सुभद्रा कुमारी चौहान हिन्दी काव्य जगत में अकेली ऐसी कवयित्री हैं। जिन्होंने अपने कंठ की पुकार से लाखों भारतीय युवक-युवतियों को युग-युग की अकर्मण्य उदासी को त्याग, स्वतन्त्रता संग्राम में अपने को झोंक देने के लिए प्रेरित किया हैं।
वे राष्ट्रीय भावों की कवयित्री हैं। वे कवयित्री होने के साथ-साथ कहानी लेखिका भी है। छोटी चौहान का जन्म 16 अगस्त सन् 1904 ई. को निहालपुर इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था।
सुभद्रा कुमारी चौहान की काव्य भाषा
सुभद्रा कुमारी चौहान की भाषा सीधी, सरल तथा स्पष्ट एवं आडम्बरहीन है। मुख्यतः इन्होंने दो रस वीर तथा वात्सल्य को चित्रित किया हैं। अपने काव्य में पारिवारिक जीवन के मोहक चित्र भी इन्होंने अंकित किये हैं जिनमें वात्सल्य की मधुर व्यंजना हुई है। इसके काव्य में एक ओर नारी-सुलभ ममता तथा सुकुमारता है और दूसरी ओर पद्मिनी के जौहर की भीषण ज्वाला हैं।
अलंकारों अथवा कल्पित प्रतीकों के मोह में न पड़कर सीधी सादी स्पष्ट अनुभूति को इन्होंने प्रधानता दी है। शैलीकार के रूप में सुभद्राजी की शैली में सरलता विशेष गुण है। नारी हृदय की कोमलता और उसके मार्मिक भव पलों को नितान्त स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करना इनकी शैली का मुख्य आधार है।
सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाओं में ओजस्वी ध्वनि पराधीनता और दमन के विरुद्ध गूँज उठी है। उनकी जलियाँवाला बाग में बसन्त कविता में ओजस्वी स्वर देखते ही बनता है।
उनकी अन्य राष्ट्रीय भावनाओं से परिपूर्ण कविताओं में राखी, विजयादशमी, लक्ष्मीबाई की समाधि, वीरों का कैसा हो बसन्त आदि कविताएँ उल्लेखनीय हैं।
सुभद्रा कुमारी चौहान जेल से छूटे सत्याग्रहियों का स्वागत करती दिखाई देती हैं। उनके स्वर में ओज और प्रेरणा के साथ अहिंसा का स्वर भी है। वे सत्याग्रहियों का स्वागत करती हुई कहती हैं ढीठि सिपाही की हथकड़ियाँ, दमन नीति के वे कानून डरा नहीं सकते हमको, यद्यपि बहाते प्रतिदिन खून। हम हिंसा का भाव त्याग कर, विजय वीर अशोक बनें काम करेंगे, वही कि जिसमें लोक और परलोक बनें।
कलापक्ष
सुभद्रा कुमारी चौहान भाव-प्रधान काव्य की रचयिता हैं। उनके काव्य में अनुभूति की सच्चाई को यथार्थता के साथ स्तर दिया है। उनके काव्य में वीर, शृंगार और वात्सल्य के चित्र उपलब्ध होते हैं। राष्ट्रीयता और देश-प्रेम की अभिव्यक्ति में वीर रस, दाम्पत्य-प्रेम की अभिव्यक्ति में शृंगार और संयोग, मातृत्व की अभिव्यक्ति में वात्सल्य और दीन-दुःखियों के प्रति संवेदना की अभिव्यक्ति में करुण-रस झलकता है।
कुछेक कविताओं में उनकी अन्योक्तियाँ बड़ी चुटीली बन पड़ी हैं। चूँकि सुभद्रा जी भावप्रवण कवयित्री हैं, इसलिए उनमें कला-पक्ष की ओर विशेष आग्रह दृष्टिगत नहीं होती हैं। उनकी रचनाएँ सहज, स्वाभाविक सौन्दर्य में ही पूर्णता को पहुँची है।
सुभद्रा जी की काव्य भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है जिसमें उन्होंने बोलचाल के तत्सम शब्दों फारसी-उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग किया है। जिससे उनकी भाषा में प्रवाहमयता और कता का समावेश हुआ है। छंदों की दृष्टि से उन्हें मात्रिक छंद प्रिय है, सत्य तो यह है कि उनके भाव स्वयं अपने लिए छंदों का चयन कर लेते हैं।
संगीतात्मकता उनकी काव्य का प्राण तत्व है। ओज और प्रसाद उनकी रचनाओं के गुण हैं। मुहावरों के प्रयोग ने उनके भावों और कथ्य को अर्यवत्ता प्रदान की है। उनके काव्य में अनुप्रास, रूपक, उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार स्वाभाविक रूप में समाविष्ट होकर कला-सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं।
देशभक्ति
देशभक्ति और राष्ट्रीय भावना की रचनाओं के अतिरिक्त सुभद्रा जी ने वात्सल्य रस की भी कविताएँ लिखी हैं। वात्सल्य-प्रधान रचनाओं को पढ़कर सूर के बाल कृष्ण की नटखटपूर्ण क्रीड़ाओं का चित्र साकार हो जाता है। इन रचनाओं में वात्सल्य रस की पूर्ण निष्पति हो जाती है। मेरा नया बचपन कविता में उन्होंने मातृ-हृदय को खोलकर रख दिया है -
नन्दन वन-सी फूल उठी - वह छोटी-सी कुटिया मेरी
इसका रोना भी मातृ-हृदय की भावुकता से भरी रचना है। बच्ची का रोना सुनकर पिता का खीझ उठता है परन्तु माता का हृदय अभिमान से भर जाता है।
मेरा नया बचपन कविता में कवयित्री बचपन को स्मरण करती है। बचपन को बुलाती है। अपने बचपन को अपनी पुत्री के बचपन के माध्यम से प्राप्त करती है। बेटी के साथ मिलकर स्वयं बच्ची बन जाती है और आनन्द से सराबोर होकर गा उठती है।
इस प्रकार कवयित्री ने अपने हृदय में व्याप्त अनुभूतियों को ही काव्य का विषय बनाया है। उन्होंने अपने हृदय की विविध अनुभूतियों, परिस्थितियों तथा राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन के यथार्थ चित्र उकेरे हैं। उनके काव्य में अर्थ-दुरूहता एवं शुष्क कल्पनाओं की अपेक्षा जीवन की उच्चतम अनुभूति को सहज, सरल, स्वाभाविक भाषा में अभिव्यक्ति मिली है।
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