जनसंख्या वितरण घनत्व और वृद्धि

किसी भी स्थान पर जनसंख्या का वितरण समान नहीं है। अगर हम भारत की जनसंख्या वितरण की बात करे तो बहुत अधिक विषमता तथा क्षेत्रीय भिन्नता पायी जाती है। नीच मुख्य टॉपिक की जानकारी दिया गया हैं। की इस पोस्ट में क्या विशेष हैं।

विषय वस्तु

  1. जनसंख्या वितरण
  2. जनसंख्या घनत्व
  3. जनसंख्या वृद्धि
  4. जनसंख्या प्रवास
  5. जनसंख्या की संरचना
  6. ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या
  7. जनसंख्या की आयु संरचना

जनसंख्या वितरण घनत्व और वृद्धि

यह वितरण प्राकृतिक, सामाजिक , आर्थिक, राजनैतिक तथा ऐतिहासिक कारकों द्वारा नियन्त्रित होता है। ये कारक भारत में जनसंख्या के वितरण को निम्नांकित रूप में प्रभावित करते हैं।

जनसंख्या एक स्थान पर रहने वाले लोगो की संख्या को कहा जाता हैं। अधिक जानकारी – जनसंख्या क्या हैं

जनसंख्या को प्रभावित करने वाले कारक

1. प्राकृतिक कारक

(i) धरातलीय रूपरेखा - भारत की जनसंख्या के वितरण में धरातल की महत्वपूर्ण भूमिका है। नदियों के समतल मैदानीडेल्टाई भाग सघन बसे हैं। यद्यपि भारत के कुल क्षेत्रफल का मात्र एक चौथाई से भी कम भाग मैदानी क्षेत्र है, किन्तु इसमें भारत की आधी से अधिक जनसंख्या बसी हुई है। 

इसके विपरीत 67 प्रतिशत पठारीय क्षेत्रफल में 47.5% लोग निवास करते हैं और हिमालय पर्वत के 13% क्षेत्रफल में कुल जनसंख्या का केवल 2% लोग बसते है।

(ii) जलवायु – भारत की जनसंख्या के वितरण को सबसे अधिक जलवायु प्रभावित करती है। भारत के जिन भागों में अच्छी वर्षा होती है, वहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक पाया जाता है। जैसे मलाबार का कोंकण तट, दक्षिणी तमिलनाडु, गंगा की निचली घाटी आदि में 500 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी से अधिक लोग निवास करते हैं। 

जैसे-जैसे वर्षा की मात्रा घटती जाती है जनसंख्या भी क्रमशः घटती जाती है, जैसे - पश्चिम बंगाल में जनसंख्या बहुत घनी है, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में सघनहैं। जबकि उत्तर प्रदेश में सामान्य तथा पंजाबहरियाणा में कम जनसंख्या का घनत्व पाया जाता है। 

वर्षा का वितरण भी पश्चिम बंगाल में अधिक फिर बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब व हरियाणा में क्रमशः कम होता जाता है।

राजस्थान में वर्षा बहुत कम होती है इसीलिए जनसंख्या भी बहुत कम है। यही स्थिति दक्षिण भारत में भी है। मध्य प्रायद्वीपीय में कम वर्षा होती है। 

इसीलिए जनसंख्या का घनत्व भी कम है, जैसे – आन्ध्र प्रदेश में 275, कर्नाटक में 275 महाराष्ट्र में 314 तथा मध्यप्रदेश में 196 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। 

इसी प्रकार अत्यधिक शीतल, अति उष्ण व अति आर्द्र जलवायु मानव निवास तथा विकास के लिए अनुपयुक्त होती है। जैसे – हिमालय के उच्च पर्वतीय प्रदेश जहां अधिक ठंडी पड़ती हैं। राजस्थान का शुष्क मरुस्थल जहां अधिक गर्मी पड़ती हैं। इसी कारण यहां कम आबादी पाई जाती है।

जबकि स्वास्थ्यवर्धक जलवायु वाले प्रदेशों में अधिक जनसंख्या पायी जाती है। जैसे कि नैनीताल, अल्मोड़ा, दार्जिलिंग में ग्रीष्म ऋतु के समय जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है।

2. मानवीय कारक

(i) पानी की प्राप्ति में सरलता – पर्याप्त पानी जिन स्थानों पर सरलता से उपलब्ध हो जाता है। वहाँ जनसंख्या अधिक पायी जाती है। पानी से सिंचाई के साधन, बिजली, परिवहन सुविधाएँ तथा उद्योग-धन्धों का अच्छा विकास होता है। 

जैसे – पंजाब व हरियाणा में अच्छी सिंचाई सुविधाएँ हैं, अतः यहाँ जनसंख्या घनत्व भी क्रमश: 401 व 369 पाया जाता है।

(ii) भरण-पोषण के साधन – भारत में भरण-पोषण के साधन के रूप में सर्वप्रमुख कृषि है। यहाँ की 60% जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। जिन क्षेत्रों में कृषि की अच्छी सुविधाएँ हैं वहाँ अधिक जनसंख्या पायी जाती है। चूँकि कृषि के लिए नदियों के मैदान सर्वोत्तम हैं। 

अतः इन्हीं भागों में जनसंख्या का घनत्व भी अधिक है। भारतीय कृषि वर्षा जल पर निर्भर है। इसलिए जनसंख्या के घनत्व और वर्षा के वितरण में घनिष्ठ सम्बन्ध है।

(iii) खनिजों की उपलब्धि – जिन क्षेत्रों में पर्याप्त खनिज पदार्थ उपलब्ध होते हैं वहाँ जनसंख्या घनी पायी जाती है, जैसे—छोटा नागपुर का पठार खनिज पदार्थों से भरा है इसलिए यहाँ अधिक जनसंख्या पायी जाती है । 

(iv) उद्योग-धन्धों का विकास – जिन क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धों का विकास होता है वहाँ लोगों को काम मिलता है । औद्योगिक क्षेत्र घनी जनसंख्या वाले होते हैं, जैसे— पश्चिम बंगाल, दक्षिणी बिहार तथा उड़ीसा विभिन्न उद्योग-धन्धों के कारण घने बसे हैं ।

(v) परिवहन साधनों की सुविधा - पर्याप्त परिवहन साधनों की सुविधा वाले स्थान भी घने बसे होते हैं, जैसे—गंगा के मैदान, तटीय मैदान तथा डेल्टा प्रदेशों में नहरों, नदियों, रेलमार्गों और सड़कों का जाल बिछ जाता है, तो इन क्षेत्रों की जनसंख्या का घनत्व भी अधिक होता है। पर्वतीय प्रदेशों में इनका अभाव होता है। अत: जनसंख्या भी वहाँ कम पायी जाती है।

(vi) सुरक्षा–जीवन और धन-सम्पत्ति की सुरक्षा जहाँ होती है वहाँ जनसंख्या अधिक पायी जाती है, जैसे- उत्तरी भारत में जीवन व सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए अधिकांश ग्रामीण नगरों की ओर भाग रहे हैं। 

जनसंख्या का वितरण

भारत में जनसंख्या का वितरण बहुत असमान है। भारत के 8 राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़) में देश की 62-49% जनसंख्या बसती है शेष अन्य सभी राज्यों में। इस जनसंख्या वितरण की असमानता का अध्ययन हम जनसंख्या संकेन्द्रण सूचकांक द्वारा करते हैं। 

जनसंख्या संकेन्द्रण सूचकांक वह सूचकांक है, जो जनसंख्या के संकेन्द्रण को प्रदर्शित करता है। यह प्रतिशत में प्रदर्शित किया जाता है।

जनसंख्या संकेन्द्रण सूचकांक के आधार पर जनसंख्या वितरण संकेन्द्रण सूचकांक के आधार पर भारत में जनसंख्या वितरण को निम्नलिखित तीन वर्गों में रखा जा सकता है –

 1. उच्चतम जनसंख्या संकेन्द्रण सूचकांक वाले क्षेत्र या सघन जनसंख्या वाले क्षेत्र – इन्हें अधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र भी कहते हैं। उत्तरी भारत में गंगा के मध्यवर्ती तथा निचले मैदानी भाग केरल तथा पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के औद्योगिक रूप से विकसित नगरों में जनसंख्या का उच्चतम संकेन्द्रण सूचकांक (2 से अधिक) पाया जाता है। 

इन क्षेत्रों या सघन जनसंख्या वाले क्षेत्र, में जनसंख्या का घनत्व 300 से 500 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी तथा इससे भी अधिक है। इसका कारण इन क्षेत्रों की उपजाऊ मृदा, समतल भूमि, अच्छी जलवायु तथा सिंचाई साधनों की सुलभता है। 

2. मध्यम जनसंख्या संकेन्द्रण सूचकांक वाले सामान्य जनसंख्या वाले क्षेत्र – इसे मध्यम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र भी कहते हैं। जनसंख्या का उच्च संकेन्द्रण सूचकांक (1 से 2 तक) दक्षिण भारत में महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी नदियों के डेल्टाई भाग, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, दादरा और नगर हवेली, गोवा, दमन-दीव, पंजाब, हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश, असम व त्रिपुरा राज्यों में हैं। 

इन क्षेत्रों में 1 से 2 तक जनसंख्या संकेन्द्रण सूचकांक पाया जाता है और जनसंख्या का घनत्व 100 से 300 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी पाया जाता है। इन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधाएँ उपलब्ध हैं।

3. निम्न जनसंख्या संकेन्द्रण सूचकांक वाले क्षेत्र या कम जनसंख्या वाले क्षेत्र – इसे निम्न जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र भी कहा जाता है। इसमें जनसंख्या संकेन्द्रण सूचकांक 1 से कम पाया जाता है। इस वर्ग में भारत के 106 जिले आते हैं। 

ये जिले हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, दक्षिणी बिहार के पठारी भाग, थार मरुस्थल एवं प्रायद्वीपीय भारत के वृष्टि छाया प्रदेश में बिखरे हैं। यहाँ जनसंख्या का घनत्व 100 व्यक्ति, प्रति वर्ग किमी से कम पाया जाता है। एवं अल्प संसाधन कम जनसंख्या का प्रमुख कारण उपजाऊ कृषि भूमि का अभाव, विषम उच्चावच आदि हैं।

जनसंख्या घनत्व

जनसंख्या घनत्व का तात्पर्य है – प्रति वर्ग किमी क्षेत्रफल में निवास करने वाली जनसंख्या अथवा जनसंख्या/क्षेत्रफल। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार भारत का औसत जनसंख्या घनत्व 324 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। 

जबकि विश्व में जनसंख्या का औसत घनत्व 33 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। यह घनत्व विश्व के सबसे अधिक घनत्व वाले देशों में प्रथम श्रेणी का माना जाता हैं।

घनत्व के आधार पर भारत को तीन भागों में बाँटा जा सकता है

  1. उच्च जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेश
  2. मध्यम जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेश
  3. निम्न जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेश

1. उच्च जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेश 

इन प्रदेशों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

अत्यधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र - इसके अन्तर्गत भारत के 9 क्षेत्र आते हैं, जहाँ जनसंख्या घनत्व 600 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी से अधिक है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व दिल्ली में (9,294 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) है। 

इसके बाद क्रमशः चण्डीगढ़ (7903), पाण्डिचेरी (2,029), लक्षद्वीप (1,894), दमन दीव (1,411) है। ये सभी केन्द्र शासित प्रदेश हैं।

राज्यों में सर्वाधिक घना बसा राज्य पं. बंगाल है। जहाँ जनसंख्या घनत्व 1991 के 767 से बढ़कर 2001 में 904 हो गया है। दूसरा स्थान बिहार का (880) तीसरा केरल का (819) तथा चौथा स्थान उत्तरप्रदेश (689) का है।

अधिक जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेश - इसके अन्तर्गत वे क्षेत्र आते हैं, जहाँ जनसंख्या घनत्व 600 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. है। इसमें पंजाब (482), तमिलनाडु (478), हरियाणा (477), दादरा नगर हवेली 449) राज्य समाहित हैं।

2. मध्यम जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेश - जिन प्रदेशों का जनसंख्या घनत्व 200 से 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है, मध्यम घनत्व वाले प्रदेश कहलाते हैं। गोवा (363), असम (340), झारखण्ड (338), महाराष्ट्र (314) त्रिपुरा (304), आंध्र प्रदेश (275), गुजरात (258), उड़ीसा (236) शामिल हैं।

3. निम्न जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेश–इन प्रदेशों को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है 

(i) विरल जनसंख्या वाले राज्य – इसके अन्तर्गत वे राज्य आते हैं, जहाँ जनसंख्या घनत्व 100 से 200 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। इसके अन्तर्गत मध्यप्रदेश (196), राजस्थान (165), छत्तीसगढ़ (154), उत्तरांचल (159), नागालैण्ड (120), हिमांचल प्रदेश (109) मणिपुर (107), मेघालय (103) राज्य आते हैं।

(ii) अत्यधिक विरल जनसंख्या वाले राज्य – इसके अन्तर्गत भारत के वे राज्य आते हैं, जहाँ जनसंख्या घनत्व 100 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी से कम है। 

भारत का सबसे कम घनत्व वाला प्रदेश अरुणाचल प्रदेश (13) है। मिजोरम (42), सिक्किम (76), जम्मू कश्मीर (99), अण्डमान निकोबार द्वीप समूह (43) भी विरल जनसंख्या वाले राज्य हैं । इन राज्यों में विरल जनसंख्या का मुख्य कारण प्रतिकूल पर्यावरणीय दशाएँ हैं।

राज्यवार जनसंख्या घनत्व के विवरण से यथार्थ में जनसंख्या वितरण का सही ज्ञान बहुत कम हो पाता है, क्योंकि सभी राज्यों में जनसंख्या का घनत्व बहुत असमान पाया जाता है। उदाहरणार्थ- मध्यप्रदेश के ग्वालियर, इन्दौर, भोपाल एवं जबलपुर में जनसंख्या का घनत्व क्रमश: 271, 470, 487 व 260 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है, 

जबकि रतलाम, उज्जैन, सतना तथा रीवा जिलों में जनसंख्या घनत्व 150 से 200 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी और गुना, शिवपुरी, सीहोर, होशंगाबाद, बैतूल, सिवनी, मण्डला, शहडोल एवं सीधी में जनसंख्या घनत्व 100 से 130 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी ही है। भारत में तो एक ही जिले में जनसंख्या घनत्व असमान पाया जाता है।

भारत के नगरों का जनसंख्या घनत्व तीव्र गति से बढ़ रहा है । यह ग्रेटर मुम्बई में 16,434, कोलकाता में 23,669, दिल्ली में 6319, हैदराबाद में 14,248 तथा चेन्नई में 21,811 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। 

निष्कर्ष - भारत में जनसंख्या वितरण तथा जनसंख्या घनत्व के विवरण से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं

  1. भारत जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से उच्च घनत्व वाले देशों में प्रथम वर्ग में आता है। 
  2. भारत की जनसंख्या का वितरण एवं जनसंख्या घनत्व पर सर्वाधिक प्रभाव यहाँ पर होने वाली वर्षा का
  3. जनसंख्या का वितरण तथा जनसंख्या घनत्व बहुत असमान है। 
  4. जनसंख्या का जमाव उपजाऊ मैदानों, नदी-घाटियों, नदी के डेल्टा प्रदेशों में अधिक हुआ है।
  5. विरल जनसंख्या तथा कम घनत्व पहाड़ी व पठारी भूमि, वन प्रान्तरों, शुष्क प्रदेशों में पाया जाता है।
  6. भारत के बड़े नगरों में जनसंख्या का घनत्व सर्वाधिक है।

जनसंख्या वृद्धि

विश्व की जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि होती रही है, किन्तु 20 वीं शताब्दी में विशेषकर 1921 ई. के पश्चात् जनसंख्या वृद्धि बहुत तीव्र गति से हुई है। जनसंख्या वृद्धि की दर विकासशील देशों में अधिक रही है। भारत में भी पिछले 90 वर्षों में जनसंख्या 3½ गुनी से भी अधिक हो गयी है। 

यहाँ केवल जनसंख्या ही नहीं बढ़ रही है अपितु जनसंख्या की वृद्धि दर भी बढ़ रही है। सन् 1911 से 1921 के दशक में जनसंख्या में कमी देखी गई। इस दशक में जनसंख्या बढ़ने के बजाय घट गयी थी। अग्रांकित तालिका भारत में जनसंख्या वृद्धि को स्पष्ट करती है।

विभिन्न वर्षों में जनसंख्या की वृद्धि गति को जनांकिकी परिवर्तन सिद्धान्त के आधार पर निम्नलिखित तीन रूपों में प्रकट किया जा सकता है।

  1. स्थिर जनसंख्या अवधि - 1901 से 1921 तक,
  2. धीमी गति से बढ़ती जनसंख्या अवधि -1921 से 1951 तक, '
  3. तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या अवधि - 1951 से 1981 तक ।
  4. उच्च वृद्धि पर जनसंख्या के घटने की अवधि 1981 से 2001।

1. स्थिर जनसंख्या अवधि – सन् 1901 में भारत की जनसंख्या 23-8 करोड़ थी जो 1911 में 25-20 करोड़ हुई अर्थात् कुल 1.37 करोड़ की वृद्धि हुई । जनसंख्या वृद्धि दर 5-75% रही। यह जनसंख्या सन् 1921 में घटकर 25.13 करोड़ रह गयी अर्थात् 0-07 करोड़ जनसंख्या घट गयी और यह दर – 0-31% हो गयी। 

इस प्रकार सन् 1901 से 1921 तक जनसंख्या लगभग स्थिर रही। इसलिये यह अवधि स्थिर जनसंख्या अवधि कही जा सकती है। इस स्थिर जनसंख्या का कारण महामारी, दुर्भिक्ष तथा अन्नाभाव था।

2. धीमी गति से बढ़ती जनसंख्या अवधि – सन् 1921 से 1951 की अवधि में जनसंख्या निरन्तर बढ़ती रही और इन 30 वर्षों में जनसंख्या 25-13 करोड़ से बढ़कर 36-10 करोड़ हो गयी अर्थात् लगभग 11 करोड़ की वृद्धि हुई। इस जनसंख्या वृद्धि का कारण कृषि विकास, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा में सुधार के कारण मृत्यु दर पर नियन्त्रण था।

3. तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या अवधि – सन् 1951 के पश्चात् भारत में तीव्र तथा अप्रत्याशित दर से जनसंख्या में वृद्धि हुई। सन् 1951 से 1997 तक के 40 वर्षों में भारत की जनसंख्या में 49-20 करोड़ की वृद्धि हो गयी। सन् 1951 से 1961 के दशक में जनसंख्या वृद्धि दर 14.3% से बढ़कर 21.51% हो गयी, फिर यह दर बढ़ती ही भारत में जनांकिकी परिवर्तन अवधि गयी। 

सन् 1971 से 1981 के दशक में बढ़कर 24-75% हो गयी 1. स्थिर जनसंख्या अवधि वर्ष 1901 से जो सर्वोच्च है। इस जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए अनेक प्रयास किये गये। 1921 तक, गति से बढ़ती जनसंख्या अवधि वर्ष 1921 से 1951 तक।

4. उच्च वृद्धि पर जनसंख्या के घटने की अवधि  - तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या अवधि वर्ष 1981 से 2001 के बीच जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति में परिवर्तन 1951 से 1981 तक, हुआ है। इस बीच देश की जनसंख्या में वृद्धि तो हुई, परन्तु उच्च वृद्धि पर जनसंख्या के घटने की 1991 के दशक में वृद्धि दर में गिरावट का रूख जारी रहा हैं। 

सन् अवधि (1981-2001)। 1981 से 1991 के दशक में जनसंख्या में 23-86% एवं सन् 1991 से 2001 के बीच 21·34% वृद्धि हुई । इसी तरह सन् 1981 में जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर 2-22% थी, जो घटकर क्रमशः सन् 1991 में 2-14% एवं 2001 में 1.93% हो गयी । अर्थात् सन् 1981 से 2001 के बीच वार्षिक वृद्धि दर में 0-29% का ह्रास हुआ जो कि अच्छा संकेत है। 

इस ह्रास का मुख्य कारण शिक्षा तथा साक्षरता में वृद्धि छोटे परिवार की धारणा का बलवती होना तथा भविष्य में जनसंख्या व संसाधन में असंतुलन उत्पन्न होने की आशंका का जन सामान्य में घर करते जाना है। 

सन् 2001 की जनगणना के आधार पर कहा जा सकता है, कि भारत जनसंख्या संक्रमण की चतुर्थ अवस्था की ओर धीरे-धीरे बढ़ रहा है। अनुमान है कि भारत 2020 के उपरांत इस अवस्था में प्रवेश कर सकेगा जब यहाँ मृत्यु दर में कमी के साथ-साथ जन्म दर में भी कमी आ जाएगी। इस तरह से भारत को जनसंख्या वृद्धि में स्थिरता प्राप्त करने में अपेक्षाकृत अधिक समय लगने की संभावना है।

जनसंख्या वृद्धि के कारण

1. जन्म दर – किसी देश में जनसंख्या के प्रति हजार व्यक्तियों पर एक वर्ष में जन्म लेने वाले जीवित बच्चों की संख्या को जन्म दर कहते हैं। किसी भी देश में जन्म दर जितनी ऊँची होगी, उस देश में जनसंख्या वृद्धि की दर भी उतनी ही ऊँची होगी। 

भारत में सन् 1921 के पूर्व जन्म दर ऊँची तो थी, किन्तु मृत्यु दर भी ऊँची थी । अतः जनसंख्या स्थिर रही, परन्तु सन् 1921 के बाद सन् 1991 में जन्म दर में कमी आयी, किन्तु यह कमी मृत्यु दर में बहुत कम रही और जनसंख्या वृद्धि दर निरन्तर बढ़ती गयी । सन् 2011 में जन्म दर 26% प्रति हजार हो गयी हैं। 

2. मृत्यु दर – किसी देश में जनसंख्या के प्रति हजार व्यक्तियों पर एक वर्ष में मरने वाले व्यक्तियों की संख्या को मृत्यु दर कहते हैं। किसी देश की मृत्यु दर जितनी ऊँची होगी जनसंख्या वृद्धि दर उतनी ही नीची होगी। 

भारत में सन् 1921 की जनगणना के अनुसार मृत्यु दर 47-2 प्रति हजार थी, जो सन् 19912001 के दशक में घटकर 8.7 प्रति हजार रह गयी अर्थात् मृत्यु दर में 35.5 प्रति हजार की कमी आयी हैं। 

अतः मृत्यु दर नीची हुई तो जनसंख्या दर ऊँची हुई । मृत्यु दर में निरन्तर कमी से भारत में वृद्धों का अनुपात अधिक होगा, जिससे जनसंख्या पर अधिक भार बढ़ेगा।

जन्म दर तथा मृत्यु दर के अन्तर को प्राकृतिक वृद्धि दर कहा जाता है । मृत्यु दर में कमी के फलस्वरूप जीवन प्रत्याशा बढ़ जाती है । सन् 1991 की जनगणनानुसार भारत में जीवन प्रत्याशा 59 वर्ष थी।

3. प्रवास  की प्रवृत्ति जनसंख्या के एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरण को प्रवास या प्रवसन कहते हैं । जनसंख्या वृद्धि पर प्रवास का भी प्रभाव पड़ता है । भारत में सन् 1971 में लगभग 1 करोड़ शरणार्थी तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्ला देश) से भारत आ गये जिससे भारत की एक करोड़ जनसंख्या बढ़ गयी, पर बांग्ला देश बन जाने पर ये सभी  करोड़ लोग वापस बांग्ला देश चले गये । 

इस प्रकार भारत की जनसंख्या वृद्धि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । यदि वे लोग यहीं रह जाते तो भारत की जनसंख्या 1 करोड़ अधिक हो गयी होती। भारत में प्रवास केवल आन्तरिक होता है। जिससे जनसंख्या वृद्धि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

4. जीवन प्रत्याशा का बढ़ना - भारत में विगत वर्षों में भरणपोषण की सुविधाएँ बढ़ी हैं । स्वास्थ्य सेवाओं में पर्याप्त सुधार हुआ है। जीवन प्रत्याशा में भी वृद्धि हुई है और इस वृद्धि से जनसंख्या वृद्धि दर भी बढ़ती है। सन् 1921 में जीवन प्रत्याशा 20 थी, जो बढ़कर सन् 1991 में 59 हो गयी ।

5. शिशु की मृत्यु दर में कमी – भारत में वर्ष 1916 में बच्चों की मृत्यु दर 216 प्रति हजार थी । सन् 1985 में यह घट कर 89 प्रति हजार रह गयी । यह चिकित्सा सुविधाओं की सुलभता के कारण सम्भव हो सका। इससे भारत की जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुई है ।

6. अन्य कारण – भारत में जनसंख्या वृद्धि के अन्य कारण भी हैं, जैसे- बाल विवाह की प्रथा, सभी युवक-युवतियों के विवाह की प्रथा, पुत्र जन्म की अनिवार्यता, निर्धनता, अशिक्षा, संयुक्त परिवार प्रथा, मनोरंजन के साधनों का अभाव आदि। 

अब इन पर नियंत्रण पाये जाने का प्रयास किया जा रहा है । इसीलिये 1981-1991 के दशक में जनसंख्या वृद्धि दर पहले दशक की अपेक्षा कुछ कम हुई है।

जनसंख्या वृद्धि के उपाय

भारत की जनसंख्या प्रतिवर्ष 1.70 करोड़ व्यक्ति की दर से बढ़ रही है, जिसके कारण गरीबी, बेरोजगारी व महँगाई आदि समस्याएँ निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करना परम आवश्यक है । इसके निदान के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाये जाने चाहिए -

1. शिक्षा का प्रसार – भारत की 80% जनसंख्या गाँवों में निवास करती है, गाँवों में शिक्षा की कमी और अज्ञानता के कारण तथा शहर की गंदी बस्तियों के लोगों में शिक्षा की कमी के कारण, जनसंख्या नियन्त्रण का कोई भी कार्यक्रम सफल नहीं हो पा रहा है। शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर ही जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण किया जा सकता है।

2. विवाह की आयु में वृद्धि– देश में आज भी बाल विवाह की प्रथां चल रही है, फलस्वरूप महिलाओं का प्रजनन काल बढ़ जाता है, जिससे अधिक संख्या में सन्तान उत्पन्न होती हैं। अतः बाल विवाह पर कड़ाई से कानूनी प्रतिबंध लगाया जाना आवश्यक है । 

विवाह के लिए निर्धारित न्यूनतम उम्र लड़कियों के लिए 18 वर्ष एवं लड़कों के लिए 21 वर्ष को सख्ती से लागू किया जाये ।

3. संतानोत्पत्ति की संख्या का निर्धारण - जनसंख्या विस्फोट के दुष्प्रभाव से बचने के लिए प्रत्येक दम्पति के संतानों की संख्या 1 या 2 रहना अति आवश्यक है। चीन ने यही उपाय अपनाकर जनसंख्या नियन्त्रण में सफलता प्राप्त की है।

4. परिवार नियोजन – संतति योग्य काल में जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने हेतु परिवार नियोजन के विभिन्न कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार अति आवश्यक है। परिवार नियोजन कार्यक्रम को जन आन्दोलन का रूप दिया जाना चाहिए।

5. संतति सुधार कार्यक्रम – इस उपाय के अन्तर्गत संक्रामक रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों के विवाह एवं संतानोत्पति पर सख्ती के साथ प्रतिबंध लगाया जाय ।

6. सामाजिक सुरक्षा – भारत में वृद्धावस्था, बेरोजगारी अथवा दुर्घटना से सुरक्षा नहीं मिलने के कारण ही लोग बड़े परिवार की इच्छा रखते हैं। अतः यहाँ सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रमों में बेरोजगारी भत्ता, वृद्धावस्था पेंशन, वृद्धाश्रम आदि चलाकर साधारण जनता में सुरक्षा की भावना जागृत की जाय ।

7. स्वास्थ्य सेवा एवं मनोरंजन के साधन - देश के आम नागरिकों की कार्यकुशलता एवं आर्थिक उत्पादन की क्षमता को बनाये रखने के लिए सार्वजनिक व घरेलू स्वास्थ्य सुविधा एवं सफाई पर ध्यान देना आवश्यक है। डॉक्टर, नर्स एवं परिचारिकाओं आदि की संख्या में वृद्धि की जानी चाहिए। 

ग्रामीणों को स्वास्थ्यप्रद जीवन व्यतीत करने तथा मनोरंजन के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध कराए जायें। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाय कि गाँवों में पुरुष के लिए मनोरंजन का साधन एकमात्र स्त्री न रहे।

उपर्युक्त सुझावों द्वारा जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित किया जा सकता है । एक या दो बच्चे पैदा करने वाले दम्पत्ति को विभिन्न शासकीय लाभ दिया जाना चाहिए तथा दो से अधिक बच्चे उत्पन्न करने वालों के विरुद्ध कठोर कदम उठाना चाहिए । 

सन् 1970 के बाद चीन ने “एक दम्पत्ति एक संतान” का नारा देकर अपनी बढ़ती जनसंख्या को नियन्त्रित करने में सफल की है ।

जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव

भारत का कुल क्षेत्रफल विश्व का मात्र 2-4% है जहाँ विश्व की लगभग 16-87% जनसंख्या निव करती है। जनसंख्या की तीव्र वृद्धि से संसाधन और जनसंख्या का सन्तुलन बिगड़ गया है, जिसके कारण कई तरह के दबाव उत्पन्न हो गये हैं, इसी को जनवृद्धि की समस्या, जनसंख्या का दबाव या जनसंख्या विस्फोट कहा जाता है। 

भारत में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति के सम्बन्ध में दो तरह की विचारधाराएँ हैं। प्रो. ज्ञानचन्द, डॉ. चन्द्रशेखर का मानना है कि भारत की जनसंख्या में तीव्र वृद्धि खाद्यान्न की कमी, बेरोजगारी, निम्न जीवन स्तर घटती कृषि भूमि, बढ़ता हुआ जन घनत्व इस तथ्य के प्रमाण हैं कि भारत में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति है। 

जबकि कुछ विद्वानों का तर्क है कि भारत में विपुल प्राकृतिक संसाधन हैं, जिनका दोहन अभी बाकी है इसलिए समस्याओं का समाधान भविष्य में सम्भव है।

भारत में जनसंख्या विस्फोटक स्थिति में है। भारत की इस स्थिति को नकारना वास्तविकता पर परदा डालना है। आवश्यकता है कि जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए विकास किया जाये।

बढ़ती हुई जनसंख्या वृद्धि ने कई समस्याओं को जन्म दिया है। इनमें सबसे गंभीर समस्या भूख एवं गरीबी, पर्यावरण प्रदूषण एवं संसाधनों का ह्रास है।

1. संसाधनों का ह्रास – तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकता की पूर्ति हेतु संसाधनों का विदोहन बढ़ते जा रहा है। जबकि संसाधन सीमित है। संसाधनों के विदोहन की गति यही रही तो निकट भविष्य में कई खनिज संसाधन पूर्णतः समाप्त हो जायेंगे। ।

2. भूख एवं गरीबी – स्वतंत्रता के पश्चात् कृषि उत्पादों एवं औद्योगिक उत्पादों में वृद्धि हुई किन्तु यह विकास जनसंख्या वृद्धि की तुलना में बहुत कम रहा। फलतः गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती गयी। 

प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता वर्ष 1921 में 0-8 हैक्टेयर था जो कि घटकर अब 0-38 हैक्टेयर हो गया है। इसी प्रकार पौष्टिक भोजन के क्षेत्र में भी भारत पिछड़ा हुआ है। विशेषज्ञों के अनुसार एक औसत भारतीय के भोजन में कम से कम 3000 कैलोरीज की आवश्यकता है। 

किन्तु भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन लगभग 2000 कैलोरीज ही प्राप्त होता है । यहाँ आवास एवं स्वास्थ्य की समस्या भी बहुत गंभीर है। बढ़ती हुई आबादी के कारण आवास की पूर्ति नहीं हो पा रही है। बड़े-बड़े महानगरों में बहुत से लोग फुटपाथ में जीवनयापन करते हैं। 

इन शहरों में बढ़ती आबादी के कारण मकान बनाने हेतु जगह कम है और जो मकान हैं वे बड़े महँगे होते हैं इन्हें क्रय करने की क्षमता निम्नवर्ग के पास नहीं होती फलतः वे फुटपाथ में रहते हैं। पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण ये कुपोषण के शिकार हो जाते हैं।

3. वनीय क्षेत्र का ह्रास एवं पर्यावरण में असंतुलन - संतुलित वातावरण के लिए किसी भू-भाग के 33 प्रतिशत क्षेत्र पर वन होना आवश्यक है, किन्तु भारत में बढ़ती हुई जनसंख्या के भारी दबाव के कारण वनों को लगातार साफ कर कृषि भूमि एवं आवासीय क्षेत्र में परिणत किया जा रहा है। 

फलस्वरूप आज देश में मात्र 19% वन क्षेत्र हैं । वनों की कमी के कारण मिट्टी का कटाव बाढ़ एवं मरुस्थलों का विस्तार बढ़ा, वर्षा की मात्रा कम हो गयी एवं पर्यावरण संतुलन बिगड़ गया है। वायुमंडल में जीवनदायिनी गैसों की मात्रा कम होते जा रही है दूसरी ओर कार्बन मोनो ऑक्साइड सल्फर डाइऑक्साइड जैसे- जहरीली गैसें बढ़ रही हैं।

तापमान बढ़ते जा रहा है। ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण एवं जल प्रदूषण बढ़ रहा है। इससे जन सामान्य के स्वास्थ्य के प्रति खतरा उत्पन्न हो गया है। नयी-नयी बीमारियाँ फैल रही हैं। लोगों के काम करने की क्षमता का भी ह्रास हो रहा है। 

4. भूमि की उपजाऊपन का - कम होना- बढ़ती हुई आबादी के लिए खाद्यान्नों की पूर्ति हेतु भूमि में लगातार फसल उगाने एवं रसायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग के कारण मृदा की उर्वरा क्षमता का ह्रास हो रहा है। भविष्य में भूमि बंजर भी हो सकती है।

5. चरागाह भूमि की कमी - भारतीय कृषि पशुओं पर आधारित है। विश्व में सबसे अधिक पशुओं की संख्या भारत में है। इसलिए यहाँ चरागाह भूमि का विशेष महत्व है। जनसंख्या के दबाव के कारण चरागाह कृषि भूमि आवासीय क्षेत्र में बदलते जा रहा है, जो कि पशुओं के लिए ही नहीं स्वयं हमारे लिए गंभीर समस्या है। 

जनसंख्या प्रवास

किसी स्थान या देश अथवा प्रदेश की जनसंख्या में वृद्धि केवल प्राकृतिक वृद्धि से नहीं होती, बल्कि जनसंख्या का स्थानान्तरण भी प्रभाव डालता है । यह स्थानान्तरण दो प्रकार से होता है1. 

आप्रवास - जब बाहर से मानव समूह किसी प्रदेश में आकर बसता है, तो उसे आप्रवास कहते हैं ।

उत्प्रवास  - जब किसी प्रदेश से दूसरे प्रदेश में मानव समूह चला जाता है तो, उसे उत्प्रवास कहते हैं ।

प्रवास जनसंख्या स्थानान्तरण में लोगों का किसी दूरी को तय करना तथा उनके आवास में परिवर्तन अनिवार्य होता है।

प्रवास के प्रकार

प्रवास का सामान्य वर्गीकरण दो रूपों में किया जाता है

1. आन्तरिक प्रवास - यह जनसंख्या स्थानान्तरण किसी देश के ही आन्तरिक भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान को होता है। आन्तरिक प्रवास कई प्रकार का हो सकता है, जैसे कि अल्प  प्रवास, सामयिक प्रवास, अर्द्ध-स्थायी  प्रवास, स्थायी प्रवास, अस्थायी प्रवास तथा दैनिक  प्रवास ।

2. बाह्य या अन्तर्राष्ट्रीय प्रवास – जब प्रवास एक देश से दूसरे देश के बीच होता है तो उसे बाह्य या अन्तर्राष्ट्रीय प्रवास कहते हैं। यह प्रवास कई प्रकार का हो सकता है, जैसे- अल्प प्रवास, सामयिक प्रवास, अर्द्ध-स्थायी प्रवास, स्थायी प्रवास, अस्थायी प्रवास आदि। 

प्रवास के कारण

जनसंख्या स्थानान्तरण या प्रवास के कारण सामान्यतः सभी लोग अपने जन्म स्थान पर ही रहना पसन्द करते हैं, किन्तु बेहतर जीवन जीने के लिए अनेक दबावों के कारण जनसंख्या का स्थानान्तरण होता है जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. जनसंख्या का दबाव – किसी क्षेत्र या देश की अधिक जनसंख्या हो जाने पर सुविधाओं की कमी के कारण लोग बेहतर जीवन जीने के लिए प्रवास करते हैं, जैसे - मध्य एशिया से लोग भारत में आये । उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल राज्यों से उत्प्रवास ।

2. कृषि पर अधिक जनसंख्या का दबाव – भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या में बहुत वृद्धि हुई है जिससे वहाँ काम का अभाव उत्पन्न हो गया है। अतः गाँवों से नगरों की ओर उत्प्रवास होता है । 

3. कृषि कार्यों में अरुचि – शिक्षित व अर्द्ध-शिक्षित नवयुवक कृषि कार्यों में रुचि नहीं रखते हैं, अतः वे अन्य काम की तलाश में प्रवास करते हैं ।

4. औद्योगिक क्षेत्रों व नगरों में काम का आकर्षण — गाँवों की अपेक्षा औद्योगिक क्षेत्रों में काम मिलने की अधिक आशा रहती है ।

5. अन्य कारण–विवाह, सामाजिक बन्धन, जीवनयापन की बेहतर सुविधाएँ आदि के कारण प्रवास होता है।

भारत में प्रवास

आन्तरिक प्रवास – भारत के नागरिकों को यह स्वतन्त्रता व अधिकार है कि वे भारत के किसी भी प्रदेश या स्थान (कश्मीर को छोड़कर) पर जाकर बस सकते हैं। इसके फलस्वरूप यहाँ निम्नांकित प्रकार के प्रवास होते हैं

प्रवास की प्रवृत्तियाँ 

  1. अपने जन्म के ही राज्य में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाना, 
  2. एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास करना, 
  3. ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों की ओर प्रवास करना, 
  4. ग्रामीण क्षेत्रों से अन्य ग्रामीण क्षेत्रों की ओर प्रवास करना, 
  5. नगरों से ग्रामीण क्षेत्र की ओर प्रवास करना, 
  6. नगरीय क्षेत्र से नगरीय क्षेत्र को प्रवास करना ।

प्रवासी जनसंख्या का 70% भाग रोजगार की तलाश में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र को प्रवास करता है। सन् 1971-81 के दशक में 43.1% पुरुष तथा 4.2% स्त्रियों ने रोजगार के लिए नगर की ओर प्रवास किया। 6% युवक तथा 2-4% युवतियों ने शिक्षा प्राप्ति हेतु नगरों को प्रवास किया। 

नगरों से ग्रामीण क्षेत्र को भी उत्प्रवास होता है, क्योंकि काम समाप्त होने पर ग्रामीण जनसंख्या अपने जन्म स्थान को वापस आ जाती है।

निष्कर्ष 

प्रवास के उपर्युक्त अध्ययन से प्रवासी जनसंख्या सम्बन्धी निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं -

  1. भारत की लगभग 70% जनसंख्या प्रवासी नहीं है।
  2. जन्म के राज्य से बाहर 4% से भी कम लोग प्रवास करते हैं।
  3. स्त्रियों का प्रवास अपने जिले या राज्य में स्थानीय स्तर पर पुरुषों की अपेक्षा अधिक होता है।
  4. जन्म के राज्य से बाहर स्त्रियों की संख्या और भी कम हो जाती है।
  5. लगभग 70% प्रवास एक ग्रामीण क्षेत्र से दूसरे ग्रामीण क्षेत्र को होता है। 

प्रवास के प्रभाव

भारत में जनसंख्या स्थानान्तरण के प्रभाव निम्नलिखित हैं -

1. आर्थिक रूप से पिछड़े हुए राज्यों या क्षेत्रों से जनसंख्या स्थानान्तरण उत्प्रवासी के रूप में अधिक होता है उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश, केरल आदि राज्यों से उत्प्रवास महाराष्ट्र, असम, पश्चिम बंगाल व दिल्ली को होता है। 

केरल से उत्प्रवास खाड़ी देशों को भी अधिक होता है। उत्तर प्रदेश, बिहार तथा केरल से उत्प्रवास का कारण जनसंख्या का अधिक दबाव है ।

2. आर्थिक दृष्टि से कम विकसित राज्यों में उत्प्रवास की अपेक्षा अप्रवास अधिक होता है। जैसे—असम, मध्यप्रदेश में । असम में पड़ौसी राज्यों से श्रमिक चाय बागानों में काम करने आते हैं तथा मध्यप्रदेश में औद्योगिक क्षेत्रों व खनिज क्षेत्रों में काम करने हेतु लोग आते हैं ।

3. अनेक राज्यों में प्रवासी जनसंख्या से उत्प्रवासी जनसंख्या अधिक होती है, जैसे— तमिलनाडु, जम्मूकश्मीर, हरियाणा, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश व हिमाचल प्रदेश।

4. पंजाब, कर्नाटक तथा गुजरात में आप्रवासी जनसंख्या अधिक है।

5. औद्योगिक राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में अधिकतर आप्रवास नगरों में हुआ है, जैसे- भिलाई, कोरबा, बोकारो, भोपाल, कोलकाता, मुम्बई, अहमदाबाद आदि।

के कारण बढ़ जाती है, जैसे- दिल्ली, चण्डीगढ़, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह। इस प्रकार भारत में तीन आप्रवासी प्रधान क्षेत्र तथा तीन उत्प्रवासी प्रधान क्षेत्र हैं।

6. औद्योगिक दृष्टि से विकसित प्रदेशों की जनसंख्या आप्रवास के कारण बढ़ जाती है, जैसे- दिल्ली, चण्डीगढ़, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह। 

इस प्रकार भारत में तीन आप्रवासी प्रधान क्षेत्र तथा तीन उत्प्रवासी प्रधान क्षेत्र हैं।

जनसंख्या की संरचना

जनसंख्या की संरचना का विशद् अध्ययन जनांकिकी के अन्तर्गत किया जाता है। जनांकिकी में जनसंख्या के विभिन्न पक्षों की व्याख्या होती है। इस तरह की जनांकिकी की विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार की होती हैं।

जनसंख्या की भाषायी संरचना

भारत में लोगों की भाषाओं तथा बोलियों में अत्यधिक विविधता पायी जाती है। इसका प्रमुख कारण भारत में समय-समय पर विभिन्न नृजातीय वर्गों का आकर बसना है। भारतीय उपमहाद्वीप में बसाव की लम्बी प्रक्रिया एवं स्थानीय प्रभाव ने विभिन्न भाषाओं और बोलियों को विकसित किया है। 

भारत एक विशाल भू आकृतियों वाला देश है । इस भौगोलिक स्थिति के कारण देश में लगभग 1652 मातृ भाषाएँ बोली जाती हैं । भाषा और बोली में यह अन्तर होता है कि भाषा की अपनी एक लिपि होती है, व्याकरण और व्यवस्थित साहित्य होता है, जबकि बोली की कोई अपनी लिपि नहीं होती है।

भारत में एक लाख से अधिक जनसंख्या द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषाओं की संख्या 33 है, जो देश की कुल जनसंख्या के 97% लोगों द्वारा व्यवहृत है। इन भाषाओं को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जाता है।

1. आर्य भाषाएँ

इसे भारतीय यूरोपीय भाषा-परिवार भी कहा जाता है। भारत की 73 प्रतिशत जनसंख्या इसी परिवार की भाषाओं को बोलती है । इन भाषाओं को दो मुख्य वर्गों में रखा जाता है –  

  • दरदी भाषा
  • भारतीय आर्य भाषा 

दरदी भाषा – आर्यों में प्रथम वर्ग दरदी भाषाओं का है । इसके अन्तर्गत कश्मीरी, दरदी, शिना व कोहिस्तानी सम्मिलित हैं । कश्मीरी भाषा को बोलने वालों का प्रतिशत अन्य दरदी वर्ग की किसी भाषा के बोलने वालों की अपेक्षा अधिक है ।

भारतीय आर्य भाषा – आर्य भाषा दूसरा वर्ग है, जिसमें हिन्दी, बंगला, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, कच्छी, सिन्धी, मराठी, उड़िया, संस्कृत, असमी तथा उर्दू सम्मिलित हैं। प्रादेशिक वितरण के आधार पर आर्य भाषाओं को निम्नलिखित कई उप-वर्गों में विभाजित किया जाता है -

1. उत्तरी आर्य भाषा – यह उपवर्ग उत्तरी पहाड़ी बोलियों का है । इसमें नेपाली, मध्य पहाड़ी तथा पश्चिमी पहाड़ी बोलियाँ आती हैं ।

2. उत्तरी-पश्चिमी आर्य भाषा – भारत के उत्तरी-पश्चिमी भाग में बोली जाने वाली भाषाएँ जैसेलेहन्दा, कच्छी, सिन्धी आदि हैं।

3. दक्षिणी आर्य भाषा - इसके अन्तर्गत मराठी तथा कोंकणी भाषाएँ हैं । 

4. पूर्वी आर्य भाषा – ये भाषाएँ भारत के पूर्वी भाग में बोली जाती हैं, जहाँ बिहारी, उड़िया, बंगला तथा असमी भाषाएँ प्रमुख हैं।

5. पूर्वी मध्य आर्य भाषा - इसमें अवध, बघेलखण्ड तथा छत्तीसगढ़ में बोली जाने वाली भाषाएँ आती हैं। इसके अन्तर्गत अवधी, बघेली व छत्तीसगढ़ी भाषाएँ हैं।

6. मध्य आर्य भाषा – भारत के मध्य भाग में बोली जाने वाली भाषाएँ हैं। ये हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती व मारवाड़ी भाषाएँ हैं। देश की लगभग 45% जनसंख्या हिन्दी बोलती है तथा टूटी-फूटी हिन्दी तो पूरे भारतवासी बोल लेते हैं । इसीलिए हिन्दी को राष्ट्र भाषा का स्थान प्राप्त है। 

2. द्रविड़ भाषाएँ

आर्यों के पूर्व भारत में द्रविड़ आये थे । यह भी सम्भव है कि द्रविड़ ही भारत के मूल निवासी रहे हों। जब आर्यों ने उत्तर-पश्चिम भारत से इस देश में प्रवेश किया और वे भारत की शस्य श्यामला भूमि पर फैलते गये तो द्रविड़ दक्षिण भारत की ओर खिसकते गये। 

यही कारण है कि द्रविड़ भाषाएँ भारत के मध्यवर्ती जल विभाजक के दक्षिण में पायी जाती हैं। इसमें तीन उपवर्ग हैं –

1. उत्तरी द्रविड़ भाषा – इसमें कुरुख तथा मालती भाषाएँ हैं।

2. मध्य द्रविड़ भाषा – इस उपवर्ग में तेलगु तथा गोंडी प्रमुख भाषाएँ हैं, पारजी और खोंड बोलियाँ भी महत्वपूर्ण हैं ।

3. दक्षिणी द्रविड़ भाषा – दक्षिणी भारत में बोलने वाली भाषाएँ उस उपवर्ग में समाहित हैं। इसमें तमिल, मलयालम, कन्नड़ प्रमुख भाषाएँ हैं। तुलु, कुरगी और मेरुकला बोलियाँ महत्वपूर्ण हैं। 

तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम भाषाएँ इस क्षेत्र की प्रधान भाषाएँ हैं और द्रविड़ भाषाओं के बोलने वाले 96% भाग इन्हीं भाषाओं को बोलते हैं। इनमें तमिल भाषा बोलने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है।

भाषा प्रदेश – स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् यह अनुभव किया गया कि भारत में राज्यों का पुनर्निर्माण किया जाय। इस हेतु राज्य पुनर्निर्माण आयोग की स्थापना की गयी। इसकी अनुशंसाओं के अनुरूप भारत में भाषायी राज्यों का पुनर्निर्माण किया गया। 

सर्वप्रथम संविधान में आठ भारतीय भाषाओं को मान्यता दी गयी, किन्तु आगे यह संख्या 15 हो गयी और इन्हीं के आधार पर 1 नवम्बर, सन् 1956 को भारत में 15 राज्य, भाषा प्रदेश के अस्तित्व में आये। 

आगे चलकर स्थानीय भाषाओं को संविधान में मान्यता प्राप्त भाषा तथा नये राज्यों की माँग बढ़ती गयी। विभिन्न कारणों से अब तक 28 राज्य बन चुके हैं। इन सबको 12 भाषायी प्रदेशों में विभाजित किया जाता है।

जनसंख्या की धार्मिक संरचना

भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है । अतः यहाँ सभी धर्मों को फूलने-फलने के समान अवसर प्राप्त हैं। प्राचीन समय से भारत विभिन्न धर्मों की स्थली रहा है। धर्म यहाँ के निवासियों के जीवन का लालन-पालन, शिक्षा, रीति-रिवाज, भोजन व्यवस्था, निवास स्थान तथा सामाजिक वातावरण का निर्धारण करता है । 

इसलिये भारतीय जनसंख्या की धार्मिक संरचना का अध्ययन आवश्यक है। भारत में प्रमुखतः छः धर्मों का प्रचलन है। 

1. हिन्दू धर्म – हिन्दू धर्म भारतवर्ष का सबसे प्रमुख धर्म है। हिन्दू धर्म में अनेक सम्प्रदाय हैं - सनातनी, आर्य समाजी, राधास्वामी, ब्रह्म समाज तथा आर्य समाज प्रमुख हैं। सामान्यतः जैन, सिक्ख व बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म के अन्तर्गत आते हैं । 

हिन्दू जनसंख्या असम, जम्मू-कश्मीर, केरल, मणिपुर, मेघालय, नागालैण्ड, पंजाब, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम तथा केन्द्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप को छोड़कर शेष भारत के सभी राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों में 75 प्रतिशत से अधिक है।

हिन्दू धर्म के प्रमुख सिद्धान्त 

  1. परमपिता परमेश्वर में अटूट विश्वास करना। 
  2. अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता की भावना।
  3. कर्म-पुनर्जन्म तथा मोक्ष में विश्वास रखना है। 

सन् 1991 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या का 67.25% हिन्दुओं का है। उत्तर भारत के विशाल मैदान एवं प्रायद्वीपीय भारत में हिन्दू धर्मावलम्बी सर्वाधिक हैं ।

2. इस्लाम धर्म – भारत में इस्लाम धर्म का प्रवेश आठवीं शताब्दी के पूर्व में हुआ था। इसके बाद 12 वीं शताब्दी में मुस्लिम राज्य की स्थापना के साथ-साथ इस्लाम धर्म का प्रचार एवं प्रसार बढ़ता गया। इस धर्म के दो प्रमुख सम्प्रदाय हैं - शिया व सुन्नी । 

सन् 1981 में मुस्लिमों का 11.4% था, जो सन् 1991 में बढ़कर 25.41% हो गया। धार्मिक कारणों से इस समुदाय में जन्म दर अधिक है। इसके दो कारण निम्नलिखित हैं

  1. बहुपत्नी प्रथा
  2. परिवार नियोजन का निषेध होना

मुसलमानों की सबसे अधिक संख्या जम्मू कश्मीर में है। यहाँ मुसलमान 38-43 लाख तथा हिन्दू मात्र 19-30 लाख हैं, यहाँ कुल जनसंख्या में 64-2% मुसलमान हैं। दूसरा स्थान उत्तरप्रदेश (1-77 करोड़) यहाँ कुल जनसंख्या का 16% है। तीसरा स्थान केरल (54 लाख) का है। इनके अलावा पश्चिम बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश, तामिलनाडु, गुजरात, दिल्ली तथा लक्ष्यद्वीप में भी मुसलमानों की बहुलता है।

3. ईसाई धर्म - भारत में रोमन कैथोलिक, एंगोलियन तथा बैपटिस्ट ईसाइयों की जनसंख्या अधिक है। - इस धर्म का विस्तार अनुसूचित जनजातियों तथा अनुसूचित जातियों में अधिक हुआ है। 

वर्तमान में केरल, गोवा, दमन, दीव, पांडिचेरी, मिजोरम, नागालैण्ड, मणिपुर, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश तथा पूर्वी मध्यप्रदेश में इनकी संख्या सर्वाधिक है । सन् 2001 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या का 2.33% ईसाई धर्मावलम्बियों का है।

4. सिक्ख धर्म – सिक्ख धर्म की स्थापना गुरुनानक ने की थी। इस धर्म को हिन्दुओं के अनुसूचित जाति के लोगों ने अधिक अपनाया । यह धर्म प्राचीन परमेश्वर वादी हिन्दू धर्म को एक सच्चे धर्म के रूप में अपनाता रहा है । 

इन्होंने मूर्ति पूजा, जाति प्रथा, पुनर्जन्म आदि बातों का खंडन किया है। इनके अनुयायियों के पास सदैव कच्छ, कृपाण, कंघी, कड़ा और केश रहते हैं । इनकी अधिकांश जनसंख्या पंजाब में तथा इसके अतिरिक्त चंडीगढ़, दिल्ली, उत्तर-प्रदेश के तराई व राजस्थान के गंगानगर जिले में अधिक है। 

सन् 1991 की जनगणना के अनुसार इनकी संख्या 1.8 करोड़ है, जो कुल जनसंख्या का 2.12% थी। सन् 2001 में इनकी जनसंख्या बढ़कर 1.92 करोड़ की जो कुल जनसंख्या 1.84% है।

5. बौद्ध धर्म – यह धर्म हिन्दू धर्म की एक शाखा है । गौतम बुद्ध ने ईसा पूर्व 6 वीं शताब्दी में इस धर्म का सर्वाधिक प्रचार गंगा की घाटी में किया था । 10 वीं शताब्दी के पश्चात् भारत में धीरे-धीरे इस धर्म का लोप हो गया। आज इस धर्म के अनुयायियों की संख्या देश में मात्र 70 लाख है। 

महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, लद्दाख, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश व त्रिपुरा राज्यों में सर्वाधिक है, जो कुल जनसंख्या का 0-76% है। 

6. जैन धर्म – यह धर्म हिन्दू धर्म की एक शाखा है, जिसकी स्थापना 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में महावीर स्वामी ने की थी । इस धर्म के अधिकांश अनुयायी वैश्य समुदाय के हैं । 

इस धर्म के दो प्रमुख संप्रदाय हैंदिगम्बर एवं श्वेताम्बर । इस धर्म के मानने वालों की संख्या देश में लगभग 50 लाख हैं जो कुल जनसंख्या का 0.59% है। ये मुख्य रूप से गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान में हैं । 

7. पारसी धर्म – इस धर्म के लोग सातवीं शताब्दी में मुस्लिम धर्म की क्रूरता से बचने के लिए फारस से भागकर भारत के पश्चिमी तटीय भागों में आकर बस गये । इस धर्म के अनुयायी सूर्य और अग्नि की पूजा करते हैं। भारत में ये लगभग 10 लाख हैं। अधिकांश पारसी मुम्बई तथा गुजरात में बस गये हैं। 

ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या

भारत गाँवों का देश है। यहाँ 5,71,500 गाँव हैं और इनमें लगभग 75% जनसंख्या निवास करती है अर्थात् 4 में से 3 व्यक्ति गाँव में और एक व्यक्ति नगर में रहता है। ये गाँव भारतीय संस्कृति तथा अर्थतन्त्र के आधार हैं। 

ग्रामीण जीवन बड़ी विकसित अवस्था में पाया जाता है। प्राचीन काल में ये गाँव स्वावलम्बी हुआ करते थे, किन्तु वर्तमान शताब्दी में इनका यह स्वावलम्बन बिखर रहा है। 

इसका कारण व्यक्तिवाद की भावना में वृद्धि, संयुक्त परिवार प्रणाली में विघटन, आधुनिक शिक्षा का प्रभाव, नगरीय सभ्यता का विकास, औद्योगिक प्रगति के कारण कुटीर उद्योगों का ह्रास तथा अन्य अनेक सामाजिक व आर्थिक कारक हैं। पिछले दशकों में नगरीय जनसंख्या का अनुपात तीव्र गति से बढ़ रहा है और ग्रामीण जनसंख्या का अनुपात घट रहा है।

ग्रामीण जनसंख्या

ग्राम, है। ग्रामीणों का जीवन संगठित होता है। ग्राम भी जनसंख्या के आधार पर कई श्रेणी के होते हैं। भारत की 70% से अधिक ग्रामीण जनसंख्या छोटे गाँवों में निवास करती है । 

इन छोटे गाँवों की जनसंख्या 2000 से कम है। लगभग 20% जनसंख्या मध्यम आकार के गाँवों में तथा मात्र 5% जनसंख्या बड़े गाँवों में निवास करती है। उपर्युक्त आँकड़ों के अध्ययन से निम्नांकित तथ्यों का पता चलता है

  1. उत्तर प्रदेश में गाँवों की संख्या तथा ग्रामीण जनसंख्या सबसे अधिक है।
  2. भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों म ग्रामीण जनसंख्या का अनुपात अपेक्षाकृत कम है। 
  3. केन्द्र शासित प्रदेशों में भी ग्रामीण जनसंख्या का अनुपात अपेक्षाकृत कम है। 
  4. उत्तरी मैदान के राज्यों में गाँवों की संख्या तथा ग्रामीण जनसंख्या अधिक पायी जाती है।
  5. प्रायद्वीपीय भारत के राज्यों में ग्रामीण जनसंख्या नगरीय जनसंख्या की अपेक्षा अधिक है।

जनसंख्या के आधार पर गाँवों को निम्नलिखित छः वर्गों में रखा जाता है -

  1. 10,000 तथा इससे अधिक जनसंख्या वाले गाँव
  2. 5,000 से 9,999 जनसंख्या वाले गाँव
  3. 2,000 से 4,999 जनसंख्या वाले गाँव
  4. 1,000 से 1,999 जनसंख्या वाले गाँव
  5. 500 से 999 जनसंख्या वाले गाँव
  6. 500 से कम जनसंख्या वाले गाँव 

ग्रामीण जनसंख्या के महत्वपूर्ण तथ्य

10,000 या इससे अधिक जनसंख्या वाले गाँव केरल में पाये जाते हैं। 5000 या इससे अधिक जनसंख्या वाले गाँव हिमाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैण्ड तथा सिक्किम में उपलब्ध हैं। 

उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश तथा उड़ीसा में छोटे-छोटे गाँव 500 या इससे कम जनसंख्या वाले अधिक पाये जाते हैं।

नगरीय जनसंख्या

भारत के राज्यों में नगरीय जनसंख्या के प्रतिशत में पर्याप्त विभिन्नता है । विगत 90 वर्षों में यहाँ नगरीय जनसंख्या में आठ गुना से भी अधिक वृद्धि हुई है। सन् 1901 में नगरीय जनसंख्या कुल जनसंख्या का 10-84 प्रतिशत अर्थात् केवल 2.58 करोड़ थी। 

सन् 1981 में 23-34 प्रतिशत अर्थात् 15-94 करोड़ तथा सन् 1991 में यह संख्या बढ़कर 21.71 करोड़ हो गयी अर्थात् 25-72%। सन् 2001 में नगरीय जनसंख्या 27.78 प्रतिशत अर्थात् 28.53 करोड़ हो गयी ।

नगरीय जनसंख्या का क्षेत्रीय स्वरूप

नगरीय जनसंख्या के प्रतिशत के आधार पर भारत को तीन भागों में विभाजित किया जाता है

  • 30 प्रतिशत से अधिक नगरीय जनसंख्या वाले क्षेत्र
  • 15 से 30 प्रतिशत तक नगरीय जनसंख्या वाले क्षेत्र
  • 15 प्रतिशत से कम नगरीय जनसंख्या वाले क्षेत्र

30 प्रतिशत से अधिक नगरीय जनसंख्या वाले क्षेत्र - इसके अन्तर्गत महाराष्ट्र (42-40%), तमिलनाडु (43-86%), गुजरात (37-35%) राज्य तथा चण्डीगढ़ (89.78%), दिल्ली (93-01%), पाण्डिचेरी (66.57%), गोवा (49-77%) दमन और दीव ( 46-86% ) एवं लक्षद्वीप (44-47%), मिजोरम (49-50%), कर्नाटक (33-98%), पंजाब (33-95%), अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह (32-67%) केन्द्र शासित प्रदेश सम्मिलित हैं। 

कुल नगरीय जनसंख्या की दृष्टि से महाराष्ट्र का भारत में तीसरा स्थान है। यहाँ द्वितीय श्रेणी के नगरों का अधिक विकास हुआ है। तमिलनाडु का भारत में चौथा स्थान है। यहाँ प्रथम श्रेणी के नगरों का अधिक विकास हुआ है।

15 से 30 प्रतिशत तक नगरीय जनसंख्या वाले क्षेत्र - इस वर्ग में पश्चिम बंगाल (28-03% ) मणिपुर (23-88%), आन्ध्र प्रदेश (27-08%), हरियाणा (29-00.%), राजस्थान ( 23.38%), मध्यप्रदेश (26-67%), केरल (25-97%), छत्तीसगढ़ (20-08), मेघालय ( 19.63%), उत्तरप्रदेश (20-78%), नागालैण्ड (17-74 %), व त्रिपुरा (17-02%), राज्य तथा केन्द्र शासित प्रदेश सम्मिलित हैं। 

नगरीय जनसंख्या की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का भारत में प्रथम स्थान है। इस राज्य में 702 नगर व कस्बे हैं ।

15 प्रतिशत से कम नगरीय जनसंख्या वाले क्षेत्र - इन्हें सामान्य से कम नगरीय जनसंख्या वाले प्रदेश भी कहते हैं। भारत में छः राज्य – बिहार (10.47%), उड़ीसा ( 14.97%), सिक्किम (11-10%), अरुणाचल प्रदेश (20-41% ), असम (12.72%) और हिमाचल प्रदेश (9.79% ) में नगरीय जनसंख्या सामान्य नगरीय जनसंख्या से कम है। हिमाचल प्रदेश में नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत सब राज्यों से कम है।

जनसंख्या की आयु संरचना

जनसंख्या का अध्ययन उसकी आयु- संरचना के जाने बिना अधूरा रहता है, क्योंकि आयु- संरचना हमारी जनसंख्या का महत्वपूर्ण लक्षण है, जो हमारे आर्थिक विकास से जुड़ा होता है ।

आर्थिक दृष्टि से सम्पूर्ण जनसंख्या को आयु के अनुरूप दो भागों में विभाजित किया जाता है।

  1. अनार्जक जनसंख्या
  2.  अर्जक जनसंख्या

1. अनार्जक जनसंख्या

इस वर्ग में दो आयु संवर्ग की जनसंख्या आती है - 

0 – 14 वर्ष आयु वाली जनसंख्या – यह जनसंख्या पूर्णतः अर्जक जनसंख्या पर निर्भर करती है। 2001 में इस संवर्ग की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या का 33.06 प्रतिशत भाग है । यह बाल संवर्ग वाली जनसंख्या भारत में अन्य विकसित देशों की तुलना में बहुत अधिक है । 

बाल संवर्ग जनसंख्या का उच्च अनुपात पिछड़ेपन का कारण तथा सूचक है । तेजी से बढ़ती बाल जनसंख्या के लिए भरण-पोषण, स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी आवश्यक सुविधाएँ भी जुटा पाना कठिन हो जाता है ।

60 वर्ष या इससे अधिक आयु वाली जनसंख्या – यह जनसंख्या भी अनार्जक जनसंख्या मान जाती है । भारत में इस आयु संवर्ग की जनसंख्या अपेक्षाकृत कम (केवल 7-0 प्रतिशत) है । यह जनसंख्या भी अर्जक जनसंख्या पर निर्भर होती है।

इस प्रकार बच्चे तथा वृद्ध मिलकर आश्रित जनसंख्या बनते हैं। भारत में आश्रित जनसंख्या लगभग 46 प्रतिशत है। यह अर्जक जनसंख्या पर एक भारी बोझ है। अतः हमें बाल संवर्ग की जनसंख्या कम करने हेतु जन्म दर कम करनी होगी।

2. अर्जक जनसंख्या

इस वर्ग में 15 से 59 वर्ष के मध्य की सभी जनसंख्या आती है। इस संवर्ग को निम्नलिखित उपसंवर्गों में विभाजित किया जाता है।

जनसंख्या का लिंगानुपात

मानव समाज या देश में स्त्री-पुरुषों की प्रति हजार संख्या को लिंग अनुपात कहते हैं। किसी भी सन्तुलित समाज या देश में यह लिंग अनुपात समान होता है । लिंग अनुपात का निर्धारण अनेक सामाजिक, आर्थिक तथा जैविक कारकों द्वारा होता है। हमारे देश में जनसंख्या के आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि प्रति हजार पुरुषों में स्त्रियों की संख्या निरन्तर घटती जा रही है ।

स्त्रियों की जनसंख्या में कमी के कारण हमारे देश में स्त्रियों रूस की संख्यों में कमी के निम्नलिखित सामाजिक कारण हैं

  1. भारतीय समाज में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति पुरुषों की अपेक्षा कम है। 
  2. लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के पालन-पोषण पर कम ध्यान दिया जाता है।
  3. प्रसव-काल में स्त्रियों की मृत्यु होना।
  4. स्त्रियों की प्रायः उपेक्षा की जाती है। उनका घर चहारदीवारी के भीतर ही रहना अच्छा माना जाता है।
  5. कन्याओं की भ्रूण हत्या । 
  6. स्त्रियों की शिक्षा तथा उनके स्वास्थ्य पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है। 

भारत में केवल केरल राज्य में स्त्रियों की संख्या (1-48 करोड़) पुरुषों (1-42 करोड़) की तुलना में अधिक है। यहाँ लिंगानुपात 1058 है। यहाँ के अधिकांश भागों में मातृ प्रधान सामाजिक व्यवस्था पायी जाती है। इसी प्रकार केन्द्र शासित राज्य पांडिचेरी में भी स्त्रियों की संख्या अधिक है। 

यहाँ लिंगानुपात 1001 है। इसका मुख्य कारण शिक्षा का प्रचार है। नवसृजित राज्य छत्तीसगढ़ (989), झारखण्ड (941) एवं उत्तरांचल में लिंगानुपात (964) है। भारत के केवल 15 राज्य एवं दो केन्द्र शासित प्रदेश पांडिचेरी एवं लक्षद्वीप में लिंगानुपात राष्ट्रीय औसत से अधिक है। 

चण्डीगढ़ (लिंगानुपात 773), दिल्ली (821), हरियाणा (861), अण्डमान निकोबार द्वीप (846), सिक्किम (875), अरुणाचल प्रदेश (901) एवं उत्तरप्रदेश (898) में लिंगानुपात की दर निम्न है । 

स्त्रियों की स्थिति में सुधार के प्रयास - भारत में स्त्रियों की स्थिति सुधारने हेतु भारत सरकार ने निम्नलिखित कदम उठाये हैं -

  1. पिता की सम्पत्ति में पुत्रों के समान ही अधिकार दिया गया है। 
  2. बाल विवाह को रोकने हेतु लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 18 वर्ष कर दी गयी है। 
  3. ग्राम समाज, ग्राम पंचायत, नगरपालिका आदि में स्त्रियों के प्रतिनिधित्व की सीमा निर्धारित कर दी गयी है।
  4. नौकरी में पुरुषों के समान अवसर प्रदान करने हेतु 30% आरक्षण का प्रावधान है। 
  5. शिक्षा के अधिक अवसर प्रदान किये गये हैं।

कार्यरत एवं अकार्यरत जनसंख्या की संरचना

किसी देश की सबसे बड़ी सम्पदा मानव होता है। मानव द्वारा ही आर्थिक विकास सम्भव होता है। किसी देश के आर्थिक-स्तर का अनुपात वहाँ के रहने वाले लोगों की श्रम शक्ति से ही लगाया जा सकता है। 

मानव उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों ही है । अतः उसकी शक्ति का तात्पर्य उसकी आर्थिक स्थिति, उत्पादन क्षमता तथा विज्ञान एवं तकनीकी स्तर से है। 

मानवीय संसाधन का विकास विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा द्वारा किया जाता है, जिससे मानवीय शक्ति अधिक शिक्षित, योग्य, निपुण एवं आधुनिकतम प्राकृतिक संसाधनों के समुचित विकास के उपायों से परिचित हो जाय । इससे देश का आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक स्तर ऊँचा उठता है। 

जनशक्ति - सभी प्रकार का वह मानवीय श्रम जनशक्ति  कहलाता है, जिसका कोई आर्थिक एवं लाभदायक उपयोग हो । इस दृष्टि से भारत की जनसंख्या को दो वर्गों में रखा जाता

  1. कार्यरत जनसंख्या 
  2. अकार्यरत जनसंख्या 

1. कार्यरत जनसंख्या - शारीरिक अथवा मानसिक तौर पर किसी भी आर्थिक दृष्टि से उत्पादक कार्य में लगे लोगों को श्रमिक कहा जाता है। ये लोग किसी आर्थिक या लाभदायक काम करके अपनी जीविका अर्जित करते हैं और देश के आर्थिक विकास में सहयोग देते हैं । इस वर्ग में 15 से 59 वर्ष तक की आयु के सभी कार्यरत लोग सम्मिलित हैं।

2. अकार्यरत जनसंख्या - वे व्यक्ति हैं, जो आर्थिक दृष्टि से किसी उत्पादक कार्य में नहीं लगे हैं । इस श्रेणी में गृहणियाँ, विद्यार्थी एवं पेंशन पाने वाले लोग, आश्रम में रहने वाले लोग, चोर-उचक्के, भिखारी एवं 0-14 वर्ष की आयु संवर्ग के बालक और 60 से अधिक आयु संवर्ग के लोग सम्मिलित हैं। 

कम आयु के बच्चों व गृहणियों का कार्य आय या रुपये में नहीं आँका जाता है। बेरोजगार युवक, काम न कर सकने वाले पागल व अंपराधी भी इसी श्रेणी में आते हैं।

कार्यरत जनसंख्या को श्रमिक बल अथवा श्रम-शक्ति भी कहते हैं। पूरे देश में श्रमिकों की संख्या तथा कुल जनसंख्या में उनके अनुपात को ज्ञात करने से श्रम शक्ति का हमें आभास मिलता है। 

सन् 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की लगभग 39.77 प्रतिशत जनसंख्या कार्यरत है और 61-0 प्रतिशत जनसंख्या अकार्यरत् है जो कार्यरत् जनसंख्या पर भार का आभास देती है। विकसित देशों में कार्यरत् जनसंख्या का प्रतिशत बहुत ऊँचा है।

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