उत्पत्ति के प्रमुख साधन कौन से हैं?

उत्पत्ति के साधनों से आशय उन वस्तुओं तथा सेवाओं से होता है, जिसका प्रयोग करके धन का उत्पादन संभव होता है। 

प्रो. बेनहम के अनुसार- "कोई भी वह वस्तु या सेवा जो कि उत्पादन कार्य के किसी स्तर पर अपना सहयोग प्रदान करती है उत्पादन के साधन कही जाती है, किसी वस्तु का उत्पादन विभिन्न उत्पादन के साधनों के सहयोग से ही संभव होता है।

उत्पत्ति के साधनों की विशेषताएँ

उत्पादन के साधनों में केवल भूमि, श्रम और पूँजी का ही वर्णन किया। भूमि से तात्पर्य केवल वे दृश्य वस्तुएँ तथा शक्तियाँ हैं। जो मनुष्य की सहायता के लिए प्रकृति से प्राप्त होती है, जिनमें भूमि की सतह, पानी, हवा, प्रकाश तथा गर्मी आदि सम्मिलित है।

श्रम से अर्थ लगाया जाता है, कि वे सभी आर्थिक कार्य जो हाथ या शरीर तथा मस्तिष्क से किए जाते हैं, वे सभी श्रम की श्रेणी में आते हैं। पूँजी संपत्ति का वह भाग है जिसका उपयोग और अधिक उत्पादन कार्य में होता है। 

आधुनिक समय में जब उत्पादन बड़े पैमाने पर हो रहा है, श्रम विभाजन का क्षेत्र बहुत बड़ी सीमा तक बढ़ता जा रहा है। इस श्रम विभाजन के विस्तार से उत्पादन की प्रक्रिया बहुत अधिक उलझन पूर्ण हो गई।

इसलिए संगठन को गौण स्थान पर रखा जा सकता है। क्योंकि बिना उचित संगठन के उत्पादन कार्य ठीक प्रकार से नहीं हो सकता। संगठन एक तकनीकी पद्धति है। 

जिसके माध्यम से उत्पादन के साधनों को गतिमान किया जा सकता है। परम्परागत विचारों के अनुसार उत्पादन के चार तत्व माने जाते हैं, किन्तु बड़े पैमाने पर उत्पादन में जोखिम भी किसी प्रकार कम नहीं रहता है। 

उत्पत्ति के प्रमुख साधन कौन से हैं

जो जोखिम उठाते हैं, उन्हें उद्यमी कहा जाता है। हर व्यक्ति उद्यमी नहीं हो सकता है। वह बड़े साहस का काम होता है, अतः उन्हें साहसी भी कहा जाता है। इस प्रकार उत्पादन के पाँच तत्व माने जाते हैं।

  1. भूमि
  2. श्रम
  3. पूँजी
  4. संगठन
  5. साहस

अर्थशास्त्रियों के बीच एक विवाद है कि उत्पादन के साधनों को पाँच चार अथवा तीन माना जाय। कुछ कहते हैं कि भूमि, श्रम व पूँजी ही उत्पादन के साधन हैं। संगठन श्रम के अंतर्गत ही आता है, और संगठन भी साहस में सन्निहीत ही रहता है, इसलिए इसको अलग नहीं रखा गया, लेकिन आधुनिक समय में इन पाँचों तत्वों का अपना स्वतंत्र स्थान उत्पादन की प्रक्रिया में है अब हम इनकी विशेषताएँ एवं महत्व का अध्ययन करेंगे।

1. भूमि

भूमि का अर्थ एवं परिभाषा 

सामान्य बोलचाल की भाषा में भूमि शब्द का अर्थ धरातल की ऊपरी सतह से लिया जाता है, लेकिन अर्थशास्त्र में भूमि से तात्पर्य भूमि की ऊपरी सतह हीं नहीं अपितु प्रकृति द्वारा प्रदत्त किए गए सभी पदार्थ इसमें शामिल होते हैं। 

जिसके लिए मनुष्य को कुछ भी त्याग नहीं करना पड़ता। ये पदार्थ भूमि की सतह धूप, हवा, समुद्र, वन, पहाड़, खनिज सम्पदा, गर्मी, प्रकाश आदि हैं ।

प्रो. मार्शल के अनुसार- भूमि का अर्थ उन सब पदार्थों और शक्तियों से है, जो प्रकृति मनुष्य की सहायता के लिए भूमि ओर पानी, वायु और प्रकाश तथा गर्मी के रूप में निःशुल्क प्रदान करती है।

भूमि की विशेषताएँ 

1. प्रकृति का मुफ्त उपहार - मनुष्य समाज ने भूमि प्राप्त करने के लिए कुछ व्यय नहीं किया है क्योंकि यह प्रकृति प्रदत्त है। भूमि पर पाए जाने वाले नदी, पर्वत, जलवायु, प्रकाश, वनस्पति तथा खनिज पदार्थ प्रकृति द्वारा मनुष्य की सहायता के लिए दिए गए है।

2. भूमि की सीमित पूर्ति - भूमि की सीमा नहीं बढ़ाई जा सकती है, उसका कोई मूल्य नहीं है अर्थात् मूल्य बढ़ने के साथ-साथ भूमि की मात्रा में वृद्धि नहीं की जा सकती है। खनिज पदार्थ जो सीमित मात्रा में है उनको मनुष्य अपने किसी भी वैज्ञानिक प्रयोग से बढ़ाने में असमर्थ है।

3. भूमि नाशवान नहीं है - भूमि की ऊपरी सतह को जहाँ पर्वत और वन है, मैदान बनाया जा सकता है। मैदान को जलाशय में परिवर्तित किया जा सकता है। भूमि का लगातार प्रयोग करते रहने पर उसकी उर्वरा शक्ति कुछ कम अवश्य हो सकती है लेकिन इसको नष्ट नहीं किया जा सकता है। 

4. भूमि की गतिहीनता - भूमि की स्थान परिवर्तन नहीं किया जा सकता। भौगोलिक दृष्टि से भूखण्ड एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं ले जाए जा सकते हैं। मनुष्य को भूमि के स्थान पर ही जाकर कार्य करना पड़ता है।

5. भूमि उत्पत्ति का निष्क्रिय साधन है- भूमि स्वयं कुछ नहीं करती है मनुष्य अपने परिश्रम व प्रयासों से भूमि को जिस रूप में चाहे परिवर्तित कर सकता है, जैसे भूमि में फसल उत्पादित करने की क्षमता है परन्तु जब तक उसमें हल नहीं चलेगा बीज नहीं डाला जाएगा तब तक फसल का उत्पादन संभव नहीं है। उत्पादन करने के लिए भूमि को श्रम तथा पूँजी की आवश्यकता है। 

6. भूमि की विभिन्नता - भूखण्डों की उर्वरता में असीम भिन्नताएँ दृष्टिगोचर होती है सभी भूखण्ड एक से नहीं होते जैसे कुछ स्थान की भूमि पथरीली, तो कही रेतीली, तो कही उपजाऊ मिट्टी, तो कहीं की बंजर होती है।

7. भूमि का पूर्ति मूल्य नहीं होता- भूमि की पूर्ति सीमित है तथा स्थिर रहती है इसलिए इसका पूर्ति मूल्य नहीं होता। भूमि का मूल्य केवल माँग द्वारा ही निश्चित होता है। माँग अधिक होने पर भूमि का मूल्य भी अधिक होगा।

भूमि का महत्व 

1. मानव जीवन के विकास का आधार - मानव जीवन के विकास में भूमि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भूमि की सहायता से ही मानव ने आखेट युग, चारागाह युग से कृषि व औद्योगिक युग तक विकास किया है ।

2. प्रारंभिक उद्योगों का विकास - मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही भूमि उत्पादन का प्रारंभिक स्रोत है। अतः कृषि, उद्योग, मछली, पालन, वन, खनिज आदि भूमि पर ही निर्भर हैं।

3. बड़े उद्योगों का विकास- देश के सारे उद्योग धंधे भी कृषि पर निर्भर हैं, क्योंकि सभी कल कारखाने एवं मिले आदि भूमि पर निर्मित होते हैं, तथा वस्तुओं के निर्माण हेतु कच्चा माल भी भूमि से ही प्राप्त होती है।

4. यातायात के साधनों की सुविधा - भूमि की बनावट के आधार पर ही यातायात के साधन निर्भर होते है, यही कारण है, कि रेगिस्तान तथा पहाड़ी भागों की अपेक्षा रेलों व सड़कों का निर्माण मैदानी भागों में अधिक से अधिक है।

5. निर्माण का आधार - भूमि पर ही भवन और कारखानों का निर्माण किया जाता है। मनुष्य मकानों में रहते हैं तथा कारखानों में काम करते हैं।

6. वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय आय- प्राकृतिक संसाधनों की अधिकता वाले देश की राष्ट्रीय आय एवं वैयक्तिक आय अधिकतम होती है वही दूसरी ओर जिन देशों में प्राकृतिक संसाधन कम हो तो वहाँ की राष्ट्रीय एवं वैयक्तिक आय कम होती है ।

7. जनकल्याण का आधार - भूमि से कृषि एवं उद्योगों का विकास होता है, जिससे राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। आय से प्राप्त धन को सरकार द्वारा सार्वजनिक कल्याण एवं विकास कार्यों में व्यय करके जनकल्याण में वृद्धि की जा सकती है।

8. श्रम की कार्य कुशलता - श्रम की कार्य कुशलता को प्रभावित करने में भूमि का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। भूमि से प्राप्त होने वाले विभिन्न श्रम की कार्य शक्ति, क्षमता, योग्यता एवं ज्ञान में सहयोग देते हैं।

2. श्रम

श्रम का अर्थ एवं परिभाषा 

सामान्य बोलचाल की भाषा में समस्त प्रकार की मानवीय प्रयासों को जो किसी कार्य को करने के लिए किए जाते हैं, उसे श्रम कहा जाता है। परंतु अर्थशास्त्र में श्रम से आशय उन समस्त मानवीय शारीरिक एवं मानसिक परिश्रम से लगाया जाता है जो उत्पत्ति में सहयोग देते हैं। 

अर्थात् केवल उस मानवीय परिश्रम को ही श्रम कहा जाता है, जिसका संबंध धन से होता है जिस श्रम का धनोपार्जन में उपयोग नहीं किया जाता है। उसे श्रम नहीं माना जाता जैसे माँ द्वारा बच्चे की परवरिश, पत्नी द्वारा पति की सेवा आदि। 

मार्शल के शब्दों में श्रम से तात्पर्य मनुष्य के आर्थिक कार्य से है। चाहे वह हाथ से किया जाए या मस्तिष्क की सहायता से। 

श्रम की विशेषताएँ  

1. श्रम उत्पादन का एक सक्रिय साधन है- श्रम उत्पादन का एक सक्रिय साधन माना जाता है क्योंकि श्रम के बिना उत्पादन कार्य संभव नहीं है, भूमि तथा पूँजी निष्क्रिय साधन माने जाते हैं, क्योंकि श्रम के अभाव में इनके द्वारा उत्पादन कार्य करना संभव ही नहीं है।

2. श्रम को श्रमिक से अलग नहीं किया जा सकता है- जब कोई श्रमिक अपने श्रम को बेचता है। तो उसे स्वयं उपस्थित रहना पड़ता है। इसी कारण श्रम को श्रमिक से अलग नहीं किया जा सकता है।

3. श्रम नाशवान है - इसका आशय है, कि श्रमिक किसी दिन कार्य नहीं करता है, तो उस दिन का श्रम सदैव के लिए नष्ट हो जाता है। श्रमिक ऐसा नहीं कर सकता है, कि बहुत दिनों के श्रम का संचय कर ले तथा वक्त आने पर उसका उपयोग कर लें। 

4. श्रम की सौदा करने की शक्ति कमजोर होती है- श्रम नाशवान है, इसलिए उसकी मालिकों के साथ सौदा करने की शक्ति कमजोर होती है। 

5. श्रम गतिशील है - श्रम में मनुष्य होने के नाते अन्य साधनों की अपेक्षा अधिक गतिशीलता होती है उसका आशय है कि श्रम को एक स्थान से दूसरे स्थान पर एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय में लाया जा सकता है।

6. श्रमिक अपना श्रम बेचता है स्वयं को नहीं - श्रमिक गुण या कुशलता के आधार पर सिर्फ अपने श्रम को बेचता है, न कि स्वयं अपने को। अन्य शब्दों में श्रमिक अपने श्रम को बेचने के पश्चात् भी अपने शरीर गुणों, कुशलता, योग्यता इत्यादि का स्वामी बना रहता है।

7. श्रम उत्पादन का साधन ही नहीं साध्य भी है- श्रम के द्वारा उत्पादन होता है जिसका उद्देश्य समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है, तथा श्रमिक ही समाज का प्रमुख अंग होता है। इस प्रकार श्रम उत्पादन का एक साधन तथा साध्य हो जाता है।

श्रम का महत्व 

1. श्रम उत्पादन का आवश्यक एवं अनिवार्य साधन है। मनुष्य को जीवन के प्रारंभिक काल से ही अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए श्रम करना पड़ा।

2. उत्पादन के पाँच साधनों में भूमि, श्रम, पूँजी, साहस और संगठन में श्रम एक सक्रिय साधन है जबकि अन्य साधन लगभग निष्क्रिय साधन है।

3. आधुनिक उन्नति का श्रेय श्रमिकों को ही है, उसने अपनी शारीरिक और बौद्धिक शक्ति तथा भौतिक साधनों का प्रयोग करके उत्पादन की नई-नई रीतियों एवं प्रक्रियाओं को जन्म दिया है और आर्थिक विकास के लिए मार्ग प्रशस्त किया है।

4. समस्त उत्पादन का मूल साधन श्रमिक ही है, लेकिन श्रम उत्पादन का साधन ही नहीं है, बल्कि साध्य भी है, क्योंकि वह जो कुछ उत्पादन करता है उसका उपभोग भी करता है। 

5. समाजवादियों के विचार से श्रम ही उत्पादन का एक मात्र साधन है, और समस्त पूँजी का निर्माण श्रम के द्वारा ही होता है श्रम की पर्याप्त मात्रा पर ही देश की आर्थिक उन्नति निर्भर करती है।

3. पूँजी

पूँजी का अर्थ एवं परिभाषा 

सामान्य प्रचलित धारणा के अनुसार पूँजी का अर्थ धन, दौलत, रुपये, पैसे व बहुमूल्य वस्तुओं से लगाया जाता है, लेकिन अर्थशास्त्र में पूँजी शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में लिया जाता है। 

पूँजी से तात्पर्य मनुष्य द्वारा अर्जित धन के उस भाग से होता है जिसे और अधिक धन पैदा करने के लिए प्रयोग में लिया जाता है। अर्थात् संपत्ति का वह भाग पूँजी है जिसका उपयोग अधिक धन पैदा करने के लिए किया जाता है।

मार्शल के अनुसार- प्रकृति की निःशुल्क देन के अतिरिक्त वह समस्त संपत्ति जिनसे आय प्राप्त होती है पूँजी कहलाती है।

पूँजी की विशेषताएँ

 1. पूँजी उत्पादन का निष्क्रिय साधन है - पूँजी अपने आप में उत्पादक नहीं है, वह भूमि और श्रम के सहयोग से उत्पादन कार्य करने में सफल होती है।

2. पूँजी उत्पादन का मनुष्यकृत साधन है- पूँजी मनुष्य द्वारा उत्पन्न धन है पूँजी का निर्माण मनुष्य धन की बचत द्वारा करता है। जैसा कि विकसैल ने लिखा है कि पूँजी एक सामंजस्यपूर्ण बचाया गया श्रम एवं बचायी गई भूमि है जो कि वर्षों से संचित होती है।

3. पूँजी उत्पादन का गतिशील साधन है- उत्पादन के अन्य सभी साधनों की अपेक्षा पूँजी में अधिक गतिशीलता पाई जाती है, पूँजी को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान तथा एक व्यवसाय से हटाकर दूसरे व्यवसाय में आसानी से लगाया जा सकता है। 

4. पूँजी उत्पादन का अनिवार्य साधन नहीं है - भूमि और श्रम की तरह पूँजी उत्पादन का अनिवार्य साधन नहीं है क्योंकि भूमि और श्रम के बिना उत्पादन नहीं किया जा सकता है। बड़े पैमाने पर उत्पादन करने के लिए पूँजी आवश्यक होती है। श्रम की सहायता प्राकृतिक साधनों का कार्य करने से पूँजी की प्राप्ति होती है। पूँजी की पूर्ति घटाई-बढ़ाई जा सकती है, भूमि की पूर्ति सीमित है। 

अतः उसे घटाया-बढ़ाया नहीं जा सकता श्रम की पूर्ति को धीरे-धीरे घटाया - बढ़ाया जा सकता है किन्तु पूँजी की पूर्ति को मनुष्य के द्वारा आवश्यकतानुसार आसानी से घटाया- बढ़ाया जा सकता है।

5. पूँजी नाशवान साधन है- भूमि नष्ट नहीं होती है वही पूँजी नाशवान होती है पूँजी के लगातार प्रयोग होने से घिसावट होती है, घिसावट होने से यह कार्य करने योग्य नहीं रह जाती अतः समय-समय पर इसे बदलना पड़ता है, जैसे एक मशीन का लगातार प्रयोग करने पर उसमें घिसावट होती रहती है। पूँजी की इसी विशेषता के कारण उसके मूल्य का कुछ हिस्सा प्रतिवर्ष अलग निकालकर रखा जाता है।

पूँजी का महत्व 

1. उत्पादन के लिए अनिवार्य - बिना पूँजी के उत्पादन में वृद्धि करना कठिन है। प्रकृति उस समय तक वस्तुओं और कच्चे माल का मनुष्य के लिए उत्पादन नहीं कर सकती है, जब तक कि पूँजी की सहायता नहीं ली गई हो, जैसे मशीनें- खनन, कृषि कार्य उद्योगों के लिए आवश्यक है।

2. उत्पादकता में वृद्धि करना- यह कर्मचारियों की उत्पादकता के स्तर को बढ़ाने में सहायता करती है आधुनिक उत्पादन प्रणाली का आधार पूँजी है। बड़े पैमाने पर उद्योगों को चलाने के लिए पूँजी की बड़ी मात्रा में आवश्यकता होती है। पूँजी से ही श्रम की उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है एवं उत्पादन में निरन्तरता रखी जा सकती है। 

आर्थिक विकास में वृद्धि करना 

1. कृषि के क्षेत्र में - पूँजी के अभाव में कृषि कार्य नहीं किया जा सकता मशीनीकरण बीज रासायनिक खाद, सिंचाई, नहर, बाँध, ट्यूबवैल आदि के विकास के लिए पूँजी आवश्यक है।

2. औद्योगिक विकास - पूँजी के द्वारा ही संयंत्र मशीन, औजार, शक्ति के साधन, परिवहन सुविधाएँ तथा अन्य साधन जुटाये जाते हैं। बड़े पैमाने का उत्पादन तो पूँजी द्वारा ही सम्भव होता है। 

3. रोजगार प्रेरक - पूँजी उत्पादित होती है, इसलिए तो पूँजीगत वस्तुएँ जैसे मशीनों, बाँधों, कारखानों इत्यादि का निर्माण करने से अधिक रोजगार उत्पन्न होता है। 

4. मजबूत सुरक्षा व्यवस्था - पूँजी के अभाव में देश में राजनीतिक अस्थायित्व का सैदव आतंक बना रहता है क्योंकि पूँजी के अभाव में अन्य राष्ट्र भी उनकी मदद नहीं करता। देश की सैनिक शक्ति को मजबूती देने एवं सुरक्षा सामग्री में वृद्धि के लिए अधिक मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है।

4. संगठन व्यवस्था 

संगठन का अर्थ एवं परिभाषा 

उत्पादन का कार्य अकेले नहीं कर सकते हैं। इन साधनों को एकत्रित करके उन्हें उचित मात्रा में उत्पादन में लगाना सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य हो गया है। उत्पादन के विभिन्न साधनों को एकत्र करने तथा उनको अनुकूलतम अनुपात में मिलाने के कार्य को संगठन कहते हैं, जो व्यक्ति संगठन के कार्य को करता है, इसे संगठन कर्त्ता कहते हैं। 

संगठन या प्रबंध कर्ता ही यह निर्णय लेता है कि उत्पादन प्रणाली में किस साधन को कहाँ पर लगाया जाए एवं किसे कहाँ से हटाए। इस तरह प्रबंधक की कुशलता पर ही उत्पादन की मात्रा एवं स्तर निर्भर करता है।

प्रो. हैने के अनुसार- किसी निश्चित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उत्पादन के उपलब्ध साधनों को अनुकूलतम ढंग से संयोजित करने के कार्य को संगठन कहते हैं। 

संगठन की विशेषताएँ 

1. व्यवसाय के प्रबंधन को ही संगठन के नाम से जाना जाता है।
2. संगठक एक वैतनिक कर्मचारी होता है।
3. संगठनकर्ता को उद्योग में लाभ-हानि होने पर भी वेतन दिया जाता है। 
4. उत्पादित माल की बिक्री की उचित व्यवस्था करता है।
5. उत्पादन के विभिन्न साधनों में एक आदर्श अनुपात स्थापित कर न्यूनतम मूल्य पर वस्तुएँ उत्पन्न करता है। 

कार्य 

1. नियोजन - संगठनकर्ता का प्रमुख कार्य उत्पादन की योजना तैयार करना है, तथा इस बात का निर्णय लेना, कि कौन-सी वस्तुओं का कितनी मात्रा में उत्पादन करना है।

2. उत्पादन के विभिन्न साधन जुटाना- सबसे पहले संगठनकर्ता को अच्छे किस्म के कच्चे माल की व्यवस्था करना होता है। कच्चे माल के साथ ही कारखानों के लिए उपयुक्त मशीनों तथा उपकरणों की व्यवस्था करना ताकि उत्पादन कार्य में किसी तरह की रुकावट न आवे। 

3. धन संबंधी व्यवस्था करना - श्रमिकों की संतुष्टि के लिए उनके कार्य की दशाओं में सुधार उचित मजदूरी का समय पर भुगतान तथा उनकी समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक हल करने का प्रयास करना।

4. विक्रय की व्यवस्था एवं लाभ नीति का निर्धारण- उत्पादित माल के विक्रय की व्यवस्था के लिए एजेन्टों व्यापारिक प्रतिनिधियों तथा थोक विक्रेताओं की नियुक्ति करना । विक्रय बढ़ाने के लिए प्रचार–प्रसार व विज्ञापन करना । वस्तु की कीमत निर्धारित करते समय संगठनकर्ता को उत्पादन के साथ ही बाजार में प्रतियोगिता की दशाएँ तथा प्रतियोगी फर्मों की वस्तुओं की कीमतों को ध्यान में रखना।

5. समुचित लेखा प्रणाली की व्यवस्था - संगठनकर्ता का एक महत्वपूर्ण कार्य फर्म में समुचित लेखा प्रणाली की व्यवस्था करना भी है, ताकि प्रति इकाई उत्पादन लागत ज्ञात की जा सके। ब्यूरो को नियंत्रित किया जा सके और वर्ष के अंत में लाभ-हानि ज्ञात की जा सके।

6. अनुसंधान कार्य - संगठनकर्ता को नई वस्तुओं के अविष्कार, उत्पादन की नई तकनीकों तथा संयंत्रों के विकास की जानकारी रखना चाहिए इसके साथ ही विक्रय संवर्धन के लिए बिक्री संबंधी अनुसंधान की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।

एक कुशल संगठक के आवश्यक गुण 

1. एक कुशल संगठक में दूरदर्शिता का गुण होना आवश्यक है।

2. एक कुशल संगठक में संगठन क्षमता का गुण होना चाहिए जिससे वह श्रमिकों को समझ सकें उनकी समस्याओं का समाधान कर सकें, तथा उनकी योग्यता के अनुसार पारिश्रमिक तय कर सके।

3. एक कुशल संगठक को व्यवसाय संबंधी सभी बातों की पूर्ण जानकारी होना चाहिए।

4. व्यवसाय में आने वाली समस्याओं का कुशलतापूर्वक समाधान के लिए एक कुशल संगठनकर्ता में साहस तथा आत्मविश्वास का होना आवश्यक है।

आजकल उत्पादन में संगठक का अत्यंत महत्व है, क्योंकि उत्पत्ति का पैमाना बड़ा होता है। उत्पादन के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किए जाते हैं। इससे न केवल उत्पादन का क्षेत्र विस्तृत होता है, वरन् उसमें जटिलता भी आ जाती है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि संगठक का कार्य बहुत सावधानी और कुशलता में किया जाय। संगठक की कुशलता पर ही उत्पादन निर्भर करता है। 

संगठक की असावधानी का उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है यही कारण है, कि सरकार और निजी उद्योगपति भी दोनों ही बहुत ऊँचे वेतन और अनेक सुविधाएँ देकर ही कुशल संगठनों की सेवाएँ प्राप्त करते हैं। उत्पादन किसी भी प्रणाली के अंतर्गत हो जैसे पूँजीवादी, साम्यवादी या अर्थव्यवस्था में संगठन का महत्व अधिक महत्व है।

5. सहस 

साहस का अर्थ एवं परिभाषा 

प्रत्येक व्यवसाय में कुछ न कुछ जोखिम या अनिश्चितता अवश्य ही रहती है, व्यवसाय की इस जोखिम या अनिश्चितता को जो वहन करता है वह साहसी कहलाता है।

हाले के अनुसार- उत्पादन में जोखिम उठाने वाला साधन साहसी होता है

प्रो. शुम्पीटर के शब्दों एक विकसित देश में साहसी उस व्यक्ति को कहते हैं जो अर्थव्यवस्था में किसी नवीन प्रविधि का सर्वप्रथम प्रयोग करता है। 

साहसी की विशेषताएँ 

1. साहसी व्यवसायिक जोखिम उठाता है। 
2. साहसी को वेतन नहीं मिलता बल्कि वह व्यवसाय के लाभ-हानि का स्वामी होता है।
3. व्यवसाय का चुनाव, स्थान चुनाव, कुल उत्पादन की मात्रा आदि निश्चित करता है।
4. व्यवसाय में हानि होने पर साहसी को हानि होती है। 

साहसी के कार्य

1. प्रशासनिक कार्य- 1. उद्योग या व्यवसाय का चुनाव 2. उत्पादन संबंधी निर्णय लेना, 3. उत्पादन साधनों का प्रबंध करना, 4. उत्पादन के साधनों का समन्वय तथा निर्देशन करना, 5. विभाजन में विक्रय करना, 6. सरकार से पत्र व्यवहार करना।

2. अन्य कार्य - जोखिम को वहन करना। अनिनिश्चिताओं को वहन करना, उद्योग में नवप्रवर्तन का प्रयोग करना आदि ।

एक कुशल साहसी के आवश्यक गुण 

1. एक कुशल साहसी में दूरदर्शिता का गुण होना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि तभी वह व्यवसाय के बारे में अच्छा अनुमान लगा सकेगा।

2. साहसी में उचित एवं शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता होना आवश्यक है।

3. साहसी का ईमानदार, धैर्यशील, लगनशील योग्य व शिक्षित होना आवश्यक है।

4. एक साहसी को नए आविष्कारों, अनुसंधानों, नयी उत्पादन विधियों, नयी मशीनों के बारे में पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है।

साहसी की बाजार में साख भी अच्छी होनी चाहिए जिससे उसे पूँजी आसानी से प्राप्त हो सके।

साहसी का महत्व 

1. किसी वस्तु के उत्पादन में साहस का बहुत महत्व है। क्योंकि आजकल बढ़ती हुई प्रतियोगिता के कारण प्रत्येक व्यवसाय चाहे वह छोटे पैमाने पर हो अथवा बड़े पैमाने का कुछ न कुछ जोखिम अवश्य रहता ही है। अतः बिना किसी साहस के कोई व्यवसाय प्रारंभ नहीं किया जा सकता।

2. पहले की तुलना में आज उत्पादन प्रणाली अधिक जटिल हो गई है, जिनमें नई-नई तकनीकों का ज्ञान आवश्यक है तथा बाजार की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार उत्पादन करने के लिए भविष्य में माँग और पूर्ति का सही अनुमान लगाने के लिए एक कुशल साहसी का महत्वपूर्ण योगदान है। 

3. समग्र रुप से किसी देश के आर्थिक विकास में भी साहसी का बहुत महत्व है, इसका कारण यह है, कि देश का आर्थिक विकास उत्पादन पर निर्भर रहता है तथा उत्पादन साहसी पर निर्भर रहता है।

उत्पत्ति के साधनों का पारस्परिक संबंध 

उत्पादन के पाँच साधनों (भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन व साहस) के सहयोग से ही उत्पादन का कार्य किया जाता है । अतः इनमें आपस में बहुत घनिष्ठ संबंध है किन्तु यह कहना कठिन है कि इन पाँच साधनों में कौन अधिक और कौन कम महत्वपूर्ण है। 

कारण यह है कि उत्पादन कार्य में प्रत्येक साधन की कम या अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है और प्रत्येक उत्पादन का स्वामी अपने साधन को दूसरे की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण बताता है इसलिए हमारे लिए यह कहना अत्यंत कठिन है, कि कौन-सा उत्पादन साधन अधिक महत्वपूर्ण है।

प्रो. पेन्सन ने इस संबंध में उचित ही लिखा है "उत्पादन का प्रत्येक साधन आवश्यक है। किन्तु भिन्न-भिन्न समय और साधनों का महत्व पृथक-पृथक होता है।"

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