न्यायपालिका से आप क्या समझते हैं - nyaayapaalika se aap kya samajhate hain

न्यायालय या न्यायतन्त्र का सम्बन्ध जिन विधियों से होता है वे अपराधी और अपराध से सम्बन्धित युक्त होती हैं। न्यायालय प्राथमिक रूप से अपराध के प्रति समाज की दण्डात्मक प्रतिक्रिया को लागू करने के लिए संगठित किए जाते हैं। 

अधिकांश न्यायालयों का औपचारिक संगठन न्यायालयीन अधिकारियों और कर्मचारियों को कुछ सीमा में अपने विचार और विवेक से निर्णय करने की स्वतन्त्रता तथा अधिकार प्रदान करता है। 

वास्तविकता यह है कि अपराधी व्यक्तियों को दण्डित करना और सभी अपराधी व्यक्तियों के लिए दण्ड देने की धमकी या दण्ड का भय उनके अधिकार में सदैव विद्यमान रहता है। अभी हाल के वर्षों में आपराधिक न्यायालयों द्वारा गैर-दण्डात्मक उपचारात्मक विधियों का प्रयोग करने के लिए व्यवस्था की गई है। 

लेकिन इसके अन्तर्गत भी किसी-न-किसी रूप में दण्ड देने का भय छिपा हुआ होता है। वर्तमान समय में अपराध एवं अपराधियों के प्रति उपचारात्मक प्रतिक्रिया अत्यधिक लोक-कल्याणकारी सिद्ध हो गई है। 

आज न्यायालयों से यह अपेक्षा की जाती है कि वैधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत ही अपराधियों के सम्बन्ध में उचित निर्णय देंगे । वास्तविकता यह है कि न्यायालयों के अधिकारी एवं कर्मचारी और उनसे सम्बन्धित एजेन्सी मनुष्यों के ऐसे समूह हैं। 

जो वैधानिक परिसीमाओं के अन्तर्गत उन अपराधियों को समझने और चुनने में तल्लीन रहते हैं जिन्हें वे दण्ड देना उपयुक्त समझते हैं। लॉर्ड ब्राइस का कथन है कि किसी शासन की श्रेष्ठता परखने के लिए उसकी न्यायिक व्यवस्था की निपुणता से बढ़कर कोई अन्य श्रेष्ठ कसौटी नहीं है।  

क्योंकि और किसी वस्तु से नागरिक की सुरक्षा व हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना उसके इस ज्ञान से कि वह एक निश्चित शीघ्र और निष्पक्ष न्यायिक प्रशासन पर निर्भर रह सकता है।

भारतीय दण्ड न्यायालय का गठन

भारत में वर्तमान समय में सम्पूर्ण देश के लिए धर्म, जाति, लिंग तथा क्षेत्र आदि से परे होकर बिना भेद-भाव के एक समान आपराधिक न्यायालयों की समुचित व्यवस्था की गई है जो भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता के अनुकूल है। सम्पूर्ण भारत में न्यायालयों का गठन निम्न प्रकार किया गया है

(1) सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय - इस न्यायालय की संघीय न्यायालय भी कहते हैं। यह याचिका दायर करने की और अपील करने की अन्तिम न्यायालय होता है। भारत के उच्चतम न्यायालय का गठन 26 जनवरी, 1950 को हुआ था। यह भारतीय संगठन में न्यायालय का अन्तिम न्यायालय है तथा दिल्ली में स्थित है।

सर्वोच्च न्यायालय को आपराधिक मामलों में मात्र अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं। इस अधिकार के अन्तर्गत उच्च न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय निश्चित स्थितियों में अपील की सुनवाई करता है।

(2) उच्च न्यायालय - भारतीय संविधान के अनुच्छेद 214 के अनुसार, प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय  की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 225 के अनुसार, प्रारम्भिक एवं अपील सुनने के अधिकार प्राप्त है। 

फौजदारी मुकदमे में सेशन कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध, प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट के निर्णय के विरुद्ध, सत्र न्यायालय द्वारा किसी अभियुक्त को मृत्यु दण्ड देने के विरुद्ध और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124 'क' के अन्तर्गत किसी जिला न्यायाधीश के निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार होता है। 

(3) अधीनस्थ न्यायालय  - भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 6 के अनुसार, भारतवर्ष में उच्च न्यायालय के अतिरिक्त प्रत्येक राज्य में अधीनस्थ दण्ड न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान किया गया है जो निम्न प्रकार हैं

  • सत्र न्यायालय।
  • प्रथम श्रेणी के न्यायिक दण्डाधिकारी और महानगरीय दण्डाधिकारी। 
  • द्वितीय श्रेणी के न्यायिक दण्डाधिकारी। 
  • कार्यकारी दण्डाधिकारी।

उपर्युक्त प्रकार के दण्ड न्यायालयों में उनके क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित अपराधी प्रकरणों को पुलिस द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। इसके पश्चात् इन न्यायालयों में प्रकरण की सुनवाई की जाती है अपराध सिद्ध हो जाने पर अपराधी को दण्ड प्रक्रिया संहिता के अनुसार स्वयं के विवेक के आधार पर न्यायाधीश द्वारा दण्ड दिया जाता है।

उपर्युक्त न्यायालयों के अतिरिक्त भारत में किशोर न्यायालय की स्थापना भी की गई है जिससे कि किशोर या बाल अपराधियों को दोषसिद्ध करने के पश्चात् वयस्क अपराधियों के साथ न रखा जाए इसके लिए सुधारगृहों की स्थापना की गई है। सुधार न्यायालय से दण्डित होने के पश्चात् किशोरों को विभिन्न सुधारगृहों में सुधारने के लिए भेज दिया जाता है।

न्यायालयों की विशेषताएँ

सामान्यतः न्यायालयों का कार्य न्याय देने का होता है। भारत में न्यायाधीश की स्थिति ईश्वर के बाद की समझी जाती है। न्यायालयों की कुछ अपनी विशिष्टताएँ होती हैं जिन्हें हम निम्नलिखित प्रकार से समझ सकते हैं -

(1) न्यायालयों की कार्यवाही न्यायिक निर्णय करने की होती है जो सबके समक्ष खुले रूप में सम्पन्न की जाती है।

(2) न्यायालयों में न्यायिक प्रक्रिया अत्यन्त औपचारिक होती है।

(3) न्यायालयों में मुकदमे की कार्यवाही दो पक्षों के बीच होती है जिन्हें वादी और प्रतिवादी के रूप में जाना जाता है। प्रत्येक पक्ष को अपना साक्ष्य प्रकट करने के लिए न्यायालयों द्वारा पर्याप्त अवसर दिया जाता है।

(4) अपराधी के बारे में पूर्ण जानकारी तथा उससे सम्बन्धित प्रलेख न्यायालय में पुलिस को प्रस्तुत करना होता है जिनका प्रत्येक निर्णय पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है।

(5) न्यायालयों में दोनों वादी और प्रतिवादी की ओर से वाद के सम्बन्ध में बहस करने और समझाने के लिए वकीलों को माध्यम बनाने के लिए अनुमति होती है।

(6) अपराधी न्यायालय में पुलिस व्यवस्था के नियन्त्रण में रहता है।

(7) अपराधी को पुलिस के नियन्त्रण में हथकड़ी पहनाकर ही न्यायालय प्रस्तुत किया जाता है।

(8) न्यायालयों की कार्यवाही का उद्देश्य अपराधियों को दण्डित करना होता है।

(9) न्यायालयों द्वारा अपराधी को तभी दण्ड दिया जाता है। जबकि उसके द्वारा किया कृत्य असामाजिक हो और कानून द्वारा निषिद्ध हो तथा दण्डनीय हो।

(10) न्यायालय द्वारा जो निर्णय दिए जाते हैं वह संवैधानिक, कानूनी पुस्तकों के आधार पर जूरी के सहयोग से दिए जाते हैं।

(11) न्यायाधीश कानून का विशेषज्ञ होता है। उसके निर्णय करते समय उसे अपने विवेक का उपयोग करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है।

(12) अपराधी की अपेक्षा न्यायालय द्वारा जो निर्णय दिया जाता है वह अपराध की प्रकृति, प्रकार व स्वरूप पर आधारित होता है।

(13) न्यायालयों की कार्यवाही का उद्देश्य यह निश्चित करना होता है कि अपराधी पर या अभियुक्त पर जो अभियोग लगाया है वह सत्य अथवा झूठा है। कपोल कल्पित / सत्य होने की दशा में ही न्यायालयों द्वारा दण्ड दिया जाता है।

(14) बाल - न्यायालयों की अपनी यह विशेषता होती है कि वे किशोर अपराधियों द्वारा किए गए अपराधी व्यवहार से सम्बन्धित वादों और अभियोग की सुनवाई करते हैं।

(15) बाल न्यायालयों द्वारा बाल अपराधियों को कारावास का दण्ड नहीं दिया जाता बल्कि उन्हें सुधारगृह, रिमाण्ड होम, प्रतिप्रेक्षणगृह आदि में सुधार के लिए भेजा जाता है जहाँ बाल-अपराधियों को पूर्णतः सुधारने का अवसर दिया जाता है।

न्यायालयों के प्रमुख कार्य

न्यायालयों का कार्य पुलिस के द्वारा अभियुक्त को प्रस्तुत करने के बाद प्रारम्भ होता है अथवा कोई 'वाद' जनता द्वारा किसी के विरुद्ध प्रस्तुत किया जाता है तो न्यायालयों में सुनवाई की जाती है। दण्ड न्यायालय के कार्य का प्रथम चरण गिरफ्तारी से प्रारम्भ होता है। 

पुलिस के द्वारा जनता की शिकायत करने पर अपराध या अपराधी कार्य और व्यवहार करने वाले अथवा समाज-विरोधी कार्य और व्यवहार करने वाले व्यक्ति को पुलिस द्वारा पकड़ा जाता है। उसे गिरफ्तार किया जाता है। 

तत्पश्चात् उसके द्वारा किए गए कृत्यों की छानबीन करने के पश्चात् यदि पुलिस की निगाह में वह अपराधी होता है या अपराध का पूर्ण अंदेशा होता है तो पुलिस द्वारा उस व्यक्ति को अभियुक्त के रूप में न्यायालय के समक्ष विचार करने और न्याय देने के लिए प्रस्तुत किया जाता है। इसी प्रथम चरण से न्यायालय का कार्य प्रारम्भ होता है जो निम्नलिखित हैं -

(1) अपराधी को दण्डित करना - अपराधी को दण्डित करने के लिए न्यायालयों द्वारा अपराधी से सम्बन्धित पक्ष-विपक्ष के तर्कों को सर्वप्रथम सुना जाता है। तत्पश्चात् ही कोई निर्णय लिया जाता है। 

(2) पूर्ण न्याय प्रदान करना - न्यायालयों में न्याय प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति को पूर्णन्याय प्रदान करना तथा यह प्रयत्न करना कि निर्दोष व्यक्ति को दण्ड न प्राप्त हो सके। ऐसे दृष्टिकोण से अपराधी को अपने बचाव के लिए न्यायालयों द्वारा पूर्ण अवसर प्रदान किया जाता है। 

(3) क्षतिपूर्ति दिलाना - न्यायालय द्वारा क्षतिपूर्ति दिलाने का भी प्रमुख कार्य किया जाता है। अपराधी द्वारा किए गए अपराध के कारण जो व्यक्ति को और जिस व्यक्ति को क्षति हुई है उसको पूर्ति कराने का कार्य न्यायालय द्वारा किया जाता है।

(4) शान्ति और व्यवस्था - शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखने में भी न्यायालय द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण कार्य किया जाता है। अपराधियों को दण्ड दिए जाने का अप्रत्यक्ष परिणाम यह होता है कि जनसाधारण में दण्ड से भयभीत होकर लोग शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखने में सहयोग देते हैं। 

अतएव समाज में शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखने में पुलिस के साथ ही न्यायालयों की भी अप्रत्यक्ष भूमिका होती है।

(5) व्यक्तिस्वतन्त्र्य एवं अधिकारों की रक्षा - व्यक्तियों की स्वतन्त्रता में दो तरह की बाधा उपस्थित हो सकती है- अन्य व्यक्तियों द्वारा या राज्य द्वारा। न्याय विभाग इन दोनों ही बाधाओं को दूर करते हुए व्यक्तियों की स्वतन्त्रता और अधिकारों की रक्षा करता है। 

यदि एक शक्तिशाली व्यक्ति किसी दूसरे की स्वतन्त्रता को नष्ट करने का प्रयत्न करता है तो पीड़ित पक्ष न्यायालय की शरण लेकर शक्तिशाली व्यक्ति को ऐसा कार्य करने से रोक सकता है और उसके द्वारा किये गये अनुचित कार्यों के लिए दण्ड दिलवा सकता है। 

वर्तमान समय की प्रवृत्ति यह है कि व्यक्ति और राज्य के सम्बन्धों को संविधान द्वारा ही मर्यादित कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका या किन्हीं पदाधिकारियों द्वारा संवैधानिक या कानूनी मर्यादा भंग करने पर व्यक्ति न्यायालय की शरण लेकर उनको ऐसा कार्य करने से रोक सकता है। इस प्रकार न्याय विभाग व्यक्तियों की स्वतन्त्रता और अधिकारों की रक्षा का कार्य करता है।

(6) संविधान के रक्षण का कार्य - न्याय विभाग संविधान की पवित्रता तथा उसमें प्रतिपादित व्यवस्था की रक्षा का कार्य भी करता है। वर्तमान समय में अधिकांश राज्यों के संविधान कठोर हैं। 

उनमें साधारण कानून और संवैधानिक कानून में अन्तर किया जाता है और संविधान द्वारा व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका की शक्तियों को सीमित कर दिया जाता है। 

ऐसी स्थिति में यदि व्यवस्थापिका या कार्यपालिका संविधान के प्रतिकूल कार्य करती है तो न्यायपालिका इस प्रकार के कानूनों या कार्यों को असंवैधानिक घोषित करते हुए संविधान की रक्षा का कार्य करती । 

संघात्मक राज्य में तो संविधान द्वारा ही केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों के बीच शक्ति का विभाजन भी किया जाता है और न्यायपालिका इस बात का ध्यान रखती है कि केन्द्रीय सरकार या सरकारें संविधान द्वारा किये गये इस शक्ति-विभाजन के विरुद्ध कोई कार्य न करें।

(7) परामर्श सम्बन्धी कार्य - अनेक देशों में इस प्रकार की व्यवस्था होती है कि न्यायपालिका निर्णय देने के साथ-साथ कानूनी प्रश्नों पर परामर्श देने का कार्य भी करती है, यदि व्यवस्थापिका या कार्यपालिका द्वारा इस प्रकार का परमर्श मांगा जाय । 

उदाहरणार्थ, इंग्लैण्ड में प्रिवी कौंसिल की न्यायिक समिति से सरकार प्रायः वैधानिक और कानूनी प्रश्नों पर परामर्श लेती है। कनाडा में सर्वोच्च न्यायालय का एक कार्य यह है कि वह गर्वनर जनरल को कानूनी परामर्श दे। आस्ट्रेलिया, पनामा, बल्गारिया, स्वीडन, भारत, आदि देशों में भी इस प्रकार की व्यवस्था है।

(8) घोषणात्मक निर्णय प्रदान करना - कभी-कभी जाने या अनजाने में व्यवस्थापिका ऐसे काननों का निर्माण कर देती है जो अस्पष्ट या पूर्व निर्धारित कानूनों के विरुद्ध होते हैं। न्यायालयों को ऐसे कानूनों के सम्बन्ध में घोषणात्मक निर्णय देने का अधिकार होता है। 

अनेक राज्यों में इस प्रकार की भी व्यवस्था है कि बिना किसी प्रकार के विशेष मुकदमे के ही व्यक्ति. कानूनों का स्पष्टीकरण या उनके औचित्य एवं अनौचित्य के सम्बन्ध में निर्णय माँग सकते हैं। न्यायालयों द्वारा दिये गये इस प्रकार के निर्णय भी घोषणात्मक निर्णयों के अन्तर्गत आते हैं।

(9) लेख जारी करना - सामान्य नागरिकों या सरकारी अधिकारियों के द्वारा जब अनुचित या अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर कोई कार्य किया जाता है। तो न्यायालय उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए विविध प्रकार के लेख जारी करता है इस प्रकार के लेखों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश और प्रतिषेध का लेख प्रमुख है।

उपर्युक्त प्रकार से न्यायालयों द्वारा अपराध और अपराधियों को नियन्त्रण, नियन्त्रित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया जाता है।

न्यायपालिका की भूमिका

न्यायतन्त्र अथवा न्यायालयों की आज शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखने में तथा अपराधों के नियन्त्रण में एवं अपराधियों को दण्डित करने, बाल अपराधियों को सुधारने को अवसर प्रदान करने तथा निर्दोष व्यक्तियों को दण्ड से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 

पुलिस का कार्य होता है कि कानून के विपरीत कार्य करने वाले एवं संदिग्ध व्यक्तियों को पकड़कर आवश्यक जाँच और छानबीन करने के पश्चात् न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना है और न्यायालय पुलिस द्वारा प्रस्तुत किए गए।  

अपराधियों के अपराधों के सम्बन्ध में न्यायिक जाँच सुनवाई द्वारा करता है तथा दोषी पाए जाने पर अपराधी को दण्डित करता है तथा निर्दोष होने पर उसे बाइज्जत बरी करता है। न्यायालय में न्यायाधीश का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण और गरिमामय होता है तथा उसके द्वारा दिए गए निर्णय न्यायालय का आदेश माना जाता है।  

जिसका पालन पक्ष और विपक्ष अर्थात् वादी और प्रतिवादी को मानना होता है। वास्तव में पुलिस और न्यायालय दोनों ही न्यायतन्त्र के आधार स्तम्भ हैं। न्याय कानून के अनुसार हुआ करता है। वर्तमान भारत में जो न्यायतन्त्रात्मक व्यवस्था और कानून है वह अंग्रेजों की देन है। 

जो सरल नहीं बल्कि अत्यधिक जटिल है। कानून के जटिल और पेचीदा होने पर न्याय प्रणाली भी जटिल और पेचीदा हो जाती है। कानून अनेक पक्षों पर विचार अस्पष्टता के घेरे में उलझ जाता है, जिसका लाभ वकील उठाते हैं और तर्क का सहारा लेकर वे अपने पक्ष में निर्णय करा लेते हैं। 

फलस्वरूप न्यायालयों की न्याय प्रणाली दूषित हो जाती है, जिससे न्याय बिकने लगता है। पुलिस, कानून और न्यायालय के बीच एक कड़ी बनता है- अधिवक्ता या एडवोकेट इसका भारतीय न्याय प्रणाली में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान होता है। 

यहाँ तक कि जब जटिल और पेचीदा कानून न्यायालयों को विवश कर देता है कि वे वकील की दलीलों को समझें। ऐसी दशा में न्यायालय बाध्य होकर वकीलों द्वारा बुद्धिमत्ता और वाक्य चातुर्य से रखे गए तर्क जिनका अर्थ जैसी परिस्थिति बनती है उसी प्रकार बदल दिया जाता है। 

वास्तविकता यह है कि न्याय के संदर्भ में एक न्यायालय की भूमिका 'वाद' से सम्बन्धित साक्ष्य एवं प्रमाणों पर ही निर्भर करती है। 

साक्षी को डर से, भयभीत करके अथवा रुपए-पैसे देकर अपराधी वर्ग प्रभावित कर लेता है। न्यायालय में उससे मनचाही बात कहला भी ली जाती है और उसी आधार पर फिर न्यायालयों को अपना निर्णय देना होता है जो सत्यता से पूर्णतः परे होता है। ऐसी स्थिति में न्यायालयों या न्यायतन्त्र समाज में अपनी सही भूमिका नहीं निभा पाते।

भारतीय न्याय व्यवस्था में स्थानीय न्यायालय जिनमें ग्राम पंचायतें, ग्राम न्यायालय एवं छोटे मजिस्ट्रेटों की अदालतें (न्यायालय) प्रमुख हैं। शिकायत पत्रों अथवा पुलिस द्वारा प्रस्तुत प्रकरणों पर सुनवाई करके निर्णय दिया जाता है। न्यायालय दोषी व्यक्तियों या अपराधियों को सजा, जुर्माना करने का अधिकार रखता है साथ क्षतिपूर्ति दिलाने का भी अधिकार रखता है। 

जनसाधारण को प्रायः इन्हीं न्यायालयों से सरोकार रहता है। इनसे ऊपर जिला न्यायालय, उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय हुआ करते हैं। कुछ मामलों में उच्च न्यायालय का तथा सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सर्वोपरि माना जाता है। 

भारत में सर्वोच्च न्यायालय को कानून के रक्षक का पद प्राप्त है जो सम्पूर्ण राष्ट्र में मात्र एक ही होता है। न्यायालय की वास्तविक भूमिका अपराध पर नियन्त्रण, अपराधी को दण्डित करना होता है । 

यह कार्य न्यायालय निर्णय पारित करके न्याय के रूप में देता है। न्याय और दण्ड के अतिरिक्त न्यायालय कानून का रक्षक होता है तथा कानून की रक्षा में वह अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।

भारतीय न्यायतन्त्र के अनेक दोष हैं तथा इसमें अव्यावहारिकता है। प्रायः यह देखा जाता है कि न्यायालयीन निर्णयों से लोगों को न्याय तो कम ही मिलता है। हाथ में निर्णय का कागज अवश्य रहता है। न्यायालय की भूमिका को गरिमामयी बनाने के लिए अत्यधिक सुधार और विकास की आवश्यकता है। 

समय-समय पर सुधार किए भी जाते रहे हैं। आज न्यायालय के स्वरूप में आमूल परिवर्तन लाए जा रहे हैं। वर्तमान में विभिन्न ट्रिब्यूनल, फोरम आदि के परिणामस्वरूप लोगों को इनसे सम्बन्धित मामलों में शीघ्र न्याय प्राप्त हो रहा है। 

आज उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय को भी नई-नई शक्तियाँ व अधिकार प्रदान किया जा रहा है। आज याचिकाओं के माध्यम से शीघ्र न्याय प्राप्त होते देखा जा सकता है। आज न्याय को कम खर्चीला व सुगम बनाने की आवश्यकता है।

भारत में अपराध नियन्त्रण के क्षेत्र में न्यायालयीन भूमिका इस कारण भी धूमिल होते हुए दिखलाई पड़ रही है।  क्योंकि आज न्यायालय तक में घूसखोरी व भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है। न्याय आज एक व्यापारिक वस्तु बन गया है। आज न्यायालय में बिना रिश्वत देने के शिष्टाचार को निभाए कोई कार्य नहीं हो पाता।

न्यायाधीशों में तो यह रोग उतना नहीं लग पाया है जितना कि उनके अधीनस्थ कार्य करने वाले स्टॉफ में लगा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैधानिक रूप में न्यायालय की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है, किन्तु व्यवहार में न्यायालय द्वारा अपनी सही भूमिका का निर्वाह नहीं किया जा रहा है।

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