भारतीय संविधान का निर्माण एवं विशेषताएं - Indian Constitution

संविधान जीवन का वह मार्ग है, जो राज्य अपने लिए चुनता है। अँग्रेजी में संविधान को Constitution कहा जाता है। भारतीय संविधान का अभिप्राय भी भारतीय राज्य की संघीय बनावट एवं संगठन से है। प्रत्येक राज्य संविधान के अनुसार कार्य करता है।

भारतीय संघ का भी अपना संविधान है राज्य के चार तत्व होते हैं जिनमें से एक महत्वपूर्ण तत्व सरकार है जिसके द्वारा राज्य की इच्छा की अभिव्यक्ति होती है।

सरकार का गठन किस प्रकार किया जाएगा। उसके विभिन्न अंगों की शक्ति और कार्य क्या होंगे। इसके लिए निश्चित नियम होते हैं जो लिखित व अखिलित हो सकते हैं। कुछ नियम संसद द्वारा बनाए जाते हैं, कुछ नियम हमारी भारतीय परम्पराओं व प्रथाओं पर आधारित होते है। ये नियम व कानून मिलकर भारतीय संविधान बनाते हैं।

भारतीय संविधान का निर्माण एवं विशेषताएं 

संविधान सरकार के अंग और राज्य के कार्य क्षेत्र का निर्धारण करती है। भारतीय संविधान के द्वारा राज्य के नागरिकों के अधिकार एवं कर्त्तव्य निश्चित किए गए हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय संविधान उन सभी नियमों, कानूनों, परम्पराओं और प्रथाओं का संग्रह है जो देश को दिशा प्रदान करता है।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर का कथन है - मैं महसूस करता हूँ कि भारतीय संविधान व्यवहारिक है इसमें परिवर्तन की क्षमता है। इसमें शांतिकाल व युद्धकाल में देश की एकता को बनाए रखने का सामर्थ्य है। वास्तव में मैं यह कहना चाहूँगा कि यदि भारतीय संविधान के अंतर्गत स्थिति खराब होती है तो इसका कारण यह नहीं कि हमारा संविधान खराब है वरन् हमें यह कहना होगा कि मनुष्य ही खराब है।

भारतीय संविधान का निर्माण

भारत का स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन 1875 से 15 अगस्त 1947 तक चलता रहा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रीय आंदोलन की तीव्रता को देखकर 16 मार्च, 1946 को इंग्लैंड की प्रधानमंत्री एटली ने यह घोषणा की कि केबिनेट तथा मिशन भारत जाएगा। वह 24 मार्च, 1946 को भारत पहुँचा। 

केबिनेट मिशन ने राजनैतिक दलों के नेताओं से बातचीत की, किन्तु वैधानिक प्रश्नों पर आम राय नहीं हो सकी अतः मिशन ने 16 मई 1946 को कुछ प्रस्ताव रखे इनमें से एक प्रस्ताव संविधान निर्माण एवं संविध निर्मात्री सभा के गठन से संबंधित था। केबिनेट मिशन द्वारा दिए गए सुझाव अनुसार संविधान सभा का निर्माण किया गया।

संविधान सभा ने अपना कार्य 9 दिसम्बर, 1946 को प्रारंभ किया। 1946 की केबिनेट मिशन योजनानुसार एक 389 सदस्यीय संविधान सभा का निर्माण हुआ किन्तु पाकिस्तान बनने से इसमें 308 सदस्य रह गए। 

9 दिसम्बर, 1946 को डॉ. सच्चिदानंद की अध्यक्षता में इसकी पहली बैठक हुई, बाद में 11 दिसम्बर, 1946 को राजेन्द्र प्रसाद इसके स्थायी अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 3 दिसम्बर, 1946 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने इसमें उद्देश्य प्रस्ताव रखा जो सभा द्वारा 22 जनवरी, 1947 को स्वीकार किया गया। 

29 अगस्त, 1947 को डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में एक प्रारूप समिति बनाई गई। जिसका कार्य संविधान का प्रारूप तैयार करना था। इसके सदस्य थे सर अल्लादी, कृष्णा स्वामी अय्यर, अन् गोपाला स्वामी अयंगार, मोहम्मद सादुल्ला, के एम मुंशी, बी. एल. मित्तर और पी. डी. खेतान। 

प्रारूप समिति ने संविधान का एक मसविदा तैयार किया जिसमें 395 अनुच्छेद और 8 परिशिष्ट थे। 5 जनवरी, 1948 को यह मसविदा संविधान सभा में प्रस्तुत किया गया। संविधान सभा ने 2 वर्ष 11 माह 18 दिन तक कार्य करके 26 जनवरी, 1949 को 395 अनुच्छेदों और 8 परिशिष्टों का भारत का संविधान स्वीकार किया और लागू किया गया। 

26 जनवरी इस कारण ऐतिहासिक है कि इस तिथि को भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत की मुक्ति की घोषणा की थी। 

26 जनवरी को इसे लागू करने का कारण था कि सन् 1930 से देश प्रतिवर्ष 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाता चला आ रहा था। इसकी स्मृति में ही हम भारतीय प्रतिवर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाते हैं।

भारतीय संविधान की विशेषताएँ

प्रत्येक देश का संविधान उस देश की आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। हमारे संविधान निर्माताओं का उद्देश्य देश की परिस्थितियों के अनुरूप श्रेष्ठ व व्यवहारिक संविधान का निर्माण करना था। 

उन्होंने संसार के सभी लोकतांत्रिक देशों के संविधान का अध्ययन करके उनके श्रेष्ठ तत्वों का हमारे संविधान में समावेश किया है। भारतीय शासन अधिनियम 1935 से संविधान का आकार, विषय प्रणाली को अपनाया। अमेरिका के संविधान से हमने मूल अधिकार, सर्वोच्च नयायालय, उपराष्ट्रपति के पद की व्यवस्था एवं संविधान के संशोधन की प्रक्रिया को लिया। 

आयरलैंड के संविधान हमने नीति निर्देशक तत्व, निर्वाचक मंडल राज्य सभा के 12 सदस्यों के मनोनयन की व्यवस्था को अंगीकृत किया है। कनाडा संविधान से हमनें संघ शब्द को लिया है। शासन के अंगों के शक्ति विभाजन में अवशिष्ट सूची को, संघ को प्रदान करने के उपाय भी हमने आस्ट्रेलिया के संविधान से प्राप्त किए हैं।

21 वें संशोधन में वर्णित व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विचार जापान के संविधान के सौजन्य से प्राप्त है हमारे संविधान में संशोधन की प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका के संविधान की देन है। 

संकलकाल में राष्ट्रपति के संवैधानिक संकटकालीन अधिकार की व्यवस्था जर्मनी के संविधान से मिलती है अतः हमारा संविधान श्रेष्ठ एवं व्यावहारिक है। हमारे संविधान की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं।

1. विशाल संविधान- भारत का संवैधानिक विकास ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल से ही प्रारंभ हो गया था अर्थात् 1600 ईसवी में। 1858 का अधिनियम भारत परिषद् अधिनियम 1861, 1892 का अधिनियम, 1919, 1938 के अधिनियम ने संविधान के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

भारतीय संविधान में 395 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियाँ एवं 22 खंड है, अमेरिका के संविधान में 21 अनुच्छेद, कनाड़ा के संविधान में 147, आस्ट्रेलिया के संविधान में 128 अनुच्छेद है। सर आइवर जैनिक्स के अनुसार"यह विश्व का सबसे बड़ा संविधान है भारत में विभिन्न वर्ग और धर्म के लोग रहते हैं। संविधान के प्रत्येक विषय की विशद व्याख्या आवश्यक थी।

सांविधाना की विशालता के कुछ प्रमुख कारण निम्नानुसार है

1. भारत में संघीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है, संघात्मक शासन प्रणाली के अनुसार प्रत्येक इकाई का अपना संविधान होता है किन्तु भारत में इकाइयों के पृथक संविधान नहीं है इसलिए इसका आकार वृहद है। 

2. हमारे संविधान में केवल केन्द्रीय सरकार के विभिन्न अंगों का वर्णन नहीं है बल्कि राज्य सरकारों की शक्ति का वर्णन है। 

हमारे संविधान में केन्द्र व राज्यों के मध्य तीन सूचियों ( संघ सूची राज्य सूची समवर्ती सूची) में शक्तियों का विभाजन कर दिया गया है तथा इसका विस्तृत विवेचना भी संविधान में दिया गया है इसलिए हमारा संविधान वृहद् है। 

भारतीय संविधान में मूल अधिकारों व राज्य की नीति निर्देशक तत्वों का विस्तृत वर्णन है।

3. संकटकाल में सरकारों की क्या व्यवस्था होगी इसका विस्तृत वर्णन है। साथ ही राज्य के अवशिष्ट विषयों को केन्द्र को सौंपने की व्यवस्था की गई है। पिछड़ी व जनजाति हरिजनों के लिए विशेष प्रावधानों का उल्लेख है।

4. सन् 1935 के अधिनियम की बहुत सी बातें इसमें समाविष्ट है। जैसे नागरिकता, मौलिक अधिकार, राज्य के नीति निर्देशक तत्व, केन्द्रीय शासन की व्यवस्था, राज्यों की शासन व्यवस्था, केन्द्र व इकाइयों का पारस्परिक संबंध,, देश के भीतर व्यापार व वाणिज्य, लोक सेवायें, निर्वाचन आदि।

उपरोक्त सभी बातों के कारण कुछ संविधान आलोचक ये कहते हैं भारतीय संविधान कोरी आदर्श कंल्पना है इसका यहाँ के हवा, पानी, मिट्टी व जीवन की कठिनाईयों से कोई संबंध नहीं।

2. लिखित एवं निर्मित- हमारे संविधान में शासन संचालन संबंधी अधिकांश बातें लिखित रूप में है इसलिए यह लिखित संविधान है। एक निश्चित समय में योजनाबद्ध तरीके से इसे संविधान सभा द्वारा बनाया गया अतः यह निर्मित संविधान है। 

प्रो. महादेवन के अनुसार "भारत में जटिल परिस्थितियों तथा भारतीय जनता की राजनैतिक अनुभवहीनता को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान निर्माताओं ने यह उचित समझा कि सब बातें स्पष्ट रूप से संविधान में लिखी रहें और कोई खतरा न हो।

इंग्लैंड के संविधान का अधिकांश भाग अलिखित है वहाँ कोई विद्यार्थी यदि शासकीय लायब्रेरी में इंग्लैंड के संविधान की माँग करें तो उसे केवल टीकाएँ दी जावेगी वह एक पुस्तक के रूप में उपलब्ध नहीं। 

भारत का संविधान एक संविधान सभा ने निश्चित समय तथा योजना के अनुसार बनाया था इसलिए इसमें सरकार के संगठन के अधिकतर आधारभूत सिद्धांत औपचारिक रूप से लिख दिए गए हैं।

व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का संगठन उनकी कार्यप्रणाली, नागरिकों के साथ उनके संबंध, नागरिकों के अधिकार और कर्त्तव्यों के विषय में स्पष्ट रूप से विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

3. संघात्मक होते हुए भी एकात्मक- हमारे संविधान की यह महत्वपूर्ण विशेषता है कि इनका ऊपरी ढाँचा संघात्मक है लेकिन इसकी आत्मा एकात्मक है। वर्तमान संविधान में संघात्मक तथा एकात्मक दोनों ही शासन प्रणालियों की विशेषता संविधान में पाई जाती है इनमें संघात्मक शासन की निम्न विशेषता है-

1. संघात्मक संविधान के रूप में सर्वप्रथम केन्द्र तथा राज्यों के बीच 3 सूचियों के अंतर्गत शक्तियों का विभाजन किया गया है संघ सूची, राज्य सूची, समवर्ती सूची। संघ सूची में दिए हुए विषयो पर संसद कानून बनाती है।

2. राज्य सूची के विषय में राज्यों के विधानमंडल तथा समवर्ती सूची के विषय पर संसद तथा राज्यों के विधानमंडल दोनों ही कानून बनाते हैं। भारत का संविधान केन्द्र तथा राज्यों की शक्तियों का सर्वोच्च स्रोत है। इसकी व्यवस्था का कोई भी सरकार उल्लंघन नहीं कर सकती।

3. संघीय न्यायपालिका स्वतंत्र व सर्वोच्च हो तथा संघीय शासन में न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रुप में कार्य करती है। यदि केन्द्रीय व राज्य सरकारें कोई भी ऐसा कानून बनाती है अथवा लागू करती है।

जो संविधान के विरुद्ध है तो न्यायपालिका ऐसे कानून असंवैधानिक घोषित कर सकती है। इससे सिद्ध होता है कि भारत का संविधान संघात्मक है।

4. भारतीय संविधान में संघीय सूची और राज्य सूची द्वारा संघीय सरकार व राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। संविधान लिखित दस्तावेज है और इसमें संशोधन किए जाने के लिए विशेष प्रक्रिया को अपनाना आवश्यक है। भारत में सर्वोच्च न्यायालय स्थापित किया गया है जो संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करता है।

भारत का संविधान संघात्मक होते हुए भी एकात्मक है क्योंकि

1. संघीय सूची में 97 विषय शामिल है और समवर्ती सूची में 47 विषय सम्मिलित है।

2. अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र में निहित की गई है।

3. सम्पूर्ण देश में इकहरी न्यायापालिका है जिसके शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय है।

4. संविधान में इकहरी नागरिकता का प्रावधान है।

5. अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी सम्पूर्ण भारत में कार्य करते हैं जिनकी सेवा की शर्ते संघीय सरकार निश्चित करती है।

6. सम्पूर्ण भारत में एक दीवानी और फौजदारी कानून है।

7. राज्य सरकारों पर संघीय सरकार का नियंत्रण निम्नलिखित प्रकार से विद्यमान रहता है :

(क) राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।

(ख) राज्यों के शासन संचालन हेतु केन्द्र निर्देश दे सकता है।

(ग) राज्यों में कुछ कानून तभी मान्य होते हैं जब राज्यपाल राज्य की विधायिका द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए सुरक्षित करके उस पर राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त कर ले । 

8. राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकार इतने व्यापक हैं कि आवश्यकता पड़ने पर उनके प्रयोग द्वारा संघात्मक शासन को एकात्मक शासन में बदला जा सकता है।

9. योजना आयोग का माध्यम एवं केन्द्र द्वारा राज्यों को अनुदान।

10. योजना आयोग के माध्यम से संघीय सरकार राज्यों की सरकारों पर हावी रहती है वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर संघीय सरकार राज्यों की सरकारों को वित्तीय अनुदान देती है जिसके कारण राज्य सरकारें केन्द्र का मुँह ताकती है व्यवहार में इनका प्रयोग प्रधानमंत्री व मंत्रिमंडल करता है।

उक्त विवेचना से स्पष्ट है कि भारत के संविधान में एकात्मक व संघात्मक दोनों ही प्रणालियों की विशेषता पाई जाती है। अतः इसे संघात्मक होते हुए भी एकात्मक कहना उपयुक्त है।

डॉ. अम्बेडकर का कथन है कि भारतीय संविधान को संघीय और एकात्मक समय और परिस्थितियों की आवश्यकतानुसार बनाया जा सकता है। संविधान की रचना ऐसी है कि सामान्य काल में इसे संघीय संविध न के रूप में काम में लाया जा सकता है और युद्ध काल में पूरी तरह एकात्मक बन सकता है।

4. कठोर व लचीले का अद्भुत मिश्रण - भारत के संविधान के संबंध में यह कहा जाता है कि भारत का संविधान न तो अमेरिका की तरह कठोर हैं और न ही इंग्लैंड जैसा लचीला है। 

भारतीय संविधान की मूल प्रकृति कठोर है 2क्योंकि हमारे संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान 3संशोधन की विशेष प्रणाली अपनाई गई है उसमें साधारण एवं संवैधानिक कानूनों ने अंतर किया गया है। संविधान में संशोधन का अधिकार संसद को है 6संशोधन की तीन विधियाँ अपनाई गई है।

1. संसद के साधारण बहुमत द्वारा।

2. संसद में उपस्थित सदस्यों के 2 / 3 बहुमत से।

3. संविधान के कुछ भागों में संशोधन के लिए राज्यों की विधान सभाओं की सहमति आवश्यक है। संविधान सभा में पं. जवाहरलाल नेहरू जी ने कहा था किसी भी दशा में हम इस संविधान को इतना दुष्परिवर्तनशील नहीं बना सकते कि वह देश की बदलती हुए परिस्थितियों के अनुरूप न बनाया जा सके। भारतीय संविधान में अब तक 100 से अधिक संशोधन किए जा चुके है।

5. सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्य की स्थापना- संविधान की प्रस्तावना में संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्य की स्थापना को स्वीकृत किया गया है। सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न का अर्थ है राज्य आंतरिक व बाह्य रूप से सम्प्रभू है अर्थात् कोई भी बाहरी देश भारत की आंतरिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, केन्द्र की इच्छा ही सर्वोपरि है।

राज्य में रहने वाले सभी व्यक्ति व संस्थाएँ राज्य की आज्ञा को मानने के लिए बाध्य है भारत राज्य बाह्य रुप से किसी अन्य देश के आधीन नहीं है वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति बना सकता है उसे लागू कर सकता है। उस पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से कोई भी विदेशी दबाव नहीं डाल सकता है।

6. लोकतंत्रात्मक राज्य की स्थापना - इसका अर्थ यह है कि संविधान द्वारा भारत में लोकतंत्रात्मक राज्य की स्थापना की गई है। इसमें शासन की सत्ता जनता में निहित होती है। जनता इसका प्रयोग अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा करती है। 

जनता वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रतिनिधियों का चुनाव करती है। केन्द्रीय शासन लोकसभा के प्रति व राज्यों के शासन विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होकर कार्य करता है।

यदि जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि यह अनुभव करते हैं कि प्रशासक वर्ग अपने उत्तरदायित्वों का सही निर्वाह नहीं कर रहे हैं तो वह उन्हें अपदस्थ कर सकती है।

हमारे संविधान में समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्रदान किया गया है प्रत्येक को विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता प्राप्त है। प्रस्तावना में स्पष्ट है कि संविधान का निर्माण भारत के लोग कर रहे हैं तथा इन्ही की इच्छा सर्वोपरि होगी। यदि जनता चाहे तो संविधान में परिवर्तन कर सकती है। इससे सिद्ध होता है कि जनता सम्प्रभु है भारत की शासन व्यवस्था लोकतंत्रात्मक है।

7. गणराज्य की स्थापना - भारतीय संविधान गणराज्य की स्थापना का संकल्प लेता है। गणराज्य से तात्पर्य ऐसे राज्य से है जिसमें शासन का सर्वोच्च पद आनुवांशिक न होकर जनता द्वारा निर्वाचित होता है। 

हमारे शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी राष्ट्रपति होता है जिसका निर्वाचन जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं भारत में सदियों से चल रही राजतंत्र व्यवस्था को समाप्त कर गणराज्य की स्थापना की गई है।

गार्नर ने गणराज्य की परिभाषा करते हुए लिखा है कि- "यह राज्य का वह रुप है जिसमें शासन की सत्ता कई मनुष्यों के हाथ में है। भारत में भी शासन की सत्ता राष्ट्रपति के हाथ में न होकर जनता द्वारा निर्वाचित प्रधानमंत्री व मंत्रीपरिषद के हाथ में होती है जो सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

भारतीय संविधान में भी यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि शासन का संचालन वर्ग विशेष के हित में न होकर सामान्य जनता के हितार्थ किया जावेगा। लिंग, जाति, धर्म संप्रदाय आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। राज्य का स्वरुप लोक कल्याणकारी होगा।

8. धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना - भारत में धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना की गई है। धर्म निरपेक्ष राज्य वह राज्य होता है जो सभी धर्मों को समान मानता है और सभी धर्मों के विकास का समान अवसर देता है।

इस प्रकार धर्म को राजनीति से पृथक करता है। राज्य की कोई धार्मिक नीति नहीं होती हमारे संविधान में लिखा गया है कि धर्म के आधार पर सरकारी नौकरियों में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।

देश के सभी नागरिकों को किसी भी धर्म को स्वीकार करने उसका प्रचार-प्रसार करने की स्वतंत्रता होगी। राज्य से सहायता प्राप्त स्कूलों कॉलेजों में विशेष धार्मिक शिक्षा नहीं दी जावेगी। 

प्रत्येक धर्मावलम्यिों को धार्मिक संस्थाएँ स्थापित करने, उनका प्रबंध करने, चल-अचल संपत्ति को रखने का अधि कार होगा। इससे सिद्ध होता है कि राज्य की ओर से धार्मिक क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्रता दी जावेगी।

9. समाजवादी राज्य की स्थापना- संविधान के 42वें संशोधन द्वारा समाजवादी शब्द जोड़ा गया है। संविधान के 44वें संशोधन में भी इसको प्रस्तावना में दिया गया है। समाजवादी राज्य का ध्येय राज्य के समस्त नागरिकों का कल्याण है ।

समाजवाद समानता पर आधारित है यह उत्पादन के साधनों (भूमि, श्रम, पूँजी, श्रम वं संगठन, साहस) का राष्ट्रीकरण चाहता है अर्थात् उनका उद्देश्य सामाजिक कल्याण है । 

लोकतांत्रिक पद्धति के द्वारा समान सामाजिक व्यवस्था की स्थापना चाहता है। वितरण के साधनों पर भी राज्य का स्वामित्व चाहता है जिससे शोषण, गरीबी, बेरोजगारी जैसे संघर्ष का अंत हो। यह उत्पादन भी समाज के हित के कारण चाहता है।

10. संसदीय शासन की स्थापना एवं संसद की सर्वोच्चता- भारत का संविधान संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना करता है। संसदीय शासन प्रणाली के अनुसार राज्य का सर्वोच्च अधिकारी (राष्ट्रपति) नाम पत्र का प्रधान होता है। 

राज्य शासन संसद के प्रति उत्तरदायी होता है। देश की कार्यकारिणी का प्रधान प्र नमंत्री होता है तथा वह मंत्रिपरिषद् की सलाह से शासन चलाता है।

प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं। संसद के समक्ष प्रधानमंत्री और उसके मंत्री मंडल को अपने कार्यों का विवरण देना होता है। संसद के सदस्यों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर भी प्रधानमंत्री और उसके मंत्रीमंडल को देना होता है। 

प्रधानमंत्री और उसका मंत्रीमंडल के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर दिया जाए तो प्रधानमंत्री को अपने मंत्रीमंडल सहित अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ता है। अतः उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में संसद की सर्वोच्चता है।

11. सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना - सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना भारतीय संविधान एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि भारत में संघीय शासन प्रणाली है जिसमें संघ और राज्यों के बीच संविधान के द्वारा शक्ति का विभाजन किया गया है। दोनों सरकारों की शक्तियों का स्रोत संविधान है।

अतः संविधान की सुरक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय का होना अति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त मूल अधिकारों की सुरक्षा के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय का होना आवश्यक माना जाता है। हमारे देश की न्यायपालिका संविधान तथा मूल अधिकारों की संरक्षिका के रूप में कार्य करती है।

यदि विधायि कोई कानून बनाती है, जिनसे मूल अधिकारों अथवा संविधान का उल्लघंन होता है तो, सर्वोच्च न्यायालय उसको असंवैधानिक घोषित कर देता है। पिछले 37 वर्षों में अनेक बार सर्वोच्च न्यायालय अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता का परिचय देते हुए अनेक कानूनों को असंवैधानिक घोषित किया है।

12. अनुसचित जातियों तथा जनजातियों के लिए विशेष अधिकार - भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों व जनजातियों की सुरक्षा की व्यवस्था की गई है। हमारे देश में अस्पृश्यता का रोग सदियों से चला आ रहा है। 

संविधान के द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है और यह व्यवस्था की गई है कि यदि कोई व्यक्ति इसको बढ़ावा देता है तो दंड का भागी होगा। केवल दलित वर्ग सदैव शिक्षा, संपत्ति व मानवीय अधिकारों से वंचित रहा है। 

अतः संविधान निर्माताओं में उन्हें धार्मिक व राजनैतिक क्षेत्र में विशेष सुविध एँ देने की व्यवस्था की है। संसद व विधानसभाओं में उनके लिए पद सुरक्षित रखे गए हैं शिक्षा व सरकारी सेवाओं में उन्हें आरक्षण दिया गया है।

इसके अतिरिक्त असम, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों में कुछ पिछड़ी जातियों को विशेष सुविधा दी गई है।

13. एक नागरिकता एक राष्ट्र भाषा- संविधान के द्वारा सम्पूर्ण राज्य के लिए एक नागरिकता व एक राष्ट्रभाषा का सिद्धांत अपनाया गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका के समान हमारे यहाँ के नागरिक दोहरी नागरिकता नहीं रखते अर्थात् वे अपने राज्य व केन्द्र शासन के पृथक-पृथक नागरिक नहीं है, भारतीय संघ के नागरिक है। 

इसी प्रकार राष्ट्रभाषा के रुप में हिन्दी को प्रतिष्ठित किया गया है। क्षेत्रीय भाषाओं को भी संविध न में स्थान दिया गया है किन्तु राष्ट्रभाषा केवल हिन्दी है।

14. साम्प्रदायिकता का अंत - अंग्रेजों के द्वारा फूट डालो और शासन करो की नीति को भारतीय संविधान में समाप्त कर दिया गया है। इस हेतु साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त कर उसके स्थान पर संयुक्त निर्वाचन प्रणाली को अपनाया गया है।

इसी प्रकार के साम्प्रदायिक अधिकारों को समाप्त कर सभी वर्ग के लोगों को समान आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक अधिकार दिए गए हैं तथा देश में लोकतांत्रिक पद्धति की स्थापना की गई है।

15. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं विश्व शांति पर बल - भारतीय संविधान सभी राष्ट्रों की स्वतंत्रता में विश्वास रखता है वह चाहता है कि विश्व शांति सहयोग व सुरक्षा की उन्नति हो तथा राष्ट्रों के मध्य न्याय व सम्मानपूर्वक संबंध स्थापित हो । भारत का संविधान विश्व शांति का पोषक है एवं वसुधैव कुटुम्बकम की भावना में विश्वास रखता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 में वह राज्यों को आदेश देता है कि वह अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा में विश्वास रखते हुए न्यायपूर्ण सम्मान, पूर्ण संबंधों की स्थापना करें तथा अपने पारस्परिक व्यवहार में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग व शांति स्थापित रह सके।

16. वयस्क मताधिकार - भारतीय संविधान भारत में प्रत्येक 18 वर्ष के स्त्री पुरुष को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार देता है। 

यद्यपि विपक्षी यह तर्क देते हैं कि अशिक्षित व आर्थिक राजनीतिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों को यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए किन्तु हमारे संविधान निर्माता सही अर्थों में भारत में लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे, अतः संविधान में वयस्क मताधिकार को स्थान दिया गया।

वयस्क मताधिकार को अपनाया जाना हमारे संविधान की महान व क्रांतिकारी विशेषता है इससे साम्प्रदायिकता, सामाजिक विषमता का अंत होगा तथा जिम्मेदार नागरिकों का सृजन होगा साथ ही देश की एकता व अखण्डता में भी वृद्धि होगी।

17. नागरिक मौलिक अधिकार - संयुक्त राज्य अमेरिका, आयरलैंड व रूस के संविधानों की भाँति हमारे देश में भी नागरिकों को मौलिक अधिकार देने का प्रावधान संविधान में किया गया है। मूल अधिकार वे अधिकार हैं जिनके बिना नागरिक अपना सम्पूर्ण विकास नहीं कर सकते। व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास के लिए इनका होना अत्यंत आवश्यक है।

अतः इन्हें न्याय पालिका का संरक्षण भी संविधान द्वारा दिया गया है। कोई भी सरकार विशेष परिस्थितियों को छोड़कर इन्हें नहीं छीन सकती है।

भारतीय संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकार हैं- 1. समानता का अधिकार, 2. स्वतंत्रता का अधिकार, 3. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, 4. संस्कृत व शिक्षा का अधिकार, 5. शोषण के विरूद्ध अधिकार, 6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

18. राज्य के नीति निर्देशक तत्व- राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का उद्देश्य कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है जिससे न्याय स्वतंत्रता और समानता की स्थापना की जा सके।

संविधान ने इनके माध्यम से व्यवस्थापिकाओं और कार्यपालिकाओं को यह निर्देश दिया है कि वे किस प्रकार से अपनी शक्तियों का प्रयोग करें। ये शासन के आधारभूत सिद्धांत हैं।

यद्यपि इनके पालन न करने पर राज्य को दंडित नहीं किया जा सकता है। किन्तु इनके आधार पर जनता राज्य के कार्यों की समीक्षा करती है तथा यदि सरकारें इन सिद्धांतों का पालन नहीं करती तो जनता चुनाव के माध्यम से ऐसी सरकार को हटा सकती है। 

राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में कुछ सामान्य सिद्धांत हैं कुछ आर्थिक, सामाजिक, कानूनी व प्रशासनिक तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंध रखने वाले सिद्धांत हैं। जिन्हें अपनाकर कोई शासन कल्याणकारी बन सकता है। अतः एस. सी. छागला ने लिखा है कि- इन सिद्धांतों का पालन करके भारत को स्वर्ग बनाया जा सकता है। 

सामूहिक रूप से ये सिद्धांत लोकतांत्रिक भारत का शिलान्यास करते हैं, ये भारतीय जनता के आदर्शो व आकांक्षाओं का वह क्षण है जिन्हें भारतीय समिति अवधि में प्राप्त कर लोक कल्याणकारी राज्य की नींव डालना चाहती है।

19. मौलिक कर्त्तव्य - करने योग्य कार्य कर्त्तव्य कहलाते हैं जिनसे समाज का विकास होता है। 26 जनवरी, 1950 में लागू संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों का कोई उल्लेख नहीं था, किन्तु संविधान के 42 संशोधन के द्वारा दस मौलिक कर्त्तव्यों को जोड़ा गया है

मौलिक कर्त्तव्यों के बारे में इंदिरा गाँधी ने कहा था कि- "अगर हम लोग कर्त्तव्यों को अपने दिमाग में रख लेंगे तो शांतिपूर्ण व मैत्रीपूर्ण क्रांति देख सकेंगे।

संविधान की आवश्यकता

1. भारतीय संविधान स्थायी नियम है जिनके आधार पर संसद नए कानून बनाती है तथा सरकार कार्य करती है यदि संविधान न हो, तो अराजकता की स्थिति आ जाएगी। नागरिकों के अधिकार सुरक्षित नहीं रहेंगे। शासक वर्ग अपनी मनमानी करेगा।

2. नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए एवं नागरिकों को अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों का ज्ञान कराने के लिए संविधान आवश्यक है। संविधान के आधार पर ही सरकार व अन्य संस्थाओं का गठन किया जाता है।

3. संविधान का कार्य न केवल शासन के विभिन्न अंगों का संगठन, रचना व कार्य विभाजन को निश्चित करना है वरन् यह भी निर्धारण करना है कि राज्य के उद्देश्य क्या होंगे ?

4. संविधान शासन के सामान्य सिद्धांतों को भी निर्धारित करता है। इसी कारण भारतीय संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को जोड़ा जाता है, ये तत्व राज्य को बताते हैं कि वह अपनी नीतियों का निर्माण किस प्रकार करें। राज्य एक स्वाभाविक संघ है जो कुछ विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्य करता है। 

राज्य के व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए संविधान का होना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि बिना नीतियों व नियमों के कार्य नहीं किया जा सकता।

5. वर्तमान युग लोकतांत्रिक युग है। लोकतंत्र में शासन के प्रत्येक शक्ति, अधिकार व कर्त्तव्य आदि स्पष्ट होना चाहिए तभी सभी नागरिक व सरकार के अंग, अपने कार्य एवं अधिकारों को ठीक ढंग से समझ सकेंगे तथा उनके अनुरूप कार्य कर सकेंगे।

अतः प्रत्येक राज्य चाहे उसकी शासन व्यवस्था किसी भी प्रकार की हो उसे संविधान की आवश्यकता होती है। संविधान की आवश्यकता के प्रमुख कारण है- 

1. यह सरकार की शक्तियों पर अंकुश लगाता है। 2. व्यक्ति के हित में सरकार पर नियंत्रण रखता है। 3. भावी व वर्तमान पीढ़ी को मनमानी नहीं करने देता। 

अतः राज्य कहलाने के अधिकार रखने वाले हर राष्ट्र के लिए संविधान प्रकाश स्तंभ है। भारतीय संविधान ऐसे सिद्धांतों व कानूनों का संग्रह है जो सरकार व नागरिकों के संबंध निश्चित करता है और उसके अनुसार भारतीय शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने का निर्देशन व मार्गदर्शन देता है। 

भारतीय संविधान के बिना हमारे संघीय समाजवादी लोकतंत्र की कल्पना कभी साकार नहीं की जा सकती है। हमारे संविधान के मूल सिद्धांत ही भारतीय संविधान के स्वरूप का निर्धारण करते हैं।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना 

प्रत्येक संविधान के प्रारंभ में सामान्यता एक प्रस्तावना होती है जिसके द्वारा संविधान के मूल उद्देश्यों को व लक्ष्यों को स्पष्ट किया जाता है। भारतीय संविधान के प्रारंभ में ही एक प्रस्तावना है और यह प्रस्तावना संविधान में जुड़ा हुआ एक श्रेष्ठ अलंकार है। 

यद्यपि प्रस्तावना को संवैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं है परन्तु यह भारत के प्रजातंत्रीय गणतंत्रात्मक राज्य का एक संक्षिप्त लेकिन सारपूर्ण घोषणा पत्र है। अतः इसका महत्व और मूल्य संविधान से कम नहीं आंका जाना चाहिए।

संविधान की उक्त प्रस्तावना संविधान संशोधन 42 के द्वारा समाजवाद तथा धर्म निरपेक्ष शब्दों को और जोड़ दिया गया है और इस प्रकार से लिया गया है कि- "सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य।’ प्रस्तावना में दूसरा संशोधन यह किया गया है कि राष्ट्र की एकता शब्द के साथ अखण्डता शब्द जोड दिया गया है।

संविधान के 44 संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवाद तथा धर्मनिरपेक्ष शब्दों को रखा गया है लेकिन इसके क्रम में परिवर्तन कर दिया गया है।

क्रम परिवर्तन के पश्चात् प्रस्तावना इस प्रकार निर्देशित हुई है- सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य।

सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक धर्म निरपेक्ष समाजवाद का अर्थ- सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न का अर्थ- भारत पूरी तरह से एक स्वतंत्र गणराज्य है अपने आंतरिक व बाह्य मामलों में हम किसी के अधीन नहीं है अर्थात् हम पर किसी बाहरी शक्ति का नियंत्रण नहीं है।

लोकतांत्रिक का अर्थ है कि समस्त शक्ति का केन्द्र जनता है। गणराज्य का अर्थ है कि भारत का अध्यक्ष राष्ट्रपति वंशानुगत शासक न होकर अप्रत्यक्ष रूप से जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा चुना जाता है। राज्य की सम्पूर्ण सत्ता जनता में निहित है।

धर्म निरपेक्ष राज्य- भारत एक धर्म निरपेक्ष राज्य है यहाँ सभी नागरिकों को अपने-अपने धर्मपालन की स्वतंत्रता है। सरकार का कोई राजधर्म नहीं है भारत में विभिन्न संप्रदाय के लोग रहते हैं सबको अपने धर्म की उपासना व अन्तःकरण की स्वतंत्रता प्राप्त है। धर्म के नाम पर कोई भेदभाव नहीं रखा जाता है।

समाजवाद शब्द का अर्थ- 44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा 'समाजवाद' शब्द को संविधान की प्रस्तावना में ही सम्मिलित कर लिया गया है। हमारा संविधान देश में समाजवाद की स्थापना करना अपना मुख्य उद्देश्य

मानता है पायली के शब्दों में – विचार अभिव्यक्ति में हमारे संविधान की प्रस्तावना अनुपम है वह संविधान की आत्मा है तथा उसकी अमूल्य धरोहर है।

44वें संशोधन के बाद संविधान प्रस्तावना इस प्रकार हो गई सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोक तांत्रिक धर्म निरपेक्ष समाजवादी गणराज्य।

प्रस्तावना में व्यक्त किए गए मूल उद्देश्य 

1. प्रस्तावना में स्पष्ट है कि शासन की अंतिम सत्ता जनता में निहित होगी। डॉ. अंबेडकर ने संविधान में कहा था- "मैं समझता हूँ कि प्रस्तावना इस सदन के प्रत्येक सदस्य की इच्छानुसार यह स्पष्ट कर देती है कि संविधान का आधार जनता है तथा इसमें निहित अधिकार और प्रभुसत्ता सब जनता से प्राप्त हुई है।

2. संविधान को भारत की जनता ने बनाया तथा स्वीकृत किया है अतः कोई इसे नष्ट नहीं कर सकता।

3. भारत में सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की गई है। प्रस्तावना में यह भी लक्ष्य रखा गया है कि भारत में धर्मनिरपेक्ष समाजवादी राज्य की स्थापना की जाए।

4. इस संविधान द्वारा भारत की व राजनैतिक अधिकारों, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास तथा धार्मिक स्वतंत्रता व समानता के अधिकार दिए गए हैं। 

5. प्रस्तावना में यह भी लक्ष्य निर्धारित किया गया है कि भारत की राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता को हर कीमत पर बनाया जाएगा।

प्रस्तावना का महत्व 

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही संविधान निर्माताओं ने संविधान के महत्व को व्यक्त किया है यद्यपि प्रस्तावना संविधान का दर्पण है, अत्यन्त महत्वपूर्ण व उद्देश्य प्रधान है तथापि प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि संविधान की प्रस्तावना के अंतर्गत वर्णित बातों को लेकर न्यायालय में नहीं लाया जा सकता है और न ही सरकार को कानूनी रूप से इसे मानने के लिए बाध्य किया जा सकता है। प्रस्तावना का महत्व निम्नानुसार है-

1. संविधान की प्रस्तावना हमारे संविधान के निहित उद्देश्यों को दर्शाती है तथा सरकार को अपनी शासन पद्धति व कार्यक्षेत्र के निर्धारण हेतु मार्गदर्शन करती है।

2. प्रस्तावना में वर्णित संविधान के मूल उद्देश्यों को संविधान के विभिन्न उपबंधों में मूर्त रूप दिया गया है जिससे कि उन्हें प्राप्त किया जा सके अतः प्रस्तावना में जैसे नागरिकों को सामाजिक व राजनैतिक स्वतंत्रता, समता व न्याय प्रदान करने हेतु मौलिक अधिकारों का समावेश किया गया है।

3. संविधान की प्रस्तावना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि संविधान निर्माताओं ने भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का दृढ़ संकल्प किया है। लोक कल्याणकारी योजना व कार्यक्रमों को अपनाकर संविधान ने लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का पथ प्रशस्त किया है।

श्री दुर्गादास बसु ने ठीक ही कहा है कि- "लिखित संविधान की प्रस्तावना संविधान में निहित व प्राप्त किए गए उद्देश्यों को दर्शाती है तथा यह भी स्पष्ट करती है कि संविधान की दिशा क्या है और वह लोककल्याण हेतु किस तरह से अग्रसर होगा। यह संविधान के उन उपबंधों की कानूनी व्याख्या करने भी सहायक सिद्ध होती है जहाँ उसकी भाषा अस्पष्ट होती है।

4. भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना में 42 वें संविधान संशोधन द्वारा समाजवादी धर्मनिरपेक्ष शब्दावली को जोड़ा गया है। समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष के उपबंध के साथ राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में सम्मिलित किए गए हैं। पर उन्हें मौलिक अधिकारों के समान कानूनी मान्यता प्रदान नहीं की गई है। 

1976 में 4. 42वें संवधिान संशोधन के द्वारा सामाजिक व आर्थिक व्यवस्थापन में मौलिक अधिकारों के स्थान पर नीति निर्देशक सिद्धांतों की महत्ता स्थापित की गई।

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