ग्रीन के राज्य सम्बन्धी विचार - green ke rajya sambandhi vichar

ग्रीन के राज्य सिद्धान्त पर एक आलोचनात्मक निबन्ध लिखें।

(1) ग्रीन के राज्य की प्रकृति-सम्बन्धी विचार - ग्रीन के अनुसार, राज्य कृत्रिम समुदाय नहीं है। राज्य का जन्म तो मनुष्य के मस्तिष्क से हुआ है। ग्रीन की इस धारणा को बार्कर ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है मानव चेतना उसे स्वतन्त्र होने को प्रेरित करती है। 

स्वतन्त्रता के लिए कुछ अधिकारों का होना आवश्यक है और अधिकारों की प्राप्ति के लिए राज्य की आवश्यकता है। स्पष्ट है कि राज्य का निर्माण मानव चेतना की नैतिक आवश्यकता को व्यक्त करता है।

मानव-बुद्धि चेतनायुक्त होती है । चेतना अपना अविरल विकास चाहती है। विकास के लिए सुविधाओं की आवश्यकता होती है। सुविधाओं के लिए अधिकारों की आवश्यकता होती है। अधिकारों के लिए राज्य की स्वीकृति आवश्यक है। 

अन्ततोगत्वा यह कहना अधिक उपयुक्तहोगा कि व्यक्ति राज्य के अन्तर्गत ही अपना सर्वांगीण विकास कर सकता है। राज्य आत्म-बोध की उपज है।

लेकिन चेतना व्यक्ति की आन्तरिक शक्ति है, जिसे राज्य खींचतान कर विकसित नहीं कर सकता। कहने का आशय यह है कि राज्य व्यक्ति को नैतिक नहीं बना सकता है। केवल नैतिकता के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर कर सकता है। 

अतः राज्य का कार्य केवल बाधाओं के लिए बाधा बनकर ही व्यक्तिके जीवन का विकास करना है । अतः ग्रीन राज्य को निषेधात्मक अधिकार देकर अपने उदार आदर्शवाद का प्रतिपादन करता है।

(2) राज्य का निर्माण - रूसो की तरह ग्रीन ने भी व्यक्तियों की दो इच्छाओं को स्वीकार किया है—सद्इच्छा और स्वार्थपूर्ण इच्छा (Good will and Selfish will) व्यक्ति की सद्च्छा उसकी नैतिक इच्छा है और सब व्यक्तियों की इसी इच्छा से ‘सामान्य इच्छा' का निर्माण होता है। 

यह सामान्य इच्छा समाज के सामान्य हितों में वृद्धि करती है। इन्हीं हितों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सर्वोच्च शक्ति सम्पन्न राज्य का निर्माण होता है। संक्षेप में, राज्य सामान्य इच्छा का मूर्त रूप है ।

(3) प्रभुसत्ता सम्बन्धी विचार - यद्यपि ग्रीन भी, राज्य को दूसरे आदर्शवादियों की भाँति नैतिक संस्था मानता है, फिर भी ईश्वर - तुल्य नहीं। उसके अनुसार, राज्य तथा व्यक्ति दोनों ही दैवीय-आत्मा के प्रतिनिधि अथवा मूर्त रूप हैं, परन्तु कभी भी वे दोनों ही अपने दैवीय स्वरूप से पतित हो सकते हैं। 

जब राज्य अपने नैतिक मार्ग से दूर चला जाय तो उसे यह अधिकार नहीं कि वह व्यक्तियों से अपनी आज्ञाओं का पालन करा सके। ग्रीन राज्य की सत्ता पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध बताता है-

(i) नागरिक का सविनय अवज्ञा का अधिकार, (ii) समाज में दूसरे समुदायों का अस्तित्व, (iii) राज्य का भौतिक स्वरूप अर्थात् उसका नैतिकता का विकास करने में समर्थ न होना, और (iv) अन्तर्राष्ट्रीय कानून

(4) 'राज्य का आधार, इच्छा है, पाशविक शक्ति नहीं'  - ग्रीन राज्य को सर्वोच्च समुदाय मानता है, जिससे कि वह विभिन्न समुदायों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करते हुए उनकी रक्षा कर सके, परन्तु ग्रीन इस मत का खण्डन करता है कि राज्य का आधार शक्ति है । उसके मतानुसार, राज्य जन-स्वीकृति पर आधारित है। 

कोई भी निरंकुश शासक पशु-बल के आधार पर ही बहुसंख्यक प्रजा से अपने आदेशों का पालन स्पष्ट रूप से नहीं करा सकता। ग्रीन ने लिखा है न्याय के बिना शक्ति अल्पकाल के लिए ही टोक सकती है, परन्तु न्याय के साथ संयुक्तहोने पर वह राज्य का स्थायी आधार बन जाती है। 

व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन इसीलिए करता है कि वह 'सामान्य इच्छा' की अभिव्यक्ति है। ग्रीन के शब्दों में, "सच्चे राजनीतिक समाज में कानून का पालन सामान्यतः पालन करने की ऐसी आदत से होना चाहिए, जो इस चेतना पर आधारित हो कि उससे 'सामान्य हित' का सम्पादन होता है।

दण्ड के भय या रीति-रिवाजों के अन्धानुकरण पर आधारित आदत से नहीं । यदि राज्य अपने इस नैतिक मार्ग से विचलित हो जाता है तो लोगों को आज्ञा का उल्लंघन करने का अधिकार है।

ग्रीन इस बात से सहमत नहीं है कि राज्य का आधार शक्ति या बाहुबल है, जैसा कि मैकियावेली कहता है राज्य केवल एक 'शक्तिसावयव प्राणी है। स्पिनोजा ने कहा है। राज्य श्रेष्ठतम प्राकृतिक शक्ति को प्रकट करता है। 

परन्तु इसके विपरीत ग्रीन कहता है कि, "यह केवल सर्वोच्च अनिवार्य शक्ति नहीं, जो राज्य का निर्माण करती है, अपितु सर्वोच्च अनिवार्य शक्ति का, एक विशेष ढंग से एक विशिष्ट लक्ष्य की पूर्ति हेतु उपयोग है, जो वस्तुतः राज्य का निर्माण करती है। 

उदाहरणतः - लिखित या व्यावहारिक कानून के अनुसार अधिकारों की रक्षा करना।” ग्रीन कहता है कि सच्चा राज्य वह है जिसमें शक्ति का प्रयोग कानून के अनुसार अधिकारों को बनाए रखने के लिए किया जाता है। शक्ति का यही आधार शक्ति को 'वैध नैतिक सत्ता' में बदलता है।

सेबाइन ने भी कहा है ग्रीन का कहना है कि शासन, शक्ति पर नहीं, वरन् इच्छा पर आधारित होता है। इसका कारण यह है कि व्यक्ति को समाज से बाँधने वाली कड़ी, उसकी अपने स्वयं के स्वभाव की विवशता है, न कि कानून के दण्ड या स्वार्थपूर्ण लाभों का विचार।

जब राज्य का आधार इच्छा या जन स्वीकृति है, तो तीन प्रश्न उठते हैं- 

(i) ग्रीन के मत को मान लेने पर ऑस्टिन के सुनिश्चित सर्वोच्च मानव का क्या होगा, क्योंकि इच्छा तो अमूर्त है। इसके उत्तर में ग्रीन कहता है कि, राज्य का वास्तविक शासक ही सामान्य इच्छा का प्रतिनिधि है।

(ii) अधिकांश शासक निरंकुश होते हैं, यदि इच्छा राज्य का आधार है तो इन्हें कैसे सहन करेगी ? ग्रीन का उत्तर है कि ऐसे राज्य आदर्श राज्य नहीं हैं। यदि जनता ऐसे शासकों के आदेश मानती है तो जनता की सहमति तो है ही।

(iii) क्या हमें अपनी इच्छा का ज्ञान है ? इसके उत्तर में ग्रीन कहता है, प्रगतिशील प्रजातन्त्रीय देशों में जनता की इच्छा अपनी अभिव्यक्ति वयस्क मताधिकार और प्रतिनिधि निर्वाचन के अधिकार द्वारा करती है।

(5) सविनय अवज्ञा का अधिकार  ग्रीन हीगल की इस धारणा को स्वीकार नहीं करता कि लोगों का भला आँख मींचकर राज्य की आज्ञा का पालन करने में है। ग्रीन राज्य को 'आदर्श संस्था' तो मानता है, परन्तु वह राज्य को 'साध्य' स्वीकार नहीं करता है। 

राज्य का उद्देश्य व्यक्ति का अधिकतम कल्याण साधन करना है और जब राज्य अपने इस उद्देश्य में विफल हो जाता है तो ग्रीन के अनुसार व्यक्ति राज्य की आज्ञा का उल्लंघन कर सकता है। शर्त यह कि इस आज्ञा का उल्लंघन का उद्देश्य निजी स्वार्थ न होकर, राज्य का सुधार होना चाहिए। 

ग्रीन के शब्दों में किसी कानून की अवज्ञा करने का या पालन करने का अधिकार इस आधार पर प्रदान नहीं किया जा सकता है कि वह कार्य करने की स्वतन्त्रता या अपने बच्चों के पालन-पोषण या अच्छी इच्छा के कार्य करने में बाधक है।

ग्रीन यह भी कहता है कि नागरिक का राज्य-विरोध करने का कर्त्तव्य नहीं हो सकता। ग्रीन तो उसे सविनय अवज्ञा का अधिकार मानता है। ऐसे अवसर पर व्यक्ति राज्य के किसी कानून की ही अवज्ञा करता है, सम्पूर्ण राज्य की नहीं।

राज्य का विरोध के सम्बन्ध में सावधानियाँ 

ग्रीन का यह भी कहना है कि नागरिक को उत्तर अधिकार का प्रयोग बहुत सावधानी से करना चाहिए। उसे यह विश्वास होना चाहिए कि सफल विरोध द्वारा एक निश्चित सार्वजनिक हित की प्राप्ति सम्भव है। उसे यह भी विश्वास होना चाहिए कि समाज के एक बड़े भाग का भी ऐसा ही विचार है।

राज्य का खुला विरोध करने से पूर्व नागरिकों को सभी वैधानिक साधनों का प्रयोग करना चाहिए। उन्हें उसी समय राज्य का विरोध करना चाहिए, जब यह विश्वास हो जाय कि वैसा करने से अराजकता उत्पन्न नहीं होगी। 

ग्रीन का यह भी कहना है कि विरोध करने के फलस्वरूप मिलने वाले दण्ड का भी नागरिकों को सम्मान करना चाहिए। बार्कर ग्रीन के मत का समर्थन करते हुए कहता है कि, “जब विरोध के लिए आवश्यक प्रत्येक शर्त पूरी हो जाती है, तभी विरोध करना सम्भवतः न्यायोचित होता है। यह अनिवार्य रूप से आवश्यक नहीं है।” स्पष्ट है कि ग्रीन विद्रोह व क्रान्ति को प्रोत्साहित नहीं करता है ।

ग्रीन का राज्य के कार्यों का सिद्धान्त

 (i) राज्य का नैतिक कार्य - ग्रीन ने राज्य के कार्य को आवश्यक रूप से नैतिक कार्य माना है, जैसा कि कोकर ने भी पुष्टि करते हुए कहा है, "राज्य का कार्य आवश्यक रूप से और केवल नैतिक कार्य है।" ग्रीन के अनुसार राज्य का कार्य है कि व्यक्तिके सद्जीवन व्यतीत करने के मार्ग में जो बाधाएँ आयें, उन्हें दूर करे और ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करे, जिनमें नैतिकता का विकास होता रहे । 

(ii) राज्य के कार्य-नकारात्मक व सकारात्मक दोनों - ग्रीन का मत है कि राज्य को सकारात्मक  व निषेधात्मक  दोनों कार्य करने चाहिए। सकारात्मक कार्यों से तात्पर्य उनसे है, जिनके द्वारा व्यक्तिको नैतिक बनाया जा सके। 

ग्रीन का कथन है कि राज्य का आदर्श नैतिक जीवन की अभिवृद्धि करना है, परन्तु यह कार्य राज्य अप्रत्यक्ष और निषेधात्मक ढंग से ही कर सकता है। 

ग्रीन के अनुसार राज्य को अपनी ओर से प्रत्यक्षतः नैतिक जीवन की अभिवृद्धि के लिए कोई कार्य नहीं करना चाहिए। उसका कार्य तो यही है कि वह उन बाधाओं को दूर करे, जो व्यक्तियों के नैतिक विकास के मार्ग में आती हैं।

(iii) राज्य का विशिष्ट कार्य - बाधाओं का निवारण  – ग्रीन के अनुसार - राज्य का कार्य नैतिक जीवन की बाधाओं के मार्ग में बाधा पहुँचाना है।” ग्रीन के शब्दों में, “राज्य का कर्त्तव्य उन दशाओं को जन्म देना है, जिनमें नैतिकता सम्भव हो सके।

ग्रीन के राज्य के कार्य से सम्बन्धित विचारों को स्पष्ट करते हुए कोकर कहता है कि ग्रीन बहुत दृढ़ता से इस सिद्धान्त को मानता था कि राज्य का कार्य व्यक्ति के लिए यह सम्भव कर देना है कि वह स्वयं श्रेष्ठ जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सके, परन्तु वह किसी व्यक्ति को जीवन व्यतीत करने के निकृष्ट ढंगों की अपेक्षा श्रेष्ठ ढंगों को पसन्द करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।

इस प्रकार ग्रीन का मत है कि राज्य किसी व्यक्ति को प्रत्यक्ष रूप से नैतिक नहीं बना सकता और उसे इसके लिए कानून बनाने चाहिए। नैतिकता आन्तरिक नियमों के अनुसार स्वतः विकसित होगी। कारण यह है कि व्यक्ति उन कानूनों को स्वीकार नहीं करता। जिनके पालन करने में उसे अपनी विवशता व लाचारी का अनुभव हो। 

राज्य का कार्य क्षेत्र मनुष्य का बाहरी आचरण ही हो सकता है, अन्तःकरण नहीं । उदाहरण के लिए, राज्य प्रत्यक्ष रूप से किसी शराबी व्यक्ति की शराब पीने की आदत नहीं छुड़ा सकता है, परन्तु वह अप्रत्यक्ष रूप से कानूनों द्वारा मद्य निषेध करके उस व्यक्ति को शराब पीने से रोक सकता है। -

ग्रीन के उपर्युक्त दृष्टिकोण की कुछ विचारकों ने यह कहकर आलोचना की है कि वह निषेधात्मक  है, परन्तु यह आलोचना ठीक नहीं। 'बाधाओं के सामने बाधा का सिद्धान्त, वैसे तो निषेधात्मक शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है, परन्तु वस्तुतः वह 'सकारात्मक' ही है। 

कारण यह है कि श्रेष्ठ जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए राज्य को न केवल बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा करना व अपराधों को रोकना है, वरन् उसे अनेक भावात्मक कार्य करने होंगे।

(iv) राज्य के हस्तक्षेप की सीमा  - ग्रीन की मान्यता है कि राज्य को बाह्य बाधाओं का निवारण करके, व्यक्ति के जीवन को श्रेष्ठ सम्भव करना चाहिए। इसके लिए राज्य को किसी भी सीमा तक हस्तक्षेप करना चाहिए। इस सम्बन्ध में डायल ने कहा है, "राज्य के हस्तक्षेप की सीमा अनिश्चित है। 

समाज के महत्त्वाकांक्षी सदस्यों के मार्ग से बाधाओं का निवारण करने के लिए राज्य किसी भी बात पर नियन्त्रण स्थापित कर सकता है।" उदाहरण के लिए, अज्ञानता को दूर करने के लिए राज्य को कार्य करना चाहिए, क्योंकि ये व्यक्ति के नैतिक विकास में बाधाएँ हैं।

(v) राज्य के कार्यों की सूची  — ग्रीन ने राज्य के अनेक कार्यों की सूची भी दी है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि राज्य के कार्य सकारात्मक भी हैं।

(1) शिक्षा की वृद्धि - ग्रीन के अनुसार शिक्षा की अभिवृद्धि करने के लिए राज्य को शिक्षालय खोलने चाहिए। ऐसा होने पर ही लोग अपने अधिकारों का उपभोग कर सकेंगे।

(2) मद्य निषेध  - राज्य का यह कर्त्तव्य है कि मदिरालयों को बन्द करे। ग्रीन मद्य-निषेध का इतना समर्थक था कि उसने अपनी ओर से सन् 1875 में कॉफी-हाउस  खोला, जिसमें वह लोगों को इसलिए मुफ्त कॉफी पिलाता था कि वे शराब न पिएँ।

(3) सम्पत्ति सम्बन्धी कार्य-ग्रीन व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति का उपभोग करने की आज्ञा देता है। दरिद्रता के निवारण के लिए वह भूमि-प्रथा पर राज्य के नियन्त्रण के पक्ष में है। ग्रीन ने व्यक्तिगत सम्पत्ति के लाभ भी बताए हैं, उसका औचित्य सिद्ध किया है।

(4) युद्ध का विरोध - राज्य को युद्ध का विरोध करके, व्यक्तियों के जीवन के अधिकार को स्वीकार करना चाहिए।

(5) अन्य सुधारात्मक कार्य-ग्रीन ने राज्य द्वारा चिकित्सालय खोलने पर भी जोर दिया। उसका मत था, “नैतिक विश्वास के लिए जो सुधार आवश्यक हों, वे राज्य द्वारा किए जाने चाहिए।” परन्तु नैतिकता की वृद्धि के लिए बल का प्रयोग नहीं करना चाहिए। 

इस प्रकार ग्रीन का राज्य के कार्यों से सम्बन्धित सिद्धान्त निषेधात्मक नहीं है। वस्तुतः ग्रीन का दृष्टिकोण उग्र आदर्शवाद और समाजवाद के बीच एक मध्यम मार्ग उपस्थित करता है। ग्रीन ने व्यक्तिवाद पर समाजवाद की पुट दी और फिर दोनों पर आदर्शवाद की ।

स्पष्ट है कि ग्रीन ने जो राज्य के कार्य बताए हैं, उनसे उसने 20वीं शताब्दी के लोक-कल्याणकारी राज्य की नींव डाली है।

राज्य विषयक सिद्धान्त की आलोचना

ग्रीन ने जिस प्रकार अपने राज्य सम्बन्धी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया है, उसमें अनेक दोष उत्पन्न हो गये हैं। उसकी राज्य सम्बन्धी धारणा में निम्नलिखित दोष हैं

(1) राज्य के कार्य क्षेत्र को सीमित करना - ग्रीन राज्य के कार्य क्षेत्र को बहुत अधिक सीमित करके उसे महत्त्वहीन बना देता है। उसके अनुसार राज्य का कार्य केवल बाधाओं को बाधित करना है, किन्तु राज्य का कार्य केवल निषेधात्मक नहीं होता। वह अपने रचनात्मक कार्यों से भी समाज में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है, जिसमें रहकर मनुष्य अपना नैतिक विकास भली प्रकार कर सकता है।

(2) राज्य मात्र साध्य नहीं है - ग्रीन व्यक्तिको बहुत अधिक महत्त्व प्रदान करता है और राज्य को उसके नैतिक विकास का केवल एक साधन मानता है, किन्तु उसका यह दृष्टिकोण भी गलत है। राज्य का महत्त्व साधन तक सीमित नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक है।

(3) राज्य के विरोध का अधिकार अर्थहीन - ग्रीन ने कुछ विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति को यह अधिकार प्रदान किया है कि वह राज्य का विरोध कर सके, किन्तु विरोध के इस अधिकार पर उसने इतने अधिक प्रतिबन्ध लगा दिये हैं कि यह अधिकार अर्थहीन हो जाते हैं।

(4) राज्य की निरंकुशता का समर्थक-ग्रीन राज्य को अन्य समुदायों से श्रेष्ठ तथा सम्प्रभु मानता है। इसके अतिरिक्त वह राज्य के आदेशों का पालन करना व्यक्ति के लिए अनिवार्य मानता है। 

सामान्य परिस्थितियों में ग्रीन राज्य पर कोई प्रतिबन्ध नहीं मानता है। राज्य को वह संविधान तथा प्राकृतिक अधिकारों के भी ऊपर मानता है। इस प्रकार ग्रीन निरंकुश राज्य का समर्थन करता है ।

(5) अस्पष्टता - ग्रीन के राज्य सम्बन्धी विचारों में कुछ अन्तर्विरोध भी है। वह कहीं तो सम्प्रभुता का वास राज्य में बताता है, तो कहीं सामान्य इच्छा में । इसी प्रकार वह एक ओर तो राज्य के आदेशों को मानना बाध्यकारी मानता है, तो दूसरी ओर व्यक्ति से अपनी आत्मा के आदेशों को मानने का आग्रह करता है ।

उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद राजनीति दर्शन के क्षेत्र में ग्रीन का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि डॉ. नागपाल के शब्दों में उसने राज्य की सत्ता में और व्यक्ति की नैतिक इच्छा में एक सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास किया। 

वह बहुत मौलिक और महान् दार्शनिक तो नहीं बन पाया, परन्तु उसने अपने सुलझे हुए मस्तिष्क से ऐसे विचार प्रतिपादित किये। जो व्यावहारिक भी थे और अनुशीलन के योग्य भी ।

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