कर्म क्या है - कर्म का सिद्धांत - karm kya hai karm ka siddhant

कर्म शब्द की व्युत्पत्ति 'कृ' धातु से हुई है जिसका अर्थ है करना 'व्यापार' या 'हलचल' । इस अर्थ की दृष्टि से मनुष्य जो कुछ करता है। वह सभी 'कर्म' के से अन्तर्गत आता है - खाना, पीना, सोना, उठना, बैठना, चलना, विचार या इच्छा करना, दान-दक्षिणा देना, यज्ञ करना, ध्यान करना, लड़ना-झगड़ना आदि सभी गीतों के अनुसार 'कर्म' की श्रेणी में आते हैं। 

कर्म क्या है

इसका तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य जो कुछ करता है। वह सभी कर्म है। कर्म का सम्बन्ध संस्कृत भाषा के शब्द 'कर्मन्' से है जिसका अर्थ- कर्त्तव्य, कार्य, क्रिया, कृत्य या दैव से है। इस दृष्टि से कर्म का तात्पर्य उन सभी क्रियाओं से है जो मनुष्य अपने दायित्वों के निर्वाह हेतु करता है अथवा जिनसे व्यक्ति के भाग्य का निर्माण होता है।

गीता के अनुसार मन (मनसा), वाणी (वाचा) तथा शरीर (कायिक) से की गयी सभी प्रकार की क्रियाएँ कर्म ही हैं। व्यक्ति में जो कुछ विचार, इच्छा. या संकल्प आदि करता है दूसरों को जो कुछ कहता या बातचीत करता है और व्यवहार के रूप में जो कुछ प्रकट में करता है। सभी कर्म हैं।

कर्म के अर्थ के अन्तर्गत तीन तत्त्व - कर्ता, परिस्थिति एवं प्रेरणा सम्मिलित है। कर्म को सम्पादित करने के लिए किसी व्यक्ति का होना आवश्यक है जो कर्ता के नाम से जाना जाता है। साथ ही कर्ता कोई क्रिया शून्य में नहीं करता बल्कि उसके लिए एक परिस्थिति का होना भी आवश्यक है। 

परिस्थिति के अतिरिक्त कर्म के सम्पादन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति को कोई न कोई प्रेरणा प्राप्त हो। बिना प्रेरणा या कारण के कर्म का सम्पन्न होना सम्भव नहीं है। इन तीनों तत्वों के सम्मिलित हुए बिना कर्म का सम्पन्न होना सम्भव नहीं है। 

इन तीनों तत्वों के सम्मिलित होने पर ही कर्म सम्पादित होता है। भगवद्गीता में कर्म के पाँच तत्वों का उल्लेख किया गया है जो इस प्रकार हैं- (1) कर्ता, (2) कार्य का स्थान, (3) साधन, (4) प्रयत्न, और (5) भाग्य। 

कर्म के साथ कर्म - फल भी जुड़ा हुआ है अर्थात् व्यक्ति को अपने प्रत्येक कर्म का अच्छा या बुरा परिणाम भी कर्मानुसार भुगतना पड़ता है। व्यक्ति को अपने सभी कर्मों का फल भोगने के लिए भिन्न-भिन्न रूपों में जन्म लेना पड़ता है। एक के बाद दूसरी योनि ग्रहण करनी पड़ती है। व्यक्ति के वर्तमान जीवन का पूर्वजन्म या अतीत में किये गये कर्मों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है।

कर्म का सिद्धान्त

हिन्दू विचारधारा में कर्म के सिद्धान्त का अत्यधिक महत्व है। जीवन की अनेक घटनाएँ जो साधारणतः निरर्थक प्रतीत होती हैं, इस सिद्धान्त के आधार पर सारगर्भित मालूम होने लगती हैं। इस सिद्धान्त को समझकर मनुष्य अपनी कितनी ही अप्रिय घटनाओं को अपनी इच्छानुसार परिवर्तित भी कर सकता है। कर्म मानव का एक आधारभूत गुण है। 

कर्म मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है और कर्मातीत होना जीवन का एक अंततोगत्वा उद्देश्य है। कर्म से अभ्युदय भी मिलता है और अधोगति भी गौरीशंकर भट्ट ने लिखा है। सुकर्म से मोक्ष (परमगति) की साधना होती है और अकर्म से अधोगति मिलती है। 

कर्म तथा अकर्म के विचार और निर्णय का आधार धर्म है। कर्माकर्म के परिणामों से उत्पन्न भोग का ही नाम जीवन है। दुःख-सुख, भोग, क्लेश का सम्बन्ध कर्म और देहीवान से है। देही नश्वर है और आत्मा अमर है। स्वभावतः आत्मा अमरत्व (ब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर और प्रजापति) की ओर उन्मुख है और जीव सांसारिक (इहलौकिक) गतियों की ओर, चौरासी लाख यौनियाँ जीव की विभिन्न सांसारिक गतियाँ हैं। 

जीवात्मा के सुकर्म आत्मा को अमरत्व की ओर ले जाती है और अकर्म सांसारिक गतियों की ओर। आत्मा अमर अवश्य है। लेकिन जीवात्मा के कर्मों के प्रभावों से वह परे नहीं है। इस प्रकार इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जिस प्रकार का कार्य करता है।  

उसे उसका तद्नुसार फल अवश्य प्राप्त होता है। व्यक्ति की मृत्यु उसके जीवन की एक सीढ़ी मात्र है, उसके जीवन की समाप्ति नहीं है। इसलिए कर्म फल व्यक्ति को पाप-पुण्य आगे के जीवन में भी प्राप्त हो सकते हैं और होते हैं। शान्तिपर्व में कहा है, मनुष्य का संग कभी नहीं छोड़ते। 

इस प्रकार ये छाया के समान उसका अनुसरण करते रहते हैं। पहले जिस-जिस ने जैसे-जैसे कर्म किये होते हैं, वह उनका उस प्रकार से अवश्य फल भोगता है। मनुष्य अपने शुभाशुभ कर्मों के द्वारा ही अपने सुख-दुःख का विधान करता है। 

वह जब से गर्भ में आता है तभी से अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोगने लगता है। जिस प्रकार बछड़ा हजारों गौओं में अपनी माता को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्वजन्म में किया हुआ कर्म अपने कर्त्ता के पास पहुँच जाता है। 

मनु ने पाप-कर्मों का कायिक, वाचिक और मानसिक श्रेणियों में विभाजन कर बताया है कि इनके परिणामस्वरूप कायिक, वाचिक और मानसिक कष्ट प्राप्त होते हैं। जीव मानसिक शुभाशुभ कर्मों का फल मन से वाचिक का वाणी से और शारीरिक का शरीर से भोगता है। 

कर्म फल कई प्रकार से मिलने का वर्णन शास्त्रों में दिया गया है। गरुड़ पुराण में लिखा है, "ब्रह्महत्यारा क्षय रोगी होता है तथा गौघाती में कुबड़ा और जड़ होता है। कन्या को मारने वाला कोढ़ी होता है और ये तीनों चाण्डाल योनि में जन्म लेते हैं। स्त्री की हत्या करने वाला तथा गर्भपात करने वाला पुलिन्द जाति में होता है।

ऐसी स्त्री से संसर्ग करने वाला, जिसका संसर्ग निषिद्ध है। नपुंसक होता है तथा गुरु स्त्रीगमन से चर्मरोगी होता है। माँस भक्षण करने वाला गहरे लाल रंग का होता है तथा मद्य पीने वाला काले दाँत धारण करता है। लालच से अभक्ष्य भक्षण करने वाला बड़े पेट वाला होता है। 

जो स्वयं ही मिष्ठान खा लेता है उसको गलगण्ड (गले में गोला) हो जाता है। आदि कर्म फल के रूप में उत्पन्न होने वाले रोगों के वर्णन मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, वशिष्ठ सूत्र तथा विष्णु धर्म सूत्र में भी है।

अतः स्पष्ट है कि कर्म का सिद्धान्त इस सिद्धान्त पर आधारित है कि मनुष्य जो भी कुछ कार्य करता है उसका कुछ-न-कुछ प्रतिफल होता है। अर्थात् कार्य का कारण एवं कारण का कार्य अवश्य होता है। कर्म सिद्धान्त को लोकोक्ति की भाषा में इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है- “जो जस करे सौ तस फल चाखा ।

बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाय अर्थात् जो जैसा करेगा वैसा ही फल मिलेगा। यदि आम का पेड़ लगाया है तो आम प्राप्त होंगे और यदि बबूल का पेड़ लगाया है तो फल भी बबूल के ही लगेंगे। ऐसा सम्भव नहीं कि बबूल के पेड़ से आम के फल प्राप्त हों। 

इसी प्रकार मनुष्य जो कार्य करता है उनका भी ठीक ऐसा ही परिणाम होता है। अच्छे कार्य आत्मा को परमात्मा से मिलने में सहायता देते हैं, लेकिन बुरे कर्मों के कारण आत्मा की कर्मानुसार, जीव की विभिन्न गतियों में पुनरावृत्ति हुआ करती है।

कर्म का सिद्धान्त एक वैज्ञानिक तथ्य है। विज्ञान की यह प्रमुख मान्यता रही है कि कोई घटना बिना कारण के नहीं होती। कोई भी घटना ऐसी नहीं जिसके पीछे कोई ठोस और निश्चित कारण न हो। 

युद्ध, भूकम्प अथवा ज्वालामुखी का विस्फोट, महामारी का प्रकोप, बिजली का गिरना, बाढ़ों का आना या शारीरिक रोग, दुर्देव आदि सबके पीछे निश्चित कारण होता है। अतः स्पष्ट है कि प्रत्येक कर्म का कोई कारण है और कोई कारण अस्तित्व में आने पर किसी कार्य को जन्म देता है। 

कर्म का सिद्धान्त भी विज्ञान के इसी मौलिक तथ्य 'कार्य-कारण' सम्बन्ध पर आधारित है। किसी भी कर्म में कर्त्ता, परिस्थिति और कर्म करने की प्रेरणा देने वाला कारक ये तीन तत्व आवश्यक रूप से पाये जाते हैं।

कर्म के सिद्धान्त का महत्व

कर्म सिद्धान्त हिन्दू धर्म दर्शन और सामाजिक जीवन की आधारशिला है। कर्म सिद्धान्त की बहुत उपयोगिता है। इसके द्वारा मनुष्य सदैव कर्म करते रहने की प्रेरणा पाता है, क्योंकि जैसा शुभ आज कर्म करेगा वैसा ही फल प्राप्त होगा। 'कर्म' का सिद्धान्त पूर्व के लिए हुए कर्मों की दृष्टि से तो भाग्यवादी है।  

क्योंकि जो कर्म किए हैं उनका फल प्राप्त होगा ही और इस कारण वर्तमान की पतित अवस्था के लिए न तो किसी को कोसने की आवश्यकता है और न वर्तमान की श्रेष्ठ स्थिति के लिए अभिमान करने की आवश्यकता। जहाँ वर्तमान में प्राप्त होने वाले फल की दृष्टि से यह भाग्यवाद है और वर्तमान की अवस्था में यह संतोष की वृत्ति पैदा करता है। 

वहाँ भविष्य की दृष्टि से यह मनुष्य को आगे बढ़ने का आह्वान करता है। इस सिद्धान्त के कारण यह भी निश्चित हो जाता है कि सांसारिक जीवन की गति संसार के किसी कोने में बैठे हुए परमात्मा की किन्हीं चित्र विचित्र इच्छाओं पर निर्भर नहीं है। अपितु वह प्रकृति के निश्चित नियमों पर अवलम्बित है। 

जैसे- सूर्य का उगना, पानी का नीचे की ओर बहना, ऋतुओं का निश्चित रूप से एक के पश्चात् एक आना निश्चित है, उसी प्रकार जीवन में प्रत्येक को 'जैसा जो करेगा वैसा उसे फल प्राप्त करना' निश्चित है। 

अतः आगे की प्रगति की दृष्टि से भी उसे किसी दूसरे पर निर्भर अथवा अवलम्बित रहना ठीक नहीं, प्रगति करना उसका अपना व्यक्तिगत उत्तरदायित्व है। "मनुष्य किसी के हाथ का खिलौना नहीं है वह अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है।

कर्म का सिद्धान्त मनुष्य के सामने परोपकार की भावना रखता है। स्वयं के लिए जीना मोक्ष का मार्ग नहीं है। मानव मात्र के सुख के लिए कर्म करना हितकर है। अच्छे कर्म करने से पारलौकिक जीवन बनता है, अर्थात् भावी जीवन के आनन्द का आधार वर्तमान जीवन के सत्कर्म हैं। 

इस प्रकार के सिद्धान्त को मानने वाला व्यक्ति अनासक्त भाव से वर्ण और आश्रम धर्म के अनुसार अपने निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करते हुए सबके सुख के लिए, परहित के लिए कर्म करता है।

कर्म सिद्धान्त को जानने से मनुष्य अपना जीवन इस ज्ञान के आधार पर विचारपूर्ण ढंग से ढालकर सुख और आनन्द की ओर निरन्तर अग्रसर हो सकता है। जीवन से हितकर नियमों पर आश्रित आचार-व्यवहार के कारण मनुष्य दैवीय विधान में सक्रिय सहयोग दे सकता है और वैसा करने से उसे चिर शांति एवं अनन्त आनन्द का अनुभव भी हो सकता है।

कर्म के सिद्धान्त को समझ लेने पर असहाय व्यक्ति भी आनन्द विभोर हो उठता है। इससे निराशों की आशा, असहायों को सहायता, दुर्बलों को बल और दुःखियों को आनन्द मिलता है । यह डूबते को उबारता है । यह पिछड़े हुए लोगों के लिए उद्धार का आदर्श है।

सामाजिक क्षेत्र में भी कर्म का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। समाज के संगठन और संरचना के अनुसार मनुष्य की स्थितियों के अनुकूल कार्य करने की प्रेरणा देकर, कर्म का सिद्धान्त समाज में सुव्यवस्था, सुरक्षा तथा सामंजस्य का वातावरण निर्माण करता है। 

यह सिद्धान्त यह बताता है कि मनुष्य को अपनी वृत्ति, रुचि और योग्यता के अनुसार समाज की सेवा करनी चाहिए। गोखले के अनुसार यदि धर्म से यह व्यक्त होता है कि क्या होना चाहिए तो कर्म से यह स्पष्ट होता है कि क्या है और क्या हो सकता है।

धर्म वैयक्तिक सामाजिक जीवन की व्यवस्था का निरूपण है और कर्म में निहित व्यवस्था के अनुसार सांसारिक तथा सामाजिक भिन्नताओं में व्यवस्था लाने का एक विशिष्ट तथा प्रभावपूर्ण प्रयास है।

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