अरस्तु के दास प्रथा संबंधी विचार - arastu ka dasta sambandhi vichar

दास प्रथा यूनानी जीवन की एक महत्त्वपूर्ण प्रथा थी। यह यूनानी नगर-राज्य में पाये जाते थे। सोफिस्टों ने दास प्रथा की आलोचना की है, परन्तु यूनानी दार्शनिक प्लेटो तथा अरस्तू ने दास प्रथा का समर्थन कर एण्डीकोन तथा एलसीडेमास जैसे विद्वान दास प्रथा के विरुद्ध थे। उनकी आलोचना की है।

अरस्तू के दास प्रथा सम्बन्धी विचार 

अरस्तू के अनुसार परिवार के समस्त कार्यों के सम्पादन करने के लिए कुछ वस्तुवओं की आवश्यकता पड़ती है। इन वस्तुवओं में सजीव व निर्जीव दोनों होते हैं। दास सजीव और घर का अन्य सामान निर्जीव सम्पत्ति का सम्पत्ति का उदाहरण है। इन दोनों के बिना सफल पारिवारिक जीवन का निर्माण नहीं हो सकता हैं। 

बार्कर के अनुसार - उत्पादन एवं कार्य करने में जो अन्तर है उसका आधार अरस्तू की वह विचारधारा है जिसके अनुसार उत्पादन व्यक्ति के उस कार्य का परिणाम है जो उसे उस कार्य की समाप्ति के पश्चात् मिलता है।

दास प्रथा अर्थ  - अरस्तू का मत है कि परिवार के लिए दास प्रथा आवश्यक है। यह नैतिक प्रथा प्राकृतिक है। सब मनुष्य समान नहीं होते हैं। सबमें मानसिक या शारीरिक शक्ति समान नहीं होती। मानसिक शक्ति शारीरिक शक्ति की अपेक्षा श्रेष्ठतर होती है। 

मानसिक शक्ति रखने वाले समस्त व्यक्ति भौतिक शक्ति रखने वालों पर शासन के अधिकारी हैं। इसलिये अरस्तू का विचार था कि शारीरिक शक्ति रखने वाले दासों को बुद्धिमानों के शासन में रहना अनिवार्य है। दास जन्म से ही दास होता है। उनका जन्म ही दासता लिए हुआ है। 

मालिक व दासों का होना परिवार की पूर्ति के लिये आवश्यक है। इस सम्मिश्रण से परिवार का नैतिक तथा बौद्धिक विकास होता है। परिवार का लक्ष्य बौद्धिक एवं नैतिक विकास करना है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए इन दोनों तत्त्वों का सम्मिश्रण आवश्यक है। 

एक गृहस्थ के लिए दास उसी प्रकार आवश्यक है, जिस प्रकार एक संगीतज्ञ के लिए संगीत यन्त्र की आवश्यकता होती हैं। यदि बौद्धिक बल रखने वाले शारीरिक और छोटे कार्य करें तो उन्हें नैतिक व बौद्धिक उन्नति के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल सकेगा। 

इसी प्रकार दासों का हित भी इसी में है कि वे अपने स्वामियों की दासता में रहें। बौद्धिक गुणों से वंचित व्यक्ति को बौद्धिक गुण वाले व्यक्ति का दास हो जाना चाहिये।

अरस्तू दासों को मनुष्यों की नहीं अपितु पशुओं की श्रेणी में रखता है। स्वामी केवल दास का स्वामी होता है लेकिन उसके अधीन नहीं होता, जबकि दास केवल अपने स्वामी के अधीन होता है।

दास प्रथा के पक्ष में तर्क

(1) दास प्रथा प्राकृतिक नियमों के अनुकूल - अरस्तू का मत है कि दास प्रथा प्राकृतिक नियमों के अनुकूल है। प्रकृति प्रदत्त विशेषताएँ समस्त मनुष्यों में एक सी नहीं होती हैं। कुछ लोग जन्म से ही प्रखर बुद्धि वाले होते हैं, और कुछ मूर्ख । ऐसी स्थिति में प्रकृति का यह नियम लागू होता है कि श्रेष्ठतर निम्नतर पर शासन करते हैं। 

इस प्रकार प्राकृतिक असमानता के कारण दास प्रथा का जन्म हुआ। बुद्धिमान व्यक्तिशासन करने की योग्यता रखने के कारण स्वामी बना और बुद्धिहीन व्यक्तिमूर्ख, किन्तु शारीरिक रूप से शक्तिशाली होने के कारण दास बना। अतः स्पष्ट है कि दास प्रथा एक स्वाभाविक और उचित व्यवस्था है तथा स्थाई व्यवस्था है।

(2) दास प्रथा स्वामी और दास दोनों के लिये उचित- अरस्तू के अनुसार दास प्रथा स्वामी और दास दोनों के दृष्टिकोण से उचित है।

स्वामी की दृष्टि से - अरस्तू के अनुसार बुद्धिमान तथा विवेकी स्वामियों को राजकार्य तथा अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों का संचालन करने के लिए तथा अपने बौद्धिक और नैतिक गुणों को विकसित करने के लिए समय तथा विश्राम की आवश्यकता होती है। 

यह अवकाश उन्हें तब ही प्राप्त हो सकता है, जब उनकी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दास परिश्रम करें। यदि स्वामियों को शारीरिक तथा अन्य कार्य भी स्वयं करना पड़े तब उनकी नैतिक और भौतिक उन्नति सम्भव नहीं है। 

स्वामी की भूमि को दास जोतता है, उस पर श्रम कर फसल उत्पन्न करता है, आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, घरेलू कार्यों को करता है जिससे गृहस्वामी को समय की बचत होती है और वह बौद्धिक क्षेत्र में उन्नति करता है। 

अवकाश प्राप्त होने पर संस्कृति की उन्नति में योगदान देता है। एक नागरिक के रूप में राज्य से सम्बन्धित कार्य करता है।

दास की दृष्टि से - दास व्यक्ति बुद्धिहीन होता है। उसमें नैतिकता और कुशलता का अभाव होता है। उसे तो अपनी शारीरिक शक्तिका सदुपयोग करने का भी ज्ञान नहीं होता। विवेकशून्य होने के कारण उसे तो यह भी नहीं पता होता है कि कौन-सा कार्य उसके लिए हितकर है। 

ऐसी स्थिति में उसका जीवन किसी के संरक्षण में ही ठीक से व्यतीत हो सकता है और वह है उसका स्वामी । अतः यह उचित है कि दास स्वामी के संरक्षण में रहते हुए उससे प्रेरणा तथा मार्गदर्शन प्राप्त करता रहे।

दासता के रूप

दासता दो प्रकार की होती है

  1. स्वाभाविक दासता 
  2. कानूनी दासता

कुछ व्यक्ति जन्म से मन्द बुद्धि एवं आज्ञापालन प्रवृत्ति के होते हैं। ऐसे लोगों को स्वाभाविक दास कहा जाता है। इसके अतिरिक्त युद्ध में बन्दी लोगों को भी दास बना लिया जाता था। ये दास कानूनी दास कहलाते थे, किन्तु अरस्तू ने यह दासता यूनानियों पर लागू नहीं की है। 

यूनान निवासी युद्ध में पराजित होने के बाद भी दास नहीं बनाये जा सकते, क्योंकि उनका जन्म शासन करने के लिये हुआ है। वैसे उसने कानूनी दासता को अमान्य ठहराया है।

दास प्रथा के सम्बन्ध में कुछ व्यवस्थाएँ

(1) समस्त दासों को अपने समक्ष स्वतन्त्रता प्राप्ति का अन्तिम उद्देश्य रखना चाहिये। 

(2) कानूनी दासता अनुचित है, क्योंकि इसका आधार गुण नहीं शक्तिहोती है। 

(3) दास प्रथा को वंशानुगत रूप नहीं दिया जाना चाहिये, क्योंकि दास की सन्तान गुणवान हो सकती है और स्वामी की गुणहीन। जो दास योग्य एवं बुद्धिमान सिद्ध हो उसे मुक्तकर देना चाहिये।

(4) उनके साथ उचित व्यवहार करना चाहिए और स्वामी को दासों को यह वचन देना चाहिए कि यदि वे अच्छा कार्य करेंगे तो उन्हें मुक्तकर दिया जायेगा।

(5) स्वामी दासों से केवल वही कार्य करवायें जो उनकी क्षमता के अन्तर्गत हों।

(6) स्वामी तथा दास के हित समान हैं। दास प्रथा का उद्देश्य दोनों ही का हित साधन है। अतएव स्वामियों को चाहिये कि वे अपने अधिकारों का दुरुपयोग न कर दासों के प्रति स्नेह तथा मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखें।

अरस्तू के दास प्रथा सम्बन्धी विचारों की आलोचना

(1) अरस्तू ने प्राकृतिक असमानता के आधार पर दास प्रथा का समर्थन किया है, किन्तु यह अनुचित है। बुद्धिमान व्यक्तिशारीरिक रूप से शक्तिशाली भी हो सकता है और बुद्धिमान दुर्बल। तब कौन मालिक होगा और कौन दास ?

(2) अरस्तू यह सिद्ध करने में सर्वथा असफल रहा है कि स्वामित्व प्राप्त करने का अधिकारी कौन है और दासत्व का कौन ? दूसरे शब्दों में, दासत्व और स्वामित्व के तत्त्वों को मापने के लिए वह कोई मापदण्ड प्रस्तुत नहीं कर सका और जब तक यह स्पष्ट न हो जाये कि दासता तथा स्वामित्व के तत्त्व किसमें है,

तब तक स्वामी और दास का निर्णय करना असम्भव होगा कि कौन किस प्रकार शासन करे, क्योंकि योग्यता और बुद्धिमत्ता की दृष्टि से सब व्यक्ति समान नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति योग्यता तथा बुद्धि में किसी से कम तथा किसी से अधिक होगा।

(3) अरस्तू एक ओर दासता को प्राकृतिक बताता है तथा दूसरी ओर उसी का कहना है कि दासता से मुक्ति भी मिल सकती है। अतः ये परस्पर विरोधी विचार हैं अरस्तू यह नहीं बताता कि जब किसी व्यक्ति को दास बनाकर इस संसार में उत्पन्न किया गया है फिर वह इस दासता से किस प्रकार मुक्ति पा सकता है

(4) रॉस का मत है कि “अरस्तू का मानव-जाति का विवेक और गुणों तथा शासक और शासित के आधार पर वर्गीकरण सर्वथा कृत्रिम तथा अस्वाभाविक है। शासित व्यक्ति वस्तुतः बुद्धि शून्य नहीं होते।”

(5) अरस्तू की दास प्रथा की धारणा आधुनिक स्वतन्त्रता एवं समानता के सिद्धान्त का भी विरोध करती है ।

(6) अरस्तू ने दास प्रथा सम्बन्धी व्यवस्थाओं में यह सुझाव दिया कि दास और मालिक के मध्य मित्रतापूर्ण सम्बन्ध होना आवश्यक है किन्तु यह बात उल्लेखनीय और सत्य है कि मित्रता समान स्थिति वाले व्यक्तियों में ही हो सकती है और फिर भी दास एवं स्वामी की मित्रता की स्थापना किसी प्रकार हो ही नहीं सकती।

(7) अरस्तू ने शारीरिक श्रम की अपेक्षा मानसिक एवं बौद्धिक श्रम को अधिक महत्त्व दिया, जबकि यूनान की आर्थिक व्यवस्था का महत्त्व शारीरिक श्रम था। 

(8) अरस्तू ने एक ओर तो दासों की तुलना पशुओं से की है और दूसरी ओर कहा है कि दासों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाना चाहिये। यह दोनों बातें ही परस्पर विरोधी हैं।

(9) अरस्तू ने कानूनी दासता से यूनानियों को मुक्त रखा है, यह धारणा कि यूनानी जाति केवल शासन करने के लिये उत्पन्न हुई है, निराधार है। प्रत्येक जाति यह दावा कर सकती है कि केवल वही शासन करने के लिए उत्पन्न हुई है। 

यदि विभिन्न देशों के नागरिकों के मध्य यह भावना बलवती हो उठे तो युद्धों की आँधी चल सकती है। 

(10) अरस्तू की इच्छा है कि दास अपने व्यक्तित्व को स्वामी के व्यक्तित्व में लीन कर दें, किन्तु मनोवैज्ञानिक आधार पर यह सर्वथा असम्भव है। प्रत्येक व्यक्तिकी अपनी कुछ अनुभूतियाँ होती हैं, कुछ इच्छाएँ और भावनाएँ होती हैं। 

अतः दास द्वारा अपने व्यक्तित्व का स्वामी के व्यक्तित्व से महत्त्वपूर्ण विलय सम्भव नहीं है। किन्ही विशेष परिस्थितियों के अन्तर्गत वह अपना शारीरिक समर्पण भले ही कर दे, लेकिन मानसिक स्तर से वह किसी के समक्ष अपना समर्पण नहीं कर सकता। 

(11) प्रकृति ने मानवीय एवं शारीरिक दृष्टिकोण से सभी को समान बनाया है। फिर मनुष्य ने प्रकृति के आधार पर स्वामी और दास रूप में समाज को किस प्रकार विभाजित किया । 

(12) दास प्रथा का समर्थन करके वह समानता और स्वतन्त्रता के मानवीय अधिकारों एवं सिद्धान्तों पर भीषण आघात करता है। 

अरस्तू की यह धारणा अत्यन्त अव्यावहारिक एवं अन्यायपूर्ण है कि जो व्यक्ति राज्य की प्राथमिक और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति प्रदत्त समस्त सुविधाओं से वंचित रखा जाये। , क्योंकि वह करते हैं उन्हें राज्य द्वारा 

(13) अरस्तू की दास प्रथा सम्बन्धी धारणा पूर्ण रूप से अवैज्ञानिक हैमनुष्यों के लिए पशुओं का उदाहरण देता है। अतः इस प्रकार की कोई भी प्रथा जिसके अन्तर्गत मनुष्यों को पशु-तुल्य समझा जाता हो, वो कभी वैज्ञानिक नहीं हो सकती। 

उसने दासों का जीवन पशु-तुल्य बताते हुये स्वामी के साथ उसके दायित्व का निरूपण किया है जोकि स्वयं अपने आप में विरोधात्मक है। 

निष्कर्ष 

इस प्रकार वर्तमान प्रजातान्त्रिक युग में अरस्तू के दास प्रथा सम्बन्धी विचार असंगत और अमानवीय अवश्य हैं, किन्तु जिस युग में और जिस समाज में रहते हुये उसने दास प्रथा का समर्थन किया था, वह उचित था।

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