महात्मा गांधी भारतीय राजनीति - Mahatma Gandhi Indian Politics

महात्मा गांधी भारतीय राजनीति 

महात्मा गाँधी का भारतीय राजनीति में प्रवेश - गाँधीजी ने 1916 ई. में अहमदाबाद में साबरमती आश्रम की स्थापना की और अपने कार्यक्षेत्र के बारे में निर्णय करने से पहले उन्होंने भारतीय स्थितियों का अध्ययन करने का फैसला किया। 

1917 ई. में उन्होंने बिहार के चम्पारन जिले में नील की खेती करने वालों और 1918 ई. में अहमदाबाद के मिल मजदूरों की ओर से सफल सत्याग्रह किए थे। इस तरह वे जनता के घनिष्ठ संपर्क में आ गए थे। भारत आने के पूर्व उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की ओर से जबरदस्त सत्याग्रह चलाया था। 

1919 ई. में भारत में रोलेट एक्ट के खिलाफ एक शक्तिशाली जन आंदोलन खड़ा हो गया। इस आंदोलन के दौरान एक नए नेता - मोहनदास करमचंद गाँधी ने राष्ट्रवादी आंदोलन का नेतृत्व संभाला और भारतीय राष्ट्रवाद का तीसरा और निर्णायक दौर शुरू हो गया । गाँधी द्वारा छेड़ा गया संघर्ष राष्ट्रव्यापी एवं सर्वसाधारण का आंदोलन बन गया।

अंग्रेजी राज्य के सहयोग गॉधी- गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे (1915 ई.) उन दिनों प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ा हुआ था। यद्यपि गाँधीजी में राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरी थी, वे ब्रिटिश सरकार के प्रबल समर्थकों में से थे। उदारवादी राजनेताओं की तरह प्रारंभ में वे भी अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास करते थे। 

रॉलेट एक्ट- भारतीयों को यह आशा जागी थी कि प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत उन्हें स्वशासन का अधिकार मिल जाएगा। पर युद्ध के बाद उनकी आशाओं पर पानी फिर गया । भारत में उत्पन्न असंतोष एवं क्रांतिकारी अपराधों को दबाने के लिए मार्च 1919 ई. में रॉलेट एक्ट पास किया गया। 

इसके अनुसार सरकार को यह अधिकार मिला कि वह मुकद्दमा चलाए बिना किसी को भी नजरबंद करके उसके मुकदमे का फैसला कर सकती है। इस कानून ने नागरिक स्वतंत्रता कम करने की बजाय अधिक प्रतिबंध लगा दिए थे। लोगों ने अपने को अपमानित महसूस किया। 

महात्मा गाँधी द्वारा रॉलेट एक्ट का विरोध

रॉलेट एक्ट भारतीयों के लिए काला कानून था भारतीय जनता ने रॉलेट एक्ट के विरोध में सर्वत्र प्रदर्शन किए। सारे देश में शांतिपूर्ण हड़तालें हुई। पर सरकार ने जनता के विरोध की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। उसका दमनचक्र भी तेजी से चलने लगा। 

गाँधी ने रॉलेट एक्ट का विरोध करने का निश्चय किया और जनता को सलाह दी कि वे सत्य और अहिंसा के आधार पर रॉलेट एक्ट का विरोध करें। 30 मार्च को दिल्ली में हड़ताल हुई और विरोध प्रदर्शन हुआ। पुलिस और हड़तालियों में संघर्ष हुआ जिसमें आठ व्यक्ति मारे गए।

रॉलेट एक्ट के विरोध में परिषद के तीन सदस्यों- मदनमोहन मालवीय, मुहम्मद अली जिन्ना और मजहरूल हक ने इस्तीफा दे दिया। रॉलेट एक्ट के कारण जो जन असंतोष फैला उसकी परिणति जालियाँ वाला बाग हत्याकांड में हुई।

जलियाँ वाला बाग हत्याकांड - 10 अप्रैल, 1919 को पंजाब के डॉ. सत्यपाल तथा डॉ. सैफद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर किसी अज्ञान स्थान पर ले जाया गया। ये दोनों काँग्रेस के प्रभावशाली एवं सम्मानित नेता थे। 

इन दोनों की गिरफ्तारी तथा रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए अमृतसर के जलियाँ वाला बाग में 13 अप्रैल, 1919 को एक सभा हो रही थी। इस सभा में हजारों व्यक्ति उपस्थित थे। जलियाँ वाला बाग एक छोटा-सा बाग है जो तीन और इमारतों से घिरा है। एक छोटी-सी गली से ही बाग मे आने का रास्ता है। 

सभा में पूर्णतः शांति थी। इसी समय जनरल डायर अमृतसर का सैनिक कमांडर अपने सैनिकों को साथ लेकर बाग के भीतर आ गया। उसने बाग के एक मात्र प्रेवश द्वार को घेर लिया। फिर उसने बिना कोई चेतावनी दिए सभा में उपस्थित निहत्थी जनता पर गोलियाँ चलवा दी। 

गोलीबारी लगभ दस मिनट तक होती रही और लगभग 1600 राउंड गोलियाँ चली। बाग से निकलने वाला रास्ता बंद कर दिया गया था, इसलिए कोई भाग नहीं सका । फलतः लगभग एक हजार से अधिक व्यक्ति मारे गए और लगभग दो हजार घासल हुए। 

घायल व्यक्तियों की सेवा सुश्रुषा का कोई प्रबंध नहीं किया गया, उलटे सारे पंजाब में फौजी कानून (मार्शल लॉ) लागू कर दिया गया। और जनता पर अनेक जुल्म ढाए गए। पंजाब में हुए अत्याचार की खबर पाते ही सारे देश में खलबली मच गई। डायर द्वारा किए गए नरसंहार से अनेक अंग्रेजों तक की आत्मा काँप उठी और उन्होंने इसकी घोर निंदा की।

इस नर संहार के बाद पंजाब में मार्शल लॉ लगाकर आतंक का राज्य कायम किया गया। पंजाब की घटनाओं की खबर फैलते ही जैसे देशभर में हाहाकार मच गया और सारे देशवासी खिलाफत और असहयोग के लिए एकजुट हो गए।

खिलाफत आंदोलन

प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की जर्मनी के साथ था। जर्मनी की हार के साथ तुर्की की हार हो गई। तुर्की का सुलतान मुस्लिम संसार का खलीफा माना जाता था। उसके पतन से और तुर्की के खिलाफ किए गए ब्रिटेन और उसके मित्र राष्ट्रों के रवैये से दुनिया भर के जागरूक मुसलमान बेहद नाराज थे। 

भारतीय मुसलमानों ने भी अली भाइयों (शौकत अली और मुहम्मद अली) के नेतृत्व में आंदोलन शुरू किया। काँग्रेस ने भी उनका साथ दिया। यह वस्तुतः राष्ट्रवादी आंदोलन का एक अंग बन गया। 

इस प्रकार खिलाफत के प्रति अन्याय तथा पंजाब में की गई बर्बरता के निराकरण और स्वराज्य की स्थापना के उद्देश्य से काँग्रेस ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन (नानकोऑपरेशन मूवमेंट) शुरु किया।

असहयोग आंदोलन

1921 में गाँधी जी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन काफी जोर से शुरु हुआ। पंजाब और तुर्की के साथ हुए अन्यायों का प्रतिकार और स्वराज्य की प्राप्ति ये ही असहयोग आंदोलन के उद्देश्य थे। अभी तक राष्ट्रीय आंदोलन का संपर्क ग्रामीण जनता से नहीं था। 

परंतु महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व ने देहाती जनता को भी प्रभावित किया। सभी श्रेणियों के लोग आंदोलन में कूद पड़े। वह पहला जन आंदोलन था जो भारत में चला। स्त्रियों ने भी बड़ी संख्या में इसमें भाग लिया।

गाँधी जी के लिए मूल बात थी- अहिंसा का अनुसरण। इस आंदोलन के दौरान देवरिया जिले (तत्कालीन गोरखपुर, उत्तर प्रदेश) के चौरी-चौरा गाँव में 5 फरवरी को 3000 किसानों के निहत्थे जुलूस पर पुलिस ने लाठियाँ और गोलियाँ चलानी शुरू कर दी। 

क्रुद्ध भीड़ ने चौरी-चौरा थाने पर हमला किया और उसे पुलिसवालों सहित जला दिया। इस घटना से गाँधी जी बहुत दुखी हुए और इस हिंसक घटना की सूचना मिलते ही गाँधी जी ने आंदोलन बंद कर दिया।

असहयोग आंदोलन के मुख्य कार्यक्रम थे

1. सरकारी उपाधियों और वैतनिक पदों का त्याग।
2. सरकारी दरबारों और सरकारी उत्सवों का बहिष्कार। 
3. सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार। 
4. सरकारी न्यायालयों का बहिष्कार और पंचायत की स्थापना। 
5. विदेशी माल का बहिष्कार और चर्खा चलाना। 
6. राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना। 
7. तिलक स्वराज्य कोष में दान देना इत्यादि। 

इस प्रकार 1921 में प्रथम जन आंदोलन आरंभ हुआ और हजारों की संख्या में वकील, विद्यार्थी और सरकारी कर्मचारी इस आंदोलन में कूद पड़े किन्तु सरकार का दमनचक्र भी तेजी से चलने लगा।

असहयोग आंदोलन को आपार सफलता मिली। देश की शिक्षा संस्थाएँ लगभग बंद सी हो गई। क्योंकि छात्रों ने उनका त्याग कर दिया था। राष्ट्रीय शिक्षा के लिए एक नए कार्यक्रम की शुरुआत की गई। 

इस सिलसिले में काशी विद्यापीठ और जामिया मिलिया जैसी संस्थाओं की स्थापना की गई अनेक लोगों ने सरकारी नौकरियाँ छोड़ दी। विदेशी वस्त्रों की होली जलाई जाने लगी। सारे देश में हड़ताल का आयोजन किया गया। इस आंदोलन में हिन्दू और मुसलमान दोनों ने एक होकर भाग लिया। आंदोलन के समय ही प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आए।

वे 17 नवंबर 1921 को भारत पहुँचे। यहाँ लोगों ने आम हड़तालों एवं प्रदर्शन से उनका स्वागत किया। अनेक स्थानों पर प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए गोलियाँ चलानी पड़ी। सरकार का दमनचक्र चलता रहा। सरकार ने अपनी पूरी शक्ति से असहयोग आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया। 

काँग्रेस को गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया गया और बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ होने लगी। 1922 के प्रारंभ में लगभग तीस हजार लोग जेलों में बंद कर दिए गए थे। गाँधी जी को छोड़ अन्य सभी छोटे-बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया जा चुका था। 

गाँधी जी के लिए मूल बात थी अहिंसा का अनुसरण। इसलिए, जब गाँधी जी को चौरी-चौरा कांड की खबर लगी तो उन्हें बड़ा दुख हुआ। उन्होंने असहयोग आंदोलन को स्थगित करने का निर्णय लिया। 

12 फरवरी, 1922 को गुजरात के बारदौली में काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक हुई। उसमें आंदोलन वाले उन सभी कार्यों को बंद कर दिया गया जिनसे कानून तोड़ा जा सकता था और चर्खा, राष्ट्रीय स्कूलों की स्थापना और आत्मसंयम आदि रचनात्मक कार्य करने का निर्णय लिया गया। 

स्वराज्य दल की स्थापना 

1922 के प्रारंभ में यह आंदोलन अपनी पराकाष्ठा पर था। आंदोलन स्थगित किए जाने के महात्मा गाँधी के निर्णय ने देश को हक्का-बक्का कर दिया। कुछ क्षुब्ध काँग्रेसी नेताओं देशबंधु, चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू आदि ने चितरंजन दास के नेतृत्व में एक नए दल स्वराज्य दल की स्थापना की। 

जनवरी 1923 में स्वराज्य दल की विधिवत स्थापना हुई। इलाहाबाद में स्वराज्य दल का प्रथम अधिवेशन हुआ। जिसमें उसका संविधान और कार्यक्रम निर्धारित हुआ। स्वराज्य दल के निम्नलिखित उद्देश्य थे। 

1. भारत को स्वराज्य दिलाना।

2. उस परिपाटी का अंत करना, जो अंग्रेजी सत्ता के अधीन भारत में विद्यमान थी।

3. काउंसिल में प्रवेश कर असहयोग का कार्यक्रम बनाना और असहयोग आंदोलन को सफल बनाना। 

4. सरकार की नीति का घोर विरोध करना तथा उनके कार्य में अडंगा डालना जिससे उसके कार्य सुचारु रूप से नहीं चल सके और सरकार नीति में परिवर्तन लाने को विवश हो।

स्वराज्य दल के कार्य

स्वराज्य दल ने 1923 में निर्वाचन में भाग लिया जिसमें उसे आशातीत सफलता प्राप्त हुई। संयुक्त प्रांत के केन्द्रीय व्यवस्थापिका मे काफी संख्या में स्वराज्य दल के उम्मीदवार निर्वाचित हुए। वहाँ के गवर्नर ने स्वराज्य दल के नेता चितरंजन दास को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। 

स्वराज्यवादियों की गतिविधियों के कारण अँग्रेज गवर्नर को बंगाल में द्वैध शासन की असफलता की घोषणा करनी पड़ी। मध्य प्रांत में भी स्वराजवादियों को अपने कार्य में बड़ी सफलता प्राप्त हुई। उन्होंने वहाँ भी वैधानिक अवरोध उत्पन्न कर द्वैध शासन को असफल सिद्ध कर दिया। 

1925 में देशबंधु चित्तरंजन दास की मृत्यु से स्वराज्यवादी आंदोलन को दुःखद धक्का लगा। मदनमोहन मालवीय तथा लाजपत राय ने भी स्वराज्य दल का विरोध करना शुरु कर दिया। 1926 के चुनावों में स्वराज्य दल को वह सफलता नहीं मिली, जो 1923 में मिली थी। फलतः 1926 के अंत तक इसकी शक्ति समाप्त प्रायः हो गई।

साइमन कमीशन

1919 के अधिनियम के अनुसार 10 वर्षों में संवैधानिक परिवर्तनों पर पुनर्विचार करना था। अतः नवंबर 1927 में उपर्युक्त नियम की सफलता पर विचार करने के लिए साइमन कमीशन नियुक्त किया गया। इसे व्हाइट कमीशन भी कहते हैं, क्योंकि इसमें कोई भारतीय नहीं था। 

भारतवासियों ने इस कमीशन का बहिष्कार किया, काले झंडे दिखाए और साइमन वापस जाओ के नारे लगाए। सरकार का दमन चक्र भी उग्र रूप से चलने लगा। विरोध करती जनता पर अंग्रेजों ने बबरता पूर्वक लाठी बरसाए। लाला लाजपत राय इसी बर्बरता के शिकार होकर मातृभूमि के लिए शहीद हो गए।

क्रांतिकारी आंदोलन का जोर

साइमन कमीशन के आगमन के पूर्व ही क्रांतिकारी पुनः सक्रिय हो उठे । जलियाँ वाला बाग और लाला लाजपत राय पर लाठी प्रहार से उन्हें बड़ा आघात पहुॅचा था। उन्होंने सरकार से निपटने के लिए हिंसात्मक मार्ग अपनाया। 

हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ क्रांतिकारियों के एक नेता शचीद्रानाथ सान्याल ने सभी क्रांतिकारियों को संगति करने के उद्देश्य से हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ (इंडियन रिपब्लिकन एसोसिएशन) की स्थापना की। 

काकोरी षड़यंत्र केस

इन युवा क्रांतिकारियों को अस्त्र-शस्त्र खरीदने या बनाने के लिए धन की जरूरत थी। अतः क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाने को लूटने का निश्चय किया। अगरत 1925 को हरदोई से लखनऊ जाने वाली गाड़ी पर दस क्रांतिकारी मुसाफिर के रूप में सवार हो गए। 

गाड़ी जब कोकोरी गाँव के पारा पहुँची तब उन्होंने खतरे की जंजीर खींचकर गाड़ी रोक दी। गाड़ी के रुकते ही सभी क्रांतिकारी खजाना लूटकर भाग गए। इस अभियान में अशफाक उल्ला खाँ ने सबसे पहले खजाने वाले कंपार्टमेंट में पहुँचकर उसका ताला तोड़ा था। 

इसके बाद पुलिस और सरकार ने क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए सघन अभियान चलाया। 20 सितंबर, 1925 को चंद्रशेखर आजाद तथा कुंदन लाल को छोड़कर शेष सभी गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर मुकदमा चलाया गया। 

जो काकोरी षडयंत्र केस के नाम से प्रसिद्ध है। इस मुकदमें में रामप्रसाद बिस्मिल, में राजेन्द्र लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खाँ और रोशन सिंह को फाँसी तथा शचींद्रनाथ सन्याल को आजीवन कारावास की सजा मिली । मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सजा मिली। 

गदर पार्टी 

लाला हरदयाल ने 1913 में कनाडा मे एक क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना की थी। इसे ही गदर पार्टी नाम दिया गया। इस पार्टी में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सहायता देने के लिए विदेशों में रहने वाले भारतीय सम्मिलित थे। इस पार्टी का उद्देश्य था- भारतीय क्रांतिकारियों की सहायता के लिए विदेशों में धन तथा शस्त्र संग्रह कर उन्हें गुप्त रूप से भारत भेजना। 

मेरठ षड़यंत्र केस - मार्च 1929 में 31 मजदूर नेताओं को षड़यंत्र के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उन्हें मेरठ ले जाया गया और वहीं उन पर मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा मेरठ षड़यंत्र केस के नाम से प्रसिद्ध है। राष्ट्रीय नेताओं ने अभियुक्तों की ओर से मुकदमें में पैरवी की। 

हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ 

काकोरी षड़यंत्र केस के बाद 1928 में क्रांतिकारियों ने हिन्दुस्तान समाज वादी प्रजातंत्र संघ की स्थापना की। चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, जय गोपाल आदि इसके प्रमुख सदस्य थे। 

इन क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए सैंडर्स की हत्या कर दी। 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय सभा में जाकर वहाँ सरकारी बेंचों की तरफ बम फेंका और इन्कलाब जिंदाबाद के नारे लगाए। किसी भी सदस्य को कोई चोट नहीं आई। 

उन लोगों ने वहाँ एक पर्चा भी फेंका जिसमें लिखा था- बहरों को सुनाने के लिए बमों की रूरत थी । भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वयं को वहीं गिरफ्तार करवा लिया। बाद में चन्द्रशेखर आजाद को छोड़कर सभी प्रमुख सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए। उन लोगों का बम का कारखाना भी पकड़ा गया। 

उन पर लाहौर के पुलिस अधीक्षक की हत्या का भी आरोप लगाया गया। इन क्रांतिकारी कैदियों के साथ जेलों में बड़ा ही क्रूर व्यवहार किया जाता था। जतीन दास नामक राजनैतिक कैदी की 64 दिनों की भूख हड़ताल के बाद मृत्यु हो गई। 

23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सजा हुई। उन लोगों की फाँसी से सारे देश में क्षोभ और क्रोध की लहर दौड़ गई। इसे 'लाहौर षड़यंत्र केस' भी कहा जाता है । चन्द्रशेखर आजाद पुलिस अधिकारियों के साथ गोलीबारी में शहीद हो गए। 

इनकी मृत्यु के बाद क्रांतिकारी आंदोलन लगभग समाप्त हो गया। लेकिन इनके बलिदान ने स्वतंत्रता की उस आग को पुनः धधका दिया जो असहयोग आंदोलन के स्थगन के बाद ठंडी पड़ गई थी। 

लाहौर काँग्रेस (अधिवेशन)

1929 में काँग्रेस का अधिवेशन लाहौर में हुआ। इसके अध्यक्ष थे जवाहरलाल नेहरू। इस अधिवेशन में काँग्रेस का लक्ष्य भारत के लिए पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करना स्वीकार किया गया। साथ ही, इसकी प्राप्ति के लिए गाँधीजी के नेतृत्व में एक सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने का निर्णय लिया गया। 

प्रतिवर्ष 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस मनाने का भी निश्चय किया गया। आगे इस अवसर पर पढ़े जाने के लिए स्वतंत्रता का एक घोषणापत्र (प्रतिपत्र) भी अंगीकृत किया गया। यह घोषणापत्र इस तरह है- "भारत के ब्रिटिश सरकार ने भारत की जनता को स्वाधीनता से वंचित ही नहीं किया है।

बल्कि उसका आधार ही जनता का शोषण है और उसने भारत को आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टियों से बरबाद किया है। इसलिए, हमारा विश्वास है कि भारत को ब्रिटेन से संबंध-विच्छेद करके पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करना चाहिए। 

जिस शासन व्यवस्था ने हमारे देश में उपर्युक्त चार प्रकार की बरबादी ढाई है। अब आगे उसके अधीन रहना हम मानवता और ईश्वर की प्रति अपराध समझते हैं। परन्तु हम समझते हैं कि स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए। 

जनवरी 1931 में इलाहाबाद में काँग्रेस के कार्यकारिणी सभा के सदस्य आगे खड़े हैं, बाएँ से दाएँ महादेव देसाई, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, शर्दूल सिंह कविशर वल्लभ भाई पटेल, डॉ. एम.ए. अंसारी, जवाहरलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, अबुल कलाम आजाद, जे.एम. सेनगुप्ता, पेरिन बेन कैप्टन और मनीबेन पटेला। 

अहिंसात्मक आंदोलन ही सबसे प्रभावशील ढंग है। इसलिए, हम स्वयं को सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए तैयार करेंगे। करों की अदायगी न करना भी इसमें शामिल है।

26 जनवरी, 1930 को सारे देश में बड़े धूमधाम से स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। इस दिन जगह-जगह काँग्रेस का तिरंगा झंडा फहराया गया और लोगों ने स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा ली। राष्ट्रीय आंदोलन में 26 जनवरी का विशेष महत्व है। इसलिए इसी दिन 1950 को भारतीय गणतंत्र की घोषणा की गई। अब प्रतिवर्ष 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

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