न्यायिक पुनर्विलोकन का अर्थ एवं महत्व

वर्तमान समय में न्यायिक पुनरावलोकन के सिद्धान्त का महत्त्व बढ़ गया है। प्रो सक्सेना के अनुसार आधुनिक समाज में जो कि शक्ति संघर्ष के सिद्धान्तों से घिरा हुआ है। 

न्यायिक पुनर्विलोकन का अर्थ एवं महत्व का वर्णन कीजिए।

न्यायिक पुनरावलोकन न केवल सन्तुलन चक्र है, बल्कि संविधानवाद को स्थायी करने वाला चक्र भी है। यह सिद्धान्त प्रमुख रूप से अमेरिका और भारत में प्रचलित है, लेकिन अन्य देशों में भी यह किसी-न-किसी रूप में पाया जाता है

(1) ब्रिटेन  - जहाँ एक ओर अमेरिका में न्यायालय की सर्वोच्चता की स्थापना की गई, वहाँ दूसरी ओर इंग्लैण्ड में संसद की सर्वोच्चता की स्थापना की गई है। इंग्लैण्ड में संविधान अंशतः लिखित होने के कारण संसद द्वारा निर्मित कानूनों को ही सर्वोच्चता प्रदान की जाती है। 

इंग्लैण्ड की न्यायिक व्यवस्था की यह विशेषता है कि व्यायालय एक मंच के रूप में कार्य करता है, अन्वेषक के रूप में नहीं। वह मुकदमे की छानबीन स्वयं करता है। 

वाद-विवाद में भाग नहीं लेता तथा न्यायाधीश मुकदमे की कार्यवाही में शीघ्रता लाने या तथ्यों के स्पष्टीकरण के उद्देश्य से कोई कार्य नहीं करता। यह मुद्दई और मुद्दालह का कार्य है कि वे सभी तथ्यों को स्पष्ट करें। 

इंग्लैण्ड में न्यायाधीश पूर्ण स्वतन्त्र हैं। उनकी नियुक्ति क्राउन द्वारा होती है। वे जीवनपर्यन्त तथा सदाचारपर्यन्त अपने पदों पर बने रहते हैं। संसद के दोनों सदनों की प्रार्थना पर ही उन्हें कार्यमुक्त किया जा सकता है । 

इंग्लैण्ड में संसद की सर्वोच्चता के कारण न्यायालयों को संसद की विधियों को अवैध घोषित करने की शक्ति नहीं है ।

(2) रूस  - रूस में न्यायालय विधियों को लागू करने का एक उपकरण माना जाता है और यह इसलिए सत्य है क्योंकि साम्यवादी यह मानते थे कि विधि, शासक वर्ग की इच्छा की अभिव्यक्ति तथा उसकी संरक्षक है। 

इसलिए इस रूप में न्यायालय को विधि को अवैध घोषित करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। जैसा कि इवानोव ने लिखा था। 

अपने प्रत्येक कार्य द्वारा न्यायालय सोवियत संघ के नागरिकों को मातृभूमि तथा समाजवाद के प्रति आस्था एवं निष्ठा रखने, सोवियत कानूनों का पूर्ण रूप से पालन करने, समाजवादी सम्पत्ति की देख-रेख करने, श्रमिकों को अनुशासनबद्ध करने, अपने नागरिक तथा राजकीय कर्त्तव्यों को पूरा करने तथा समाजवादी आचार-व्यवहार के नियमों का आदर करने की शिक्षा देता था।

अतः सोवियत संघ में न्यायपालिका राज्य का स्वतन्त्र अंग न होकर दल के अधीन तथा सरकार का एक सहायक अंग था। अमेरिका के समान वह शासन का सर्वोपरि अंग नहीं था। रूस के न्यायालय का उद्देश्य केवल समाजवाद को सुदृढ़ बनाना अर्थात् दल की नीतियों को लागू करना होता है। 

टाउस्टर ने कहा भी है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णयों द्वारा केवल दल स्वीकृत मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों को वैधानिक मान्यता देता है। 

 (3) स्विट्जरलैण्ड - स्विट्जरलैण्ड में भी न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार प्राप्त नहीं है। उसे संघीय विधियों की संवैधानिकता की जाँच करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। 

संविधान की धारा 113 में कहा गया है कि सभी मामलों में संघ न्यायालय संघीय सभा द्वारा पारित विधियों को और सभी सर्वमान्य आज्ञाओं को तथा संघीय सभा द्वारा अनुसमर्थित सभी विधियों को मान्यता देने पर विवश होगा।

इस प्रकार संविधान की व्याख्या का दायित्व संघ न्यायालय को नहीं दिया गया है। वह केवल कैण्टनों द्वारा निर्मित विषयों की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है और उन्हें अवैध घोषित कर सकता है, संघीय कानून को नहीं। यह अधिकार स्वयं विधानसभा तथा जनता को प्रदान किया गया है ।

न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का संवैधानिक आधार

इस बात पर बहुत अधिक विवाद है कि सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का कोई संवैधानिक आधार है अथवा नहीं। एक पक्ष का विचार है कि इसका कोई संवैधानिक आधार नहीं है और सर्वोच्च न्यायालय ने मनमाने तरीके से यह शक्ति अपने हाथ में ले ली है। 

संविधान सभा के एक प्रमुख सदस्य और बाद में राष्ट्रपति जैफरसन ने तो स्पष्ट कहा था कि पूर्वजों ने जिस ढांचे की स्थापना की थी, उसके अन्तर्गत प्रशासन के तीनों भाग पूर्णतया स्वतन्त्र होने थे तथा अब यदि न्यायपालिका, कांग्रेस व राष्ट्रपति के अधिकारों के पुनर्विलोकन के अधिकार का प्रयोग करती है, तो यह शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त का ही उल्लंघन नहीं, वरन् संविधान निर्माताओं के विचारों का भी अनादर है।

परन्तु वास्तव में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का वैधानिक आधार है। संविधान के अन्तर्गत इस सम्बन्ध में स्पष्ट तौर पर चाहे कुछ भी न कहा गया हो, लेकिन संविधान के दो प्रावधानों (अनुच्छेद 6 व अनुच्छेद 3 की उपधारा 2) में यह शक्ति निहित । 

संविधान के अनुच्छेद 6 में कहा गया है कि "यह संविधान तथा अमरीका के सब कानून तथा उसके अनुसार बतायी गयी सन्धियां अमरीका का सर्वोच्च कानून होगा। 

न्यायाधीश इससे बंधे हुए होंगे। किसी राज्य के संविधान तथा कानून में यदि संयुक्त राज्य अमरीका के संविधान के विरुद्ध कोई बात होगी, तो वह वैध नहीं मानी जायेगी। 

इसी प्रकार अनुच्छेद 3 की उपधारा 2 में कहा गया है कि “कानून व औचित्य के अनुसार न्यायपालिका की शक्ति के क्षेत्र में वे सब मामले आयेंगे, जो इस संविधान, संयुक्त राज्य के कानूनों व उनके अन्तर्गत की गयी अथवा की जाने वाली सन्धियों के अन्तर्गत उत्पन्न हो ।” 

इन दोनों अनुच्छेदों की व्याख्या करते हुए न्यायिक पुनर्विलोकन की धारणा के समर्थकों का कथन है कि संविधान की सर्वोच्चता बनी रहे और किसी ओर से उसका उल्लंघन न हो, यह देखना सर्वोच्च न्यायालय का कार्य है और सर्वोच्च न्यायालय यह कार्य तभी सम्पन्न कर सकता है। 

जबकि उसे संविधान की व्याख्या करने और संघीय या राज्य व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित ऐसे कानूनों को अवैध घोषित करने का अधिकार प्राप्त हो, जो उसके विचार में संविधान के प्रतिकूल हैं। 

फिलाडेल्फिया सम्मेलन के प्रसिद्ध सदस्य हेमिल्टन ने यही दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए ‘Federalist' नामक पत्रिका में लिखा था, "कानूनों की व्याख्या करना न्यायालयों का उचित व विशिष्ट कार्यक्षेत्र है। 

संविधान आधारभूत कानून होता है और न्यायालयों को उसे आधारभूत कानून ही मानना चाहिए। इसलिए यह उनका कार्य होना चाहिए कि वे उसका तथा व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये किसी भी कानून का अर्थ निश्चित करें। 

यदि दोनों में कोई ऐसा अन्तर हो, जिसमें साम्य न बैठाया जा सके, तो निश्चय ही उसे ग्रहण किया जाना कानून की चाहिए, जिसकी मान्यता तथा वैधता श्रेष्ठतर हो, दूसरे शब्दों में, संविधान को तथा जनता के प्रतिनिधियों की इच्छा की तुलना में जनता की मान्यता अधिक होनी चाहिए।" तुलना में

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन का प्रयोग

1803 ई. में मारबरी बनाम मेडीसन के विवाद में न्यायमूर्ति मार्शल द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन के सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया गया और तब से अब तक इस सिद्धान्त का प्रयोग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय कांग्रेस द्वारा निर्मित 18 कानूनों को अवैध घोषित कर चुका है। 

उपर्युक्त प्रसिद्ध विवाद इस प्रकार का था कि मार्च 1801 ई. को राष्ट्रपति एडम्स ने मारबरी को कोलम्बिया जिले का न्यायाधिकारी  नियुक्त किया। 

लेकिन उपर्युक्त आदेश मारबरी को भेजे जाने के पूर्व ही राष्ट्रपति एडम्स का कार्यकाल समाप्त हो गया और नवीन राष्ट्रपति जैफरसन व उनके न्यायमन्त्री मेडीसन ने मारबरी को उपर्युक्त आदेश भेजने से इंकार कर दिया । 

अतः मारबरी ने 1789 ई. के न्यायपालिका अधिनियम की व्यवस्था के अन्तर्गत राष्ट्रपति के विरुद्ध परमादेश जारी करने की प्रार्थना की। 

1789 के न्यायपालिका अधिनियम में व्यवस्था की गयी थी कि प्रशासनिक अधिकारियों को परामर्श दिये जाने हेतु सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना की जा सकती है और सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा आदेश जारी करने का अधिकार होगा। 

इस विवाद में सर्वोच्च न्यायालय की ओर से न्यायाधीश मार्शल ने यह निर्णय दिया कि 1789 के न्यायपालिका अधिनियम के अन्तर्गत मारबरी नियुक्ति सम्बन्धी आज्ञापत्र प्राप्त करने का अधिकारी है। 

लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सम्बन्धित अधिकारियों को परमादेश नहीं दिया जा सकता, क्योंकि 1789 के जिस न्यायपालिका अधिनियम के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय को परमादेश जारी करने का अधिकार दिया गया है।

वह स्वयं संविधान की तीसरी धारा के विरुद्ध है; क्योंकि इसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय का प्रारम्भिक न्याय क्षेत्र उस न्यास क्षेत्र से अधिक कर दिया गया है, जो संविधान की उक्त धारा में दिया गया है । 

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने 1789 ई. के न्यायपालिका अधिनियम की एक व्यवस्था को अवैध घोषित करते हुए उसे लागू करने से इंकार कर दिया। न्यायाधीश मार्शल के उपर्युक्त निर्णय को निम्न रूपों में व्यक्त किया जा सकता है-

(i) संविधान एक लेखपत्र है जो शासन की शक्तियों को निश्चित और मर्यादित करता है।

(ii) संविधान देश का सर्वोच्च कानून है और इसलिए कांग्रेस द्वारा पारित अन्य कानूनों की तुलना में श्रेष्ठ है।

(iii) इसलिए संविधान के विपरीत बनाये गये कानून असंवैधानिक हैं और न्यायालय अवैध घोषित करते हुए उन्हें मानने से इंकार कर सकता है। 

न्यायिक पुनर्विलोकन की आलोचना

न्यायाधीश मार्शल द्वारा अपने निर्णय में न्यायिक पुनर्विलोकन के सिद्धान्त को प्रतिपादित किये जाने के पूर्व से ही इस धारणा की आलोचना की जाती रही है । 

जैफरसन इस शक्ति के प्रारम्भ से ही आलोचक थे और सीनेट के उम्मेदवार के रूप में प्रचार करते हुए अब्राहम लिंकन ने भी सर्वोच्च न्यायालय की इस शक्ति की कटु आलोचना की थी। 

अमरीकी संविधान के लेखकों में ब्रोगन, लुई, बोदा, एडम ब्रुक्स तथा लॉस्की इसके प्रमुख आलोचक रहे हैं। इन लेखकों द्वारा की गयी आलोचना के प्रमुख आधार निम्न प्रकार हैं

(1) न्यायिक पुनर्विलोकन का कोई सवैधानिक आधार नहीं- आलोचकों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के इस अधिकार का कोई संवैधानिक आधार नहीं है। संविधान में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय कानूनों की संवैधानिकता की परीक्षा कर उन्हें रद्द कर सकता है:

इस प्रकार की आलोचना का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय की इस शक्ति का बहुत कुछ सीमा तक संवैधानिक आधार है। इसके अतिरिक्त पिछले लगभग 195 वर्षों से इस अधिकार का प्रयोग किया जा रहा है और किसी ने भी न्यायालय के इस अधिकार को गम्भीर चुनौती नहीं दी है ।

(2) सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय राजनीति से प्रेरित- यह तो माना जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय को वैधानिकता के आधार पर कानूनों पर विचार करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए; किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वैधानिक निर्णय देते हुए उन्हें अपनी राजनीतिक विचारधारा से रंग देते हैं। 

इस सम्बन्ध में कहा जाता है कि केवल काला लबादा ओढ़ लेने से ही व्यक्ति राजनीति से मुक्त नहीं हो जाता ।” न्यायाधीश लोग जीवित प्राणी होते हैं, वे सामाजिक और राजनीतिक जीवन से प्रभावित होते हैं।

अतः जब कभी कांग्रेस का कोई ऐसा अधिनियम उनके सामने आता है जो उनकी विचारधारा के विरुद्ध होता है तो वे संवैधानिकता की आड़ में उसे रद्द कर देते हैं ।

न्यायाधीशों के निर्णय आर्थिक और राजनीतिक विचारधारा पर आधारित होते हैं, इसका प्रमाण यह है कि न्यायिक निर्णय में परिवर्तन होते रहे हैं। 

1923 में कांग्रेस द्वारा कोलम्बिया जिले के लिए पारित 'न्यूनतम मजदूरी अधिनियम' सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया गया कि यह संविधान के पांचवें संशोधन द्वारा प्रदत्त संविदा की स्वतन्त्रता के प्रतिकूल है। 

लेकिन 1957 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही पुराने निर्णय को रद्द करते हुए संविदा की स्वतंन्त्रता को दूसरे ही रूप में ग्रहण किया। मुख्य न्यायाधीश मार्शल और मुख्य न्यायाधीश टॉनी की विचारधारा में वैसा ही अन्तर देखा जा सकता है, जैसा अन्तर क्रमशः हेमिल्टन और जैफरसन की विचारधारा में था ।

(3) प्रगतिशीलता में बाधक - इस आधार पर भी आलोचना की जाती है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस शक्ति के प्रयोग में सामान्यतया प्रतिक्रियावादिता और रूढ़िवादिता का ही परिचय दिया है। 

सर्वोच्च न्यायालय आय कर व्यवस्था, न्यूनतम वेतन, उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों के काम करने के घण्टे निश्चित करने व दास प्रथा को समाप्त करने से सम्बन्धित प्रगतिशील विधेयकों को रद्द कर प्रगतिशीलता में बाधक बना है। 

राष्ट्रपति, रूजवेल्ट की नव-निर्माण आर्थिक नीति व उनके प्रशासन-काल में कांग्रेस द्वारा पारित 'राष्ट्रीय पुनरुद्धार एक्ट' तथा 'कृषि आयोजक एक्ट रद्द करके तो सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी प्रतिक्रियावादिता पर मोहर ही लगा दी । 

इसी आधार पर प्रो. लॉस्की का कथन है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने सदा ही सम्पत्तिशाली वर्ग के हितों की रक्षा की है और वह लॉर्ड सभा की भांति सम्पत्तिशाली वर्ग का गढ़ रहा है । 

(4) सर्वोच्च न्यायालय : कांग्रेस का तृतीय सदन - आलोचना का प्रमुख आधार यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी इस शक्ति के आधार पर कांग्रेस के तीसरे सदन की स्थिति प्राप्त कर ली है, जो नितान्त अनुचित है । 

प्रजातन्त्र में कानून -निर्माण की शक्ति जन-प्रतिनिधियों को ही प्राप्त होनी चाहिए और अमरीकी जनता इस कार्य के लिए कांग्रेस सदस्यों को चुनती है। 

लेकिन सर्वोच्च न्यायालय कांग्रेस द्वारा पारित अधिनियमों को अवैध घोषित कर एक 'उच्च विधानमण्डल' की स्थिति प्राप्त कर लेता है। सर्वोच्च न्यायालय का संगठन लोकतन्त्रीय नहीं है और न्यायाधीशों को कार्यपालिका ही नामजद करती है। 

अतः इन न्यायाधीशों को जन-प्र - प्रतिनिधियों से उच्च स्थिति प्रदान करना निश्चित रूप से अलोकतन्त्रीय ही है। लॉस्की और ब्रोगन ने इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय को 'कांग्रेस का तृतीय सदन' कहा है। 

जब सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा राष्ट्रपति रूजवेल्ट की नव-निर्माण आर्थिक नीति को रद्द किया गया, तो संघीय न्यायपालिका के पूर्ण पुनर्गठन की आवश्यकता बताते हुए राष्ट्रपति ने कांग्रेस को अपने सन्देश में कहा था “इस बात का महत्व ही नहीं है कि कांग्रेस ने कानून का निर्माण किया है। 

कार्यपालिका ने उस पर हस्ताक्षर किये हैं और प्रशासकीय तन्त्र उसे क्रियान्वित करने की प्रतीक्षा कर रहा है। न्यायपालिका एक अतिरिक्त कार्य अपने हाथ में ले रही है और उसके राष्ट्रीय व्यवस्थापिका में ढीले रूप में संगठित तथा धीमी प्रक्रिया से कार्य करने वाले तृतीय सदन का रूप हण किया जा रहा है ।

(5) निर्णय की त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया - सर्वोच्च न्यायालय की बहुमत निर्णय की जो प्रक्रिया है उसकी आलोचना की जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के अधिकांश निर्णय 4 के विरुद्ध 5 न्यायाधीशों के बहुमत से किये जाते हैं। 

4 न्यायाधीश तो कानून की संवैधानिकता में विश्वास व्यक्त करते हैं, लेकिन 5 न्यायाधीश उसे असंवैधानिक कहकर रद्द कर देते हैं। 

इस प्रकार एक न्यायाधीश सम्पूर्ण कांग्रेस और राष्ट्रपति के निर्णय पर निषेधाधिकार का प्रयोग करता है और यह स्थिति सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की बुद्धिमत्ता के प्रति शंका उत्पन्न कर देती है। 

प्रश्न यह है कि यदि कानून असंवैधानिक है तो न्यायाधीशों में मतभेद क्यों हैं ? निर्णय की यह त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया जनता में अविश्वास और निराशा भर देती है।

(6) सामाजिक व आर्थिक जीवन में अस्थिरता - सर्वोच्च न्यायालय की यह शक्ति सामाजिक और आर्थिक जीवन में बड़ी अस्थिरता उत्पन्न करने का भी कारण होती है। 

कई बार ऐसा होता है कि कांग्रेस का एक कानून काफी लम्बे समय तक प्रयोग में आता रहता है और लोग उसके अनुसार अपना कार्य करते रहते हैं।

लेकिन फिर एक दिन सर्वोच्च न्यायालय उसे अवैध घोषित कर देता है और वर्षों से उसके आधार पर किया गया समस्त कार्य असंवैधानिक हो जाता है। 

यह स्थिति नागरिकों में समस्त कानूनी ढांचे के प्रति शंका उत्पन्न कर देती है। इससे राजनीतिक जीवन के उद्देश्य भी निश्चित नहीं हो पाते ।

(7) विधानमण्डलों में उत्तरदायित्व का ह्रास - प्रो. ब्रोगन द्वारा इस आधार पर न्यायिक पुनर्विलोकन की आलोचना की गयी है। इसके परिणामस्वरूप विधानमण्डलों के उत्तरदायित्व की भावना कम होती है तथा उनके काम में लापरवाही व असावधानी बढ़ जाती है। 

कांग्रेस सदस्य यह सोचकर निश्चित हो जाते हैं कि यदि उनके द्वारा निर्मित कानूनों में कोई कमी रह भी गयी, तो सर्वोच्च न्यायालय उसे दूर कर लेगा ।

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