हिंदी गद्य की विधाओं का परिचय दीजिए

व्यंग्य शब्द अंग्रेजी के 'सटायर' शब्द का हिन्दी अनुवाद है। व्यंग्य हास्यमात्र नहीं है-उससे कहीं अधिक और भिन्न है। हास्य में लेखक का उद्देश्य केवल परिहासपूर्ण बातों के द्वारा मनोरंजन करना मात्र होता है।

जबकि व्यंग्य में हास्यपूर्ण मनोरंजन के साथ-साथ मनुष्य की किसी विडम्बनापूर्ण स्थिति को चित्रित करना होता है जो प्रभाव की दृष्टि से हँसने के अतिरिक्त मनुष्य के मन में एक टीस और दर्द उत्पन्न करता है। 

मानव-जीवन विविधता की कहानी है। उसके विविध रूपों की साहित्यकारों ने अनेक विधाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करने का सफल प्रयास किया है। मानव-जीवन स्वार्थ और विसंगतियों से भरा हुआ है। उसके इस रूप पर प्रहार करने के निमित्त सजग रचनाकारों ने एक नया माध्यम स्वीकार किया है और वह है-व्यंग्य।

राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन के प्रत्येक अंग की विसंगति को अपने व्यंग्य का लक्ष्य बनाना व्यंग्यकार का उद्देश्य रहता है। इसमें समसामयिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार, आडम्बर, अवसरवादिता, अन्धविश्वास आदि दुष्प्रवृत्तियों तथा विसंगतियों पर प्रहार करते हुए परिहास या व्यंग्य के रूप में अभिव्यक्त करना होता है। 

इसकी विशेषता यह है कि इस व्यंग्य के पीछे व्यंग्यकार का कोई दुष्प्रयोजन नहीं होता है। इस प्रकार की रचनाओं में शब्दों का अभिधेयार्थ कुछ अन्य होता है तथा व्यंग्याथै कुछ भिन्न प्रकार का होता है। यह व्यंग्याथ ही इसका वास्तविक अर्थ होता है। 

इस अर्थ में एक विशेष पैनापन एवं चुटीलापन होता है जो पाठक के मन में कटुतारहित, संस्कारयुक्त मीठी गुदगुदी उत्पन्न करता है। मनोरंजन इसकी अनिवार्य विशेषता है।

हास्य और व्यंग्य दोनों एक ही नहीं हैं। इन दोनों का मूलभूत अन्तर है। इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए डॉ चन्द्रदत्त शर्मा ने लिखा है-“किसी भी घटना, क्रिया या चरित्र पर हँसा जा सकता है। किसी भी असंगत बात पर हँसी आ सकती है, परन्तु यह मजाक और मनोरंजन का माध्यम होता है। 

इसका व्यक्ति की बौद्धिक चेतना से कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं बन पाता। इसके विपरीत व्यंग्य एक प्रकार का लेखन कर्म है। इसमें विसंगति को खोजकर उसके अनुभूत तत्वों को उद्घाटित किया जाता है। यह लेखन चेतना को झकझोरता है। 

वस्तुतः व्यंग्य समाज के मानस या चरित्र में आई रोगग्रस्तता को पहचानता है और उसे दूर करने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि व्यंग्य गद्य साहित्य की एक ऐसी विधा है, जिसमें मानव जीवन की विसंगतियों पर प्रहार किया जाता

हिन्दी गद्य साहित्य में व्यंग्य लेखन 19वीं शताब्दी (भारतेन्दु युग) से प्रारम्भ हुआ। परन्तु उस समय इसका प्रयोग गद्य-रचना शैली के रूप में था। भारतेन्दुयुगीन व्यंग्यात्मक शैली ने ही आधुनिक युग में अपना अलग आधार बनाकर एक नई विधा के रूप में अपने को विकसित किया।

आधुनिक लेखकों ने व्यंग्य को पर्याप्त विस्तार दिया है। सामाजिक, राजनीतिक, धर्म-विषयक और अर्थ-विषयक सभी समस्याओं और विडम्बनाओं पर आधुनिक व्यंग्य-लेखकों को पैनी दृष्टि न करता हो । आज के व्यंग्यकारों की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि किसी-न-किसी गम्भीर सामाजिक या राजनीतिक आशय की ओर अवश्य उनकी लेखनी चुटकी लेती रही है।

परसाई जी ने हिन्दी साहित्य में व्यंग्य को विशेष प्रतिष्ठा प्रदान की है। उन्होंने व्यंग्य के कय्य, शिल्प, दिशा और उद्देश्य पर बहुत विस्तार से विचार प्रकट किये हैं। 

व्यंग्य के विषय में उनका एक विचार है कि जैसे कहानी, कविता, उपन्यास या नाटक शास्त्रीय विधाएँ हैं, उनका एक स्ट्रक्चर है, व्यंग्य का ऐसा कोई स्ट्रक्चर नहीं है। यह एक स्पिरिट (क्षमता) है जो किसी भी विधा में हो सकती है।

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