अंधेर नगरी का सारांश

भारतेन्दु हरिशचन्द्र द्वारा रचित नाटक अंधेर नगरी एक प्रकार से प्रहसन है और प्रहसन के बीच-बीच में गाना, हँसना, क्रोध आदि दिखाया जाता है। रचना का उद्देश्य हास्य होता है, जिसे भारतेन्दु जी ने अपने नाटक में बखूबी शामिल किया है। हास्य और व्यंग्य भारतेन्दु के प्रायः सभी नाटकों के प्राण हैं। 

अंधेर-नगरी में तत्कालीन मूर्ख राजाओं पर व्यंग्य के साथ-साथ हास्य का भी सुंदर समावेश हुआ है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि समस्त पात्रों और परिस्थितियों के अतिरिक्त लेखक ने बीच-बीच में बड़ी कुशलता के साथ कुछ मार्मिक व्यंग्यों का समावेश कर दिया है 

जो उद्देश्य की सिद्धी में सहायक होते हैं - चूरन वाला कहता है 'चूरन खाते लाला लोग, जिन्हें हैं अकिल अजीरन रोग।' 'चूरन साहेब लोग जो खाता। सारा हिन्द हजम कर जाता।' इसी प्रकार जात वाला (ब्राह्मण) अपनी जात बेचते हुए कहता है, 'एक टका दो, हम अपनी जात बेचते हैं।' 

इस नाटक में हास्य और व्यंग्य अत्यन्त ही उच्चकोटि का और शिष्ट है। हास्य के साथ-साथ विचारोत्तेजक व्यंग्य भी है, जो तत्कालीन देशी राजाओं के दिमागी दिवालियेपन और उनके न्याय पर तीखी चुटकी लेता है। 

अंग्रेजों पर भी इस नाटक में व्यंग्य है, साथ ही देश के बैर और परस्पर फूट तथा ब्राह्मणों की टके-टके में जात बेचने की प्रवृत्ति पर तीखे व्यंग्य हैं। इस नाटक की सबसे बड़ी कलात्मक वशेषता है कि हास्य और व्यंग्य भोंड़े, विद्रूपों और ओछी हास्योत्पादक उक्तियों से नहीं उत्पन्न किया गया, वरन् कथा विन्यास के द्वारा कहानी के गर्भ से ही कलात्मक रूप में ही उसका निखार हुआ है।

भारतेन्दु के प्रहसनों में शिष्ट हास्य का अभाव है। जीवन की यथार्थ विकृतियों पर तीखे व्यंग्य प्रहार ही अधिक हैं; किन्तु इस प्रहसन में शिष्ट हास्य का सफल और सुन्दर चित्रण है। व्यंग्य और हास्य दोनों ही साथ-साथ चलते हैं। 

प्रथम अंक से ही हास्य का उद्रेक आरम्भ हो जाता है और प्रत्येक दृश्य के साथ वह तीव्र होता जाता है, चौथे अंक में हास्य मुखर हो जाता है और फूट चलता है, पाँचवें अंक में वह और तीव्र होकर छठे अंक के अन्त तक तो जब राजा स्वयं फाँसी पर चढ़ने लगता है दर्शक ठहाका लगाने लगते हैं।

जै स्वारथ-रत धूर्त हँस के काक-चरित-रत।
वे औरन हति बच प्रभुहिं नित होहिं समुन्नत।।

तत्कालीन सरकार के चाटुकारों पर करारा व्यंग्य किया गया है। सरकार और सरकार की नौकरशाही दोनों पर करारे व्यंग्य हुए हैं ।

कुजड़िन-" जैसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी, टके सेर भाजी। ले हिन्दुस्तान का मेवा फूट और बैर।"

हिन्दू चूरन इसका नाम, विलायत पूरन इसका काम।
चूरन जब से हिन्द में आया, इसका धन बल सभी घटाया।
चूरन अमले सब जो खावै, दूनी रिश्वत तुरत पचावै ।।
चूरन साहब लोग जो खाता, सारा हिन्द हजम कर जाता।   
चूरन पुलिस वाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।। 

अंधेर नगरी' नाटक में हास्य का पुट तो है किन्तु हास्य से कहीं अधिक व्यंग्य का पुट है। इसलिए हम कह सकते हैं कि यह हास्य नाटक की अपेक्षा व्यंग्य नाटक है। अंधेर नगरी रचना की दृष्टि से नाटक है लेकिन नाटक होने के बावजूद अपनी सोद्देश्यता, अपनी सामाजिक, राजनीतिक चेतना के कारण बहुत तीखा व्यंग्यात्मक नाटक है। 

गंभीर व्यंग्य सदैव ही सार्थक आलोचना, गंभीर प्रतिक्रिया तथा समाज की कुव्यवस्था के प्रति चुभन का कार्य करता है। नाटक के द्वारा व्यंग्य के माध्यम से समाज की विसंगतियों पर प्रहार करना रचनाकार की रचनाशीलता का भी प्रमाण है। इस दृष्टि से अंधेर नगरी में भारतेन्दु ने व्यंग्य और विडम्बना के गहरे निहितार्थ उद्घोषित किये हैं।

प्रहसन (नाटक) में तीव्र हाव-भाव, बेतुके सवाल-जवाब, उटपटांग क्रियाविधि की प्रधानता होती है। अंधेर नगरी में यह बेतुकापन तीखी और व्यंग्यपूर्ण रचना के रूप में सामने आता है। भारतेन्दु द्वारा वर्णित व्यंग्य अपनी अनायास प्रवाह पूर्ण अभिव्यक्ति और रोचकता है, जो हँसाता भी है और तिलमिलाता भी है। इसी कारण इससे एक नई सामाजिक, राजनीतिक, जागरूकता तथा प्रेरणा और प्रगति में विश्वास का अनुभव होने लगता है।

“अंधेर नगरी” नाटक के सामान्य से दिखने वाले कथानक में तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था की भ्रष्टाचारिता, सत्ता की मूढ़ता, विवेकहीनता, निरीह जनता को सताने और ठगने की प्रवृत्ति, अपने युग की विकृति और विसंगति का चित्रण मिलता है। वैसे सामान्य तौर पर देखा जाये तो अंधेर नगरी का केन्द्र बिन्दु है- “पैसे और धन का बढ़ता महत्व।" 

लेकिन नाटक का मूल स्वर इससे भी बड़ा है, वह है- 'धन पर आधारित अमानवीय व्यवस्था और इससे उत्पन्न उत्पीड़क और अराजक स्थिति। अंधेर नगरी अंधव्यवस्था का प्रतीक है, चौपट राजा- न्याय और विवेक के न होने का । उसका न्याय भी अंधता का प्रमाण है। न्याय की पूरी प्रक्रिया, शासन सत्ता की संवेदन हीनता और अमानवीय विडम्बना को दर्शाता है। 

साथ ही यह आज के मानव के बढ़ते लालच पर भी करारा व्यंग्य है क्योंकि वही मनुष्य को व्यापक अंधव्यवस्था में फँसाता हैं, जहाँ पर अच्छे-बुरे, शोषक-शोषित, अपराधी-निरपराध में कोई अंतर नहीं रह जाता है। अंधेर नगरी को व्यापक रूप से देखने पर यह समकालीन राजव्यवस्थाओं पर भी तीखे व्यंग्य के रूप में देखा जा सकता है। 

'टके' या धन और पैसे पर आधारित व्यवस्था आज पहले से अधिक मजबूत हुई है। इसने एक ओर जहाँ नौकरशाही को मजबूत बनाया है, वहीं दूसरी ओर आम आदमी की मुश्किलों को भी बढ़ाया है। ,

अंधेर नगरी में राजव्यवस्था का जो चित्र प्रस्तुत किया गया था, वह आज भी उतना ही सच नजर आता है, जितना भारतेन्दु जी के दौर में रहा होगा। यदि हम नाटक में निहित, पुनरुत्थानवादी और नैतिकतावादी दृष्टि पर बल न दें तो उसमें निहित यथार्थ लगभग उसी रूप में मौजूद है। 

आज भी सत्ता प्राप्ति के लिए तरह-तरह के प्रपंच और हथकंडे अपनाये जाते हैं तथा सत्ता वर्ग अपने हित साधन हेतु धर्म तथा जाति के नाम पर लोगों में फूट और द्वेष फैलाता है। आम आदमी आज भी टैक्स के बोझ तले दबा जा रहा है और पुलिस के अत्याचार तथा राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों में व्याप्त भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं। 

ये पंक्तियाँ केवल ब्रीटिश काल में ही नहीं बल्कि आज भी उतनी ही यथार्थ है। अंधेर नगरी में वर्णित व्यायव्यवस्था का चित्रण भी विडम्बना पूर्ण है। आज भी आम आदमी की कोई सुनवाई नहीं है। न्याय के नाम पर व्यक्ति अन्याय का शिकार होता है। उसकी फरियाद सुनने वाला कोई नहीं है। 

कानून के दाँव-पेंच के आगे वह निरुपाय है। अंत में फांसी का दृश्य आज की व्यवस्था की क्रूरता, अविवेकशीलता और अंधेपन का घोर प्रतीक है। हँसने और हँसाने के ढोल में अनेक विसंगतियाँ उभरती हैं। 

नाटक का अंत इस बात का सूचक है कि व्यवस्था अपने बनाए दुष्चक्र में फंसकर स्वयं समाप्त हो जायेगी। महंत की चाल से शासक स्वयं इस जाल में उलझ जाता है इसका एक सकारात्मक पहलू यह है कि यह शोषक और उत्पीड़क समाज की समाप्ति के लिए आशा का भाव रखता है। इस तरह भारतेन्दु ने अंधेर नगरी नाटक के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य किया है।

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