लाभ का सिद्धांत क्या है?

लाभ का सिद्धांत क्या है

लाभ के सिद्धांत लाभ क्यों उत्पन्न होता है तथा उसका निर्धारण किस प्रकार होता है, इस बारे में अर्थशास्त्रियों में मतभेद हैं। अर्थशास्त्रियों ने लाभ के अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नांकित हैं

1. लाभ का जोखिम सिद्धांत - लाभ के जोखिम सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरिका के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. हॉले ने किया। हॉले के अनुसार, लाभ साहसी द्वारा जीखिम उठाने तथा उसके उत्तरदायित्व का पुरस्कार होता है। प्रत्येक व्यवसाय में जोखिम होते हैं और केवल साहसी इन जोखिमों को उठाता है। 

अतः साहसी को इसके प्रतिकूल के रूप में लाभ की प्राप्ति होती है। वास्तव में लाभ से प्रेरित होकर ही साहसी जोखिम उठाने के लिए तैयार होता है। इस प्रकार लाभ जोखि। उठाने का पुरस्कार है।

विभिन्न व्यवसायों की जोखिम की मात्रा में अन्तर होता है। इसी कारण साहसियों के लाभों में भी अन्तर होता है। जिन व्यवसायों में जोखिम का अंश अधिक होता है उनमें लाभ की मात्रा भी अधिक होगी और जिनमें जोखिम का अंश कम होता है उनमें लाभ की मात्रा भी कम होती है।

2. लाभ का अनिश्चितता वहन - लाभ के अनिश्चितता वहन सिद्धांत का प्रतिपादन प्रो. नाइट ने किया है। इस सिद्धांत के अनुसार, साहसी के लाभ जोखिम उठाने के लिए नहीं, बल्कि अनिश्चितता वहन करने के लिए प्राप्त होते हैं। 

प्रो. नाइट के अनुसार, लाभ अनिश्चितताओं को उठाने का पुरस्कार है तथा लाभ की मात्रा अनिश्चितता वहन करने पर निर्भर करती है। प्रो. नाइट जोखिम तथा अनिश्चितताओं में अन्तर करते हैं। उनके अनुसार, सभी प्रकार की जोखिमों में अनिश्चितता नहीं होती है। इस बात को समझाते हुए वह कहते हैं कि व्यवसाय में जोखिम दो प्रकार की होती है - ज्ञात या निश्चित जोखिम तथा अज्ञात या अनिश्चित जोखिम।

ज्ञात या निश्चित जोखिम वह होती है जो पहले से ज्ञात होती है, जैसे- आग, दुर्घटना, चोरी आदि। इस प्रकार की जोखिमों का पहले से बीमा कराया जा सकता है। साहसी को इन जोखिमों के बारे में क्योंकि पहले से पता होता है और वह बीमा कराके निश्चित हो जाता है। इसलिए इस प्रकार के जोखिम कोई अनिश्चितता उत्पन्न नहीं करते हैं। इस प्रकार के जोखिम लाभ को उत्पन्न नहीं करते हैं ।

अज्ञात या अनिश्चित जोखिमें वह होती है। जिनका पहले से अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। इसलिए उनका बीमा भी नहीं कराया जा सकता है। इस प्रकार की जोखिमें हैं - व्यक्तियों की रुचियों, फैशन, आदतों में परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँग की दशाओं में परिवर्तन तकनीकी प्रगति के फलस्वरूप नयी मशीनों का आविष्कार, व्यापार चक्र, सरकार की नीतियों में परिवर्तन आदि। 

यह जोखिम अनिश्चितता को जन्म देती है और इन्हें वहन करने के कारण ही साहसी को पुरस्कार के रूप में लाभ की प्राप्ति होती है। वास्तव में, लाभ की मात्रा इस प्रकार की जोखिमों की मात्रा पर ही निर्भर करती है।

3. लाभ का गतिशील सिद्धांत - लाभ के गतिशील सिद्धांत के प्रतिपादक अमेरिका के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे. बी. क्लार्क हैं। क्लार्क के अनुसार अर्थव्यवस्था गतिशील होती है जिसमें निरंतर आधारभूत परिवर्तन होते रहते हैं, जो कि कीमत तथा उत्पादन लागत में अन्तर उत्पन्न कर देते हैं जिसके परिणामस्वरूप लाभ उत्पन्न होता है। अतः लाभ केवल प्रावैगिक अर्थव्यवस्था में ही संभव है, स्थैतिक अर्थव्यवस्था में लाभ उत्पन्न नहीं होगा।

क्लार्क के अनुसार - आधारभूत परिवर्तन जो कि अर्थव्यवस्था को गतिशील या प्रावैगिक बनाते हैं, पाँच प्रकार के होते हैं - (i) जनसंख्या में परिवर्तन, (ii) पूँजी की मात्रा में परिवर्तन, (iii) उपभोक्ताओं की रुचियों, पसंदानियों तथा आवश्यकताओं में परिवर्तन, (iv) उत्पादन की उन्नत विधियों का आविष्कार एवं (v) व्यावसायिक संगठन के स्वरूपों में परिवर्तन।

क्लार्क अनुसार, गतिशील समाज में एक साहसी नयी उत्पादन रीतियों, आविष्कारों आदि का प्रयोग करता है, फलस्वरूप उसकी उत्पादन लागत में कमी आ जाती है तथा लाभ प्राप्त होने लगते हैं। लेकिन लाभ की यह दशा शीघ्र ही समाप्त हो जाती है।

क्योंकि प्रतियोगिता उत्पन्न होने के कारण कीमत तथा लागत का यह अन्तर समाप्त हो जाता है अर्थात् लाभ प्राप्त नहीं होते हैं। साहसी पुनः नयी उत्पादन रीतियों की खोज करता है, पुनः उसकी उत्पादन लागत कम होती है तथा उसे लाभ प्राप्त होने लगते हैं। इस प्रकार एक साहसी प्रावैगिक या गतिशील अर्थव्यवस्था में लाभ प्राप्त करने की संभावनाएँ सदैव बनाये रखता है।

इसके विपरीत, स्थैतिक समाज में इन गतिशील परिवर्तनों का अभाव होता है तथा अनिश्चितताएँ नहीं होती हैं। अतः कीमत और लागत में अन्तर नहीं होता है। फलास्वरूप लाभ भी प्राप्त नहीं होता।

4. लाभ का नव प्रवर्तन का सिद्धांत - लाभ का नव-प्रवर्तन सिद्धांत प्रो. शूम्पीटर द्वारा प्रतिपादित किया गया है। यह सिद्धांत क्लार्क के 'गतिशील सिद्धांत' से काफी मिलता-जुलता है। प्रो. शूम्पीटर ने भी लाभ को गतिशील परिवर्तनों का परिणाम माना है। उनके अनुसार, लाभ उत्पादन प्रक्रिया में होने वाले नव-प्रवर्तनों के कारण होता है। नव-प्रवर्तन अनेक प्रकार के हो सकते हैं।

जैसे- नयी मशीन, नये यंत्र अथवा नयी उत्पादन रीति का आविष्कार, कच्चेमाल के नये स्रोतों की खोज, वस्तु की किस्म में परिवर्तन, वस्तु की नये बाजार में बिक्री, वस्तु के वितरण तथा विक्रय की नयी रीतियाँ इत्यादि। इन नव- प्रवर्तनों के कारण लागत में कमी हो जाती है तथा कीमत और लागत का अन्तर लाभ उत्पन्न करता है।

नव-प्रवर्तन लाभं को उत्पन्न करते हैं और अनुकरण लाभ को समाप्त करते हैं अर्थात् जब कोई साहसी नव प्रवर्तन को प्रयोग में लाता है तो उसे लाभ की प्राप्ति होती है। लाभ से आकर्षित होकर अन्य साहसी भी उस नव प्रवर्तन का अनुकरण करते हैं।

जिससे नव-प्रवर्तन में कोई नवीनता नहीं रह जाती तथा लाभ समाप्त हो जाते हैं। लेकिन लाभ समाप्त होने से पूर्व एक कुशल साहसी किसी दूसरे नव-प्रवर्तन को जन्म दे देता है तथा लाभ पुन: उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार लाभ की इच्छा नव-प्रवर्तनों को जन्म देती है, क्योंकि अर्थव्यवस्था में पुराने नव-प्रवर्तन की नये नव-प्रवर्तनों द्वारा प्रतिस्थापना होती रहती है।

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