आर्थिक विकास से आप क्या समझते हैं?

आर्थिक विकास का क्षेत्र आर्थिक वृद्धि से अधिक व्यापक है। आर्थिक विकास एक निरन्तर प्रक्रिया है जिसके द्वारा राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए सभी सम्भव प्रयास किये जाते हैं। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक विकास को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से परिभाषित किया है। 

कुछ अर्थशास्त्री राष्ट्रीय आय की वृद्धि को ही आर्थिक विकास मानते हैं तो कुछ अर्थशास्त्री इसे प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के दृष्टिकोण से देखते हैं। कुछ अर्थशास्त्री ऐसे भी हैं जिन्होंने सामाजिक कल्याण में वृद्धि को ही आर्थिक विकास माना है।

आर्थिक विकास की परिभाषा

उपर्युक्त विचारधाराओं के आधार पर आर्थिक विकास की प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं।

मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार, “आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।”

पाल एल्बर्ट के अनुसार, “किसी राष्ट्र के द्वारा अपनी वास्तविक आय को बतलाने के लिए सभी उत्पादक साधनों का कुशलतम प्रयोग करना आर्थिक विकास कहलाता है । ”

रोस्टोब के अनुसार, “आर्थिक विकास एक ओर पूँजी व कार्यशील शक्ति में वृद्धि की दरों के बीच तथा

दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि की दर के बीच एक ऐसा सम्बन्ध है जिससे प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि होती है।” चार्ल्स पी. किंडलबर्गर के अनुसार, “आर्थिक विकास की परिभाषा प्रायः लोगों के भौतिक कल्याण में सुधार के रूप में की जाती है। 

जब किसी राष्ट्र में विशेषकर निम्न आय वाले लोगों के भौतिक कल्याण में वृद्धि होती है, जनसामान्य को अशिक्षा, बीमारी और कम आयु में मृत्यु के साथ-साथ निर्धनता से छुटकारा मिलता है। 

कृषि लोगों का प्रमुख व्यवसाय न रहकर औद्योगीकरण होता है, कार्यकारी जनसंख्या के अनुपात में वृद्धि होती है परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था का स्वरूप परिवर्तित होता है और हम कहते हैं कि राष्ट्र विशेष में आर्थिक विकास हुआ है।

आर्थिक विकास क्या है

उपर्युक्त परिभाषाओं से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “आर्थिक विकास से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके फलस्वरूप राष्ट्र में समस्त उत्पादन के साधनों का उचित विधि से विदोहन होता है, राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय में निरन्तर एवं दीर्घकालीन वृद्धि होती है। तथा लोगों के जीवन स्तर एवं सामान्य कल्याण के सूचकांक में वृद्धि होती है।

आर्थिक विकास का मापदंड

किसी देश के आर्थिक विकास की माप किस आधार पर की जाये, यह एक जटिल समस्या है। आर्थिक विकास की माप के विषय में भिन्न समय पर विभिन्न अर्थशास्त्रियों के विचारों में मतभेद रहा है जिन्हें निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है -

1. वाणिज्यवादी अर्थशास्त्रियों का मत था कि देश में उपलब्ध बहुमूल्य धातुएँ, जैसे सोना, चाँदी आदि ही आर्थिक विकास का प्रतीक हैं। दूसरे शब्दों में, जिस देश के पास जितना अधिक सोना, चाँदी आदि होगा वह देश उतना ही अधिक धनी समझा जायेगा।

2. एडम स्मिथ का विचार था कि आर्थिक विकास की माप तथा उसके विषय में जानकारी वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन पर निर्भर करती है। इन वस्तुओं और सेवाओं का जितना अधिक उत्पादन होगा देश उतना है ही समृद्ध होगा।

3. एडम स्मिथ के समकालीन अर्थशास्त्रियों का विचार था कि देश में उत्पादन की मात्रा तीव्र होने पर स्वतः ही आर्थिक विकास की गति बढ़ेगी और उत्पादन न बढ़ने पर आर्थिक विकास सम्भव न हो सकेगा। इस प्रकार उत्पादन की मात्रा का आर्थिक विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध जोड़ा गया है ।

4. कार्ल मार्क्स का विचार था कि समाजवाद का विस्तार और लोक कल्याण सम्बन्धी सुविधाएँ विकास की स्थिति को स्पष्ट करती हैं ।

5. प्रो. जे. एस. मिल ने स्वतन्त्र व्यापार नीति की कटु आलोचना की तथा लोक कल्याण व आर्थिक विकास के लिए सहकारिता के सिद्धान्त पर बल दिया। सहकारिता में सभी व्यक्तियों द्वारा सभी के लिए कार्य करने को प्रेरित किया जाता है।

आधुनिक आर्थिक विकास का मापदंड

इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि आर्थिक विकास के माप का आधार, आधुनिक अर्थशास्त्रियों का परम्परावादी, नव-परम्परावादी आदि अर्थशास्त्रियों के विचारों से कुछ भिन्न है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों का विचार है कि आर्थिक विकास का मापदण्ड निम्न प्रकार से होना चाहिए।

(1) राष्ट्रीय आय में वृद्धि

अनेक अर्थशास्त्रियों ने राष्ट्रीय आय में वृद्धि को उस राष्ट्र के आर्थिक विकास का सूचक माना है। दूसरे शब्दों में, यदि किसी राष्ट्र की राष्ट्रीय आय व उत्पादन में वृद्धि हो रही है तो यह वृद्धि उस देश के आर्थिक विकास की एक माप मानी जायेगी, परन्तु यह वृद्धि निरन्तर व स्थायी हो।

इन अर्थशास्त्रियों का विचार है कि किसी राष्ट्र के आर्थिक विकास की सर्वश्रेष्ठ माप वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि ही है। प्रति व्यक्ति आय का मापदण्ड अपेक्षाकृत भ्रमात्मक है और उससे विकास की सही स्थिति का ज्ञान नहीं हो पाता है।

(2) प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि

प्रति व्यक्ति आय ज्ञात करने के लिये कुल आय को जनसंख्या से विभाजित किया जाता है। (प्रति व्यक्ति आय कुल राष्ट्रीय आय ÷ कुल जनसंख्या) प्रो. कुजनेट्स के अनुसार, 'आर्थिक विकास को नापने के उद्देश्य से हम उसकी परिभाषा या तो राष्ट्रीय आय में वृद्धि के रूप में कर सकते हैं।

स्थिर मूल्यों पर सम्पूर्ण जनसंख्या के उत्पादन के रूप में या फिर प्रति व्यक्ति आय और प्रति व्यक्ति उत्पादन के रूप में भी कर सकते हैं किन्तु ऐसा करते समय जनसंख्या वृद्धि को भी ध्यान में रखा गया हो ।

वर्तमान समय में अधिकांश अर्थशास्त्रियों का मत है कि राष्ट्रीय आय, आर्थिक विकास की सही माप नहीं है बल्कि राष्ट्र में प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि को उस राष्ट्र के आर्थिक विकास का सूचक स्वीकार किया जाना चाहिए। 

इसका कारण यह है कि विकासशील राष्ट्रों के सामने मुख्य समस्या जीवन स्तर में सुधार करने की होती है और जीवन स्तर का प्रत्यक्ष सम्बन्ध प्रति व्यक्ति आय से होता है। इस कारण जनता के आर्थिक कल्याण व जीवन स्तर में सुधार की दृष्टि से किसी राष्ट्र का आर्थिक विकास तभी होगा, जब प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो रही हो ।

(3) आर्थिक कल्याण में वृद्धि

आर्थिक कल्याण प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि पर निर्भर करता है। इसका कारण यह है कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने पर और उसका वितरण दोषपूर्ण बने रहने पर यदि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि नहीं हो पाती तो राष्ट्र की जनता के आर्थिक कल्याण में वृद्धि नहीं हो सकेगी। 

ऐसी प्रक्रिया को आर्थिक विकास माना जाता है जिससे प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि होती है और इसके साथ-साथ आय की विषमताओं का अन्तर कम हो जाता है और समस्त जनसाधारण के अधिमान सन्तुष्ट होते हों। 

ओकन व रिचर्डसन के अनुसार, “आर्थिक विकास भौतिक समृद्धि में ऐसा अनवरत दीर्घकालीन सुधार है जो वस्तुओं व सेवाओं के बढ़ते हुए प्रवाह में प्रतिविम्बित समझा जा सकता है।

अतः उपर्युक्त व्याख्या से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आर्थिक विकास के अभिसूचक के रूप में मुख्य विवाद 'राष्ट्रीय आय' और 'प्रति व्यक्ति आय' के बीच है, क्योंकि इन दोनों मापदण्डों के अपने-अपने गुण व दोष हैं, इस कारण विभिन्न प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं के लिए किसी एक मापदण्ड को अपनाना सम्भव नहीं है और न उचित हैं।

हमारे विचार में विकसित देशों के आर्थिक विकास का सूचक राष्ट्रीय आय में वृद्धि माना जाना चाहिये तथा विकासशील राष्ट्रों के आर्थिक विकास की माप हेतु प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि को आधार माना जा सकता है। वैसे अधिकांश अर्थशास्त्री प्रति व्यक्ति आय मापदण्ड का अधिक समर्थन करते हैं ।

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