रामचंद्र शुक्ल के निबंध संग्रह का नाम क्या है

शुक्लजी को जितनी ख्याति निबन्धकार के रूप में मिली है उतनी अन्य किसी क्षेत्र में नहीं। उनके सभी निबन्धों को दो भागों में बाँटा जा सकता है

(1) मनोविकारी सम्बन्धी निबन्ध। 

(2) साहित्यिक निबन्ध। 

उपर्युक्त दोनों प्रकार के निबन्धों का संग्रह है - चिन्तामणि भाग एक। 

शुक्लजी के मनोविकार लेख सम्बन्धी अन्य लेखकों में मजाविकार सम्तालवी निबन्धो से भिन्न प्रकार के है। इनके इस प्रकार के निबन्धों के शीर्षक है श्रद्धा और भक्ति, आव और मजाविकार, लज्जा, ग्लानि, उत्साह, ईर्ष्या, करुणा इत्यादि।

शुक्नजी के इन लियलयों में मनोवैज्ञानिकता कर कार भरी है। इसके अतिरिक्त उनमें जीवन और समाज के प्रति व्यावहारिकता और साहित्यिकता का भी समावेश है। 

शुक्लजी ने अपने निवन्धों में मानव के मन में उत्पन्न होने वाले अनाधिकारी का चित्रण केवल अपनी मनोवैज्ञानिकता को प्रकट करने के लिए नहीं किया अपितु इस प्रकार के चित्रण द्वारा समाज और जीवन को मंगलमय बनाकर उसे सुधारना चाहते थे। 

हिन्दी निबन्ध साहित्य के क्षेत्र में शुक्ल जी का योगदान निवन्धकार के रूप में शुक्ल जी अप्रतिम हैं। हिन्दी निबन्ध के क्षेत्र में उनके द्वारा दिया गया योगदान स्तुत्य है। हिन्दी निबन्ध में शुक्ल-युग उसकी प्रौढ़ता का द्योतक है। डॉ. जयनाथ नलिल के ये शब्द शुक्ल जी की निबन्ध प्रतिभा पर पूर्ण प्रकाश डालते है- 

“शुक्ल जी का एक-एक निबन्ध हिन्दी गद्य शैली के विकास की शानदार मंजिल है, एक-एक पैरा प्रगति और प्रौढ़ता के पथ पर बढ़ता हुआ पग, एक-एक पंक्ति गम्भीर मौलिक चिन्तन की साँस और एक-एक अभिव्यंजना की सिद्धि है।” 

शुक्ल जी के निवर्धा में उनके व्यक्तित्व की छाप झलकती है। आपकी शैली तो अपना अलग राग अलापती है। 'शैली ही व्यक्ति है। यह उक्ति शुक्ल जी की शैली पर पूर्ण रूप से घटित हो जाती है। उनके निबन्धों में निवन्ध की सम्पूर्ण विशेषताओं के दर्शन होते हैं। शुक्लजी के निवन्धों को तीन भागों में बाँट सकते हैं

(1) मनोविकारात्मक निबन्ध- उत्साह', 'करुणा', 'भय', 'क्रोध', 'लज्जा और ग्लानि', 'ईर्ष्या', 'लोभ और प्रीति', 'घृणा', 'श्रद्धा और भक्ति' आदि ।

(2) साहित्य-सिद्धान्त सम्बन्धी-कविता क्या है', साहित्य, सारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद, रसात्मक योध के विविध रूप और चिन्तामणि भाग दो में संग्रहीत-काव्य में प्राकृतिक दृश्य, काव्य में रहस्यवाद एवं काव्य में अभिव्यंजनावाद ।

(3) आलोचनात्मक निबन्ध- 'तुलसी का भक्ति मार्ग', 'मानस की धर्म भूमि', 'भारतेन्दु हरिश्चन्द्र', 'काव्य में लोक मंगल की साधनावस्था'।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी निबन्ध साहित्य में वही स्थान है जो उपन्यास के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचन्द का है। उन्हें यदि हिन्दी निबन्ध का सम्राट कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी। प्राचीन काल से ही यह बात प्रसिद्ध यी कि 'गद्य कवीनां निकषं वदन्ति' अर्थात् गद्य कवियों की कसौटी है। 

इस उक्ति को शुक्ल जी ने ही चरितार्थ किया विचारात्मक निबन्धों के क्षेत्र में उनके द्वारा किया गया प्रयास तो अवर्णनीय है। हिन्दी निबन्ध साहित्य के क्षेत्र में बहुत दिन के बाद शुक्ल जैसे निबन्धकार का पदार्पण हुआ जिसने निबन्ध साहित्य के क्षेत्र में तहलका मचा दिया। 

विचारात्मक निबन्धो को लिखकर शुक्ल जी ने निबन्धकारों में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। उसकी दार्शनिकता जहाँ एक ओर पाश्चात्य निबन्ध लेखकों ररिकन और बेकन से प्रभावित है, वहीं उन पर भारतीय संस्कृति का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। 

कहने का आशय यह है कि शुक्ल जी ने पाश्चात्य एवं पौर्वात्य दर्शनों को समन्वित कर उनसे एक नयी दार्शनिकता को जन्म दिया जो उसके निबन्धों में प्रायः देखने को मिलती है। जयनाथ ‘नलिन' के शब्दों में निबन्ध के क्षेत्र में दिये गये उनके अमूल्य योगदान का मूल्यांकन हो । जाता है

“इनके निबन्ध विचारात्मक होते हुए भी मस्तिष्क और हृदय का सानुपातिक योग है। मस्तिष्क और हृदय के बीच जैसे जीवन का अनुभव और अध्ययन गलबाहियाँ हाले कदम से कदम मिलाकर चल रहा है। इनके निबन्ध हिन्दी गद्य-साहित्य की समृद्धि हैं, शैली विकास की भारी मंजिल हैं, विचार क्षेत्र में चिन्तन का अनुपम आदर्श है, बुद्धि को उत्तेजित कर नवीन विचार परम्परा पथ पर अग्रसर करते हैं।

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