अर्थशास्त्र किसे कहते हैं?

अर्थशास्त्र घर या परिवार की आवश्यकताओं की व्यवस्था करने की कला है। इसलिए प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु ने अपने ग्रंथ 'Economics' में अर्थशास्त्र को गृह प्रबंध कहा है।

अर्थशास्त्र किसे कहते हैं

अर्थशास्त्र को अँग्रेजी भाषा में Economics कहा जाता है। जिसका संबंध धन से है। धन की प्राप्ति तथा इसके उचित उपयोग की व्याख्या करना ही अर्थशास्त्र है। इसलिए अर्थशास्त्र को धन का विज्ञान माना गया है। अर्थशास्त्र की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषा नीचे दी गई है।

1. प्रो. एडम स्मिथ - अर्थशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है, जो राष्ट्रों की सम्पत्ति, प्रकृति एवं कारणों की जाँच पड़ताल से संबंधित है। इस प्रकार यह धन का विज्ञान है।

2. प्रो. मार्शल - अर्थशास्त्र जीवन के साधारण व्यवसाय के संबंध में मानव जाति का अध्ययन है। यह व्यक्तिगत एवं सामाजिक कार्य के उस भाग की व्याख्या करता है, जिसका संबंध कल्याण के भौतिक साधनों की प्राप्ति एवं प्रयोग से घनिष्ठ रूप से संबंधित है।

अर्थशास्त्र का जनक किसे कहते हैं

एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक Wealth of Nations में अर्थशास्त्र का क्रमबद्ध एवं वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया हैं। इसलिए एडम स्मिथ को 'अर्थशास्त्र का जनक' कहा गया है। लेकिन प्रो. मार्शल ही प्रथम अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने राजनीतिक अर्थव्यवस्था को अर्थशास्त्र नाम दिया है।

अर्थशास्त्र के कितने विभाग हैं

मार्शल के अनुसार - अर्थशास्त्र में मनुष्य की उन आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है जिनका संबंध धन से है।" एडम स्मिथ ने अर्थशास्त्र को धन का विज्ञान कहा है। रॉबिन्स के अनुसार"मनुष्य की वे सभी क्रियाएँ जो चुनाव की समस्या या आर्थिक समस्याओं से संबंधित होती है अर्थशास्त्र में शामिल होती है।

अर्थशास्त्र को आधुनिक समाज के जटिल आर्थिक संगठन में मनुष्य की धन से सम्बन्धित क्रियाओं के आधार पर चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- उपभोग, उत्पादन, विनिमय एवं वितरण। इनके अतिरिक्त वर्तमान में आर्थिक क्रियाओं के अंतर्गत राज्यों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो गई है। 

अतः राजस्व को चार परंपरागत विभागों के अतिरिक्त पाँचवें विभाग के रूप में अर्थशास्त्र के अंतर्गत रखा जाने लगा है। इस अध्याय में हम इन पाँचों विभागों का अध्ययन करेंगे।

अर्थशास्त्र के प्रमुख पाँच विभाग निम्नलिखित होते हैं

1. उपभोग, 2. उत्पादन, 3. विनिमय , 4. वितरण , 5. राजस्व 

1. उपभोग - जेवन्स के अनुसार- " उपभोग के उचित सिद्धांत पर ही अर्थशास्त्र का सम्पूर्ण सिद्धांत अवलम्बित है।" अर्थशास्त्र के विभागों में उपभोग प्रथम विभाग है। 

इसके अंतर्गत हम आवश्यकताओं की विशेषताओं एवं प्रकारों का अध्ययन करते हैं। अर्थशास्त्र में उपभोग से तात्पर्य आर्थिक वस्तुओं और व्यक्तिगत सेवाओं के ऐसे उपयोग से है जिसके द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष रूप से संतुष्ट होती है।

जे.के. मेहता के अनुसार- उस क्रिया को उपभोग कहा जाता है, जिससे किसी आवश्यकता की संतुष्टि के लिए वस्तुओं और सेवाओं के उपयोग से होता है।

प्रो. एली के मतानुसार- उपभोग का अर्थ विस्तृत भाव में मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए वस्तुओं और सेवाओं के उपयोग से होता है।

उपभोग को आर्थिक क्रियाओं का आदि एवं अंत दोनों कहा जाता है।

उपभोग की आवश्यकता ही उत्पादन के लिए प्रेरित करती है। उपभोग के अंतर्गत आवश्यकताओं की संतुष्टि से सम्बन्धित नियमों एवं सिद्धांतों का वर्णन किया जाता है। उपभोग का सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दोनों प्रकार का महत्व होता है। 

सैद्धांतिक महत्व के रूप में उपभोग सभी आर्थिक क्रियाओं का मूल होता है यह सभी आर्थिक क्रियाओं का लक्ष्य होने के साथ ही आर्थिक प्रगति को प्रदर्शित करता है। उपभोग के स्तर पर राष्ट्रीय कल्याण निर्भर करता है। 

उपभोग की धारणा रोजगार के सिद्धांतों के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त उपभोग का व्यवहारिक महत्व भी होता है, जो कि परिवार संचालकों, राजनीतिज्ञों एवं व्यापारियों तथा समाज सुधारकों के लिए होता है।

2. उत्पादन - एडम स्मिथ के अनुसार- उत्पादन का अर्थ केवल भौतिक वस्तुओं के निर्माण से है अर्थात् उत्पादन से आशय ऐसी वस्तुओं के निर्माण से है जिसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं तथा अनुभव कर सकते हैं।

प्रो. मार्शल के मतानुसार- उत्पादन का अर्थ उपयोगिता के सृजन करने से है।

टॉमस के शब्दों में केवल ऐसी उपयोगिता वृद्धि को उत्पादन कहा जा सकता है जिसके परिणामस्वरूप किसी वस्तु में मूल्य की वृद्धि या विनिमय साध्यता की वृद्धि हो जाए अर्थात् उस वस्तु के बदले में पहले से अधिक वस्तुएँ मिल सके।

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर उत्पादन को निम्न प्रकार से देखा जा सकता है। उपयोगिता का सृजन ही उत्पादन है तथा उत्पादन में विनिमय निहित है।

उत्पादन के प्रमुख पाँच साधन माने जाते हैं जो निम्नानुसार है -

1. भूमि, 2. श्रम, 3. पूँजी, 4 साहस, 5 संगठन। 

इन साधनों की विशेषताओं तथा इनकी कुशलता में वृद्धि से संबंधित समस्याओं का अध्ययन उत्पादन विभाग के अंतर्गत किया जाता है।

3. विनिमय - प्रो. स्टेनली जेवन्स के अनुसार- "कम आवश्यक वस्तुओं से अधिक आवश्यक वस्तुओं के अदल बदल को विनिमय कहते हैं।

प्रो. एच. ए. सिल्वन मैन के अनुसार- दो पक्षों के मध्य होने वाले ऐच्छिक, वैधानिक एवं पारस्परिक धन के हस्तांतरण को अर्थशास्त्र में विनिमय कहते हैं।

साधारण अर्थ में विनिमय को अदला-बदली कहा जा सकता है । वस्तुओं के आदान-प्रदान को अर्थशास्त्र के अंतर्गत विनिमय कहा गया है। उत्पादन का उद्देश्य आवश्यकताओं की संतुष्टि से है। इस उद्देश्य की पूर्ति विनिमय द्वारा ही संभव है। 

आधुनिक समाज में व्यक्ति अपनी क्षमता एवं योग्यता के अनुसार किसी वस्तु या सेवा का उत्पादन करता है तथा विनिमय द्वारा अपनी आवश्यकताओं के अनुसार उपभोग हेतु दूसरों की सेवाएँ या वस्तुएँ प्राप्त करता है। 

एक बढ़ई जो टेबिल कुर्सी आदि बनाता है, वह वस्तुओं के विनिमय द्वारा भोजन, वस्त्र आदि प्राप्त करता है। विनिमय के अंतर्गत हम वस्तुओं का मूल्यांकन, मुद्रा, बैंकिंग, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, विनिमय को बढ़ावा देने वाली क्रियाओं जैसे यातायात के साधन, संचार के साधन आदि का अध्ययन करते हैं। 

4. वितरण  - सामान्य अर्थ में वितरण का अर्थ किसी वस्तु को विभिन्न व्यक्तियों के बीच बाँटने और उत्पत्ति के साधनों के मध्य वितरित करना वितरण कहलाता है। विभिन्न अर्थशास्त्रियों के अनुसार वितरण की परिभाषाएँ इस प्रकार है। 

प्रो. चैपमेन के अनुसार- वितरण के अर्थशास्त्र में इस बात का अध्ययन होता है कि एक समुदाय द्वारा उत्पादित धन के उन साधनों या उनके स्वामियों में किस प्रकार हिस्से किए जाते हैं, जो उनके उत्पादन में क्रियाशील रहे हैं।

प्रो. सेलिगमेन के अनुसार- "एक समाज में जो धन उत्पन्न होता है, वह अंत में कुछ निश्चित प्रणालियों अथवा आय के साधनों द्वारा व्यक्तियों को प्राप्त हो जाता है, इस कार्य को वितरण कहते हैं।

जब उत्पादन के विभिन्न साधन मिलकर धन का उत्पादन करते हैं, तो यह आवश्यक है कि प्रत्येक साधन को उसका पारिश्रमिक या अंश भी उसके योग के अनुपात में प्राप्त हो। अतः वितरण में हम वितरण की समस्याओं का अध्ययन करते हैं। 

वर्तमान में वितरण बहुत अधिक महत्व है, राष्ट्रीय आय के समुचित वितरण पर ही समाज का आर्थिक कल्याण निर्भर करता है। अधिकतम सामाजिक कल्याण के लिए धन का न्यायसंगत वितरण आवश्यक होता है।

5. राजस्व - राजस्व अर्थशास्त्र का पांचवाँ एवं अंतिम महत्वपूर्ण विभाग है। इस विभाग के अंतर्गत सरकार की आय और व्यय का अध्ययन किया जाता है। सरकार की आय व्यय से सम्बन्धित समस्याएँ ऋणनीति एवं उससे संबंधित समस्याएँ राजस्व विभाग की विषयवस्तु होते हैं। 

वर्तमान काल में सरकार का कार्य न सिर्फ जनसुरक्षा तथा कानून और व्यवस्था बनाए रखना है, बल्कि जनकल्याण भी समान रूप से महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है। सरकार एवं सार्वजनिक संस्थाओं के आय-व्यय के साधनों की सुरक्षा राजस्व विभाग के अंतर्गत की जाती है। राजस्व के अंतर्गत देश को बजट एवं वित्तीय स्थिति, करारोपण, सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक ऋण आदि से संबंधित व्यवहार का अध्ययन किया जाता है।

अर्थशास्त्र के विभागों में पारस्परिक संबंध 

अर्थशास्त्र के विभिन्न विभागों में विभिन्न प्रकार के पारस्परिक संबंध निम्न रूपों में देखे जा सकते हैं।

 उपभोग तथा विनिमय - विनिमय का प्रादुर्भाव उपभोग में विधिवता के फलस्वरूप हुआ । उपभोग के अभाव में विनिमय संभव नहीं होगा। उपभोग एवं विनिमय को परस्पर निर्भरता के कारण विनिमय को समझने के लिए उपभोग संबंधी सिद्धांतों को समझना आवश्यक होता है। 

जिस तरह उपभोग पर विनिमय आश्रित है, उसी प्रकार विनिमय पर उपभोग आश्रित होता है। किसी एक व्यक्ति द्वारा समस्त वस्तुओं का उत्पादन संभव नहीं हो सकता, इसलिए उपभोग हेतु अन्य वस्तुओं की प्राप्ति के लिए वह विनिमय पर आश्रित होता है। जिस तरह उपभोग में विविधता के कारण विनिमय होता है, उसी तरह विनिमय के कारण ही उपभोग में विविधता संभव है।

उपभोग तथा उत्पादन - उपभोग तथा उत्पादन के बीच परस्पर गहरा संबंध है। उत्पादन की आवश्यकता का जन्म उपभोग की इच्छा के द्वारा ही होता है और उत्पादन के द्वारा ही उपभोग संभव होता है। 

फ्रेजर के अनुसार- यदि उपभोग का आशय वस्तु से उपयोगिता प्राप्त करना है तो उत्पादन का अर्थ उसमें उपयोगिता का सृजन करना है।

किसी वस्तु के उत्पादन की मात्रा, उसके उपभोग की मात्रा द्वारा निश्चित होती है। उपभोग की मात्रा भी उत्पादन में कमी या वृद्धि के अनुसार कम या अधिक हो सकती है। इस प्रकार उपभोग तथा उत्पादन परस्पर निर्भर होते हैं। 

उपभोग और राजस्व - उपभोग की मात्रा एवं प्रकृति से राजस्व की मात्रा निश्चित होती है। उपभोग की मात्रा में वृद्धि के साथ ही राजस्व की मात्रा बढ़ती है। अनेक वस्तुओं के उपभोग में कमी करने से राजस्व में कमी आ जाती है। 

यदि किसी वस्तु से उपभोग की मात्रा सीमित करने की इच्छा सरकार की हो तो वह उस पर भारी करारोपण कर सकती है। राजस्व की मात्रा कम करने से किसी वस्तु के उपभोग को प्रोत्साहन प्रदान किया जा सकता है।

उपभोग और वितरण - उपभोग और वितरण का संबंध बहुत गहरा होता है। उत्पादन में संलग्न साधनों को उनके सहयोग के बदले जो धन प्राप्त होता है, उसको वितरण कहते हैं। वितरण के द्वारा प्राप्त धन से उत्पादन के साधन अपनी जरूरतों को पूरा करते हैं। 

उपभोग की प्रक्रिया वितरण पर निर्भर रहती है। वितरण के पश्चात् जिस साधन की आय ज्यादा होगी उसकी उपभोग की क्षमता भी अधिक होगी इसके साथ ही कम आय वाले साधन की उपभोग की क्षमता भी कम होगी।

उत्पादन और वितरण - उत्पादन होने पर ही वितरण संभव है। उत्पादन के अभाव में वितरण संभव नहीं होगा। वितरण की मात्रा उत्पादन पर निर्भर करती है। अधिक उत्पादन होने पर वितरण भी अधिक होगा। उत्पादन और वितरण के नियम एक दूसरे को समझने में सहायक होते हैं।

वितरण जिस प्रकार उत्पादन द्वारा प्रभावित होता है, उसी तरह उत्पादन भी वितरण द्वारा प्रभावित होता है। न्यायपूर्ण वितरण उत्पादन के साधनों की उत्पादकता को प्रभावित एवं प्रेरित करता है। अन्यायपूर्ण वितरण असंतोष पैदा करता है जिसके फलस्वरूप उत्पादन प्रभावित होता है।

उत्पादन और विनिमय - उत्पादन की मात्रा तथा स्वरूप, वितरण को प्रभावित करते हैं। यदि सभी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन हर व्यक्ति के द्वारा होने लगे तो विनिमय की आवश्यकता ही नहीं होगी। विनिमय का महत्व उत्पादन की विशिष्टता, विविधता और श्रम विभाजन के कारण होता है। 

उत्पादन एवं विनिमय के सिद्धांतों में पारस्परिक संबंध होते हैं। विनिमय के कारण ही उत्पादन के घटक अपना प्रतिफल पाते हैं।

उत्पादन और राजस्व - राजस्व की मात्रा उत्पादन की मात्रा पर निर्भर होती है। विभिन्न प्रकार के करों के माध्यम से प्राप्त होने वाले राजस्व की मात्रा उत्पादन में वृद्धि के साथ ही ज्यादा प्राप्त होती है। सरकार की राजस्व नीतियों के फलस्वरूप उत्पादन में कमी या वृद्धि होती है। करों की मात्रा में कमी से उत्पादन प्रोत्साहित होता है।

विनिमय और वितरण - वितरण का आधार विनिमय है। विनिमय के पश्चात् ही वितरण का आरंभ होता है। साधनों में वितरण किया जाने वाला धन, उत्पादित वस्तु अथवा सेवा के विनिमय मूल्य पर निर्भर करता है। इसी तरह वितरण भी विनिमय को प्रभावित करता है। 

वितरण की मात्रा तथा स्वरूप, विनिमय की मात्रा तथा प्रकृति का निर्धारण करती है। इस प्रकार वितरण और विनिमय में घनिष्ठ संबंध होते हैं। 

विनिमय और राजस्व - राजस्व विनिमय द्वारा व्यापक रूप से प्रभावित होता है। विनिमय की मात्रा पर राजस्व की मात्रा निर्भर करती है। वहीं अधिक सार्वजनिक व्यय किए जाने से विनिमय की मात्रा में वृद्धि होती है, क्योंकि लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि होती है। राजस्व वृद्धि के लिए आरोपित कर लोगों की क्रय शक्ति को घटा देते हैं, जिससे विनिमय निरुत्साहित होता है।

वितरण और राजस्व - वितरण का राजस्व पर भारी प्रभाव पड़ता किसी देश की करदान क्षमता पर आय और सम्पत्ति के वितरण का गहरा प्रभाव होता है। 

समाज में असमान वितरण होने पर सरकार को राजस्व की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष कर आरोपित करना पड़ता है दूसरी ओर असमानता कम होने पर प्रत्यक्ष करों पर सरकार की निर्भरता कम होती है तथा सार्वजनिक व्यय की मात्रा भी कम होती है।

राजस्व भी वितरण को प्रभावित करता है । सार्वजनिक व्यय तथा करों से समाज में आय का वितरण प्रभावित होता है। राजस्व से प्राप्त आय को वंचित वर्ग के उत्थान पर व्यय करने से आर्थिक असमानता कम होती है। राजस्व द्वारा समाज में आय का पुनर्वितरण होता है।

अर्थशास्त्र के पाँचों विभाग परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं तथा उनमें घनिष्ठ संबंध होता है।

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