एकांकी और नाटक में अंतर स्पष्ट किजिये

नाटक अथवा रूपक दृश्य-काव्य का प्रमुख भेद है। नाटक दो से लेकर दस अंकों में विभाजित होते हैं, किन्तु जब नाटक अथवा कोई रूपक केवल एक अंक में समाप्त हो जाता है, तब उसे एकांकी नाटक की संज्ञा दी जाती है।

एकांकी और नाटक में अन्तर-नाटक और एकांकी दोनों ही दृश्य-काव्य हैं तथा इनमें पर्याप्त अन्तर है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित विद्वानों के मत विचारणीय हैं

(1) डॉ. सत्येन्द्र के शब्दों में- एकांकी नाटय-साहित्य की एक संक्षिप्त विद्या है, जो मानव जीवन के अनेकानेक प्रश्नों को मनोरंजक शैली में प्रस्तुत करती है। इसीलिए साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान होता है। कहना न होगा कि वह न तो नाटक का संक्षिप्त रूप है और न ही कहानी का अभिनव रूपान्तर। उसका तो अपना स्वतंत्र या पृथक संक्षिप्त संसार है, पृथक् सत्ता और अस्तित्व है। 

इसी कारण इसे किसी भी साहित्यिक विधा के साथ सम्बन्ध नहीं किया जा सकता है। एकांकी अपनी संक्षिप्तता, रोचकता, मार्मिकता, प्रभावोत्पादकता, अभिनेयता और सरलता आदि गुणों के कारण अत्यन्त लोकप्रिय है। उसका मानव-मन पर अमिट और सर्वग्राही प्रभाव पड़ता है। 

एकांकी मानव-जीवन की सांस्कृतिक और सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण प्रस्तुत करने में पूर्णरूपेण सशक्तया समर्थ है। इसलिए सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि एकांकी व्यस्त मानव जीवन की एक प्रभावमयी स्वतन्त्र साहित्यिक विधा है।"

(2) डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में “एकांकी में एक अंक, एक घटना, एक कार्य और एक समस्या होती है, जबकि नाटक में कई अंकों, घटनाओं, कार्यों और समस्याओं का आयोजन होता है। 

अतः स्थूल दृष्टि से एकांकी नाटक से बहुत लघु और सीमित होता है, किन्तु फिर भी किसी छोटे नाटक को एकांकी और बड़े एकांकी को छोटा नाटक नहीं कह सकते हैं। एकांकीकार अपने लक्ष्य की ओर सीधा दौड़ता है, जबकि नाटककार धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। एकांकी शैली में संक्षिप्तता एवं गतिशीलता होती है।"

(3) श्री सद्गुरुशरण अवस्थी-आपने नाटक और एकांकी को पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र विधाओं के रूप में स्वीकार करते हुये यह मान्यता स्थापित की है कि एकांकी न तो 'लघु नाटक' है और न ही नाटक का लघु संस्करण मात्र है। उन्होंने लिखा है कि

"एकांकी नाटक अनेकांकी नाटकों का न तो संक्षिप्त संस्करण ही है और न ही उनका एक अंक। जिस प्रकार राजा बलि को छलने वाला वामन अंगुली का न तो मनुष्य है और न चक्र सुदर्शन सहित विष्णु का हाथ है, ।

उसी प्रकार एकांकी न तो किसी का लघु संस्करण मात्र है और न किसी का खण्ड अवतार है। वह अपनी निजी सत्ता रखने वाला साहित्य का एक अंग है। उसकी अपनी निजी आत्मा, व्यक्तिकरण और उसका निजी ढंग है।"

उपर्युक्त विद्वानों के विचारों से यह सुस्पष्ट है कि 'एकांकी नाटक' तथा 'अनेकांकी नाटक' नामक दोनों विधाओं का पृथक्-पृथक् अस्तित्व है। इन दोनों में विद्यमान अन्तर निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर विवेचना की जा सकती है

(1) अंकों की भिन्नता-नाटक में कई अंक होते हैं, जबकि एकांकी नाटक में केवल एक ही अंक होता है।

(2) घटना सम्बन्धी अन्तर-एकांकी नाटक में जीवन की किसी एक प्रमुख घटना का चित्रण होता है, जबकि इसके विपरीत नाटक में जीवन की अनेक प्रमुख तथा गौण दोनों प्रकार की घटनाओं का वर्णन होता है।

(3) सीमित क्षेत्र-इन दोनों में क्षेत्र सम्बन्धी अन्तर भी है। जैसे एकांकी का क्षेत्र सीमित होता है, जबकि नाटक का क्षेत्र असीमित होता है।

(4) दोनों के प्रारम्भ में अन्तर-एकांकी नाटक का प्रारम्भ संघर्ष से होता है, उसमें तीव्र गति होती है तथा शीघ्र ही चरम सीमा अथवा 'चरमोत्कर्ष' पर पहुँच जाता है, जबकि नाटक का प्रारम्भ धीमी गति से होता है और धीरे-धीरे ही वह चरम-सीमा तक पहुँचता है।

(5) संकलन-त्रय की एकता सम्बन्धी अन्तर-एकांकी नाटक में संकलन-त्रय का विशेष महत्व होता है अर्थात् देश-काल या वस्तु की एकता पर एकांकी के रचनाकार का विशेष ध्यान होता है जबकि नाटक में नाटककार संकलन-त्रय पर विशेष बल नहीं देता है।

(6) पात्र-संख्या सम्बन्धी अन्तर-पात्र-संख्या की दृष्टि से भी एकांकी तथा नाटक में पर्याप्त अन्तर है। एकांकी नाटक में पात्रों की संख्या कम से कम रखी जाती है, जबकि नाटक में पात्रों की संख्या कम करने पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। उसमें अनेक प्रकार के और अधिक संख्या में पात्र हो सकते हैं।

(7) समयावधि सम्बन्धी अन्तर-इन दोनों के अभिनय में समयावधि की दृष्टि से भी अन्तर है, क्योंकि एकांकी का अभिनय तीस मिनट से साठ मिनट तक सम्पन्न हो जाना चाहिये, जबकि नाटक की समयावधि पर इस प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं हैं अर्थात् नाटक का अभिनय कई घंटों का हो सकता है।

(8) चरित्राकन की दृष्टि से अन्तर नाटक में चरित्रांकन बहुत अधिक व्यापक तथा स्पष्ट होता है, जबकि एकांकी चरित्रांकन केवल याकतिक होता है अर्थात एकांकी में मात्र सकेत ही चरित्रांकन क आधार जाते हैं।

(9) देश-काल अथवा वातावरण सम्बन्धी अन्तर एकाकी में देश-काल का वर्णन अत्यन्त सीमित होता है, जबकि नाटक में देश-काल का वर्णन करते समय कोई बन्धन नहीं होता है और ऐसे नाटक श्रष्ट समझ जाते हैं जिनमें देश-काल का वर्णन विस्तृत संकेत तथा विभिन्न आधारों पर प्रस्तुत किये जाते है ।

(10) भाषा-सम्बन्धी अन्तर-एकांकी की भाषा स्फुरणशील तथा प्रभावोत्पादक होती है। उसमें एक एक शब्द तथा एक-एक वाक्य बड़ी सहजता पूर्वक संजोकर रखे जाते हैं। इसके विपरीत नाटक की भाषा में भाषा-प्रवाह को विशेष महत्व दिया जाता है। इसमें वाक्यों और शब्दों के संयोजन पर कम महत्व दिया जाता है। इसीलिए नाटक में सम्बोधन की भी गुंजाइश अधिक रहती है।

(11) शैली सम्बन्धी अन्तर-नाटक की शैली अधिकांशतः वर्णनात्मक होती है, जबकि एकांकी की शैली जितनी अधिक व्यंग्यात्मक होती है, उतनी ही अधिक श्रेष्ठ समझी जाती है। एकांकी की शैली चुटीली एवं चुभती हुई-सी प्रतीत होती है, जबकि नाटक की शैली में शान्त समुद्र जैसी गम्भीरता होती है। 

(12) संवाद सम्बन्धी अन्तर-इन दोनों के संवादों में पर्याप्त अन्तर है। एकांकी के संवाद संक्षिप्त मार्मिक तथा चरित्रोदघाटन करने वाले होते हैं जबकि दूसरी ओर नाटक के संवाद लम्बे, विवेचनाप्रधान तथा दार्शनिक-विचारों का अंकन करने वाले गम्भीर भी हो सकते हैं। 

स्वगत-कथनों को तो एकांकी में बिल्कुल स्थान नहीं दिया गया है, जबकि नाटक में स्वगत-कथन कभी-कभी कथानक की पूर्णता तथा उसके विकास में पूर्ण रूप से सहायक होते हैं।

(13) रंगमंचीय सम्बन्धी अन्तर--एकांकी का रंगमंच मितव्ययी होता है, जबकि नाटक के रंगमंच को विस्तृत साज-सज्जा के लिये काफी धन की आवश्यकता होती है। इस धन का कुछ अंश तो नाटक में अपव्यय हो जाता है।

(14) कौतूहल सम्बन्धी अन्तर--एकांकी में कौतूहल की उत्पत्ति आरम्भ से ही आवश्यक होती है, जबकि नाटक में नाटककार अपनी सुविधा और अवसर के अनुसार कौतूहल की उत्पत्ति करता है। उपर्युक्त बिन्दुओं के आधार पर हम निष्कर्षतः यह कह सकते हैं कि एकांकी और नाटक हिन्दी साहित्य की पृथक-पृथक विधाएँ हैं, ।

जिनका आरम्भ और विकास देश-काल की परिस्थितियों, आवश्यकताओं एवं सामाजिक परिवेश के अनुरूप हुआ है। अतः दोनों को न तो एक रूप माना जा है सकता है और न ही एक-दूसरे का पूरक या सहायक। एकांकी के विकास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 

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