भारत में सुधारात्मक प्रक्रियाओं की विवेचना कीजिए - bhaarat mein sudhaaraatmak prakriyaon kee vivechana keejie.

कुछ अपराधशास्त्रियों का मत है कि अपराध एक जन्मजात प्रवृत्ति है तथा इसका निवारण तब ही हो सकता है जब अपराधियों का बन्ध्याकरण कर दिया जाये। लेकिन यह धारणा एक भ्रममूलक धारणा है। क्योंकि अपराध की प्रवृत्ति कभी-कभी केवल एक कारण द्वारा ही जाग्रत नहीं हो सकती और जैसा कि आजकल माना जाता है। 

अपराध को जन्म देने वाले बहुसंख्यक कारण हैं। न कि कोई एक विशेष कारण । इसलिये अब हम उन सब बातों की व्याख्या करेंगे जिनके द्वारा अपराध की बढ़ती हुई संख्या कम हो सकती है। 

विभिन्न विचारकों के इस विषय में विभिन्न विचार हैं। लेकिन यह हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि अपराध के निवारण का केवल एक ही ढंग है और वह है - सुधारात्मक ढंग

यह ढंग हमारे देश में बहुत बाद में शुरू हुआ है। अनेक यूरोपीय तथा अमेरिकी राज्यों में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही विचार होना आरम्भ हो गया था। इस बात का प्रमाण यह है कि बहुत से विदेशी राज्यों में मृत्यु दण्ड समाप्त ही कर दिया गया है। 

कुछ निम्न बातों पर अगर सरकार और सामाजिक संस्थाओं द्वारा सुधार किये जायें तो अपराधियों में सुधार अवश्य ही हो सकता है। अब हम पहले सरकार द्वारा किये गये या किये जाने वाले सुधारों का वर्णन करेंगे। 

1. पुलिस - अपराध उन्मूलन तथा अपराधियों के सुधार में पुलिस विभाग बड़ा उपयोगी है। यह देश में आन्तरिक शान्ति व्यवस्था बनाकर लोगों को सुरक्षा प्रदान करता है। लेकिन प्रायः यह देखा जाता है कि पुलिस वाले अपनी जिम्मेदारी को भली-भाँति नहीं निभा पाते। 

उनके द्वारा अपराधी प्रायः छोड़ दिये जाते हैं और निरपराधी पकड़ लिये जाते हैं। इसलिये लोगों में इस विभाग के प्रति असन्तोष रहता है। इसे दूर करने के लिए शिक्षित तथा ईमानदार व्यक्तियों को ही इसमें भर्ती करना चाहिये। यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि ईमानदार और सुधरी हुई पुलिस ही समाज को सुधार सकती है। 

2. न्यायालय - भारत में अदालतों का प्रयोग अपराधों को रोकने के लिए किया जाता है। परन्तु भारत की न्याय व्यवस्था दोषपूर्ण है। 

इसमें निम्न प्रकार से कार्य किया जाता है-

  • सर्वप्रथम पुलिस अपराधी को गिरफ्तार करके न्यायालय को सौंप देती है। परन्तु पुलिस कभी-कभी गलत अपराधी को पकड़कर न्यायालय को सौंप देती है और रिश्वत आदि लेकर सही अपराधी को छोड़ देती है। 
  • भारतीय न्याय व्यवस्था वकीलों पर निर्भर है। वकील लोग फीस के कारण झूठ को सच व सच को झूठ बना देते हैं। इस कारण सही न्याय नहीं मिल पाता। 
  • न्यायालय के कर्मचारी भी रिश्वत लेते हैं व भ्रष्टाचार करते हैं। 
  • न्यायाधीश भी गवाही के आधार पर न्याय देते हैं।
  • भारतीय न्याय प्रणाली अत्यन्त खर्चीली है। अदालत में कदम-कदम पर घूस देनी पड़ती है । (vi) भारतीय न्याय प्रणाली अत्यन्त जटिल है। 
  • दलालों की उपस्थिति के कारण भी सही न्याय नहीं मिल पाता। दूसरे, दलालों के कारण रुपया बहुत खर्च होता है। 
  • भारतीय शासन-व्यवस्था में न्यायाधीश ही प्रशासक का भी कार्य करता है। दोनों पदों के भार के कारण वह सफलतापूर्वक निष्पक्ष होकर कार्य नहीं कर पाता। 
  • मुकदमे की सुनवाई में भी अनेक दोष पाये जाते हैं; जैसे-ज्यूरी तटस्थ नहीं होते, प्रमाण और सबूतों पर आधारित, ऊपरी दबाव, न्याय की रस्साकशी, सौदेबाजी, शीघ्रता आदि के कारण भी न्याय ठीक प्रकार नहीं मिल पाता।

3. जेल या कारावास - दण्डित होने पर जो तीसरी और महत्वपूर्ण संस्था अपराधी के सामने आती है, वह है जेल । यह व्यवस्था पहले इतनी दोषूपर्ण थी कि इसके अन्दर से निर्दोष व्यक्ति भी पूर्ण अपराधी होकर निकलता था। आज हालांकि बहुत से नियम पारित हो गये हैं और इस व्यवस्था में अनेक सुधार हो चुके हैं। 

फिर भी अब तक के सुधार पूर्ण सन्तोषजनक नहीं कहे जा सकते। जेलों में जब कोई अधिकारी जाँच करने आता है तो वहाँ के अधिकारी जेल के फटे हुए स्वरूप पर येगली रख देते हैं और बाद में अपना उल्लू सीधा करते हैं। 

इसलिये सरकार को निम्न सुधार इस व्यवस्था में अवश्य ही करने चाहिए। जेल के तीन प्रमुख कार्य होते हैं-

  • अपराधियों को बन्दी रखना।  
  • उनका सुधार करना।  
  • उनको निवृत्त करना। 

अब जेलों में अधिकतर प्रथम कार्य को छोड़कर दूसरे कार्य को भुला दिया गया ।

4. प्रोबेशन – प्रोबेशन एक अदालती पद्धति है। यह अपराधियों को सुधारने का उत्तम साधन है। इसके अन्तर्गत दण्डित अपराधी को न्यायाधीश जेल न भेजकर कुछ शर्त पर समाज में रहने की स्वीकृति दे देता है और उसकी देख-रेख एक प्रोबेशन अधिकारी करता है। 

यह प्रोबेशन अधिकारी दिन-प्रतिदिन सुधार लाने के प्रयास करता है। वह अपराधी में सक्रिय रुचि लेता है। सुधर जाने पर वह किसी-न-किसी उत्पादक और उपयोगी काम में लग जाता है और अपना तथा अपने परिवारों वालों का कल्याण करता है। 

इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश प्रथम अपराधी परिवीक्षा अधिनियम बहुत सहायक है। इस अधिनियम के अनुसार 14 वर्ष से कम उम्र के बालकों को पहली बार अपराध करने पर जेल भेजने के बजाय सुधारने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार प्रोबेशन सुधारवादी नीति की एक अच्छी प्रणाली है।

5. पैरोल - यह सुधारवादी नीति पर आधारित एक उपाय है। इसका प्रयोग उन अपराधियों के लिये किया जाता है, जो जेल भेज दिये जाते हैं। जेल में कुछ समय तक रहने के बाद और अच्छा आचरण प्रदर्शित करने तथा भविष्य की इच्छा प्रकट करने पर अपराधी को पैरोल अधिकारी की देखरेख में छोड़ दिया जाता है।  

जो उन्हें निरन्तर सुधरने की प्रेरणा देते रहते हैं। पैरोल अधिकारी ऐसे अपराधियों के व्यवहार का निरीक्षण करते रहते हैं। अपराधियों में सुधार हो जाता है और वे सामान्य जीवन व्यतीत करने लगते हैं। यदि इस बीच वह पुनः कोई दुराचरण करता है तो उसे अधिक कठोर सजा भुगतने के लिये जेल भेज दिया जाता है। में

6. सुधारगृह - अपराधियों को सुधारने के लिए सुधारगृहों की भी स्थापना की गयी है। पहला सुधारगृह सन् 1876 में एल्मीरा सुधारगृह के नाम से अमेरिका में प्रारम्भ किया गया था। इसके बाद विभिन्न सुधारगृहों की स्थापना हुई। इनमें अपराधियों को नये-नये काम सिखाये जाते हैं। 

उन्हें धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार उनके व्यवहार को शुद्ध किया जाता हैं और उन्हें समाज का उपयोगी सदस्य बनाने का प्रयास किया जाता है।

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