महादेवी वर्मा जी ने अपने भावों की अभिव्यक्ति बड़ी ही आलंकारिक एवं व्यंजनापूर्ण शैली में की है। उनकी शैली में कल्पना, भावुकता, सजीवता और भाषा-चमत्कार एक साथ देखे जा सकते हैं।
(1) वर्णनात्मक शैली - यह शैली महादेवी वर्मा की सरलतम शैली है। इसमें उनकी हिन्दी बड़ी सरस और प्रवाहपूर्ण हो उठी है परन्तु यह शैली प्रायः कम ही मिलती है। इसमें वाक्य छोटे-छोटे हो जाते हैं और वाक्यों का निर्माण सहज स्वाभाविक हो जाता है।
(2) व्यग्यात्मक शैली - महादेवी जी हिन्दू समाज के सड़े-गले जर्जर ढाँचे पर बड़ी खिन्न और असन्तुष्ट हैं वे अनुभव करती हैं कि बाहर से अध्यात्मवादी रचना के पाखण्ड के लिए इस समाज में सबसे अधिक महत्त्व पैसे को ही दिया जाता है।
भारतीयों में बेईमानी, अष्टता आदि के अनेकों दुर्गुण आ घुसे हैं उनके मूल में भी यही दरिद्रता है। यह दरिद्रता हमारे देश की सम्पूर्ण नैतिकता और आदर्श के ऊँचे मानों को खोखला किये दे रही है।
(3) चित्रात्मक शैली - महादेवी वर्मा की रचना में मुख्य रूप से सर्वप्रधान विशेषता चित्रात्मक शैली का है जिसमें वह एक सचित्र वर्णन करके अपने रचना के माध्यम से चित्र उपस्थित करना महादेवी वर्मा की रचनाओं में देखने को मिलती है।