रेस ने भारत सरकार के अधिनियम की निंदा तो की पर प्रांतीय विधान सभाओं के चुनावों में भाग लेने का निर्णय लिया। ये चुनाव 1937 में होने वाले थे। काँग्रेस ने अपने घोषणापत्र में संविधान सभा बुलाए जाने की, किसानों को शोषण से बचाने के लिए भूमि सुधारों की स्त्रियों पुरूषों के समान अधिकारों की और मजदूरों की स्थिति में सुधार की चर्चा की।

1937 में हुए चुनावों में लगभग एक करोड़ पचपन लाख लोगों ने मतदान किया। इन चुनावों में काँग्रेस, मुस्लिम लीग एवं कई अन्य पार्टियों ने भाग लिया। इसमें देश के अधिकांश भागों में काँग्रेस की शानदान जीत हुई। 

छह प्रांतों में काँग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला तथा दूसरे तीन प्रांतों में यह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आई। पूरे भारत के मुसलमानों का प्रतिनिधि होने का दावा मुस्लिम लीग करती थी। इन चुनावों में मुस्लिम लीग को मात्र 108 सीटें प्राप्त हुई। 

चार प्रांतों में मुस्लिम लीग को एक भी सीट न मिल सकी। इन चारों में पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत भी एक था जो मुस्लिम बाहुल्य प्रांत था। पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में वहाँ के सम्मानित नेता अब्दुल गफफार खाँ के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन को महत्वपूर्ण जीत प्राप्त हुई।

चुनावों के बाद प्रांतों में मंत्रिमंडल बनाने की समस्या उत्पन्न हुई। बहुमत द्वारा यह निर्णय लिया गया कि जिन प्रांतों में काँग्रेस को बहुमत मिला है वहाँ वह मंत्रिमंडल बनाए। 

जुलाई 1937 में वायसराय से आश्वासन प्राप्त हुआ कि गवर्नर प्रांतीय प्रशासन में दखल नहीं देंगे। तब काँग्रेस ने सयुक्त प्रांत (वर्तमान में उत्तर प्रदेश), मध्य प्रांत (वर्तमान में मध्य प्रदेश), बिहार, उड़ीसा, मद्रास (वर्तमान में तमिलनाडू) और मुंबई (वर्तमान महाराष्ट्र) में अपने मंत्रिमंडल बनाए। बाद में पश्मिोत्तर प्रांत (वर्तमान में पाकिस्तान का एक प्रांत) और असम में भी काँग्रेस ने मंत्रिमंडल बनाए।

सत्ता में आने के बाद इन मंत्रिमंडलों ने कुछ महत्वपूर्ण समाचारपत्र पर लगे बैन ( प्रतिबंध) और राजनीतिक। बंदियों को छुड़वाया तथा जनता की दशा सुधारने के क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण सुधार किए।

गाँधी युग के नेता

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म बिहार राज्य के सारण जिले के जीरादेई नामक गाँव में 3 दिसम्बर, 1844 ई. को हुआ था । 1911 ई. में उन्होंने कलकत्ता में वकालत शुरु की 1916 ई. में वे पटना आ गए और हाई कोर्ट में वकालत करने लगे परंतु, देश सेवा के कार्यों में वे भाग लेना चाहते थे।

अतः आरंभ में ही उन्होंने वकालत छोड़ दी और उसी समय काँग्रेस के कर्णधार बने रहे। 1923 ई. में वे काँग्रेस के महामंत्री बने, 1930 ई. में सत्याग्रह आंदोलन सफल बनाने की उन्होंने चेष्टा की और 1934 ई. में बिहार के भूकंप पीड़ितों की सेवा की। वे आरंभ में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के समर्थक रहे। 

1939 ई. में वे कॉंग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए वे संविधान सभा के सभापति भी थे और कुछ समय तक भारत सरकार के खाद्य मंत्री भी रहे। 1950 ई. में वे भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और 1960 ई. तक उस पर प्रतिष्ठित रहे। अपनी देशसेवा के कारण उन्हें 'देशरत्न' कहा जाता है।

सरदार वल्लभभाई पटेल - 1857 के 31 अक्टूबर के दिन गुजरात के एक गाँव में सरदार पटेल का जन्म हुआ था। बाल्यावस्था से ही सरदार पटेल देश भक्त थे तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंत में ही भारत का कल्याण देखते थे। 

महात्मा गाँधी के संपर्क में आने के पश्चात् सरदार स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े वे बैरिस्टरी छोड़कर देश सेवा में संलग्न हो गए। उन्होंने गुजरात में क्रांति की आग सुलगाई। स्वतंत्रता संग्राम के लिए बारदोली सत्याग्रह तथा आनंद तालुके के आंदोलन की जोरदार तैयारी का श्रेय सरदार को ही है। 

सरदार अनुपम संगठन- शक्ति, कार्यकुशलता तथा दबंग सैनिक प्रवृत्ति थी। विपत्ति से वे घबराते न थे इसी कारण उन्हें 'लोह पुरूष' कहा गया है। काँग्रेस में प्रवेश करने के समय से अंत तक सदा वे काँग्रेस के महाप्राण बने रहे। अंतरिम सरकार की स्थापना होने पर सरदार के जिम्मे गृह विभाग रखा गया। 

ब्रिटिश शासनकाल में भारत दो भागों में विभाजित था- देशी राज्य और ब्रिटिश प्रांत। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो देशी राज्यों ने एक जटिल समस्या उपस्थित कर दी लगभग छह सौ देशी राज्यों पर से ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता उठा ली गई ओर उन्हें भारत या पाकिस्तान में शामिल होने या स्वतंत्र रहने का अधिकार दे दिया गया। 

इससे देश की एकता नष्ट हो सकती और सारे देश में अव्यवस्था फैल सकती थी। सरदार पटेल ने अपनी कुशलता एवं दूरदर्शिता से भारत के ऊपर से इस खतरे को हटा दिया। उन्होंने देशी राज्यों को भारत में विलय कर अपनी कार्यकुशलता का परिचय दिया। इसी कारण उन्हें भारत का बिस्मार्क भी कहा जाता है ।

सरोजनी नायडू- सरोजनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1878 को हैदराबाद में अघोरनाथ चट्टोपाध्याय के घर हुआ था। वे बाल्यावस्था से ही अंग्रेजी में कविता किया करती थी। वे शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से इंग्लैण्ड गई जहाँ उनकी प्रतिभा और निखरी। 

1898 में वे भारत लौटी। 1915 में राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़ी । 1925 में कानपुर काँग्रेस में वे अध्यक्ष निर्वाचित हुई। उन्होंने 1930 में नमक सत्याग्रह एवं 1942 के आंदोलन में भाग लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् वे उत्तर प्रदेश की राज्यपाल नियुक्त हुई। 2 मार्च 1949 को उनकी मृत्यु हो गई। सरोजनी नायडू 'भारत कोकिला' के नाम से विख्यात है।

सुभाष चन्द्र बोस - भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में सुभाषचंद्र बोस का महत्वपूर्ण स्थान है वे नेताजी की उपाधि से सम्मानित है। उन्होंने केम्ब्रिज से आनर्स की डिग्री प्राप्त की और आई. सी. एस. की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया। उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य की भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना था। 

उन्होंने देशबंधु चितरंजन दास के नेतृत्व में राजनीति में प्रवेश किया। 33 वर्ष की उम्र में वे कलकत्ता के मेयर और 1938 में काँग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 1938 में पुनः काँग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। बाद में उन्होंने काँग्रेस से अलग होकर फारवर्ड ब्लाक नामक राजनीति पार्टी का गठन किया। 

1941 में ब्रिटिश सरकार की नजरबंदी से छिपकर काबुल होते हुए जर्मनी पहुँचे और वहाँ से जापान । उन्होंने जापान में बसे भारतीयों की सहायता से आजाद हिन्द फौज का संगठन किया। नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने भारत को आजाद कराने का प्रयास किया किन्तु वे असफल रहे। 

सुभाष जी का व्यक्तित्व इतना विशाल था कि उस साल की विश्व शक्तियों ने उन्हें भारत की अस्थायी सरकार का प्रथम राष्ट्रपति घोषित किया था। जिसे जापान तथा जर्मनी ने भी मान्यता दी थी। किन्तु 1945 की वायु दुर्घटना में उनकी मृत्यु की खबर प्रचारित की गई, लेकिन मृत्यु की खबर सदैव संदिग्ध बनी रही।

पंडित जवाहर लाल नेहरू- पंडित जवाहरलाल का जन्म 14 नवम्बर, 1889 ई. को हुआ था। कुछ समय बाद विद्वान अंग्रेज शिक्षकों की देखरेख में अध्ययन के पश्चात वे केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज में प्रविष्ट हुए। उन्होंने वहाँ बी.एस.सी. की परीक्षा पास की। 

इंग्लैण्ड के इनर टेम्पल से वकालत की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात् 1912 ई. में स्वदेश लौटकर इलाहाबाद में वकालत करने लगे। फिर वे राजनीति की ओर आकर्षित हुए। 1928 ई. में उन्होंने पहली बार कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। 

वे कई वर्षों तक कांग्रेस के मंत्री बने रहे। और युवक आंदोलन, स्वाधीनता आंदोलन आदि में भाग लेते रहे। वे कई बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए इसी पद पर वे मृत्युपर्यंत प्रतिष्ठित रहे।

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी - राजगोपालाचारी का जन्म तमिलनाडु के सलेम में 8 दिसम्बर, 1879 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। कानून की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सलेम में ही वकालत करने लगे। तीक्षण बुद्धि और विवेकशील होने के कारण उनकी वकालत चमक उठी। थोड़े ही दिनों बाद वे राजनीति में कूद पड़े। वे कांग्रेस में शामिल हुए।

उन्होंने असहयोग आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, सांप्रदायिक निर्णय का विरोध, सत्याग्रह आंदोलन, क्रिप्स मिशन का विरोध इत्यादि में सक्रिय भाग लिया। लार्ड माउन्टबेटन के चले जाने के बाद वे भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल के पद पर सुशोभित हुए। नया संविधान लागू होने के बाद उन्होंने राजनीति से अवकाश ले लिया। उन्होंने 1937 के चुनाव के बाद मद्रास के मुख्यमंत्री का पद ग्रहण किया था।

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