प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की विवेचना- कीजिए - plato ka nyay siddhant ki vivechna kijiye

न्याय प्लेटो के राजनीतिक आदर्श का आधार है। प्लेटो 'आदर्श राज्य' की स्थापना करना चाहता है। वह राज्य उसके न्याय के सिद्धान्त पर ही टिका हुआ है। प्लेटो ने अपने ‘आदर्श राज्य' के चार गुण बताये हैं – (i) न्याय, (ii) विवेक, (iii) साहस, और (iv) संयम या सहिष्णुता ।

प्लेटो ने आदर्श राज्य के नागरिकों को तीन वर्गों में बाँटा है – (i) शासक वर्ग, (ii) सैनिक या रक्षक वर्ग, और (iii) सेवक या उत्पादक वर्गवर्ग। 

प्लेटो ने प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में तीन स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ बताई हैं –

(i) ज्ञान, (ii) मान या साहस, और (iii) भूख या वासना।

प्लेटो चाहता है कि आदर्श राज्य अपने गुणों को प्रदर्शित करे। ऐसा तभी सम्भव है, जबकि समाज के तीनों वर्ग अपने गुणों के अनुसार कार्य करें। 

राज्य में जब शासक वर्ग निःस्वार्थ भाव से लोगों के हितों की रक्षा करता है। सैनिक वर्ग (साहस - प्रधान) जान हथेली पर रखकर देश की रक्षा करता है और उत्पादक वर्ग (भूख या वासना-प्रधान) कष्ट सहन करते हुए भी अधिक-से-अधिक उत्पादन करता है। तब ही राज्य में न्याय का प्रवास माना जा सकता है। 

प्लेटो ने 'रिपब्लिक' में न्याय की परिभाषा इस प्रकार की है न्याय वह है जो प्रत्येक मनुष्य उन कार्यों को पूरा करे, जिनकी सामाजिक प्रयोजनों के अनुसार उससे आशा की जाती है। 

न्याय का अर्थ यही है, न उससे कम और न अधिक। इस प्रकार प्लेटो 'एक व्यक्ति, एक कार्य' अर्थात् 'कार्यगत विशेषीकरण' के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। 

दूसरे शब्दों में न्याय प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में विद्यमान रहता है और यदि वह अपने कर्त्तव्य का उचित ढंग से पालन करता है तो वह न्यायप्रियता का ही परिचय देता है। 

सेबाइन प्लेटो की धारणा को स्पष्ट करते हुए कहता है कि न्याय समाज की एकता का सूत्र होता है। यह उन व्यक्तियों के परस्पर ताल-मेल का नाम है। जिनमें से प्रत्येक ने अपनी शिक्षा-दीक्षा और प्रकृति के अनुसार अपने कर्त्तव्य को चुन लिया है और वह उसी का पालन करता है। 

यह व्यक्तिगत धर्म भी है और सामाजिक धर्म भी, क्योंकि इसके द्वारा राज्य तथा इसके सदस्यों को परम कल्याण की उपलब्धि होती है।

बार्कर के अनुसार - प्लेटो का न्याय सिद्धान्त कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने आपको कर्त्तव्य-पालन में तन-मन-धन से संलग्न कर देना चाहिए और व्यक्ति को पड़ौसी के कार्यों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

दूसरे शब्दों में उसके मतानुसार न्याय प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में विद्यमान है और यदि वह अपने कर्त्तव्य का उचित ढंग से पालन करता है तो वह न्यायप्रियता का ही परिचय देता है। न्याय के दो स्वरूप – प्लेटो जिस 'न्याय' की बात करता है, उसके दो स्वरूप हैं। 

(1) व्यक्तिगत न्याय, और (2) सामाजिक न्याय। 

(1) व्यक्तिगत न्याय — प्लेटो के अनुसार, जिस प्रकार राज्य में विवेक, साहस और संयम का निवास होता है। उसी प्रकार मानव-मस्तिष्क में भी शासक, सैनिक और उत्पादक के गुण होते हैं। जिस व्यक्ति के मस्तिष्क या आत्मा में विवेक की अधिकता है, वह दार्शनिक शासक वर्ग होता है। 

साहस से युक्ति, व्यक्ति सैनिक वर्ग और भूख से युक्त उत्पादक वर्ग का निर्माण करता है। तीनों वर्गों का अपनी सीमा में रहकर कार्य करना ही 'व्यक्तिगत न्याय' है। 

दूसरे शब्दों में, जब दार्शनिक व्यक्ति 'साहस' और 'भूख' की प्रबलता और इच्छा का दमन करते हुए 'विवेक' का, सैनिक व्यक्ति ‘विवेक' और 'भूख' को संयमित करते हुए 'साहस' का और एक उत्पादक ‘विवेक' तथा 'साहस' को संयमित करते हुए अपने विशेष गुण 'भूख' का विकास करता है, तब यह व्यक्तिगत न्याय कहलाएगा। 

डॉ. रानजे ने प्लेटो की उपर्युक्त धारणा को स्पष्ट करते हुए कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना कार्य करना और दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप न करना ही न्याय है। कोयरे ने प्लेटो की न्याय सम्बन्धी धारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि प्रत्येक नागरिक को उसके अनुकूल भूमिका और कार्य देना ही न्याय है।

कैटलिन  इसे स्पष्ट करते हुए कहता है - मेरा स्थान और उसके कार्य, यही न्याय है।" प्रो. बार्कर ने कहा है कि, “प्लेटो का न्याय सिद्धान्त मानव की आत्मा में निहित है। इस कारण मानव अपने को एक ही कार्य में केन्द्रित करता है और वह दूसरों के कार्यक्षेत्र में कोई हस्तक्षेप नहीं करता है। 

(2) सामाजिक न्याय – सामाजिक न्याय का अर्थ है- समाज के तीनों वर्गों (शासक, सैनिक और उत्पादक वर्ग) का एक होकर अपने निश्चित कार्यों को अपने गुणों के आधार पर पूरा करना, जिससे समाज में न्याय और एकता बनी रहे। 

इस प्रकार जहाँ व्यक्तिगत न्याय के द्वारा व्यक्ति स्वयं आदर्श बनता है। वहाँ सामाजिक न्याय के अन्तर्गत वह समाज का आदर्श नागरिक बनकर समस्त समाज को लाभ पहुँचाता है।

सामाजिक न्याय को स्पष्ट करते हुए प्रो. बार्कर ने लिखा है कि, "समाज में विभिन्न प्रकार के लोग होते हैं; जैसे—उत्पादक, सैनिक और शासक। एक-दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति के लिए वे संगठित हैं और एक समाज में संगठित होकर स्वधर्म का पालन कर उन्होंने समाज को ऐसी इकाई बनाया है। जो पूर्ण है। 

क्योंकि वह समस्त मानव-मानस की उपज और उसी का प्रतिबिम्ब है। सामाजिक जीवन के इसी मूलभूत सिद्धान्त को प्लेटो ने न्याय की संज्ञा दी है।

प्लेटो व्यक्तिगत और सामाजिक न्याय को एक-दूसरे से अलग नहीं मानता है, जैसा कि फोस्टर ने स्पष्ट किया है कि, “प्लेटो के लिए न्याय, मानव-सद्गुण का अंग है और साथ ही वह सूत्र है, जो राज्यों के लोगों को परस्पर बाँधे रहता है। 

यह समान गुण ही मनुष्य को अच्छा और सामाजिक बनाता है। यह समरूपता प्लेटो के राजनीतिक दर्शन का पहला और आधारभूत सिद्धान्त है। 

स्पष्ट है कि, “न्याय का प्रयोजन आत्मा के तीनों तत्त्वों में साम्यावस्था, सामंजस्य और व्यवस्था बनाये रखना है। यह सामंजस्य आत्मा के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना शरीर के लिए स्वास्थ्य। 

इस प्रकार, "न्याय जहाँ एक ओर समाज में सामंजस्य स्थापित करने के कारण राज्य को एकसूत्र में बाँधने वाला सामाजिक गुण है, वहीं दूसरी ओर वैयक्तिक गुण भी हैं, क्योंकि यह मनुष्य के आध्यात्मिक सन्तुलन को ठीक कर उसे श्रेष्ठ और सामाजिक बनाता है।

प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की विशेषताएँ

प्लेटो की न्याय सम्बन्धी उपर्युक्त विचारधारा से इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं—

(1) न्याय कृत्रिम नहीं है— प्लेटो ने न्याय को कृत्रिम वस्तु न मानकर इसे आन्तरिक माना है। इस सम्बन्ध में फोस्टर ने लिखा है कि, "प्लेटो का सिद्धान्त यह है कि न्याय मानव-सद्गुण का अंग है।" फोस्टर के अनुसार सद्गुण ही वह बन्धन - सूत्र है, जो मनुष्यों को राज्य में एक-दूसरे से मिलाता अथवा जोड़ता है।

प्लेटो ने मानव - सद्गुण को चार सद्गुणों का योग बताया है —विवेक, साहस, आत्मसंयम और न्याय। इनमें से पहले तीन गुण आदर्श राज्य के तीन वर्गों में भी पाये जाते हैं- विवेक शासक वर्ग में, साहस सैनिक वर्ग में और आत्मसंयम उत्पादक वर्ग में। बचे हुए चौथे गुण - 'न्याय' के सम्बन्ध में। 

प्लेटो का मत है कि, “न्याय अपनी स्थिति के अनुरूप कर्त्तव्यों का पालन करना और दूसरों के कर्त्तव्यों में हस्तक्षेप करने की इच्छा मात्र है। अतः इसका आवास अपना निश्चित कर्त्तव्य करने वाले प्रत्येक नागरिक के मन में है। " स्पष्ट है कि न्याय व्यक्ति की आत्मा की प्रतिध्वनि है।

(2) न्याय कार्य-विशेषीकरण का सिद्धान्त है— प्लेटो ने मानव - आत्मा के तीन गुणों-ज्ञान, साहस और भूख के आधार पर समाज को शासक, सैनिक और उत्पादक तीन वर्गों में बाँटा है। प्लेटो इन तीनों वर्गों को अलग-अलग इनके विशिष्ट कार्य ही सौंपता है। प्लेटो के शब्दों में एक मनुष्य को एक ही कार्य करना चाहिए, वह कार्य जो उसकी प्रकृति के सबसे अनुकूल है। 

(3) न्याय अहस्तक्षेप का सिद्धान्त है — प्लेटो के आदर्श राज्य में तीनों वर्गों के कार्य पूर्व-निश्चित हैं और सामाजिक न्याय प्रत्येक सदस्य से यह अपेक्षा करता है कि वह दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप न करे। 

सेबाइन इसकी व्याख्या करते हुए कहता है कि व्यक्ति के लिए सबसे अच्छी बात यह है कि उसके पास काम हो और वह उसे कर सकता है। दूसरे, व्यक्तियों और समाज के लिए भी सबसे अच्छी बात यही है कि प्रत्येक व्यक्ति अपना-अपना कार्य ठीक ढंग से करे। 

(4) न्याय सामाजिक एकता का सिद्धान्त है— प्लेटो का कहना है कि कार्यों और गुणों के आधार पर विभाजित समाज वास्तव में विभाजित नहीं, वह तो सामाजिक एकता का प्रतीक है। 

प्लेटो इस सम्बन्ध में कहता है कि न्याय वह सूत्र है जो समाज के व्यक्तियों को सामंजस्यपूर्ण संगठन में बाँधे रखता है। बार्कर के अनुसार, "प्लेटो के सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अलग इकाई नहीं है, वरन् एक व्यवस्था का अंग है।

(5) न्याय के दो स्वरूप – न्याय के दो स्वरूप हैं- व्यक्तिगत न्याय और सामाजिक न्याय। 

(6) न्याय की स्थापना दार्शनिक शासक द्वारा– प्लेटो कहता है कि उसके आदर्श राज्य में न्याय की स्थापना दार्शनिक शासक वर्ग करेगा। यह उल्लेखनीय है कि प्लेटो ने शासक वर्ग व सैनिक वर्ग के लिए सम्पत्ति व स्त्रियों के साम्यवाद की व्यवस्था की है, जिससे वे निस्वार्थ सेवा करते रहें। 

(7) प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की अन्य विशेषताएँ–(i) प्लेटो का न्याय कानूनी नहीं। इसका सम्बन्ध नैतिकता और साधुता से है। 

(ii) न्याय प्रत्येक व्यक्ति के मन में निहित रहता है। न्याय व्यक्ति पर थोपा नहीं जाता, यह तो उसकी आत्मा का विशिष्ट गुण है।

(iii) प्लेटो के अनुसार राज्य व्यक्ति का ही विराट रूप है। राज्य में ही व्यक्ति की उन्नति सम्भव है।

(iv) व्यक्ति और समाज दोनों ही के स्तर पर न्याय-गुण की प्राप्ति के लिए प्लेटो एक व्यवस्थित शिक्षाक्रम भी बताता है, जिसके अभाव में दार्शनिक शासक और आदर्श राज्य की स्थापना सम्भव नहीं है। 

संक्षेप में, “प्लेटो की न्याय सम्बन्धी धारणा - नैतिकता, धर्म, आदर्श, सद्गुणों आदि आध्यात्मिक तत्त्वों के पर्यायवाची हैं, जिसमें मनुष्य के जीवन के आन्तरिक पक्ष का ‘सर्वश्रेष्ठ' सम्मिलित है।" इसलिए 'रिपब्लिक' को 'न्याय मीमांसा का ग्रन्थ' भी कहा गया है।

प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की आलोचना 

प्लेटो के न्याय सिद्धान्त को विद्वानों ने अव्यावहारिक और कल्पनावादी बताया है । इसे मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी गलत बताया गया है। उसे जटिल, नीरस और मानव-जीवन की इच्छाओं पर पानी फेरने वाला कहा गया है। 

सेबाइन तो कहता है कि प्लेटो का न्याय सम्बन्धी सिद्धान्त स्थिर या निष्क्रिय, आत्मानुवादी, अनैतिक, अव्यावहारिक और अमनोवैज्ञानिक है। 

संक्षेप में, प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है—

(1) केवल नैतिकता का सिद्धान्त – प्लेटो का न्याय सिद्धान्त, न्याय का सिद्धान्त न होकर नैतिकता व सद्गुणों का सिद्धान्त है। बार्कर कहता है कि प्लेटो का न्याय वस्तुतः न्याय नहीं है। वह केवल मनुष्यों को अपने कर्त्तव्यों तक सीमित करने वाली भावनामात्र है। कोई ठोस कानून नहीं है। प्लेटो ने नैतिक कर्त्तव्य और कानूनी दायित्व में कोई अन्तर ही नहीं दिया है।

(2) केवल कर्त्तव्यों से सम्बन्धित सिद्धान्त – प्लेटो का न्याय सम्बन्धी सिद्धान्त इसलिए भी अधूरा है कि यह लोगों के कर्त्तव्यों की ही बात करता है। अधिकारों की नहीं। न्याय की प्राप्ति के लिए भी व्यक्ति को राज्य में इस प्रकार विलीन कर देना उसके विकास के लिए हानिप्रद है।

(3) निष्क्रिय और निश्चल सिद्धान्त — प्लेटो के न्याय का एक दोष यह है कि वह निष्क्रिय और निश्चल है। यह प्रत्येक व्यक्ति का एक निश्चित कार्य मानकर उसकी उन्नति और विकास के सभी दरवाजे बन्द कर देता है। यह बहुत अधिक आत्मसंयमी और मर्यादित है। व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं करता। 

(4) 'एक व्यक्ति, एक कार्य का सिद्धान्त ठीक नहीं – प्लेटो की न्यायिक कल्पना 'एक व्यक्ति, एक कार्य' तथा 'कार्य के विशिष्टीकरण' पर आधारित है, जिसे स्वीकार कर लेने पर व्यक्ति का सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं है। 

प्लेटो की योग्यता से क्या तात्पर्य है। यह स्पष्ट नहीं। व्यक्ति में विभिन्न योग्यताएँ सम्भव हैं। इसके अतिरिक्त, किस व्यक्ति में कैसी विशिष्ट योग्यता है। इसकी परीक्षा कौन करेगा ?

(5) अत्यधिक पृथक्करण का सिद्धान्त - प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य में तीन वर्गों-शासक वर्ग, सैनिक वर्ग और उत्पादक वर्ग का उल्लेख किया है। तीनों वर्ग कार्य विभाजन के सिद्धान्त पर कार्य करते हैं। इसका (वर्ग - विभाजन का) कुप्रभाव 'तीन राज्यों के रूप में भी प्रकट हो सकता है।

(6) दार्शनिक शासक की निरंकुशता–प्लेटो के आदर्श राज्य में जिसकी स्थापना वह अपने कथित न्याय के द्वारा करना चाहता है। उसमें वह दार्शनिक शासकों को असीमित शक्तियाँ देता है। शक्तियों के एकाधिकार से शासक मोह, लोभ और मद से भ्रष्ट होकर निरंकुश हो सकते हैं। भले ही शासक वर्ग को कितनी भी शिक्षा दी जाये। 

(7) अमनोवैज्ञानिक सिद्धान्त – प्लेटो का न्याय सिद्धान्त साम्यवादी योजना पर टिका हुआ है। प्लेटो शासक वर्ग को न केवल सम्पत्ति से वरन् स्त्रियों से भी दूर रखता है। 

परन्तु स्त्रियों का साम्यवाद न केवल अनैतिकता को जन्म देगा, वरन् यह अमनोवैज्ञानिक भी है। वैवाहिक जीवन की आवश्यकताएँ व्यक्ति के जीवन में आधारभूत स्थान रखती हैं।

(8) प्लेटो के न्याय सिद्धान्त में सबको सुख नहीं- प्रथम तो सैनिक वर्ग और शासक वर्ग ही सुखी नहीं रहेगा। जबकि उन्हें न केवल सम्पत्ति से, वरन् परिवार से भी वंचित रहना होगा। दूसरे, उत्पादक वर्ग बहुत से सुखों से वंचित रहेगा क्योंकि वह राजनीतिक क्षेत्र में भाग नहीं ले सकेगा। 

(9) व्यक्ति राज्य के अधीन–प्लेटो के आदर्श राज्य में व्यक्ति को पूर्णतया राज्य के अधीन कर दिया गया है। वास्तविक न्याय में व्यक्ति और राज्य दोनों की उन्नति साथ-साथ होनी चाहिए।

(10) प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की अन्य आलोचना या दोष –(i) कोई निश्चित कार्य आजीवन करते रहना गलत सिद्धान्त है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि प्लेटो के आदर्श राज्य में एक मोची सदैव मोची ही रहेगा और एक शासक सदैव शासक ही रहेगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि मानव-प्रकृति परिवर्तनशील है। 

राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी यह जानते हैं कि रूसो प्रारम्भ में एक आवारा और लावारिस नौजवान था। ऐसे और अनेक उदाहरण हैं तो क्या फिर प्लेटो के आदर्श राज्य का उत्पादक वर्ग या सैनिक वर्ग दार्शनिक शासक नहीं बन सकता है। 

(11) मानव स्वभाव के विरुद्ध है— क्योंकि प्लेटो शासक वर्ग और सैनिक वर्ग को पारिवारिक सुख और सम्पत्ति से वंचित करता है, अतः यह सिद्धान्त मानव-स्वभाव के विरुद्ध है।

(12) मानव-प्रकृति विषम है— उसे विवेक, साहस या भूख की निश्चित सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। मनुष्य कभी भूख पर तो कभी साहस पर और कभी विवेक पर ध्यान देता है।

(13) यह सिद्धान्त अप्रजातान्त्रिक भी है— क्योंकि उत्पादक वर्ग को सदैव के लिए शासन में भाग लेने से वंचित कर दिया जाता है।

सेबाइन ने लिखा है कि, “प्लेटो के न्याय सिद्धान्त में सार्वजनिक शान्ति और व्यवस्था को बनाये रखने का केवल नाममात्र का उल्लेख है। 

जोड ने लिखा है कि, “प्लेटो के न्याय के सिद्धान्त और फासिज्म में बहुत ही कम अन्तर है। 

संक्षेप में, प्लेटो की न्याय की धारणा का बहुत ही तीक्ष्ण बुद्धि वाले दार्शनिक (प्लेटो) की एक अव्यावहारिक कल्पना है।


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