कार्ल मार्क्स के आर्थिक विकास सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए

आर्थिक विकास सिद्धांत मार्क्स की विचारधारा के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की भाँति ही 'इतिहास की आर्थिक व्याख्या' या 'आर्थिक नियतिवाद' का सिद्धान्त भी महत्त्वपूर्ण है। 

वास्तव में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त को सामयिक विकास के सम्बन्ध में प्रयुक्त करना इतिहास की आर्थिक व्याख्या है। मार्क्स उन इतिहासकारों से सहमत नहीं है जिन्होंने इतिहास को कुछ विशेष और महान् व्यक्तियों के कार्यों का परिणाम मात्र समझा है। 

मार्क्स के विचार में इतिहास की सभी घटनाएँ आर्थिक अवस्था में होने वाले परिवर्तनों का परिणाम मात्र हैं और किसी भी राजनीतिक संगठन अथवा उसकी न्याय व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसके आर्थिक ढाँचे का ज्ञान नितान्त आवश्यक है।

मानवीय क्रियाएँ नैतिकता, धर्म या राष्ट्रीयता से नहीं, वरन् केवल आर्थिक तत्वों से प्रभावित होती हैं। स्वयं मार्क्स के शब्दों में, "सभी सामाजिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक सम्बन्ध, सभी धार्मिक तथा कानूनी पद्धतियाँ, सभी बौद्धिक दृष्टिकोण जो इतिहास के विकास क्रम में जन्म लेते हैं, वे सब जीवन की भौतिक अवस्थाओं से उत्पन्न होते हैं । " -

अपने विचार - क्रम को स्पष्ट करते हुए मार्क्स कहता है कि उत्पत्ति के सिद्धान्त का निरन्तर विकास होता रहता है। वे गतिमान और परिवर्तनशील हैं और उनकी परिवर्तनशीलता का ही यह परिणाम होता है कि हमारे जीवनयापन के ढंग में परिवर्तन होता रहता है। 

मार्क्स ने अपनी इस आर्थिक व्याख्या के आधार पर अब तक की और भावी मानवीय इतिहास की 6 अवस्थाएँ बतायी हैं। इनमें से प्रथम चार अवस्थाओं से समाज गुजर चुका है और शेष दो अवस्थाएँ अब आनी हैं। मानवीय इतिहास की ये 6 अवस्थाएँ निम्न प्रकार हैं - 

आदिम साम्यवादी अवस्था - सामाजिक विकास की इस पहली अवस्था में उत्पादन के तरीके बहुत सरल थे। पत्थर के औजार और धनुष-बाण उत्पादन के मुख्य साधन थे और शिकार करना, मछली मारना तथा वनों से कन्द-मूल एकत्रित करना उनका मुख्य व्यवसाय था। 

भोजन प्राप्त करने और जंगली जानवरों से अपनी रक्षा करने के लिए सामूहिक शक्ति जरूरी भी थी। इसलिए मनुष्य झुण्ड बनाकर साथ-साथ रहते थे । इस अवस्था में उत्पादन के साधन समस्त समाज की सामूहिक सम्पत्ति हुआ करते थे। 

इस अवस्था में न निजी सम्पत्ति थी, न विवाह प्रथा और न परिवार। सब समान थे, कोई किसी का शोषण करने की स्थिति में नहीं था, इसलिए मार्क्स के द्वारा इसे 'साम्यवादी अवस्था' कहा गया है।

दास अवस्था - धीरे-धीरे भौतिक परिस्थिति में परिवर्तन हुआ। अब व्यक्ति खेती और पशु-पालन करने लगे और दस्तकारियों का उदय हुआ। इससे समाज में निजी सम्पत्ति के विचार का उदय हुआ और श्रम विभाजन भी उठ खड़ा हुआ। 

जिन व्यक्तियों के द्वारा उत्पादनों के साधनों पर अधिकार कर लिया गया, वे दूसरे व्यक्तियों को अपना दास बनाकर उनसे बलपूर्वक काम कराने लगे।

इस प्रकार आदिम समाज की स्वतन्त्रता और समानता समाप्त हो गयी, समाज स्वामी और दास के दो अलग-अलग वर्गों में विभाजित हो गया और शोषण प्रारम्भ हुआ। आर्थिक क्षेत्र में, इस अवस्था के अनुरूप ही राजनीतिक संगठन स्थापित हुए और दर्शन तथा साहित्य की रचना हुई।

सामन्ती अवस्था - अब उत्पादन के साधनों में और उन्नति हुई। लोहे के हल और करघे आदि का चलन हुआ और कृषि, बागवानी तथा कपड़ा बनाने के उद्योगों का विकास हुआ । उत्पादन के इन साधनों के सफल प्रयोग के लिए जरूरी था कि श्रमिक अपना कार्य रुचि और योग्यता के साथ करें, अतः दास प्रथा के स्थान पर नवीन प्रकार के उत्पादन सम्बन्ध कायम हुए, जो सामन्ती व्यवस्था के नाम से जाने जाते हैं। 

इस सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्गत सामन्त समस्त भूमि आदि उत्पादन साधनों के स्वामी होते थे, किन्तु भूमि पर खेती और दस्तकारियों का कार्य किसान और श्रमिक करते थे। 

किसानों पर सामन्तों का नियन्त्रण दास प्रथा की तुलना में अपेक्षाकृत कम था, किन्तु इस अवस्था में भी शोषण इतना ही भयंकर था, जितना कि दास अवस्था में । इस अवस्था में शोषकों और शोषितों का संघर्ष निरन्तर चलता रहा।

पूँजीवादी अवस्था – अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में औद्योगिक क्रान्ति हुई, जिसने उत्पादन के साधनों में अमूल्य परिवर्तन कर दिया। इस अवस्था में पूँजीपति उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है, लेकिन वस्तुओं के उत्पादन का कार्य श्रमिकों द्वारा किया जाता है। 

वस्तुओं का उत्पादन बहुत बड़े पैमाने पर किया जाता है और श्रमिक इस अर्थ में तो स्वतन्त्र होते हैं कि पूँजीपति उन्हें बेच और खरीद नहीं सकते। किन्तु श्रमिकों के पास उत्पादन न होने के कारण उनकी वास्तविक स्थिति दासों से अच्छी नहीं होती और वे पूँजीपतियों के भयंकर शोषण के शिकार होते हैं। 

इस शोषण के परिणामस्वरूप दो वर्गों (बुर्जुआ शोषक वर्ग और सर्वहारा शोषित वर्ग) के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जो अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर पूँजीवाद को समाप्त कर देती है। मार्क्स का कथन है कि पूँजीवादी युग के उत्पादन सम्बन्धों के अनुरूप ही इस युग की राजनीतिक व्यवस्था, नैतिकता, कला, साहित्य और दर्शन होता है ।

श्रमिक वर्ग के अधिनायकत्व की अवस्था - मार्क्स का विचार है कि पूंजीवादी अवस्था में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार प्रतिक्रिया होगी और उसके परिणामस्वरूप ऐतिहासिक विकास की पाँचवीं अवस्था (श्रमिक वर्ग के अधिनायकत्व की अवस्था आएगी। 

इस युग में श्रमिक वर्ग उत्पादन के समस्त साधनों पर अधिकार करके पूँजीवाद का अन्त कर देगा और श्रमिक वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित हो जाएगा। 

पूर्व अवस्थाओं और इस अवस्था में अंन्तर केवल यह होगा कि दास अवस्था, सामन्तवादी अवस्था और पूँजीवादी अवस्था में तो अल्पमत वर्ग ( उत्पादन साधनों का स्वामी वर्ग) बहुमत वाले श्रमिक वर्ग का शोषण करता है, लेकिन इस अवस्था में बहुमत श्रमिक वर्ग के द्वारा पूँजीवादी वर्ग के अवशेष तत्वों के विरुद्ध राज्य शक्ति का प्रयोग करके उसे पूर्णतया समाप्त कर दिया जाएगा।

साम्यवादी अवस्था - पूँजीवादी तत्वों के पूर्ण विनाश के पश्चात् मानवीय इतिहास की अन्तिम अवस्था (साम्यवादी अवस्था या राज्यविहीन और वर्गविहीन समाज की अवस्था) आएगी। मार्क्स द्वारा इस साम्यवादी अवस्था को विस्तार के साथ चित्रण न कर, उसके केवल दो लक्षण बताए गए हैं। 

प्रथमतः, यह समाज राज्यविहीन और वर्गविहीन होगा। इसके अन्तर्गत शोषक और शोषित इस प्रकार के दो वर्ग नहीं वरन् केवल एक वर्ग श्रमिकों का वर्ग होगा। राज्य एक वर्गीय संस्था है। अतः वर्गविहीन समाज में राज्य स्वतः ही लुप्त हो जाएगा। 

द्वितीयतः, इस समाज के अन्दर वितरण का सिद्धान्त होगा, “प्रत्येक अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करे और उसे आवश्यकता के अनुसार प्राप्ति हो । ” 

इतिहास की आर्थिक व्याख्या के निष्कर्ष मार्क्स द्वारा इतिहास की जो आर्थिक व्याख्या की गयी है, उसके प्रमुख निष्कर्ष निम्न प्रकार हैं

(1) सामाजिक जीवन के परिवर्तन ईश्वर की इच्छा अथवा महापुरुषों के विचारों और कार्यों के परिणाम नहीं होते और न वे संयोगवश होते हैं। वे सामाजिक विकास के निश्चित नियम हैं।

(2) प्रत्येक युग की समस्त सामाजिक अवस्था पर उसी वर्ग का आधिपत्य होता है, जिसे उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व प्राप्त हो।

(3) समस्त सामाजिक व्यवस्था उत्पादन स्थिति और उत्पादन के साधनों पर निर्भर करती है। उत्पादन स्थिति में परिवर्तन हो जाने पर विद्यमान राज्य शोषक वर्ग की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाता और इसलिए राज्य की प्रकृति में ही परिवर्तन हो जाता है।

(4) वर्ग-संघर्ष मानवीय इतिहास की कुंजी है और दास युग से लेकर श्रमिक वर्ग के अधिनायकत्व तक वर्ग-संघर्ष ने सामाजिक व्यवस्थाओं को परिवर्तित करने का कार्य किया है, लेकिन साम्यवादी युग में वर्गविहीन समाज की स्थापना से वर्ग संघर्ष की यह प्रक्रिया समाप्त हो जाती है ।

(5) मार्क्स अपनी इतिहास की आर्थिक अवस्था के आधार पर पूँजीवाद के अन्त और साम्यवाद के आगमन की अवश्यम्भावना व्यक्त करता है ।

इतिहास की आर्थिक व्याख्या की आलोचना - इसकी प्रमुख आलोचनाएँ निम्न प्रकार की जाती हैं

(1) आर्थिक तत्व पर अत्यधिक और अनावश्यक बल - आलोचकों के अनुसार मार्क्स ने समाज के राजनीतिक, सामाजिक और वैधानिक ढाँचे में आर्थिक तत्व को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया है। 

यह सत्य है कि वर्तमान समय में आर्थिक तत्व अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है, लेकिन ऐसा होते हुए भी सामाजिक व्यवस्था केवल आर्थिक तत्व पर ही आधारित नहीं होती है। 

आर्थिक तत्व के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में अन्य तत्वों के द्वारा भी कार्य किया जाता है और सामाजिक जीवन को निर्धारित करने वाले इन दूसरे तत्वों में भौगोलिक तत्व, सामाजिक वातावरण, मानवीय विचारों और अनुभूतियों का नाम लिया जा सकता है। 

प्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रेण्ड रसैल के शब्दों में, “राजनीतिक जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ भौतिक स्थितियों और मानवीय भावनाओं की पारस्परिक क्रिया से निर्धारित होती हैं।"

(2) आर्थिक आधार पर सभी ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या सम्भव नहीं - प्रत्येक ऐतिहासिक घटना का आधार आर्थिक तत्व नहीं माना जा सकता और यह कहना उचित नहीं है कि प्रत्येक ऐतिहासिक संघर्ष उत्पादन तथा वितरण की व्यवस्था का परिणाम होता है। 

सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध का कारण आर्थिक साम्राज्यवाद अवश्य था, किन्तु इसमें राष्ट्रीय विचारों का संघर्ष भी कम महत्वपूर्ण नहीं था। 

महाभारत का युद्ध आर्थिक तत्वों का परिणाम नहीं वरन् इसका मूल कारण द्रौपदी के वे व्यंग्यात्मक शब्द ही थे कि, “अन्धों का पुत्र एक सफेद चिकने संगमरमर के फर्श तथा पानी के गड्डे में कोई अन्तर नहीं कर पाता।" 

इसी प्रकार गौतम बुद्ध के संन्यास, मराठों के पतन, भारत के विभाजन, अरब-इजरायल युद्ध, मेवाड़ के युद्ध तथा पद्मिनी के जौहर और गुरु गोविन्दसिंह के दोनों बच्चों को दीवार में जिन्दा चुने जाने, आदि घटनाओं की आर्थिक व्याख्या नहीं की जा सकती। क्रिस्टोफर लॉयड के मतानुसार, "इतिहास की आर्थिक

व्याख्या रोम के पतन और अभी-अभी हुए युद्धों के विस्फोट को नहीं समझ सकती। यह इतनी यान्त्रिक है कि मनोवैज्ञानिक आन्दोलनों तथा राष्ट्रीयता के विकास को नहीं समझा सकती। यह इतनी भौतिकवादी है कि इससे मस्तिष्क पर आदर्शों के प्रभाव को नहीं समझा जा सकता।”

(3) इतिहास के निर्धारण में संयोग के तत्व की उपेक्षा-मार्क्स द्वारा प्रस्तुत इतिहास की आर्थिक व्याख्या में संयोग के तत्व को भुला दिया गया है जो मानवीय इतिहास के निर्धारण में सदैव ही एक मूल तत्व रहा है। 

यदि 1768 में कोर्सिका, जहाँ पर नेपोलियन महान् उत्पन्न हुआ था, फ्रांस के साथ न मिलाया गया होता, तो नेपोलियन इटली का नागरिक होता और न केवल फ्रांस वरन् समस्त यूरोप का इतिहास ही दूसरा होता । 

यदि 1917 में जर्मन सरकार ने लेनिन को रूस जाने की आज्ञा न दी होती, तो रूसी क्रान्ति का रूप कुछ और ही होता। यदि इंग्लैण्ड की रानी एलिजाबेथ प्रथम ने विवाह किया होता और उसके सन्तान हुई होती, तो इंग्लैण्ड और स्काटलैण्ड का एकीकरण नहीं हो सकता था। 

ब्रिटिश शासन व्यवस्था में पार्लियामेण्ट और केबिनेट जैसे महत्त्वपूर्ण संस्थाओं का विकास संयोग का ही परिणाम रहा है। संयोग के तत्व की उपेक्षा के कारण मार्क्स की व्याख्या को उचित नहीं कहा जा सकता है ।

(4) मानवीय इतिहास के कालक्रम का निर्धारण सम्भव नहीं - मार्क्स के द्वारा अपनी आर्थिक व्याख्या के अन्तर्गत इतिहास का काल-विभाजन कर दिया गया है । उसके अनुसार यह काल - विभाजन दास - युग, सामन्तवादी युग, पूँजीवादी - युग, सर्वहारा का अधिनायकत्व और फिर साम्यवादी युग - इस क्रम में है। 

इस प्रकार सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व पूँजीवाद के पूर्ण विकास के बाद आना चाहिए, किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं हुआ है। 1917 के पूर्व जार का रूस एक पूँजीवादी राज्य नहीं, वरन् पूर्णतया एक कृषि प्रधान राज्य था। इसी प्रकार चीन भी सर्वहारा क्रान्ति के पूर्व औद्योगिक दृष्टि से कोई विकसित देश नहीं था ।

(5) राजनीतिक सत्ता का एकमात्र आधार आर्थिक सत्ता नहीं है - मार्क्स का यह कथन भी सत्य नहीं है कि राजनीतिक सत्ता का उपभोग वही करता है जिसके पास आर्थिक सत्ता होती है। इतिहास से यह बात स्पष्ट है कि शक्ति प्रदान करने का एकमात्र साधन आर्थिक नहीं होता। 

जहाँ प्राचीनकाल में भारत में ब्राह्मणों और मध्यकालीन यूरोप में पोप ने धार्मिक कारणों से शक्ति प्राप्त की थी, वहाँ वर्तमान युग में अधिनायकवाद की स्थापना मुख्यतया सैन्य शक्ति के आधार पर होती है। बुद्धिमत्ता, साहस, कपट आदि तत्व भी सत्ता प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। 

वैपर के अनुसार, "मार्क्स की रचनाओं में कहीं भी इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया गया है कि मनुष्य अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान के तुष्टिकरण के लिए शक्ति की कामना करते हैं। 

(6) आर्थिक सम्बन्धों को राजनीतिक शक्ति द्वारा बदला जा सकता है-मार्क्स के द्वारा इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि आर्थिक प्रणाली ही सदैव राजनीतिक और सामाजिक जीवन के सिद्धान्तों को जन्म देती है। लेकिन व्यवहार में अनेक बार इसके विपरीत बात देखी गयी है कि राजनीतिक सिद्धान्त आर्थिक प्रणाली को जन्म देते हैं। 

उदाहरण के लिए 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में औद्योगिक क्रान्ति के बाद इंग्लैण्ड में 'यद्भाव्यम नीति' या व्यक्तिवादी विचारधारा का प्रतिपादन हुआ और इससे आर्थिक क्षेत्र में स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था को जन्म मिला। इसी प्रकार 1917 की क्रान्ति के बाद सोवियत संघ में साम्यवादी दर्शन के प्रभाव से नियन्त्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया।

आज भी इंग्लैण्ड और भारत जैसे प्रजातान्त्रिक देशों के अन्तर्गत एक राजनीतिक दल के स्थान पर दूसरे राजनीतिक दल द्वारा सत्ता प्रदान करने से आर्थिक प्रणाली में थोड़े बहुत परिवर्तन होते ही हैं। वास्तव में, राजनीतिक शक्ति द्वारा आर्थिक सम्बन्धों को बदला जा सकता है। 

इसका प्रमाण यह है कि आर्थिक विकास की दृष्टि से अमरीका और सोवियत रूस समान स्तर पर रहे हैं, किन्तु राजनीतिक विचारधारा में भेद होने के कारण दोनों की व्यवस्था मूलतः भिन्न रहे हैं।

(7) इतिहास की धारा का राज्यविहीन समाज पर आकर रुकना सम्भव नहीं-मार्क्स का विचार है कि इतिहास का विकास-क्रम राज्यविहीन समाज पर आकर रुक जाएगा। परन्तु प्रश्न है कि समाज की अन्तिम अवस्था साम्यवादी युग में क्या पदार्थ का अन्तर्निहित गुण 'गतिशीलता' समाप्त हो जाएगा। 

यदि गतिशीलता पदार्थ का स्वाभाविक गुण है तो उसमें उस समय भी परिवर्तन होगा, उत्पादन के साधन बदलेंगे। सामाजिक परिस्थितियाँ बदलेंगी, वर्गविहीन समाज का प्रतिवाद उत्पन्न होगा और फिर साम्यवाद समाप्त हो जाएगा। 

सत्य यह कि मार्क्स ने विश्व इतिहास का सीमित अध्ययन किया तथा सिद्धान्त निर्धारण में अनावश्यक जल्दबाजी की, अतः उसका सिद्धान्त अनेक दोषों से पूर्ण हो गया ।

महत्त्व - इतिहास की आर्थिक अवस्था की जहाँ एक ओर विविध आधारों पर आलोचना की जाती है, वहाँ उसमें सत्य का भी एक महत्त्वपूर्ण अंश है। मार्क्स ने अपनी इस धारणा के आधार पर इतिहास के आधार को व्यापक करने का कार्य किया है । 

यद्यपि आज आर्थिक तत्व को इतिहास का एकमात्र निरर्थक तत्व नहीं माना जा सकता, लेकिन इसके साथ ही आज सभी पक्षों द्वारा इस बात को स्वीकार कर लिया गया है कि आर्थिक तत्वों की उपेक्षा करके इतिहास का अध्ययन नहीं किया जा सकता । वस्तुतः इतिहास की आर्थिक व्याख्या समाजशास्त्रों को मार्क्स की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण देन है। केयू हण्ट  के शब्दों में, "समाजशास्त्रों के सभी आधुनिक लेखक मार्क्स के प्रति ऋणी हैं यद्यपि वे इसे स्वीकार नहीं करते।

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