अर्थव्यवस्था किसे कहते हैं?

अर्थव्यवस्था में विभिन्न बाजार होते हैं, जो खरीदारों और विक्रेताओं का समूह होता है। अर्थव्यवस्था में दुर्लभ संसाधनों को आवंटित किया जाता है। देश की अर्थव्यवस्था आयात और निर्यात पर निर्भर करता है। देश का विकास आर्थिक नीति पर निहित होती हैं।

आर्थिक बाजार एक सूक्ष्म आर्थिक तंत्र है जो बताता है कि अर्थव्यवस्था कैसे काम करती है। उत्पादन के कारकों को उनकी पूरी क्षमता के उपयोग के लिए, उन्हें एक अर्थव्यवस्था में संगठित करने की आवश्यकता है।

एक अर्थव्यवस्था में ऐसे उपभोक्ता होते हैं जो उत्पादों और सेवाओं को खरीदते हैं, व्यवसाय जो उपभोक्ताओं को रोजगार देते हैं और सामान बनाते हैं, और सरकार विभिन्न स्तरों पर जो उत्पाद खरीदते हैं, श्रम लगाते हैं और कर लगाते हैं। उनकी सामूहिक बातचीत एक सरलीकृत अर्थव्यवस्था का निर्माण करती है।

अर्थव्यवस्था किसे कहते हैं

अर्थव्यवस्था का अर्थ एवं परिभाषा - अर्थव्यवस्था उन विभिन्न प्रणालियों एवं संगठनों का समूह है, जो कि लोगों को आजीविका प्रदान करता है। प्रत्येक व्यक्ति को जीविकोपार्जन के लिए श्रम करना पड़ता है, और उसके बदले में उसे आय प्राप्त होती है। 

एक अर्थव्यवस्था कृषि कार्य, कारखानों, सड़कों, रेल, दुकान, कार्यालयों, अस्पतालों, शिक्षण संस्थाओं, बैकिंग, बीमा, परिवहन संचार, व्यापार आदि का वह संगठन है, जिसके द्वारा लोग अपना भरणपोषण करते हैं। इस प्रकार एक अर्थव्यवस्था वह प्रणाली है। जो कि लोगों को जीविकोपार्जन के साधन प्रदान करती है।

प्रो. डब्ल्यू एन लुक्स के शब्दों में अर्थव्यवस्था में उन सभी संस्थाओं को शामिल किया जाता है, जिन्हें कुछ निश्चित लोगों पर किसी राष्ट्र या राष्ट्रों के किसी निश्चित समूह ने ऐसे साधनों के रूप में चुना ने है। जिनके माध्यम से मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए संसाधनों का उपयोग किया जाता । प्रो. ए. जे. ब्राउन के अनुसार- अर्थव्यवस्था से आशय एक ऐसी प्रणाली से है, जिसके द्वारा लोग जीविका प्राप्त करते हैं। 

आर्थिक व्यवस्थाएँ - प्रत्येक देश की अपनी भौगोलिक स्थिति समय तथा सामाजिक व आर्थिक क्रियाओं के आधार पर अर्थव्यवस्था का स्वरूप आधारित होता है। किसी भी अर्थव्यवस्था की स्थापना देश काल व परिस्थिति पर निर्भर करती है। 

आय के आधार पर विश्व में विभिन्न प्रकार की अर्थव्यवस्था पाई जाती है। उदाहरण स्वरूप निम्न आय वर्ग अर्थात् अल्प विकसित, मध्यम आय वाली विकासशील तथा ऊँची आय वाली विकसित अर्थव्यवस्था के नाम से जानी जाती है। दूसरी ओर किसी अर्थव्यवस्था को उनके स्वरूप तथा कार्यप्रणाली से जाना जा सकता है। अतः अर्थव्यवस्थाएँ मोटे तौर पर तीन प्रकार की होती है।

  1. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था
  2. समाजवादी अर्थव्यवस्था
  3. मिश्रित अर्थव्यवस्था

पुँजीवादी अर्थव्यवस्था

अर्थ एवं परिभाषा - इस अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर व्यक्तियों या निजी कंपनियों का स्वामित्व एवं नियंत्रण होता है। उन्हें व्यक्तिगत लाभ कमाने तथा उसके उपयोग करने की पूरी स्वतंत्रता होती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी संपत्ति रख सकता है। हर व्यक्ति को व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता होती है। प्रो. एस. सी. पीयू ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है। 

एक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था वह है, जिसमें उत्पादन के साधनों पर निजी व्यक्तियों का स्वामित्व होता है और वे उनके द्वारा इस प्रकार से संचालित किए जाते हैं, कि जिन वस्तुओं या सेवाओं से उत्पादन में ये साधन सहायता देते है, उनको लाभ पर बेचा जा सके।

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के लक्षण 

1. निजी संपत्ति - पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की बुनियादी विशेषता निजी स्वामित्व है। इस व्यवस्था में व्यक्तियों को निजी संपत्ति रखने तथा देश के नियम कानूनों के अनुसार उसका उपयोग करने का वैधानिक अधिकार होता है इस तरह से उत्पादन के साधनों पर पूँजीपतियों का पूरा नियंत्रण व अधिकार रहता है।

2. उद्यम की स्वतंत्रता - सभी व्यक्ति अपनी इच्छानुसार आर्थिक क्रिया में अपने को लगाने के लिए स्वतंत्र होते हैं। लोग अपनी योग्यता के अनुसार उपयुक्त व्यवसाय चुन सकते हैं।

पूँजीपतियों को जिस उद्योग में अधिक लाभ होता है, उसी में पूँजी निवेश करते हैं और उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, जिसमें उनको आर्थिक लाभ होने की आशा हो। मजदूर वर्ग भी अपना व्यवसाय उद्योग और मालिक चुनने के लिए स्वतंत्र होते हैं। 

3. लाभ की भावना- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में लाभ की भावना का सर्वोच्च स्थान है, लाभ को पूँजीवादी आर्थिक संस्थाओं का हृदय कहा जाता है, इसमें उत्पादन का उद्देश्य केवल लाभ अर्जित करना होता हैं, पूँजीपति उसी वस्तु का उत्पादन करता है, जिसके उत्पादन से उसे अधिक लाभ होता है।

4.उपभोक्ता की सार्वभौमिकता- प्रायः यह कहा जाता है कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में उपभोक्ता की सार्वभौमिकता रहती है या उपभोक्ता राजा होता है इसका अर्थ है कि पूँजीवाद में उत्पादन से संबंधित सभी निर्णय उपभोक्ता की इच्छा एवं पसंद के आधार पर लिए जाते हैं। 

5. मूल्य यंत्र - पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का संचालन किसी केन्द्रीय शक्ति या नियोजन के द्वारा न होकर मूल्ययंत्र के द्वारा होता है, मूल्य यंत्र से आशय सभी क्षेत्रों में माँग एवं पूर्ति की स्वतंत्र शक्तियों की क्रियाशीलता से है।

पूँजीवाद में किस वस्तु का उत्पादन किया जावे, उत्पादन कितनी मात्रा में हो और उत्पादन का वितरण किस प्रकार से किया जावे आदि का निर्णय मूल्य यंत्र द्वारा होता है। यहाँ पर स्पष्ट हो जाना चाहिए कि जब कीमतें या मूल्य अधिक होते हैं तो उत्पादक अधिक होते हैं तो उत्पादक अधिक उत्पादन करने के लिए प्रेरित होता है और कम मूल्य होने पर वह उतना उत्पादन नहीं करता।

पूँजीवाद के गुण

1. साधनों का सर्वोत्तम उपयोग - पूँजीवाद में व्यक्ति निजी हित के लिए कार्य करता हुआ अपने आर्थिक साधनों की प्रत्येक ईकाई का उपयोग सबसे अधिक लाभ-प्रद रीति से करने का प्रयास करता है, इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह अपने साधनों का उपयोग करने की नई पद्धति की खोज में सतर्क रहता है।

2. कुशलता को प्रोत्साहन - पूँजीवाद में व्यक्ति लाभ प्राप्त करने के प्रयासों में प्रतियोगिता करता है, लाभ प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति पूरी शक्ति एवं कुशलता से कार्य करता है, सफलता की आशा एवं असफलता का भय दोनों ही उन्नति करने एवं उत्पादन बढ़ाने के लिए सहायक होते हैं।

3 उत्पादन एवं पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन - पूँजीवाद के अंतर्गत निजी संपत्ति का अधिकार मिलने से लोगों को अधिक परिश्रम करने तथा उत्पादन बढ़ाने की प्रेरणा देता है। जिससे वह अधिक धन व संपत्ति अर्जित कर सकें इसके साथ ही लोगों को बचत करने की प्रेरणा मिलती है। बचत से पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन मिलता है।

4 तकनीकी प्रगति - लाभ का आकर्षण उत्पादकों को अधिक जोखिम उठाने तथा परीक्षण करने के लिए प्रोत्साहित करता है इसलिए वे सदैव नवीन तकनीकी विधियों की खोज में लगे रहते हैं, इस प्रकार तकनीकी प्रगति को प्रोत्साहन मिलता है।

5. अधिकतम संतुष्टि - वस्तुओं का उत्पादन उपभोक्ता की पसंद तथा चुनाव के अनुसार होता है, इस प्रकार उपभोक्ता की अधिकतम संतुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति का जीवन स्तर बढ़ता है शोध एवं अनुसंधान को प्रोत्साहन मिलता है, एवं उत्पादन भी उपभोक्ता की रुचि के अनुसार होता है, उपभोक्ता को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है।

पूँजीवाद के दोष 

1. आर्थिक असमानताएँ - इसमें धन आय तथा अवसरों की असमानता होती है, इसमें पूँजीवादी अधिक संपत्ति वाला होता है । अवसरों की असमानता के कारण धनी व्यक्तियों के बच्चों को प्रारंभ से ही सुविधाएँ मिलती है, जबकि निर्धनों के पास ये अवसर नहीं होते हैं। 

2. वर्ग संघर्ष - इस व्यवस्था की सबसे बड़ी बुराई वर्ग संघर्ष है,, समाज दो भागों में बँट जाता है मजदूर व मालिक। इन दोनों में हमेशा संघर्ष चलता रहता है, जिसके कारण औद्योगिक, व्यावसायिक तथा सामाजिक अशांति उत्पन्न होती है, हड़ताल तथा तालाबंदी का दुष्प्रभाव देश के उत्पादन पर पड़ता है।

3. बेरोजगारी - पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में श्रमिकों को बेकार हो जाने का भय हमेशा बना रहता है, व्यापार चक्रों के कारण तेजी व मंदी का दौर बना रहता है। कारखानों में अति उत्पादन के कारण मंदी की स्थिति निर्मित होती है कारखाने बंद हो जाते हैं और बेरोजगारी की स्थिति बनती है।

4. आर्थिक साधनों का अपव्यय - प्रतियोगिता के कारण साधनों का अपव्यय अधिक मात्रा में होता है प्रचार तथा विज्ञापन पर बहुत अधिक व्यय करना पड़ता है जिससे मूल्य बढ़ता हे विलासिता की वस्तुएँ अधिक उत्पादित होती है।

5. आर्थिक शोषण - इस व्यवस्था में उत्पादक अधिकतम लाभ पाने के लिए श्रमिकों को न्यूनतम पारिश्रमिक देते हैं, तथा उपभोक्ताओं से अधिक मूल्य वसूल करके उनका शोषण करते हैं, यही कारण है कि पूँजीवादी प्रणाली में उत्पादन अधिक होता है, व उपभोक्ता स्वतंत्र होता है। 

पूँजीवादी प्रणाली में निजी लाभ की भावना के कारण आर्थिक शोषण होता है। अतः इस प्रणाली के विकल्प के रूप में समाजवादी प्रणाली का विकास हुआ। अनेक पूँजीवादी देशों में भी सरकार ने धन के केन्द्रीयकरण को रोकने के लिए निजी क्षेत्रों पर अनेक वैधानिक प्रतिबंध लगाए हैं।

समाजवादी अर्थव्यवस्था

अर्थ एवं परिभाषा - समाजवादी अर्थव्यवस्था का प्रादुर्भाव मुख्यतः प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत होने वाले शोषण को दूर करते हुए राष्ट्र के निवासियों का सम्पूर्ण विकास करना समाजवादी व्यवस्था का प्रमुख लक्ष्य होता है।

प्रोफेसर चार्ल्स डिकिन्स - ने समाजवाद को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है :- "समाजवाद समाज का ऐसा आर्थिक संगठन है जिसमें उत्पत्ति के साधनों पर समस्त समाज का स्वामित्व होता है, तथा उनका संचालन एक सामान्य योजना के अनुसार ऐसी संस्थाओं के द्वारा किया जाता है।

जो समस्त समाज का प्रतिनिधित्व करती है, तथा समस्त समाज के प्रति उत्तरदायी होती है, समाज के सभी सदस्य समान अधिकारों के आधार पर ऐसे समाजीकृत आयोजित उत्पादन के लाभों के अधिकारी होते हैं।

प्रो. एस.सी. पीगू के अनुसार- समाजवादी व्यवस्था एक समाजीकृत प्रणाली है, जिसमें उत्पादन के साधनों का प्रमुख भाग समाजीकृत उद्योगों में लगा होता है और एक समाजीकृत उद्योग वह है, जिसके अंतर्गत उत्पादन के भौतिक साधनों पर किसी राज्य या सरकार का स्वामित्व होता है और जो सेवा कल्याण की भावना से कार्य करती है।

समाजवादी अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ 

1. उत्पादन के साधनों का सामूहिक स्वामित्व - उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व के स्थान पर समाज का सामूहिक स्वामित्व रहता है नियंत्रण का अधिकार राज्य या राज्य द्वारा नियुक्त संस्था द्वारा होता है, इनका उपयोग जनकल्याण के लिए किया जाता है। 

2. आर्थिक आयोजन - अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आर्थिक नियोजन का सहारा लिया जाता नियोजन के द्वारा अपने उद्देश्य तक पहुँचा जाता है, परंतु समाजवादी व्यवस्था है पूँजीवाद में भी आर्थिक में इसकी आवश्यकता अत्यधिक होती है। आयोजन के अभाव में समाजवाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

3. प्रतियोगिता का अभाव - समाजवाद में सरकार के हाथों में उत्पादन के साधन होते हैं तथा उन पर नियंत्रण भी होता है। अतः सरकार ही निश्चित करती है कि उत्पादन कितनी मात्रा में होगा, क्या कीमत होगी तथा कौन-सी वस्तुओं का उत्पादन किया जाएगा। समाजवाद में प्रतियोगिता का अभाव रहता है, इससे साधनों के उपयोग में अपव्यय टाला जा सकता है।

4. आर्थिक समानता - प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उसकी क्षमता के अनुसार कार्य करना तथा प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार आय प्रदान करना समाजवादी लक्ष्य है। इससे हर व्यक्ति को अपनी उन्नति के समान अवसर प्राप्त होते हैं और आर्थिक समानता आती है।

5. समाजवादी अर्थव्यवस्था की कीमत - कीमतों का निर्धारण राज्य सरकारें करती हैं, वस्तुओं और सेवाओं की कीमत राज्य द्वारा निश्चित मार्ग-निर्देशों के अनुसार निर्धारित की जाती है, जैसे आवश्यक वस्तुएँ रोटी, दूध, साग, सब्जियों आदि की कीमतें कम रखी जाती हैं, तथा विलासिता की वस्तुओं जैसे टीवी, कारें आदि की कीमतें ऊँची रखी जाती है।

6. समाजवादी अर्थव्यवस्था में आय - प्रत्येक व्यक्ति को उसके कार्य के अनुसार पारिश्रमिक दिया जाता है ऐसा करते समय कार्य के परिणात्मक और गुणात्मक दोनों पक्षों पर ध्यान दिया जाता है। राष्ट्रीय आय का कुछ भाग स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास आदि पर खर्च करना पड़ता है तथा एक भाग को विनियोग के उद्देश्य से रखा जाता है। 

साथ ही सत्ता का वितरण इस प्रकार किया जाता है, कि वह किसी चंद हाथों में केन्द्रीत न हो पावें जिससे अमीर और गरीब का भेद न बना रहे । भेदरहित समाज की स्थापना जो समाजवाद का लक्ष्य है आय के समुचित एवं सम वितरण से ही संभव होता है। हम समाजवादी अर्थव्यवस्था को जहाँ उपयुक्त मानते हैं, वही अनेक दोषों के कारण उनकी व्यवहारिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।

समाजवादी अर्थव्यवस्था के दोष

1. उत्पादन कार्य में प्रेरणा का अभाव - इस व्यवस्था में उत्पादन के समस्त आर्थिक साधनों पर सरकार का अधिकर होता है। व्यक्तियों में कार्य करने की प्रेरणा और लाभ की भावना नहीं होती है, इसलिए विनियोजक नवीन अविष्कार शोध या उत्पादन की नई तकनीकों का प्रयोग करने में दिलचस्पी नहीं लेते हैं, तथा उत्साह से कार्य नहीं करते हैं। 

2. स्वयं चालित मूल्य यंत्र का अभाव - समाजवाद में साधनों के वितरण के लिए कोई स्वचालित मूल्य यंत्र नहीं होता है। सरकार विवेकपूर्ण वितरण के आधार पर अपनी इच्छानुसार साधनों का वितरण करती है। उत्पत्ति के साधनों पर समाज का स्वामित्व होने के कारण मूल्य यंत्र का कोई महत्व नहीं होता।

3. उपभोक्ताओं को स्वतंत्रता नहीं होती - इस व्यवस्था में उपभोक्ताओं को किसी प्रकार के चुनाव की स्वतंत्रता नहीं होती है, उन्हीं वस्तुओं का उपभोग करना पड़ता है, जिनका उत्पादन सरकार द्वारा किया जाता है।

4. उत्पत्ति के साधनों का अविवेकपूर्ण प्रयोग - केन्द्रीय योजना अधिकारी समस्त निर्णय करता है, यह आवश्यक नहीं है, कि उनके द्वारा लिए गए निर्णय सही ही होंगे। हो सकता है कि उसके निर्णय में त्रुटि हो इससे साधनों का सही उपयोग शंकास्पद होता है।

मिश्रित अर्थव्यवस्था

अर्थ एवं परिभाषा - मिश्रित अर्थव्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र साथ-साथ कार्य करते हैं, इस व्यवस्था में उत्पादन वितरण तथा देश के आर्थिक विकास के कार्यक्रम न ही पूरी तरह सरकार के हाथों में होते हैं, न ही व्यक्तिगत साहसी के हाथ में।

देश के आर्थिक विकास के कार्य सरकार तथा साहसी दोनों मिलजुलकर करते हैं। जब पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ सहकारी अर्थव्यवस्था लागू की जाती है तो इस प्रकार की अर्थव्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था की संज्ञा दी जाती है।

मिश्रित अर्थव्यवस्था को परिभाषित करते हुए प्रो. जे.डब्लू. ग्रोव ने लिखा है कि मिश्रित अर्थव्यवस्था की अनेक मुख्य विशेषताओं में से एक है, कि उत्पादन एवं उपभोग के विषय में मुख्य निर्णयों को प्रभावित करने में निजी उद्योगपति जितने स्वतंत्र होते हैं मिश्रित अर्थव्यवस्था के अंतर्गत वे इससे कम स्वतंत्र होते हैं।

इसके साथ ही सार्वजनिक उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण उतना कठोर नहीं होता, जितना कि केन्द्रीय निर्देशित समाजवादी अर्थव्यवस्था में पाया जाता है। भारतीय अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है इसकी विशेषताएँ निम्नलिखित है -

मिश्रित अर्थव्यवस्था के क्षेत्र - मिश्रित अर्थव्यवस्था को चार क्षेत्र में विभाजित किया गया है -

1. सार्वजनिक क्षेत्र 

जिन उद्योगों पर सरकार का अथवा सार्वजनिक संस्थाओं का स्वामित्व तथा प्रबंध होता है, उन्हें सार्वजनिक उपक्रम या सार्वजनिक क्षेत्र कहा जाता है। टी. आर. शर्मा के अनुसार“सार्वजनिक उपक्रम एक ऐसी संस्था है जिस पर या तो राज्य का स्वामित्व हो अथवा जिसकी प्रबंध व्यवस्था राजकीय तंत्र द्वारा संचालित की जाती हो अथवा दोनों ही राज्य के अधीन हो। 

उन सभी उपक्रमों को सार्वजनिक उपक्रम कहा जाता है, जिन पर पूर्णतया अथवा अधिकांशतः सार्वजनिक स्वामित्व हो तथा जिन पर नियंत्रण एवं संचालन सरकार का ही है।

सार्वजनिक क्षेत्र की विशेषताएँ 

1. सार्वजनिक क्षेत्रों का स्वामित्व निजी क्षेत्र के हाथ में न होकर सरकार के हाथ में होता है।

2. सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना लाभ कमाने के लिए नहीं बल्कि इनका लक्ष्य विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए भी होता है। 

3. निजी क्षेत्र के उपक्रम अपने स्वामी के प्रति ही उत्तरदायी होते हैं, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र में सरकार जनता एवं संसद सभी के प्रति उत्तरदायित्व होता है।

4. सरकारी बजट में सार्वजनिक क्षेत्र की पूँजी की व्यवस्था की जाती है।

5. सार्वजनिक क्षेत्र में सरकारी प्रशासन की पद्धतियों एवं नियमों का पालन किया जाता है। 

भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र का महत्व - 

1. आर्थिक विकास में सहायक होता है । 

2. आधार भूत ढाँचे के निर्माण में सहायक होता है।

3. उचित मूल्य पर अनिवार्य वस्तुओं की पूर्ति करने के उद्देश्य से भी सार्वजनिक क्षेत्र का अपना महत्व है।

4. उच्च तकनीक पर आधारित उद्योगों का विकास प्राकृतिक संसाधनों उपयोग सार्वजनिक क्षेत्रों की सहायता से आवश्यक कार्यों में लगाया जाता है, जिसमें विकास के अवसरों में वृद्धि हो। 

2. निजी क्षेत्र 

निजी क्षेत्र से तात्पर्य उस क्षेत्र से है, जिसमें उत्पादन के साधनों पर निजी व्यक्तियों का स्वामित्व होता है, तथा व्यक्तिगत हित की वृद्धि व लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रयोग किया जाता है। 

निजी क्षेत्र की विशेषताएँ - 

  1. निजी क्षेत्र में संपत्तियों पर व्यक्तिगत अधिकार होता है। 
  2. उत्पादन का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है।
  3. निजी क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक स्वतंत्रता होती है।
  4. कार्य की अधिकता एवं स्वतंत्रता होने के कारण प्रतिस्पर्धा की स्थिति पायी जाती है।
  5. निजी क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप नहीं होता है।

निजी क्षेत्र का महत्व - 

1. व्यवसायी लाभ कमाने की आकांक्षा से अधिकाधिक कुशलता से व्यवसाय का प्रबंध एवं संचालन करता है।

2. अधिकतम लाभ का उद्देश्य साधनों का अनुकूलतम संयोग स्थापित कर उनके सर्वोत्तम उपयोग को प्रेरित करना होता है। 

3. आर्थिक वातावरण में परिवर्तन के अनुसार ही निजी क्षेत्र में आवश्यक सुधार होते रहते हैं। 

4. कम से कम उत्पादन लागत पर अधिक से अधिक और उत्तम वस्तु का उत्पादन करें इस तरह से उत्पादन लागत घटाने के प्रयास ने तकनीकी प्रगति को प्रेरित किया। 

5. व्यक्ति को उनकी योग्यता के अनुसार ही उसका प्रतिफल प्राप्त होता है, जिससे कर्मचारी अधिक लगन निष्ठा व तत्परता से कार्य करता है।

3. संयुक्त क्षेत्र 

संयुक्त क्षेत्र सार्वजनिक व निजी क्षेत्र का सम्मिश्रण है, अर्थात् इसके अंतर्गत निजी और सरकारी क्षेत्र सहभागिता के आधार पर मिलकर कार्य करते हैं।

डॉ. वेंकटरत्नम के अनुसार- संयुक्त क्षेत्र सरकार तथा निजी साहसियों के बीच संयुक्त स्वामित्व को प्रदर्शित करता है, यह मिश्रित अर्थव्यवस्था में मिश्रित उपक्रम है।

संयुक्त क्षेत्र की विशेषताएँ - 

1. संयुक्त क्षेत्र एक विचारधारा है, न कि यह अपने आप में कोई व्यावसायिक स्वामित्व का प्रारूप। 

2. सार्वजनिक क्षेत्र तथा निजी क्षेत्र दोनों का स्वामित्व तथा प्रबंध होता है।

 3. प्रवर्तक प्रायः सरकार, वित्तीय संस्थाएँ तथा निजी साहसी होते हैं। संयुक्त क्षेत्र का उद्देश्य सार्वजनिक वित्त तथा निजी साहसियों की व्यवसायिक योग्यता का लाभ प्राप्त करना है।

संयुक्त क्षेत्र का महत्व - 

1. संयुक्त क्षेत्र का व्यवस्था के आधार पर राष्ट्रीयकरण के बिना ही उद्योगों पर सामाजिक नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है।

2. संयुक्त क्षेत्र में उपक्रमों की स्थापना से मिश्रित अर्थव्यवस्था के लाभों की प्राप्ति संभव है, इस तरह से निजी एवं सार्वजनिक दोनों का संयुक्त रूप से विकास होता है ।

3. संयुक्त क्षेत्र के माध्यम से सरकार वित्तीय आवश्यकता को पूरा करने के लिए संसाधनों के जुटाव की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देती है।

4. प्रबंध में सभी वर्गों के शामिल हो जाने से प्रबंधक सभी वर्गों के हितों का ध्यान रखेंगे, ताकि अंशधारियों या अन्य वर्ग का शोषण नहीं होगा।

5. नवीन व मध्यम वर्गीय साहसियों को नए उद्योगों को स्थापित करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।

4. सहकारी क्षेत्र 

भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था में सहकारी क्षेत्र को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस व्यवस्था में अनेक व्यक्ति मिलकर सहकारिता के आधार पर कार्य करते हैं, तथा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा प्रबंध किया जाता है। सबकी समान पूँजी होती है तथा सामूहिक नेतृत्व कायम किया जाता है। 

सहकारिता के उद्देश्य - 

1. उत्पादित कार्य में लगे सदस्यों को कच्चा माल, औजार तथा अन्य वस्तुएँ उचित मूल्य पर उपलब्ध कराना।

2. उत्पादित माल की उचित मूल्य पर बिक्री करना।

3. उत्पादन के लिए अग्रिम धन प्रदान करना।

4. सदस्यों को आसान किस्तों में मशीन दिलाने की व्यवस्था करना।

5. सदस्यों को प्रशिक्षित करने की व्यवस्था करना।

सहकारी क्षेत्र की समस्याएँ 

  1. स्वार्थी तत्वों का प्रभुत्व
  2. समन्वय का अभाव
  3. वित्तीय समस्या
  4. तकनीकी ज्ञान का अभाव
  5. विपणन की समस्या

भारतीय अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थ व्यवस्था है, यह पूँजीवाद व समाजवाद का मिला-जुला स्वरूप है, इनमें निजी व सार्वजनिक क्षेत्र दोनों साथ-साथ कार्य करते हैं, इसमें कुछ उद्योग पूर्णतः सरकारी क्षेत्र में चलते हैं और कुछ उद्योग निजी क्षेत्र में भाग ले सकते हैं।

6 अप्रैल 1948 ई. को भारत सरकार ने औद्योगिक नीति की घोषणा की जिसके अनुसार देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था प्राप्त हुई। अर्थव्यवस्था को निर्धारित करने वाले तत्व और स्रोतों के निर्धारण में व्यक्ति बाजार और राज्य की भूमिका का महत्वपूर्ण स्थान है।

अर्थव्यवस्था को निर्धारित करने वाले तत्व

व्यक्ति की भूमिका - भारतीय अर्थव्यवस्था एक विकासशील अर्थव्यवस्था है। राष्ट्र के विकास व प्रगति पथ पर अग्रसित होने के लिए व्यक्ति अर्थव्यवस्था की ओर ध्यान दे तो व्यक्ति की भूमिका को स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। 

आधुनिक अर्थव्यवस्था में करोड़ों वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। इन उत्पादनों के लिए विभिन्न प्रकार के कारखानों तथा विविध प्रकार की दक्षता की आवश्यकता होती है। 

दैनिक जीवन में हमको रोटी, कपड़ा, मकान आदि विभिन्न वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इनमें से किसी एक का उदाहरण हम यहाँ लेते हैं। 

उदाहरण के लिए कपड़ा ही लेते हैं, यदि आप उस प्रक्रिया पर विचार करें, जिसके द्वारा कपड़ा बनाया जाता है, तो आपको ज्ञात होगा कि समाज की अर्थव्यवस्था कितनी जटिल है। 

एक किसान द्वारा कपास का उत्पादन किया जाना एक अत्यंत सरल प्रक्रिया प्रतीत होती हैं, किसान को जिन औजारों की आवश्यकता होती हैं उनका निर्माण अन्य व्यक्तियों द्वारा किया जाता हैं।

व्यापारी एवं उद्योगपति वर्ग किसान के द्वारा उत्पादित कपास को कारखानों के लिए कपास उपलब्ध कराने का ठेका लेते हैं और समझौता करते हैं, उत्पादित वस्तुओं को थोक विक्रेता, फुटकर विक्रेता तथा दुकानदार को उपलब्ध कराते हैं, और इनके द्वारा उपभोक्ताओं तक पहुँचाया जाता है।

बाजार की भूमिका - किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में बाजार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्तियों के द्वारा माल के उत्पादन के पश्चात् उसके विक्रय के लिए एक बाजार का होना आवश्यक है। बाजार वह स्थान है। 

जहाँ पर उपभोक्ता अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ खरीद सकता है आज परिवहन के सस्ते एवं कुशल साधनों से बाजार विस्तृत हो गया है। सच तो यह है कि रेल, जहाज, वायुयान आदि परिवहन साधनों के विकास से सम्पूर्ण विश्व का एक बड़ा बाजार बन गया।

तार, टेलिफोन, वायरलैंस टैलेक्स, फैक्स इन्टरनेट आदि संचार साधनों ने विश्व के दूरस्थ भागों में बिखरे हुए व्यापारियों को एक-दूसरे के निकट और तात्कालिक संपर्क में ला दिया है। जिससे वे अपने-अपने स्थानों पर बैठे-बैठे सौदे तय कर सकते हैं, फलस्वरूप जिन वस्तुओं का बाजार पहले राष्ट्रीय होता था अब उनका बाजार अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है।

राज्य की भूमिका - आर्थिक विकास की गति को तेज करने, धन और आय के वितरण की असमानताओं को कम करने और अधिकतम लोककल्याण सुनिश्चित करने में राज्य की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।

अर्थव्यवस्था का पूँजीवादी क्षेत्र स्वलाभ की भावना पर आधारित होता है, और सामाजिक मूल्यों की उपेक्षा करता है। अतः देश के आधारित संरचना के विकास को गति देने और क्षेत्रीय संतुलन की दृष्टि से राज्य की अर्थव्यवस्था के अनेक कार्यों को संपादित करना पड़ता है, जिसका उद्देश्य अधिकतम सामाजिक कल्याण सुनिश्चित करना है।

विकासशील देशों में अनेक आर्थिक अवरोध आर्थिक अधिकतम विकास की गति को अवरूद्ध करते हैं। देश में पूँजी का अभाव, प्राकृतिक संसाधनों का अल्प विदोहन, औद्योगिकरण का अभाव, पूँजी निर्माण की कमी बढ़ती बेरोजगारी आदि अनेक समस्याएँ विकासशील देशों के आर्थिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण बनाने में अवरोध उत्पन्न करती है।

अतः इन विकासशील देशों के लिए सरकार की जिम्मदारी है कि वह देश के प्राकृतिक साधनों का विदोहन सुनिश्चित करने के लिए पूँजी, कुशल श्रमिक, तकनीकी ज्ञान, परिवहन आदि साधनों को उपलब्ध कराए।

सरकार इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक नीतिगत उपायों जैसे राजकोषीय नीति, मौद्रीक नीति, औद्योगिक नीति, श्रम नीति आदि के आर्थिक विकास हेतु अनुकूल वातावरण बनाने में अपना योगदान देती है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था को निर्धारित करने वाले स्रोतों एवं तत्वों के रूप में व्यक्ति बाजार एवं राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका है।

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