मैदान किसे कहते है?

पृथ्वी के लगभग 40 प्रतिशत भाग पर मैदानों का विस्तार पाया जाता है। महाद्वीपों पर मैदान का विस्तार सबसेे अधिक होता हैं। मैदान शब्द से आशय समतल और निम्न भू-भाग से है। मैदान मानव और जीव जन्तु के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। अधिकतर जनसंख्या मैदानों मे निवास करते हैं। क्योंकि यहा फसलों की अधिक पैदावार होती हैं।

सामान्य रूप मे मैदान का अर्थ समतल भू भाग से हैं। अपने खेल के मदानों को देखा ही होगा सपाट और घास उगे होते हैं। इसी प्रकार प्राकृतिक रूप से विशाल मैदान पाए जाते हैं। जो हजारों किलोमीटर तक फैले होते हैं।

मैदान किसे कहते है

मैदान हमारी धरती के 50 प्रतिशत से अधिक भाग पर फैले हुए हैं। मैदान सामान्यतः समुद्र तल से 180 मीटर की ऊँचाई तक पाये जाते हैं। कही कही पर यह 300 मीटर ऊँचे भी हो सकते हैं। अतः एक समतल क्षेत्र जिसकी ऊँचाई सामान्यतः कम होती है। उस विस्तृत भूखंड को मैदान कहते हैं।

परिभाषा 

  1. मैदान भू-तल पर प्रायः समतल एवं सपाट भाग होते हैं, किन्तु कभी-कभी ये लहरदार भी हो सकते हैं।
  2. समुद्र तल से साधारण ऊँचाई वाले समतल क्षेत्रों को जिनके ढाल न्यूनतम होते हैं, मैदान कहा जाता है।
  3. समुद्र तल से 150 मीटर या कम ऊँचे समतल भू-भाग को मैदान कहा जा सकता है।

कोई भी भू-भाग मैदान तभी कहा जा सकता है जब उस प्रदेश की स्थानीय भूमि का ऊँचा या नीचापन कुल 100 फीट से अधिक न हो।

विश्व के प्रमुख घास के मैदान

  1. सवाना घास मैदान – पूर्वी अफ्रीका, वेनेजुएला
  2. पम्पास घास का मैदान – अर्जेंटीना, उरुग्वे, ब्राजील
  3. स्टेपी घास का मैदान – पश्चिम रूस, मध्य एशिया 
  4. सेल्वास घास का मैदान – अमेजन बेसिन
  5. डाउन्स घास का मैदान – आस्ट्रेलिया
  6. प्रेयरी घास का मैदान – उत्तरी अमेरिका

सामान्य मैदान की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं - 

  • समतल भू-भाग होते हैं। 
  • उनकी संरचना एक जैसे अवसादों या पदार्थों से बनी होती है। 
  • ऐसे मैदानों में ढाल का अन्तर ज्ञात करना कठिन होता है। 

मैदानों का वर्गीकरण

मैदानों के अन्य गुणों की भाँति उनकी उत्पत्ति के भी विभिन्न कारण हो सकते हैं। सामान्यतः जहाँ अधिकांश मैदानों की उत्पत्ति बाह्य शक्तियों द्वारा होती है, वहीं अपवाद की दशा में मैदान आन्तरिक शक्तियों के प्रभाव से भी बन सकते हैं। इनका वर्गीकरण मोटे तौर पर निम्न प्रकार से किया जा सकता है।

1. आन्तरिक शक्तियों से बने मैदान

आन्तरिक शक्तियों से बने अधिकांश मैदानों की पहचान सामान्यतः तटीय भागों के निकट होती है। इनका विस्तार सीमित क्षेत्रों में होता है। आंतरिक हलचल से कभी महाद्वीप पर बड़ा भाग ऊपर उठ जाते हैं। तथा मैदान का निर्माण हो जाता हैं।  

आन्तरिक शक्तियों से बने विशाल मैदानों में पश्चिमी साइबेरिया का मैदान, यूराल के पश्चिम का मैदान, पूर्वी यूरोप का मैदान एवं मिसीसिपी का मैदान हैं। ऐसे मैदान तटीय भाग के निकट भी पाये जा सकते हैं। जैसे कच्छ का मैदान समुद्र तट के निकट स्थित है। 

इस विधि से बनने वाले मैदान लावा निर्मित होते हैं। भारत के दक्षिणी पठार एवं पश्चिमी संयुक्त राज्य के 5 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले मैदान इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। ये विश्व के विशेष उपजाऊ मैदानों में से एक हैं। 

2. बाहरी शक्तियों से निर्मित मैदान

इस प्रकार के मैदानों का निर्माण बाहरी क्रियाओं से होता हैं। जैसे - नदी, हिमनद, हवा, लहरें, अपक्षय आदि के कटाव एवं जमाव की क्रियाओं से मैदान का निर्माण हो जाता हैं। 

1. अपरदनात्मक मैदान

नदियों की अपरदन क्रिया से बने मैदान - नदियाँ, पहाड़ी एवं पर्वतीय भागो का अधिक कटाव कती रहती हैं। इसी प्रभाव से नदी की घाटी चौड़ी होती जाती है। और पहाड़ी भागों की संकरी घाटी एवं अपरदन-चक्र कीअधिकता से मैदानों का निर्माण होता रहता हैं।

कई बार दो पहाड़ी घाटियों के बीच के ऊबड़-खाबड़ भाग को कटाव व जमाव की क्रिया से भी नदी उपजाऊ मैदान बनाती है। नेपाल एवं भूटान में लघु हिमालय की घाटियों के मैदान इसके अच्छे उदाहरण हैं।

हिमानी अपरदन से बने मैदान - लम्बे समय से जमे बर्फ समाप्त होते है उसके पश्चात् महाद्वीपीय हिमानी का तल घर्षण क्रिया से मैदान में बदल जाता है। उत्तरी अमेरिका के झीलों के निकट पश्चिमी साइबेरिया एवं पूर्वी यूरोप के मैदान के विकास में इन शक्तियों का महत्वपूर्ण है।

पवन के अपरदन से बने मैदान - हवा शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में अपरदन का महत्वपूर्ण कारक बनता है। अतः पथरीले प्रदेशों में इनकी आकृतियाँ अधिक बनती हैं। वहाँ पर पवन एवं पानी के सम्मिलित कार्यों से घाटियाँ, बजादा, पेडिमेण्ट एवं अपरदन-चक्र के लहरदार मैदान का निर्माण होता हैं।

समुद्र लहरों के अपरदन से बने मैदान - समुद्र तट के निकट निरन्तर लहरों के अपरदन से वहाँ पर प्रारम्भ में बनी आकृतियाँ नष्ट होती जाती हैं और लहरदार पथरीली मैदान रह जाता है। ऐसे अपरदन के मैदान बहुत संकरे होते हैं। सभी तटों के निकट इनका निर्माण होना आवश्यक नहीं है।

2. निक्षेपात्मक मैदान 

समतल स्थापक शक्तियाँ जहाँ एक ओर अपरदन का प्रधान साधन हैं वहीं ये शक्तियाँ काटे गये पदार्थों को बहाकर कहीं-न-कहीं अवश्य जमा करती रहती हैं। सभी जमाव की क्रिया से ही कई प्रकार की आकृतियाँ एवं विविध प्रकार से छोटे-बड़े समतल क्षेत्रों का निर्माण होता है। इनमें भी नदियों का जमाव कार्य सबसे महत्वपूर्ण है।

नदियों की निक्षेप क्रिया - नदियों के मुहाने पर कई प्रकार से मैदान का निर्माण होता हैं। जब ये पहाड़ी भाग से निचले मैदानी भाग में प्रवेश करती हैं तो नदी अपने साथ कंकड़, पत्थर आदि का जमाव पर्वत तटीय प्रदेश में करती हैं। जिसके कारण जलोढ़ पंख नामक लहरदार मैदान बनते हैं।

इसकी आकृति पंखे जैसी बाहर की ओर फैली होती है। नदी में जल अधिक होने, महीन पदार्थों के जमाव के साथ-साथ दलदली मैदान का विकास होता है। हिमालय के निचले ढालों पर ऐसे ही छोटे व संकरे मैदानी भाग मिलते हैं। 

गंगा-यमुना व सिन्धु-सतलज का मैदान नदियों द्वारा प्रतिवर्ष बाढ़ के समय घाटी में दूर-दूर तक बारीक अवसाद लाने से मैदान का निर्माण होता है।

हिमानी के निक्षेप से बने मैदान - हिमानी अपने साथ सतह से मोरेन को बहाकर ले जाती है। ये मोरेन बर्फ पिघलने के साथ ही जमा होते जाते हैं। अत: जहाँ बर्फ एवं जल मिलकर जमाव कार्य करते हैं। वहाँ महीन जमाव के मैदान सहित लहरदार मैदान एवं अवसादों के जमा होने से अवक्षेप के मैदान की रचना होती है। उत्तरी यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका में हिमाच्छादन के कारण निर्मित मैदान मिलते हैं।

पवन के निक्षेप से बने मैदान - पवन की गति शुष्क प्रदेशों में निरन्तर कम रहती है वहाँ कम ढालू व लहरदार बालू के मैदान की रचना होती रहती है। इसी प्रकार जिन प्रदेशों में छोटे-छोटे टीले पाये जाते हैं वहाँ पर लहरदार व टीले युक्त ऊबड़-खाबड़ मैदान पाये जाते हैं। 

राजस्थान में चुरू व शेखावाटी के क्षेत्र में ऐसे ही रेतीले जमाव से लहरदार मैदान बनते हैं। मरुस्थलीय प्रदेशों की सीमा या उसके बाहरी भाग में पवन द्वारा जमा की गई महीन बालू से उपजाऊ लोयस के मैदान का निर्माण होता है। चीन का पीला मैदान इसका आदर्श उदाहरण है।

अर्द्ध-मरुस्थलीय भागों के निचले भागों में जल के बहाव की क्रिया एवं जल के निरन्तर वाष्पीकरण से भूमि का क्षार सतह के निकट निचले भागों में इकट्ठा होता जाता है। अत: वहाँ खारे या नमकीन दलदल एवं नमकीन एवं अनुपजाऊ समतल भाग पाये जाते हैं।

मैदानों का महत्व

मैदान मानव के लिए हमेशा से ही आकर्षण का केंद्र रहा हैं। विश्व की प्राचीनतम सभ्यता का विकास नदियों की उपजाऊ व समतल घाटियों में ही हुआ हैं। मानव के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास मैदानी प्रदेशों में ही आदर्श रूप में मिलते हैं।

मैदान कहीं भी हो तट के निकट, नदी घाटी या डेल्टा क्षेत्र में या महाद्वीपों के मध्य जहाँ भी मैदान है। वह जल की आपूर्ति अधिक है। मैदानों का मानव के लिए विशेष महत्व है। 

1. प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति के पोषक व विकास स्थल के रूप में मैदान जीवन के लिए एक उत्तम स्थान रहा हैं। वर्तमान में भी मानव जनसँख्या सबसे अधिक मैदानी इलाको में पाए जाते हैं। 

2. विश्व के सभी महानगर मैदानी प्रदेशों में ही पाये जाते हैं। 85 प्रतिशत नगरीय जनसंख्या मैदानों में ही केन्द्रित है। जलवायु संसाधन और पानी की आपूर्ति मैदानों में महानगर के विकास का मुख्य कारण हैं।

3. मैदान अपने उपजाऊपन के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं अतः यहाँ पर उन्नत किस्म की कृषि, व्यावसायिक पशुपालन, बागान कृषि एवं उन्नत व्यवसायों का विकास व प्राथमिक व्यवसाय तेजी से बढ़ते रहे हैं। देश का सबसे अधिक सिंचित क्षेत्र भी यहीं पाया जाता है। 

4. मैदान सघन आबाद होते हैं। यहाँ के निवासी अधिक धनी होते हैं। अतः यहाँ पर तेजी से कृषि एवं शिल्प पर आधारित अनेक प्रकार के कुटीर, लघु व बड़े उद्योग, बहुमूल्य वस्तुओं के शिल्प आदि की निरन्तर माँग रहने से विकास होता रहता है।

5. विकास कृषि एवं उद्योगों के विकास, सघन आबादी, बढ़ती हुई वस्तुओं की माँग के कारण मैदानी भागों में रेल, सड़क एवं वायुमार्गों का तेजी से व उत्तम विकास होता रहा है। भारत में भी उत्तरी मैदान में व्यापार की मण्डियाँ एवं आधुनिक परिवहन संचार सेवाओं का जाल बिछा हुआ है।

6. विश्व के सभी मैदान सभी देशों में उष्ण, अझैष्ण एवं शीतोष्ण प्रदेशों में सघन आबाद हैं। यहाँ पर ग्रामीण एवं नगरीय दोनों ही प्रकार की जनसंख्या आनुपातिक दृष्टि से सबसे अधिक पाई जाती है।

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