द्वितीय विश्व युद्ध कब प्रारंभ हुआ था?

सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हुआ जिसका प्रभाव भारत के राष्ट्रीय आंदोलन पर भी पड़ा। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय जनता से बिना कोई सहमति लिए भारत के युद्ध में प्रवेश की घोषणा कर दी। युद्ध आरंभ होते ही काँग्रेस ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया।

इसने जर्मनी, इटली, जापान आदि फासिस्ट देशों द्वारा एशिया, अफ्रीका और यूरोप के देशों पर किए गए आक्रमणों की निंदा की। साथ ही, आक्रमणों के शिकार हुए देशों की जनता के प्रति सहानुभूति प्रकट की। 

ब्रिटेन स्वतंत्रता की रक्षा के लिए लड़ने का दावा कर रहा था। उसने भारतीय जनता की स्वतंत्रता छीनकर भारत को युद्ध में सम्मिलित कर लिया था। अतः काँग्रेस कमेटी ने एक प्रस्ताव में कहा कि भारतीय जनता की लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता के पक्ष में पूरी सहानुभूति है क्योंकि हाल में एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना के लिए भारत की जनता ने स्वेच्छा से महान बलिदान किया है।

भारत का एक ऐसे युद्ध से दूर का भी संबंध नहीं हो सकता, जो सिद्धांत के रूप में लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के लिए लड़ा जा रहा है पर व्यवहार में स्वयं उससे दूसरे की स्वतंत्रता का हनन हो रहा है। काँग्रेस ने माँग की कि भारत में एक ऐसी भारतीय सरकार की स्थापना की जाए, जो केन्द्रीय विधान सभा के प्रति उत्तरदायी हो। 

साथ ही यह भी वचन देने की माँग की कि युद्ध की समाप्ति के बाद भारत को आजाद कर दिया जाएगा। पर ब्रिटिश सकार ने काँग्रेस की कोई भी माँग स्वीकार नहीं की। फलतः जिन प्रांतों में काँग्रेसी मंत्रिमंडल थे उन सबने 1938 में त्यागपत्र दे दिए, क्योंकि यह स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटेन अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए यह युद्ध लड़ रहा था।

व्यक्तिगत सत्याग्रह - यद्यपि ब्रिटिश सरकार का रूख काँग्रेस के प्रति अच्छा नहीं था, फिर भी काँग्रेस कोई ऐसा काम नहीं करना चाहती थी जिससे सरकार की युद्ध के समय मुसीबतें बढ़ जाएँ। 

अतः 1940 में काँग्रेस की सहमति से गाँधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह आरंभ किया। चुने हुए सत्याग्रही किसी सार्वजनिक स्थान पर युद्ध विरोधी भाषण देकर कानून तोड़ते और स्वयं को गिरफ्तार कराते सत्याग्रह के लिए पहले व्यक्ति के रूप में विनोबा भावे को चुना गया। दूसरे सत्याग्रही नेहरू थे । इन दोनों को गिरफ्तार कर लिया। 

शीघ्र की व्यक्तिगत सत्याग्रह एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन बन गया। छह महीनों के भीतर लगभग पचीस हजार व्यक्ति गिरफ्तार हो जेल जा चुके थे। सरकार का दमन भी जारी था पर सत्याग्रह आंदोलन दृढ़ता के साथ चल रहा था। इसी समय जर्मनी ने सोवियत रूस पर आक्रमण कर दिया। 

जापान ने अमेरिका के एक नौ सैनिक अड्डे पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया। फलतः अब विश्वयुद्ध विध्वंसक रूप से शुरू हो गया। जापानी सैनिक भारत की पूर्वी सीमापर संगीन ताने खड़े थे।

सांप्रदायिक वैमनस्य एवं पृथकतावादी भावनाओं का जन्म- मुस्लिम लीग और काँग्रेस में सहयोग अधिक दिनों तक नहीं रह सका। 1938 के बाद कई कारणों से मुसलमानों के मन में एक नया विचार पैदा हुआ। 

दो राष्ट्रों का सिद्धांत मुस्लिम लीग का सिद्धांत बन गया। उसने कहना शुरू किया कि भारत में हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। अतः दोनों का एक साथ मिलकर रहना संभव नहीं है। दो राष्ट्रों की सिद्धांत के प्रतिपादक मुहम्मद अली जिन्ना ने दावा किया कि मुसलमानों की एकमात्र संस्था मुस्लिम लीग है। 

उनके अनुसार काँग्रेस केवल हिन्दुओं की संस्था थी। 1940 में मुस्लिम लीग द्वारा भारत के विभाजन का प्रस्ताव लाया गया। जिन प्रांतों में मुसलमानों को बहुमत प्राप्त था उन्हें भारत से अलग कर एक नए देश पाकिस्तान के गठन की माँग उन्होंने की। 

अधिकांश मुसलमानों ने अलग राज्य बनाने की माँग का घोर विरोध किया। मौलाना अबुलकलाम आजाद जैसे अनेक राष्ट्रीय नेता थे जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था।

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान की माँग राष्ट्रीयता की भावना के विरूद्ध है तथा मुसलमानों के हित में नहीं है। खुदाई खिदतगार नामक संगठन के सम्मानित नेता अब्दुल गफ्फार खाँ जो सरहदी (सीमांत) गाँधी के नाम से प्रसिद्ध थे। उन्होंने भी मुस्लिम लीग की माँग का विरोध किया। 

इस तरह बलूचिस्तान की वतन पार्टी, ऑल इंडिया मोमिन कान्फ्रेंस, अहरार पार्टी आदि संगठनों ने भी मुस्लिम लीग की माँग के विरूद्ध आवाज उठाई। पर मुस्लिम लीग ब्रिटिश सरकार से प्रोत्साहन पाकर अपनी माँग पर डटी रही।

युद्ध की नाजुक स्थिति और क्रिप्स योजना- काँग्रेस ने युद्ध में ब्रिटिश सरकार को सहायता नहीं देने का प्रस्ताव पास किया। इधर मुस्लिम लीग बहुसंख्यक मुस्लिम प्रांतों को भारत से अलग करने और पाकिस्तान नामक एक स्वतंत्र राष्ट्र स्थापित करने की माँग कर रही थी। 

दूसरी ओर, ब्रिटिश सरकार बुरी तरह युद्ध में फँसी थी और युद्ध का रूप भयंकर होता जा रहा था। ऐसी स्थिति में भारतीयों का सहयोग लेना अनिवार्य हो गया । अतः ब्रिटिश मंत्रिमंडल का एक प्रस्ताव लेकर स्टैंफोर्ड क्रिप्स को भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए मार्च 1942 में दिल्ली भेजा गया। उस प्रस्ताव में दो योजनाएँ थी।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन- अंतिम चरण (1937-47)

दूरकालीन योजना- जो युद्ध के बाद कार्यान्वित की जानेवाली थी। इसके अनुसार एक संविधान सभा बनायी जाएगी, जिसके अधिकांश सदस्य प्रांतों के विधानमंडलों द्वारा और कुछ सदस्य देशी राज्यों के नरेशों के द्वारा चुने जाते। वह भारत का संविधान तैयार करती। किन्तु उस संविधान को मानना या न मानना प्रांतों की मर्जी पर निर्भर करता।

तत्कालीन योजना- इसके अनुसार केन्द्र में अस्थायी सरकार की स्थापना होनी थी। योजना के अनुसार, केन्द्रीय शासन के सभी विभागों पर ब्रिटिश सरकार का ही अधिकार होता। काँग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने ही यह प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया।

अगस्त 1942 की क्रांति (भारत छोड़ो आंदोलन)

अगस्त 1942 में बंबई में अखिल भारतीय काँग्रेस समिति की बैठक हुई और 8 अगस्त को महात्मा गाँधी ने समिति के समक्ष अपना 'भारत छोड़ो' का ऐतिहासिक प्रस्ताव रखा। काँग्रेस कार्य समिति में दिए गए भाषण में महात्मा गाँधी ने स्पष्ट रूप से राष्ट्र को 'करो या मरो' संघर्ष के लिए आह्वान किया।

ब्रिटिश सरकार पहले से ही इस प्रस्ताव के विरूद्ध कार्यवाही के लिए तैयार थी। 8 अगस्त को प्रस्ताव पारित हुआ और 9 अगस्त को सरकार ने महात्मा गाँधी सहित सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया तथा काँग्रेस को गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया। 

इससे जनता में बड़ी उत्तेजना फैल गई और सारे देश में क्रांति की ज्वाला धधक उठी। सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए, हड़तालें हुई, सभाएँ और जुलूस निकले। पर सरकार ने बड़ी क्रूरता से इस आंदोलन को दबाने का प्रयास किया। कुछ ही दिनों में आंदोलन ने क्रांति का रूप धारण कर लिया।

सरकारी कर्मचारी कार्यालय छोड़कर भागने लगे। बलिया, मिदनापुर आदि में समानांतर सरकार कायम गई। यातायात के साधनों को नष्ट कर दिया। तार और डाक की व्यवस्था खत्म कर दी । रेलगाड़ियों का आना जाना बंद हो गया। 

आवागमन एवं संचार के साधनों के अभाव में सरकारी कार्यालयों के बीच संपर्क टूट गया। सारे भारत में लगभग एक महीने तक सरकार नाम की कोई चीज नहीं रही। 

अगस्त के अंतिम सप्ताह में वायसराय लिनलिथगो ने प्रधानमंत्री चर्चिल को लिखा कि मुझे स्थिति का सामना करना पड़ रहा है जिसे 1857 बाद खतरनाक विद्रोह कहा जा सकता है। प्रधन सेनापति वैवेल का कहना था कि इस आंदोलन के कारण पूर्वी मोर्चों पर ब्रिटेन की सैनिक कमजोर हो गई तथा सेनाओं के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया।

बंबई में 7 अगस्त को हुई अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी की सभा में गाँधीजी और जवाहरलाल नेहरूं इसी सभा में भारत छोड़ों का ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया गया था।

इस आंदोलन में बिहार की भूमिका महत्वपूर्ण रही । 31 जुलाई 1942 को राजेन्द्र प्रसाद ने पटना में बिहार प्रदेश काँग्रेस कमेटी की एक विशेष बैठक में काँग्रेस कार्यकर्ताओं को आंदोलन के लिए तैयार रहने को कहा। शाम को अंजुमन इस्लामिया हॉल में एक आम सभा में छात्रों से काँग्रेस क्रांतिकारी कार्यकताओं का अनुसरण करने के लिए अपील की गई।

11 अगस्त, 1942 को छात्रों का एक दल बिहार विधान सभा भवन पर तिरंगा झंडा फहराने के लिए पटना सचिवालय के पास पहुँचा। उस समय तक वहाँ हजारों की संख्या में लोग एकत्र हो गए थे। 

उसी समय पटना के जिलाधिकारी डब्लयू. जी. आर्चर ने भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। झंडा फहराते समय सात छात्र शहीद हो गए। पटना सचिवालय के मुख्य द्वार के समीप इन अमर शहीदों की याद में शहीद स्मारक बनाया गया है।

11 अगस्त, 1942 को बिहार के गवर्नर ने वायसराय को जो पत्र लिखा था उसके अनुसार "पटना में आंदोलन की तीव्रता इतनी अधिक थी कि सरकार नाम की कोई चीज ही नहीं थी। सभी जिलों में संपर्क टूट गया था’ बाद में श्री राजेन्द्र बाबू तथा अन्य राजनीतिक बंदियों को हजारीबाग जेल भेज दिया गया जहाँ जयप्रकाश नारायण पहले से ही नजरबंद थे। 

9 नवंबर 1942 को जयप्रकाश अपने पाँच साथियों- रामनंदन मिश्र, योगेन्द्र शुक्ल, शालिग्राम सिंह, सूर्यनारायण सिंह और गुलाली सोनार के साथ हजारीबाग जेल से फरार हो गए।

1942 की अगस्त क्रांति का भारतीय राष्ट्रीयता के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। यह सही है कि भारत छोड़ो' आंदोलन सरकार की कठोर दमन नीति के कारण सफल नहीं हो सका पर इसने भारतीय स्वतंत्रता के लिए पुख्ता पृष्ठभूमि तैयार कर दी। 

क्रांति में भारतीय जनता में अपूर्व साहस और धैर्य का परिचय दिया। लाखों युवक क्रांति में मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए मर मिटने के लिए तैयार हो गए। इससे स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रीयता की भावना अपनी पराकाष्ठा पर थी और ऐसी स्थिति में ब्रिटिश शासन का कायम रहना संभव नहीं था।

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