करारोपण के सिद्धांत बताइए

करारोपण के सिद्धांत बताइए

प्रो. एडम स्मिथ ने करों का वैज्ञानिक अध्ययन किया और करारोपण के चार सिद्धान्त प्रस्तुत किए जो आज भी कर नीति के आधार-स्तम्भ हैं। इन सिद्धान्तों की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि एडम स्मिथ ने इन सिद्धान्तों का उल्लेख अपनी पुस्तक 'Wealth of Nations' में किया है जो सन् 1776 में प्रकाशित हुई। 

किन्तु आज भी इन सिद्धान्तों का महत्व ज्यों का त्यों है। आज भी कोई राजस्ववेत्ता एडम स्मिथ के सिद्धान्तों का उल्लेख किए बिना नहीं रहता। इन चार सिद्धान्तों के बाद कुछ अन्य करारोपण के सिद्धान्त भी अन्य अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित किए गए हैं। प्रो. एडम स्मिथ के करारोपण के सिद्धान्त प्रो. एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित करारोपण के चार सिद्धान्त इस प्रकार हैं

1. समानता का सिद्धान्त - एडम स्मिथ का विचार था कि राज्य के प्रत्येक नागरिक को जहाँ तक संभव है, अपनी क्षमताओं के अनुपात में, सरकार की सहायता के लिए योगदान देना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि राज्य द्वारा नागरिकों की सेवाओं के लिए जो व्यय किया जाता है और राज्य के संरक्षण में लोग जिस प्रकार सेवाओं का उपभोग करते हैं। उसी अनुपात में लोगों को कर का भुगतान करना चाहिए। अभिप्राय यह है कि विभिन्न करदाताओं पर कर इस प्रकार से लगाया जाये कि करदाताओं पर कर के भार में समानता रहे। 

2. निश्चितता का सिद्धान्त – निश्चितता सिद्धान्त का अर्थ यह है कि करदाता को जो कर देना है, वह निश्चित होना चाहिए, मनमाना नहीं। यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि करदाता को कितना कर देना है, कर का भुगतान कब किया जाना है तथा कर के भुगतान की विधि क्या है ? एडम स्मिथ ने निश्चितता के सिद्धान्त पर इसलिए बल दिया, क्योंकि इसके अभाव में कर प्रणाली में भ्रष्टाचार की संभावना अधिक रहती है। 

करों के बारे में निश्चितता रहने से करदाताओं को इसका भार महसूस नहीं होता, क्योंकि वे पहले से ही इसके भुगतान की व्यवस्था कर लेते हैं। सरकार को भी निश्चितता के फलस्वरूप यह ज्ञात हो जाता है कि उसे करों से कितनी आय प्राप्त होगी। इससे सरकार को बजट बनाने में, सुविधा रहती है। निश्चितता के कारण ही यह कहा जाता है कि पुराना कर कोई कर नहीं होता। 

3. सुविधा का सिद्धान्त - प्रो. एडम स्मिथ का कहना है कि प्रत्येक कर को इस ढंग से अथवा ऐसे समय पर लगाया जाना चाहिए, जब वह भुगतान करने वाले के लिए पूर्ण सुविधाजनक हो। उदाहरणार्थ, आयकर उसी समय लगाया जाना चाहिए, जब करदाता को आय प्राप्त हो तथा इसे आय के स्रोत के स्थान पर ही काट लिया जाये। 

इस दृष्टि से बिक्री कर बहुत सुविधाजनक होता है, क्योंकि वस्तुओं को खरीदते समय ही उपभोक्ताओं से यह कर मूल्य में शामिल कर लिया जाता है। कर देते समय करदाता को कष्ट तो होता ही है, किन्तु सरकार करों को इस प्रकार वसूल कर सकती है कि करदाताओं को कष्ट और असुविधा न्यूनतम हो । जैसे- किसान से कर उस समय लिया जाये जब उसकी फसल की कटाई हो तो उसे न्यूनतम कष्ट होगा।

4. मितव्ययिता का सिद्धान्त - प्रो. एडम स्मिथ के अनुसार - प्रत्येक कर इस प्रकार लगाया जाना चाहिए कि करों से राज्य के कोषागारों को होने वाली आय की प्राप्ति के अतिरिक्त करदाताओं की जेबों से कम से कम रकम निकाली जाये। 

इस सिद्धान्त का अर्थ यह है कि कर वसूल करने में प्रशासनिक व्यवस्था पर कम से कम खर्च हो। ऐसा न हो कि जो रकम कर के रूप में वसूल की गई है। उसका अधिकांश भाग कर को वसूल करने में ही खर्च हो जाये। वही कर मितव्ययितापूर्ण कहा जा सकता है जिसको एकत्रित करने की लागत बहुत कम हो। मितव्ययिता का यह अर्थ है कि कर का व्यापार और उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। 

करों की मात्रा इतनी अधिक न हो कि उत्पादन हतोत्साहित हो। जैसा कि प्रो. डॉल्टन ने लिखा है कि कर की सर्वोत्तम प्रणाली वह है कि जिसमें कर को वसूल करने की लागत कर से प्राप्त आय के अनुपात में कम से कम हो। एडम स्मिथ के उपर्युक्त चार सिद्धान्तों में पहला अर्थात् समानता का सिद्धान्त न्याय से संबंधित है और शेष तीनों प्रशासन से संबंधित हैं।

करारोपण के अन्य सिद्धान्त

उपर्युक्त चार सिद्धान्तों के अतिरिक्त अन्य अर्थशास्त्रियों द्वारा करारोपण के अन्य सिद्धान्त भी प्रस्तुत किए गए हैं, जो इस प्रकार हैं -

1. उत्पादकता का सिद्धान्त, 2. सरलता का सिद्धान्त, 3 लोच का सिद्धान्त, 4. विविधता का सिद्धान्त, 5. वांछनीयता का सिद्धान्त, 6 समन्वय का सिद्धान्त, 7. पर्याप्तता का सिद्धान्त। 

1. उत्पादकता का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो. बैस्टेबल ने किया है। व्यावहारिक दृष्टि से यह सिद्धान्त बहुत महत्त्वपूर्ण है। बैस्टेबल के अनुसार - कर ऐसा होना चाहिए कि इससे सरकार को पर्याप्त आमदनी प्राप्त हो जाये। कोई कर उस समय उत्पादक समझा जाता है जबकि उससे वसूली अधिक और खर्च कम होता है। 

इस प्रकार कर प्रणाली इस तरह की होनी चाहिए कि थोड़े से करों द्वारा ही राज्य की आवश्यकता की पूर्ति के लिए यथेष्ट मात्रा में धन एकत्र हो जाये। उत्पादकता की दृष्टि से छोटे-छोटे अनेक करों के स्थान पर एक बड़ा कर अधिक अच्छा समझा जाता है। किन्तु इतना बड़ा भी न हो कि उत्पादन शक्ति व बचत करने की इच्छा पर बुरा प्रभाव पड़े। साथ ही उत्पादकता की दृष्टि से कर ऐसे होने चाहिए कि वर्तमान तथा भविष्य दोनों में ही सरकार की आय का प्रवाह बना रहे।

2. सरलता का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त का प्रतिपादन आर्मीटेज स्मिथ ने किया था। इस सिद्धान्त का अर्थ यह है कि कर प्रणाली सीधी-सादी व सरल होनी चाहिए। कर प्रणाली में सरलता उस समय मानी जाती है। जबकि करदाता बिना वकीलों या विशेषज्ञों की सहायता से कर उद्देश्यों व उसके प्रभावों तथा कर की दरों को समझ लें। 

किन्तु वास्तविकता तो यह है कि आधुनिक सरकारों की दिन प्रतिदिन बढ़ती हुई वित्तीय आवश्यकताओं और कराधान को अधिक सरल एवं न्यायपूर्ण बनाने की माँग ने आजकल कर पद्धतियों को काफी जटिल बना दिया है। परिणास्वरूप सरलता के सिद्धान्त का हनन हो रहा है।

3. लोच का सिद्धान्त - प्रो. बैस्टेबल ने लोच के सिद्धान्तों को बहुत महत्त्वपूर्ण बताया है। उनका मत है कि कर लोचदार होना चाहिए, जिससे कि इससे प्राप्त होने वाली आय को आवश्यकतानुसार घटाया- बढ़ाया जा सके। 

युद्धकाल के समय और आर्थिक विकास के समय सरकार को अधिकाधिक धन की आवश्यकता होती है। ऐसे समय में यदि कर प्रणाली लोचदार है तब सरकार कर में वृद्धि करके या नए कर लगाकर अपनी आय में वृद्धि कर सकती है। आयकर में लोच के सिद्धान्त की बहुत आवश्यकता होती है। वर्तमान में यही कर सार्वजनिक आय का महत्वपूर्ण साधन बन गया है।

4. विविधता का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त का अर्थ यह है कि कर प्रणाली में अनेक प्रकार के कर होने चाहिए, ताकि नागरिकों का प्रत्येक वर्ग, सरकार को धन प्रदान करने के उत्तरदायित्व का अपना उचित भाग सहन कर सके। 

दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि कर प्रणाली में कर इस प्रकार होने चाहिये कि राष्ट्र के प्रत्येक सदस्य से कुछ न कुछ अंशदान लिया जा सके किन्तु इस नियम का प्रयोग एक सीमा तक ही किया जा सकता है। क्योंकि यदि कर प्रणाली में करों की संख्या बहुत अधिक है तो यह व्यवस्था मितव्ययी और उत्पादकता के नियमों के विरुद्ध होगी। कई प्रकार के करों से कर वसूल करने की लागत बढ़ जाती है, अतः अत्यधिक विविधता अवांछनीय है।

5. वांछनीयता का सिद्धान्त - सामान्यतया, सरकार जब भी नया कर लगाती है तो इसका जनता द्वारा विरोध किया जाता है। इस दृष्टि से सरकार जब भी कोई नया कर लगाए तो उसके पीछे कोई न कोई आधार अवश्य होना चाहिए। नए कर लगाने के पूर्व व करों में वृद्धि से पूर्व सरकार को ऐसा वातावरण स्थापित कर लेना चाहिए कि जनता को करों में वृद्धि का एहसास हो जाये और उनके औचित्य पर भी पूरा विश्वास हो जाये।

6. समन्वय का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त से तात्पर्य, विभिन्न सरकारों द्वारा लगाए गए करों में समन्वय से है। एक सरकार द्वारा लगाए गए विभिन्न करों एवं विभिन्न सरकारों के करों में इस प्रकार का समन्वय होना चाहिए कि किसी एक वस्तु या सम्पत्ति पर दोबारा कर न लग सके।

7. पर्याप्तता का सिद्धान्त - प्रो. फिण्डले शिराज के अनुसार, एक अच्छी कर प्रणाली में पर्याप्तता का भी गुण होना चाहिए। जहाँ तक पर्याप्तता का प्रश्न है, यह एक अस्पष्ट धारणा है। पर्याप्तता का संबंध आवश्यकताओं से है। पर्याप्तता इस बात पर भी निर्भर करती है कि राज्य की आवश्यकताएँ कितनी हैं। वस्तुतः यह एक निरपेक्ष गुण है तथा बहुत सी परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

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